________________ नवम अध्याय 361 पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः वेद्य पवित्रमोंकार ऋक्सामयजुरेव च // 17 // अन्वयः। अहं एव अस्य जगतः पिता, माता, धाता, पितामहः, वेद्य, पवित्रं, ओङ्कारः, ऋकसामयजुः एव च // 17 // अनुवाद। मैं ही इस जगत्का पिता, माता, धाता, तथा पितामह हूँ ; मैंही वेद्य, पवित्र, ओङ्कार, ऋक् साम, और यजुः है // 17 // ___ व्याख्या। जगतू अर्थमें जो जाता है। जो जाता है, उसका उत्पत्तिकर्ता “मैं” हूँ; क्योंकि, चित्तमें प्रतिबिम्बित हो करके मैं जो "मैं" कह करके अहंकार करता हूँ, उसी अहंकारसे ही सृष्टि होती है। इसलिये मैं सृष्टिका पिता व जनयिता हूँ। और "माता" ?-जो जिसके पेट में जनमता है, वही उसकी माता है। मैं असीम हूँ, यह ससीम जगत् मेरे पेट में ही रहा है, इसीलिये मैं माता हूँ। साधक ! अपने अधिक विश्रामको अल्प विश्राम देकर मिला लो। यह थोड़ा कम और वह अधिकसे अधिक है; यही मात्र प्रभेद है। "धाता" ।-जो धारण करके रहता है। वह देखो, वह भी वही 'मैं' हूँ; क्योंकि, मैं समस्तको गर्भमें धारण करके बैठा हूँ। ___"पितामह'।-सृष्टि के पहले जब माया हमसे पृथक् नहीं हुई थी, खारे जल सरीखे जब हममें घोली रही थी, वही मैं एक मैं हूँ। पश्चात चित्तमें प्रतिफलित बिम्ब एक मैं हूँ। तत्पश्चात् जगतका रचना माला और एक मैं हूँ तभी तीन 'मैं' हुआ। इस शेषवाले मैं का पितामह वह पहलेवाले 'मैं' हूँ। __ "वेद्य'। ज्ञाता ज्ञानसे जो जाननेके वस्तुको जानते हैं, उन्हींको ज्ञेय कहते हैं। अब साधक ! समझ लो, यह जाननेका वस्तु वह