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श्रीमद्भगवद्गीता कुछ हो वह आवछाया आवछाया, फिर चंचलतामय; यही वैश्यवर्ण है। और तम प्रधान अवस्थामें अन्तराकाश गाढ़ा अन्धकार करके ढका रहता है, तब न चंचलता, न प्रकाश कुछ भी लक्ष्य नहीं होता, धारणा भी नहीं होती; यही शूद्रवर्ण है।
साधनाका पूर्वावस्था ही साधकका शूद्रवर्ण है। जबतक यह अवस्था रहे, तवतक अन्धवत् शरीरकी परिचा वा सेवामात्र ही होता है, बहिर्विषय छोड़ करके अन्तरका कोई किसीका अधिकार नहीं होता। पश्चात् साधनामें प्रवृत्त होके जब वायुको आकर्षण करके एक स्थानसे दूसरे स्थानमें आदान प्रदान कर सकें, तब मेरुदण्डके शिरा प्रशिराकी जड़ता धीरे धीरे नष्ट हो जाके एक स्वच्छन्दता आती रहती है, और अन्तरमें एक शक्तिकी वृद्धि होती है, उसमें क्रम अनुसार अंधियारा दूर होता रहता है, भीतरमें क्या जाने क्या है, कह करके एक बोध होता है, और शरीरके भीतर बाहरमें चंचलता की वृद्धि होती है; साधनामें यह अवस्था जबतक रहे तबतक साधकका वश्यवर्ण है। पश्चात् जब श्वास सूक्ष्म हो आके श्वेतरक्तिमोज्ज्वल ज्योति करके अन्तर आलोकित होता है, तब शरीर और मनमें एक तेजका संचार होता है, उसी तेजसे साधनक्लेश तुच्छ हो जाता है; इच्छानुरूप प्राणका उत्थान पतन होनेसे, उसके सहारेसे चक्र समूहके विविध स्थान प्रस्फुरित तथा दृष्टिगोचर होता है, और उसी उसी स्थानकी विभूति वा शक्तिविशेष अपना आयत्तम आता है; यह अवस्था ही साधकका क्षत्रियवर्ण है। अन्तमें इस अवस्थाके परिपाक काल करके जब रजोगुणकी चंचलता और तेज घट जाता है, और अन्तरकी लालिमा कट जाके उज्ज्वल श्वेतवर्गका विकाश होता है, तब शरीर
और मन शान्त, उद्वगरहित तथा प्रसन्न होता है; यह अवस्था ही साधकका ब्राह्मणवर्ण है। प्रणवमूल वेदमें अधिकार पाके, ब्रह्मविद्याको पूर्ण रूपसे प्रबोधित करके ब्रह्मवल लाभ करना हो तो, साधकको