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आचारदिनकर (खण्ड-४)
प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि भावार्थ -
अरिहंत भगवान् को नमस्कार हो। (अरिहंत भगवान् कैसे हैं? तो कहते है कि) धर्म की आदि करने वाले हैं, धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाले हैं, स्वयं ही सम्यग्बोध को पाने वाले हैं, पुरुषों में श्रेष्ठ हैं, बल की अपेक्षा से पुरुषों में सिंह के समान हैं, पुरुषों में पुण्डरीक (कमल) के समान निर्लेप हैं, पुरुषों में प्रधान गंधहस्ती के समान हैं। लोक में उत्तम हैं, लोक के नाथ हैं, लोक के हितैषी हैं, लोक में प्रदीप के समान हैं, लोक में प्रद्योत (परमप्रकाश) करने वाले हैं। अभयदान देने वाले हैं, ज्ञानरूपी नेत्रों के देने वाले हैं, मोक्षमार्ग को बताने वाले हैं, सर्वजीवों को शरण देने वाले हैं, जीवन प्रदाता है अर्थात् अभय देने वाले हैं, बोध-बीज को देने वाले हैं। धर्म को देने वाले हैं, धर्म का उपदेश देने वाले हैं, धर्म के नायक, अर्थात् धर्म के नेता हैं, धर्मरूप रथ के सारथी हैं, धर्म में प्रधान चार गति का अंतर करने वाले हैं, चक्रवर्ती के समान हैं। अप्रतिहत ऐसे श्रेष्ठ ज्ञान-दर्शन को धारण करने वाले हैं। छद्मस्थ अवस्था से रहित हैं। स्वयं राग-द्वेष को जीतने वाले हैं, दूसरों को जिताने वाले हैं, स्वयं संसार सागर से तर गए हैं, दूसरों को तारने वाले हैं, स्वयं बोध पा चुके हैं, दूसरों को बोध कराने वाले हैं, स्वयं कर्म से मुक्त हैं, दूसरों को कर्म से मुक्त कराने वाले हैं। सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं तथा कल्याणरूप, अचल, भवरोग से रहित, अनंतज्ञानादियुक्त, अक्षय, बाधा-पीड़ादि से रहित, पुनरागमन से रहित, अर्थात् जन्म-मरण से रहित सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त कर चुके हैं, भय को जीतने वाले हैं, सिद्धि को प्राप्त कर चुके हैं, जो भविष्य में होने वाले हैं और वर्तमान में है - उन अरिहंतो को मेरा नमस्कार हो। विशिष्टार्थ - _ नमोत्थुणं में णं वाक्यालंकार है। नमोस्तु “नमस्कार करता हूँ" का सूचक है। कितने ही लोग इसका अर्थ पंचांग प्रणाम, अष्टांग प्रणाम एवं दण्डवत् प्रणाम ऐसा करते हैं।
अर्हताणं - जो चौसठ इन्द्रों द्वारा पूजने के योग्य हैं, उन्हें अरिहंत कहते हैं। कितने ही लोग अरूहंत या अरहंत पाठ भी बोलते
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