Book Title: Pranav Gita Part 01
Author(s): Gyanendranath Mukhopadhyaya
Publisher: Ramendranath Mukhopadhyaya

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Page 394
________________ अष्टम अध्याय ३५५ 'अनुशासितार' अर्थात् यह पुरुष ही विश्वका नियन्ता है। इसके आंखके साथ आंख मिलानेसे, एक ही दृष्टिमें ताकते रहते हैं, ऐसे ही देखने में आता है। ज्योंही देखनेवालेके आंखका पलक गिरता है, त्योंही पुरुषको आवरण शक्ति झांप देती है, किन्तु पुरुष एक ही दृष्टि से साक्षी स्वरूप वहीं खड़ा है। जो मैं भला बुरा काम काज (पुण्य वा पाप ) करता हूं, पलहीन चक्षुसे उन सबको वह पुरुष देखता है; मेरे हक्शक्तिको प्रकृति आवरण कर देती है इस करके, उस पुरुषके पास प्राकृतिक आवरण कोई काम नहीं कर सकता ; इसीलिये वह पुरुष नियन्ता है। "अणोरणीयांसं"-अणुसे भी अणु, सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म है। यह जो पृथिवीका अणु देखते हो, इस पृथिवीके एक अणुके भीतर जलके दश अणु हैं, तैसे जलके एक अणुके भीतर तेजके दश अणु हैं, एक तेज के अणुके भीतर दश वायुके अणु, और एक वायुके अणुके भीतर दश आकाशके अणु हैं। अतएव भूतोंके भीतर आकाशसे सूक्ष्म भूत और कोई नहीं हैं। इस अाकाशके एक अणुके भीतर दश ब्रह्माणु रहते हैं। इसलिये कहता हूं कि, यह पुरुष इन्द्रियोंके ग्रहणीय नहीं है । मन इन्द्रियोंका राजा है; जबतक मन रहता है, तबतक इस पुरुषका दर्शन नहीं होता, इस कारण करके उपदेष्टाने इस पुरुषको अणुसे भी अणु कहके निर्देश किया। साधक जब स्थूलातिस्थूल पृथिवीके अणुसे उत्तरगति लेकर जल, तेज, वायु, आकाशसे भी सूक्ष्म ब्रह्माणु को आक्रमण करते हैं, तबही उनका 'अनुचिन्तन' होता है। "सर्वस्य धातारम्" - सबका धारण कर्ता । जब साधक आकाश के अणुको परित्याग करके ब्रह्माणुको आक्रमण करता है, तब वह निर्विकार साक्षी स्वरूप होकर पुरुषपदको प्राप्त होता है, और इस पार्थिव अणुसे जगदीश्वरी माया पर्य्यन्त जो कुछ विस्तार है, उन

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