Book Title: Pranav Gita Part 01
Author(s): Gyanendranath Mukhopadhyaya
Publisher: Ramendranath Mukhopadhyaya

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Page 404
________________ अष्टम अध्याय 365 पहले पूर्वगगनमें जिस प्रकार ज्योति प्रकाश होती है, अन्तरमें भी उसी प्रकार ज्योति प्रकाश होते ही, तुम्हारा प्रभव अर्थात् पूर्वस्वरूप दर्शन होता है। परन्तु तुम एकही हो, केवल तुम्हारी दृष्टिका फेर है। 'सृष्टि-मुखी' दृष्टि और 'तुम-मुखी' दृष्टि // 16 // परस्तस्मात्त भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात् सनातनः / यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत् सु न विनश्यति // 20 // अन्वयः। तु (किन्तु ) तस्मात् अव्यक्तात् परः ( तस्यापिकारणभूत ) यः अन्यः सनातनः अव्यक्तः भावः (अस्ति ), सः सर्वेषु भूतेषु नश्यत् सु (अपि ) न विनश्यति // 20 // __ अनुवाद। किन्तु उस अव्यक्तसे भी ऊपर जो सनातन अन्य ( दूसरे) अव्यक्त भाव है, यह समस्त भूतोंके विनष्ट होनेसे भी नष्ट नहीं होता // 20 // ___ व्याख्या। अतएव तुम ब्रह्म, व्यक्त अव्यक्त दोनों मिलकर सनातन हो। तुम भूतों के भीतर हो, अथच अव्यक्त अर्थात् अतीन्द्रिय हो तथा भूतोंके परिवर्तनमें तुम्हारा कुछ अदल बदल नहीं होता। किसीको तुम विनाश भी नहीं करते, और किसीसे तुम विनष्ट भी नहीं होते। "मैं जैसा हूँ वैसा ही हूँ; जलका स्रोत और समय जैसा है, जन्म मृत्यु भी वैसा ही है" // 20 // अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् / यं प्राप्य निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम // 21 // अन्वयः। अव्यक्तः (भावः एव ) अक्षरः इति उक्तः (श्रुतिषु इत्यर्थः ); तं ( अक्षरसंज्ञकमव्यक्त ) परमां गतिं ( गम्यं पुरुषार्थ) आहुः ("पुरुषान्न परं किश्चित् सा काष्टा सा परागतिः" इत्यादि श्रुतयः ), यं ( भावं ) प्राप्य न निवर्तन्ते तत् मम परमं धाम ( विष्णोः परमं पदं ) // 21 // अनुवाद। अव्यक्त ही अक्षर है, इस प्रकार उक्त है; उसीको ( अव्यक्तसंज्ञक अक्षरकोही) परमागति कहा जाता है, जिनको पानेसे पुनरावृत्ति नहीं होता, पही हमारा परमधाम है // 21 //

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