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आचारदिनकर (खण्ड-४)
64 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि "स्वाध्याय, ध्यान, तप, औषधि, उपदेश, स्तुति, दान देने एवं संतजनों के गुणकीर्तन पुन-पुनः करने में पुनरूक्त दोष नहीं लगता
जियभयाणं - सात भयों से विजीत होने के कारण उन्हें जिअभयाणं कहा गया है।
यह शक्रस्तव शक्र द्वारा बनाया गया है तथा अग्रलिखित गाथा गीतार्थ मुनिजनों द्वारा बनाई गई है।
जे अ अईया सिद्धा - भूतकाल के अनेक उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी काल में जो तीर्थ का प्रवर्तन कर सिद्ध एवं मुक्त हुए हैं।
. जे अ भविस्संतिणागएकाले - अनागतकाल की उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी में सिद्ध एवं मुक्त होंगे।
संपइअवट्टमाणा - वर्तमानकाल में लोगों द्वारा आराधित होते हुए तीर्थ का प्रवर्तन कर रहे हैं, या विचरण कर रहे हैं, या शाश्वत जिनप्रतिमा के रूप में विराजमान हैं, उन सबको मैं मन, वचन एवं कायारूप त्रिविध योग से वंदन करता हूँ, नमस्कार करता हूँ।
___शक्रस्तव में दस विश्राम (स्थल), अर्थात् संपदा कही गई है, वह इस प्रकार है -
१. अरिंह २. आइग ३. पुरिसे ४. लोगो ५. भय ६. धम्म ७. अप्प ८. जिण ६. सव्वा।
शक्रस्तव की जो संपदाएँ पूर्व में बताई गई हैं, वे उन पदों की उपदर्शक हैं। यह शक्रस्तव की संस्कृत टीका का भावार्थ है। __ अब चतुर्विंशतिस्तव बताते हैं, वह इस प्रकार है -
"लोगस्स उज्जोअगरे धम्मतित्थयरे जिणे। अरिहंते कित्तइस्सं चउवीसं पि केवली ।।१।। उसभमजिअं च वंदे संभवमभिणंदणं च सुमइं च। पउमप्पहं सुपासं जिण च चंदप्पहं वंदे।।२।। सुविहिं च पुष्पदंतं सीअल सिज्जंस वासुपूज्जं च। विमल मणंतं च जिणं धम्म संति च वंदामि।।३।। कुंथु अरं च मल्लिं वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च। वंदामि रिट्ठनेमिं पासं तह वद्धमाणं च।।४।। एवं मए अभिथुआ विहुयरयमलापहीणजरमरणा। चउवीसं पि जिणवरा तित्थयरा मे पसीयतु।।५।। कित्तिय वंदिय महिया जे अ लोगस्स उत्तमा सिद्धा।
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