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श्रीमद्भगवद्गीता में दृष्टि डगलेकी ओर रहनेसे विविध विषय-तरंगके आलोड़नमें अज्ञानके अंधियारेमें आच्छन्न होता है, स्वरूप दर्शन होता नहीं। मुक्ति-प्रकरणमें कार्यसे कारणका अनुसन्धान होता है, इससे दृष्टि एकमात्र मूलमें ही आवद्ध रहती है, इसलिये ज्ञानालोक करके स्वरूप दर्शन होता रहता है, तब पञ्चीकृत एव अपञ्चीकृत पंच महाभूत स्थूलसे सूक्ष्मतम हो करके कैसे पृथिवी जल, जल तेज, तेज वायु, वायु आकाश, आकाश तन्मात्रा इत्यादि हो करके इन सकलका पृथक् अस्तित्व मिट कर केवल मात्र "कारण" अवशिष्ट रहता है, वह देखनेमें आता है। वह कारण ही बीज है। उसका और कोई कारण नहीं है, किसी प्रकारके क्षय-वृद्धि-परिवर्तन भी नहीं है। यह बीज ही सत् है। जो महाशयगण मुक्ति-प्रकरणमें तत्त्वदर्शी होते हैं, वह सत्
और असत् दोनोंका ही अन्त जानते हैं, अर्थात् जानते हैं कि असत्का पृथक् अस्तित्त्व नहीं है, अस्तित्त्व सत्का ही है ॥ १६ ॥
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित् कर्तुमर्हति ॥१७॥ अन्वयः। येन इदं सर्वे ( जगत् ) ततं (व्याप्तं ) तत् तु अविनाशि विद्धि; कश्चित् अस्य अव्ययस्य विनाशं कत्तु न अर्हति ॥ १७ ॥
अनुवाद। जगत्व्यापी होकर जो महदात्मा हैं, उनको अविनाशिके रूपमें जानना ( इस अव्ययको कोई विनष्ट कर नहीं सकता ॥ १७॥
व्याख्या। जैसे एक मृण्मय घटका अणु परमाणु मट्टीके अतिरिक्त और कुछ नहीं, घड़ेको फोड़ देनेसे जो मट्टी हैं वही मट्टी ही रह जाती है, आत्मा और यह विश्व भी वैसा ही है। विश्वके टूटने फूटनेसे आत्माका कुछ नहीं होता, आत्मा जैसीकी तैसी ही रहती है। यह विश्व आत्मामय है, जैसे जलमें रस, इसलिये आत्मा छोड़ करके विश्वका कोई स्थान वतमान नहीं। जैसे एक जलका कठिन, तरल,