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आचारदिनकर (खण्ड-४)
63 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
तारयाणं भक्तों को संसार सागर से मुक्ति दिलाने के
कारण उन्हें तारक कहा गया है
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बुद्धाणं बिना किसी के उपदेश के स्वयंबोधित होने के कारण उन्हें बुद्ध कहा गया है।
बोहा शुद्ध उपदेश द्वारा विश्व को बोध कराने के कारण उन्हें बोध कराने वाले कहा गया है
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मुत्ताणं - कर्मबन्धनरूप चारगति के चक्र का नाश करने के कारण उन्हें मुक्त कहा गया है।
मोयगाणं भक्तों को कर्मबन्धन से मुक्त कराने के कारण उन्हें मोचक कहा गया है ।
सव्वन्नूणं केवलज्ञान के माध्यम से जीव - अजीवरूप सातों तत्त्वों को पूर्ण रूप से जानने के कारण उन्हें सर्वज्ञ कहा गया है । सव्वदरसीणं - दर्शनकाल के अभाव से सम्पूर्ण लोकाकाश के दृष्टा होने के कारण, अर्थात् सर्वदृष्टापणे का स्वभाव होने के कारण उन्हें सर्वदर्शी कहा गया है
शिव
उपद्रव से रहित होने के कारण जो शिव है
मयल
चलित ( अस्थिरता ) के गुणों से रहित जो स्थिर है । मरूय व्याधि और वेदनारूप शरीर और मन से रहित
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जो अरूज है ।
मणत
मक्खय
मव्वाबाह सर्व संकटों से जो रहित है।
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काल की अपेक्षा से जो अंतरहित है
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प्रलय होने पर भी जिसका कभी क्षय नहीं होगा ।
मपुणरावित्ति - पुनरागमन से जो रहित है ।
सिद्धिगई नामधेयं ठाणं संपत्ताणं - सर्वकर्मों का क्षय होने पर
जो प्राप्तव्य है, अर्थात् लोक के अन्त में स्थित सिद्धिगति नामक जो स्थान है।
नमो जिणाणं - जिनेश्वरों को नमस्कार हो ।
पूर्व में 'अर्हत्' शब्द का तथा अन्त में 'जिन' शब्द का ग्रहण विशिष्ट अर्थ में किया गया है। यहां पुनरूक्त दोष नहीं लगता है। जैसा कि आगम में कहा गया है।
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