________________
आचारदिनकर (खण्ड-४)
56 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि नमस्कार सब पापों का पूर्ण रूप से नाश करने वाला है और सब मंगलों में प्रथम मंगल है। विशिष्टार्थ -
अरिहंत - जो समस्त सुर एवं असुरेन्द्रों द्वारा पूजनीय हैं, उन्हें अरिहंत कहते हैं। जैसा कि आगम में कहा गया है - “जो वंदन, नमस्कार एवं सिद्धिगमन के योग्य होते हैं, उन्हें अरिहंत कहते हैं। अरिहंत चौबीस अतिशय तथा वाणी के पैंतीस गुणों से युक्त एवं अठारह दोषों से रहित होते हैं।"
__ सिद्ध - जो मुक्ति को प्राप्त करते हैं, उन्हें सिद्ध कहते हैं, अथवा जिन्होंने दीर्घकाल के बद्ध कर्मों को जलाकर भस्मीभूत कर दिया है, उन्हें सिद्ध कहते हैं। जैसा कहा गया है - “जो दीर्घकाल से संचित कर्मों को ध्वस्त करके सिद्धों के सिद्धि स्थान को प्राप्त करते हैं, उन्हें सिद्ध कहते हैं।
आचार्य - जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं वीर्यरूप पंचाचारों का स्वंय पालन करने वाले हैं, दूसरों के समक्ष उसका प्ररूपण करने वाले हैं, तथा शैक्ष्य आदि मुनियों को भी पंचाचार बताने वाले है, उन्हें आचार्य कहते हैं। जैसा कि आगम में कहा गया है - “जो पंचविध आचार का पालन करते हुए दूसरों को भी आचार-मार्ग बताते हैं, उन्हें आचार्य कहते हैं।
उपाध्याय - जिनके समीप द्वादशांगी का अध्ययन या पठन किया जाता है, उन्हें उपाध्याय कहते हैं। जैसा कि आगम में कहा गया है - "बारह अंग आगमों, जिन्हें अर्थ से जिनेश्वर परमात्मा ने प्ररूपित किया है और जिन्हें गणधरों ने सूत्ररूप से ग्रंथित किया हैं, का शिष्यों को अध्ययन कराने के कारण, उन्हें उपाध्याय कहा जाता
सर्वसाधु - जो मोक्षमार्ग की साधना करते हैं, उन्हें साधु कहते हैं। जैसा कि कहा गया है - साधुजन “निर्वाण में साधक यौगिक क्रियाओं की साधना करते है और सर्वजीवों पर समवृत्ति धारण करते हैं, इसी कारण से उन्हें साधु कहा जाता हैं। आचार्य, उपाध्याय एवं साधु लोक में ही होते हैं, इसलिए यहाँ लोक शब्द का ग्रहण किया
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org