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श्रीमद्भगवद्गीता
नष्ट करूंगा ? – उस समय में “मन्त्र" उत्- चारण-शक्ति संकुचित हो जाता है, प्राणका आकर्षण किस प्रकार सम्भव होवेगा ? और भी इस ममत्व करके ही हमारी वृद्धि एवं इस बुद्धिसे ही हमारी समृद्धि या विभूति है; इस ममत्वके बलसे विश्वको मैं-मय (जैसे इक्षुरस में ) चीनी ) करता हूं तथा प्राकृतिक बुद्धिबलसे तत्त्व-निरूपणसे विज्ञानविद् होकर विभूतिवान् हुआ हूँ. - इसलिये ये दोनों ही तो हमारे पूजनके - योग्य हैं, नाश करनेके लिये नहीं !” ऐसा ही भ्रम होता है ॥ ४ ॥
गुरूनहत्वा हि महानुभावान्
श्रेयो भोक्तु भैक्ष्यमपीह लोके । हत्वार्थकामस्तु गुरुनिदैव
भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥ ५ ॥
अन्वयः। महानुभावान् गुरून् अहत्वा ( गुरुवधमकृत्वा ) इह लोके भैक्ष्यम ( भिक्षान्नं ) अपि भोक्तु हि ( निश्चितमेव ) श्रेयः ( उचितं ) गुरून् हत्वा तु इह एव रुधिरप्रदिग्धान् ( रुधिरलिप्तान् ) अर्थकामान् (अर्थकामात्मकान् ) भोगान् भुञ्जोय ( अश्नीयाम् ) ॥ ५ ॥
अनुवाद | इन सकल महानुभव गुरुगणको बिना वध किये अगर चे मुझे इस लोक में भिक्षान्न भोजन करना हो, तब भी कल्याण- कर है; किन्तु इन लोगोंको "निधन करने से इस लोकमें ही आत्मीयके रुधिरलिप्त अर्थ कामका उपभोग करना होगा ॥ ५ ॥
व्याख्या । " अतएव अति प्रतापशाली उन दोनों को नष्ट न करके अगर चे इहलोक अर्थात् प्राकृतिक अधिपत्थमें रह कर काम्यकर्मसे अभावको आपूरण करना हो ( भैक्ष्य ), तब भी अच्छा तथापि उन दोनों को नष्ट कर प्रकृतिके ऊपर आधिपत्य मिलना 'अच्छा नहीं; क्योंकि अहंत्व न रहनेसे संवेद रहता नहीं तथा प्राकृतिक बुद्धि न रहनेसे, भला, बुरा भी रहता नहीं, उस अवस्था में विषय