Book Title: Pranav Gita Part 01
Author(s): Gyanendranath Mukhopadhyaya
Publisher: Ramendranath Mukhopadhyaya

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Page 340
________________ षष्ठ अध्याय ३०१ [ पिता पुत्ररूपसे आत्माका विस्तार करते हैं, इसलिये वह तातहैं। पुत्रको भी पिता तात कहते हैं। गुरु भी दीक्षा द्वारा शिष्यको दूसरा जन्म देकर द्विज करके आत्मज्ञानका विस्तार करते हैं । इसलिये शिष्य पुत्र तुल्य है। अतएव श्रीभगवान्ने स्नेह करके शिष्य अर्जुन को तात कह के सम्बोधन करते हैं ] ॥४०।। प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः। शुचीनां श्रीमतो गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥४१॥ अन्वयः। योगभ्रष्टः पुण्यकृता ( अश्वमेधादियाजिनां ) लोकान् प्राप्य (तत्र ) शाश्वतीः समाः ( बहून् सम्बत्सरान् ) उषित्वा ( वाससुखमनुभूय ) शुचीनां ( सदाचाराणां ) श्रीमता ( विभूतिमतां ) गेहे (गृहे ) अभिजायते (जन्म लभते ) ॥ ४१ ।। अनुवाद। योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यकर्मा लोगोंके लोक प्राप्त हा करके वहां बहु वत्सर निवास करते हैं, पश्चात् पवित्र और लक्ष्मीश्रीसम्पन्न लोगोंके घर में जन्म ग्रहण करते हैं ॥ ४१॥ व्याख्या। योगभ्रष्ट दो प्रकारका होता है; एक-मनमें विषयवासनाके उदयके लिये वैराग्य शिथिल होनेसे "अयतिः" होनेसे होता है; और दूसरा-कालके वशसे मृत्युमुखमें पतित होनेके समय तीव्र वैराग्य रहनेसे भी सम्चित कर्मदोष करके अनजान भावसे विषयाकर्षणमें पड़के अतिमृत्युपद में उठ जानेके पहले "योगान्चलितमानसः" होनेसे होता है। जो सब साधक भोगवासनाके वशमें पड़कर योगभ्रष्ट होते हैं, उन सबकी इस श्लोकके अनुसार गति होती है; और जिन सबको वैराग्य रहनेसे भी देव विपाकमें पड़ करके योगभ्रष्ट होना पड़ता है, उन सबकी गति आगेके श्लोकके अनुसार लाभ होती है। प्रथम प्रकारके योगभ्रष्ट पुरुष, मृत्युके बाद पारलौकिक फल भोग करनेके लिये, पुण्यवान लोग जिस जिस लोकमें जा करके वास करते

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