Book Title: Pranav Gita Part 01
Author(s): Gyanendranath Mukhopadhyaya
Publisher: Ramendranath Mukhopadhyaya
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रणव गीता | श्री ज्ञानेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रणव गीता श्रीमत् स्वामी प्रणवानन्द गिरि परमहंस कृत् अनुभवाभाष भाषा श्रीमद् भगवद्गीता सम्पादक एवं प्रकाशक श्री ज्ञानेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, बि.ए., बि.एल. १६१७ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: श्री रामेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, ट्राष्टि JNANENDRA NATH MUKHOPADHYA PROPERTY TRUST प्रणव गीता भवन ५०, राजा बसन्त राव रोड, कलकत्ता-७०० ०२६ द्वितीय संस्करण-१९६७ सर्वाधिकार सुरक्षित मुद्रक : दक्षिणेश्वरी प्रेस १२/५, गोआवागान स्ट्रीट, कलकत्ता-७००००६ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञापन काशीधाम -प्रणवाश्रमके कईएक शिष्य एक रोज गीताकी आलोचना करनेमें प्रवृत्त होकर प्रणवाश्रमके अधीश्वर महात्मा योगीप्रवर परम पूजनीय श्री ६ गुरुदेव परमहंस श्रीमत् प्रणवानन्द स्वामीजीके चरणप्रान्तमें उपस्थित हुये थे; और भक्तिप्रणत मस्तक होकर साग्रह चित्तसे पूछे थे, कि 'हे गुरुदेव ! गीताका प्रकृत तस्व क्या है, उसे कृपा करके हम लोगोंको समझा दीजिये। उन लोगोंके इस उत्तम प्रश्नसे हर्षित होकर वह ध्याननिमीलित नेत्रमें क्रमशः जो जो उषदेश किये थे, उससे वह लोग जो कुछ प्रत्यक्ष किये, सुने, अनुभव किये और समझे थे उसीको बङ्गभाषामें गोताकी व्याख्या लिखकर श्रीयुक्त ज्ञानेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय वि.ए., वि.एल. ने प्रकाशित किया था। परन्तु वह व्याख्या बजभाषामें छपनेसे जो लोग बाला नहीं जानते वह लोग उसे नहीं समझते हैं। स्वामीजी महाराज के बङ्गाली शिष्योंको छोड़ हिन्दुस्तानी शिष्य भी बहुत हैं। उनके विशेष आग्रह और अनुरोधसे हिन्दुस्तानी जनसाधारणके उपकारके लिये उसी बंगला व्याख्याको हिन्दी भाषामें अनुवाद कराके १९१७ सालमें प्रकाशित किया था। ___यह ग्रन्थ धर्मपिपासु महाशय लोगोंके उपकारार्थ प्रकाशित हुआ। इससे उनके कुछ भी उपकार साधित होनेसे मेरा उद्देश्य सफल होगा। परिशेषमें, धर्मप्राण भावग्राही साधु व साधकवृन्द और पाठक महाशयोंसे हमारा सानुनय निवेदन यह है, कि वे लोग इस गीताके प्रथम संस्करणके दोषभागको परित्याग करके गुणभागको ग्रहण करें; और जो कुछ दोष देखें उसे अनुग्रह पूर्वक बन्धुभावसे हमको सूचित करके चिरवाधित करें। परवर्ती संस्करणमें इस व्याख्याको निर्दोष करनेकी चेष्टा करेंगे। इति । प्रणवाश्रम -प्रकाशक काशीधाम १६६७ शिवम् । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन द्वितीय संस्करण अस्सी वर्ष के बाद राष्ट्रीय भाषा में प्रणव-गीता का द्वितीय संस्करण प्रकाशित किया गया है। मैं आशा करता हूँ कि साधु, सज्जन एवं क्रियावान पाठकगण यह प्रथ पाठ करके उपकृत होंगे। श्री रामेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय प्रणव गीता भवन कलकत्ता-२६ ई. सन् १९६७ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ প্রবাসে Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ भंगलाचरणम् ज्ञात्वा सर्वरहस्यमात्मविषयं सर्वात्मजोऽपि स्वयं, यः कारुण्यवशेन तावदलिखद्वयासिकी भारतीम् । तं नत्वाखिलदेवपूजितपदं सर्वार्थसिद्धिप्रदं गीतायाःखलुयोगशास्त्रविहितं व्याख्यानमाख्यायते ॥ यस्मादस्य गुणाश्रयस्य जगतः सृष्टिस्थितिघ्रशन, यश्च कोऽपि विचित्रकौशलमयो धत्ते विभिन्नं वपुः । अन्तय मनसः परं हि पुरुषं पश्यन्ति रुद्धन्द्रिया, योगीन्द्राः प्रणमाम्यहं तमसकृन् निःश्रेयसप्राप्तये ॥ गीते ज्ञानमयि त्वमेव कृपया मद्बोधगम्या भव, वाणी नृत्यतु मे तथैव सरसा जिह्वाग्रभागे. सदा । यत्तेज्यात्ममयं रहस्यमतुलं प्रख्याप्य कल्याणदं.. .. ब्रह्मानन्दरसैः स्वभक्तिमधुरैः लिम्चयमज्ञानहम् ॥ अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाब्जनशलाकया, चक्षुरुन्मीलितं येन ममानुकम्पयैव च । अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरं, तत्पदं दर्शितं चैव तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ -प्रणवानन्द खामो Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंगलाचरण - सर्वात्मज होने पर भी जिसने करुणा परवश होकर आत्मविषयक सर्वरहस्यको जानके ( समझके ) व्यासदेवके समुदय वाक्य स्वयं लिखे थे, उस अतिल-देवपूजितपद सर्वार्थ सिद्धि प्रदान करनेवाले श्री गणेश .को नमस्कार करके मैं गीताकी योगशास्त्रानुसार व्याख्या प्रणयन करने में प्रवृत्त हुआ। जिनसे इस सुपाश्रय जगतकी सृष्टि-स्थिति-नाश-क्रिया सम्पादित होती है, जो एक हो करके भी विचित्र कौशलसे भिन्न भिन्न शरीर धारण करते हैं, जिनको योगीन्द्रगण इन्द्रिय रोधपूर्वक अन्तरमें तमसाके बाद स्थित पुरुष रूपसे अवलोकन करते हैं, उनको मैं निःश्रेयस प्राप्ति के लिये बार बार प्रणाम करता हूँ। __ हे ज्ञानमयि गीते ! तुम भी कृपा करके मेरी बोधगम्या होश्रो, वाणी भी सरस होकर मेरे जिह्वाग्रमें सर्वदा इस प्रकारसे नृत्य करे, कि जिसमें मैं तुम्हारे कल्याणप्रद, अतुल, अध्यात्ममय रहस्यको व्यक्त कर अज्ञ लोगोंको भी स्वभक्ति-मधुरित ब्रह्मानन्द रखसे प्राप्लुत कर सकू। - जिन्होंने कृपा करके मेरे अज्ञानाच्छन्न चक्षुको ज्ञानाञ्जन रूप शलाकासे खोलकर मुझको अखण्डमण्डलाकार चराचर व्याप्त तत्पदका दर्शन करा दिये, उन श्री श्रीगुरुदेवको नमस्कार करता हूं। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्री दुर्गा ॥ अवतरणिका २-गीता परिचय गीताका अनुशीलन करना हो तो पहले गीता क्या है सो जानना चाहिये। श्रीमत् स्वामी शंकराचार्य देवने स्वकीय गीता भाज्यके उपक्रमणिकामें इस विषयको विशदरूपसे विवृत किया है। गीतासेवियोंकी अकातिके तिमित्त गीताके परिचयके लिये उनकी उपक्रमणिकाका अविकल अनुवाद नीचे लिखनेकी चेष्टा की जाती है। .. “परब्रह्म नारायणसे अव्यक्त अर्थात् मूल प्रकृति की उत्पत्ति हुई। अव्यक्तसे एक अण्डकी उत्पत्ति हुई, उसो अण्डके भीतर इन समस्त लोक और सप्तद्वीपा मेदिनीकी सृष्टि हुई * । भगवान नारायणने इस जगतकी सृष्टि करके इसकी स्थितिके लिये मरीचि प्रमृति प्रजापतिगणको सृजन किया और उनको वेदोक्त प्रवृत्ति-लक्षणाक्रान्त धर्म प्रहण कराया। फिर सनकसनन्दादि मुनियोंको उत्पन्न करके उनको ज्ञान और वैराग्य लक्षणाक्रान्त निवृत्ति-धर्म बतलाया। "वेदोक्त धर्म दो प्रकारका है-प्रवृत्तिलक्षण और निवृत्तिलक्षण। उनमेंसे एक जो जगतकी स्थितिका कारण है, जो प्राणियोंका साक्षात . * म्ल... श्लोक यह है-“ऊँ नरायणः परोऽव्यकादम्बमव्यक्त-सम्भकं । अण्डस्यान्तस्त्विमे लोकाः सप्तद्वीपा च मेदिनी ॥” इस श्लोक में, सष्टि प्रकरण व्यक्त हुभा है। इस श्लोकका ऊँकार-ब्रह्म है, नारायण-पुरुषोत्तम है, अव्यमा मूल प्रकृति है, अण्ड-चतुविशति तत्त्व की समष्टि है, और लोकाः सप्तदीपा च मेदिनी-चौबीस तत्त्वसे निर्मित चदुर्दश भुवन है। साधन प्रकारणमें ४ । ५ चित्र देखो। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ . . अवतरणिका अभ्युदय और निःश्रेयस अर्थात् मुक्तिका निदान है उस धर्मको दीर्घकालसे श्रेयाकामी ब्राह्मणादि वर्णाश्रमी लोग पालन करते चले श्रा रहे हैं। कुछ कालमें वर्णाश्रमियोंकी विषयवासना द्वारा उनके विवेक । ज्ञान संकुचित हो जानेसे एवं धर्म अभिभूत और अधर्मकी वृद्धि होने से वह आदिकर्ता नारायण जगत की स्थिति और पालनका अभिलाषी होकर पृथिवीस्थ ब्राह्मणों की ब्राह्मणत्व रक्षाके लिये देवकीके गर्भ में वसुदेवके औरससे श्रीकृष्ण नाम ग्रहण करके अंशके साथ अवतीर्ण हुये। इसका कारण यह है कि ब्राह्मणत्वकी रक्षा होनेसे वैदिक धर्मकी रक्षा होती है और उसके अधीन वर्णाश्रम धर्मकी भी रक्षा होती है। ... "ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेज सम्पन्न वह भगवान जन्ममृत्यु रहित, भूतगणोंके ईश्वर और नित्यशुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव होकरके भी त्रिगुणाल्मिका मूल प्रकृति स्वरूपा स्वकीय वैष्णवी माया को वशीभूत करके लोकानुग्रहके निमित्त साधारण देहधारीयोंके सघश जन्म ग्रहण करते हैं । निजका कुछ प्रयोजन न रहनेसे भी जीवों के प्रति दयापरवश होकर शोकमोहसागरमें निमग्न अर्जुनको उन्होंने उस द्विविध वैदिक धर्मका उपदेश किया कारण कि अधिक गुणयुक्त पुरुष जिस धर्मको ग्रहण और अनुष्ठान करते हैं वह औरोंमें प्रचार होता है। सर्वज्ञ भगवान वेदव्यासने भगवदुपदिष्ट उस धर्मको ( महाभारतीय भीष्म पर्वके गीता पर्वाध्यायमें ) सात सौ श्लोकोंमें "गीता" नामसे संकलन किया है। "वेदार्थका सार संग्रहरूप इस गीता शास्त्रका अर्थ दुर्विज्ञेय है । उस अर्थको खुलासा करनेके लिये बहुतेरे लोगोंने पद, पदार्थ, वाक्यार्य और न्याय समूह विवृत किया है, परन्तु उन सबके परस्पर अत्यन्त विरुद्ध और अनेकार्थ बोधक होनेसे प्रकृत अर्थ निर्धारणके निमित्त मैंने लौकिक अर्थको ग्रहग करके संक्षेपसे विवृत किया है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता परिचय "सहेतुक संसारकी अत्यन्त निवृत्ति अर्थात् परामुक्ति ही इस गीता शास्त्रका मूल प्रयोजन है। सर्व कर्मको संन्यास करके आत्मज्ञान निष्ठा रूप धर्मके ग्रहणसे ही इसको लाभ किया जाता है। इसी. प्रकार गीतार्य धर्मको उद्देश करके ही श्री भगवानने अनुगीतामें कहा है-'जिससे ब्रह्मपद लाभ किया जाता है, वही सुपर्याप्त धर्म है।' उसमें और भी कहा है-जो पुरुष एकासनमें बैठके मौन होकर कुछ भी चिन्ता न करके परब्रह्ममें लीन होते हैं, उनके लिये धर्माधम शुभाशुभ कुछ भी नहीं है।' और भी कहा है-'संन्यास लक्षण ही ज्ञान है।' इस गीताके शेषभागमें भी अर्जुनको कहा है-'सर्वधर्मको परित्याग करके एकमात्र मेरे ही शरणापन्न हो जाओ'। जो प्रवृत्तिलक्षण धर्म अभ्युदय और वर्णाश्रमके उद्देश्यसे विहित हुआ है, वह देवादि स्थान प्राप्तिका कारण होने पर भी उसको निष्काम भावसे ईश्वरापितबुद्धि होकर अनुष्ठान करनेसे उससे सस्वशुद्धि होती है। शुद्ध सत्त्व पुरुष ज्ञाननिष्ठाके अधिकार प्राप्त होते हैं, और ज्ञानोत्पत्ति से मुक्तिलाभ होती है। इसी अर्थको उद्देश करके श्रीमगवानने गीता में कहा है-'योगी लोग यतचित्त और जितेन्द्रिय होकर कर्म समूह ब्रह्ममें अर्पण करके और निःसंग होके आत्मशुद्धिके लिये कर्मका अनुष्ठान करते हैं। "निःश्रेयस प्रयोजन और परमार्थतत्त्व, ये दो प्रकारके धर्म और परब्रह्मस्वरूप वासुदेवको विशेष रूपसे व्यक्त करके मैंने विशिष्ट प्रयोजन-सम्बन्ध-अभिधेययुक्त गीता शास्त्रको यथार्थ व्याख्या करनेको चेष्टा की; इसलिये कि गीतार्थ अवगत होनेसे ही समस्त पुरुषार्थ सिद्धि होती है।” श्रीमत् शंकराचार्यजी की उस उपक्रमणिका पाठ करनेसे गीताका पूरा परिचय मिलता है। असल बात यह है कि. गोता व्यासदेवसे लिखो हुई भगवन्मुखनिःसृत श्लोक माला है। इस कारण गीता Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवतरणिका माहात्म्बमें उक्त है कि यह गीता "स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता"। गीता की भित्ति कवि-कल्पना नहीं है, सचमुच यह ऐतिहासिक घटना मूळक है। जो लोग गीताकी ऐतिहासिकताके विषयमें तर्क वितर्क करते हैं, वह लोग दूरदर्शी नहीं हैं; गीताकी सत्यता देशकाल पत्रादिसे भी विच्छिन्न नहीं है; यह विश्वजनीन अविच्छिन्न ज्ञानप्रवाह स्वरूप है। इस विषयमें कुछ आलोचना की जाती है। किसी समयमें इस आयभूमि भारतवर्ष में श्रीकृष्ण नामीय स्थूल शरीरधारी एक सर्वशक्तिमान महापुरुष आविर्भूत हुये थे। उन्होंने अपनी असाधारण शक्तिसम्पन्न कृती शिष्य अर्जुनको युद्धक्षेत्रमें ही इस गीताशास्त्रका उपदेश किया था। काई कोई कहते हैं कि, युद्धक्षेत्रमें युद्ध प्रारम्भ होनेके ठीक पूर्व में गीता जैसा वृहत् व्यापारका संघटन होना असम्भव है; कुरुक्षेत्र युद्धके साथ इस गीताका संस्रव कविकल्पना मात्र है। उनको समझाने के लिये इतना ही कहा जा सकता है कि, पहिले तो श्रीकृष्ण स्वयं भगवान सर्वशक्तिमान हैं, उनका कार्य मनुष्य प्रकृतिके अतीत है। दूसरे, गीताका उपदेश करनेके समय में वह योगस्थ हुये थे, अर्जुनको भी योगस्थ किया था। योगस्थ अवस्थामें सूक्ष्म शरीरमें क्रिया होती है। उस समय एक लहमाके भीतर एक युगकी क्रिया भी हो सकती है, जैसे कि स्वप्नावस्थामें हमलोग दो एक मिनट में एक दीर्घकालव्यापी वृहत् व्यापारका सम्भोग कर लेते हैं। इसलिये गीताके साथ कुरुक्षेत्र युद्धके संस्रव सम्बन्धमें सन्देह करनेका कुछ कारण नहीं है। ___ किसीके मनमें ऐसा भी उदय हो सकता है कि, कुरुक्षेत्र युद्धके समयमें भगवानने अर्जुनको आद्यन्त गीताका उपदेश किया, उनके सम्बन्धमें सबही सम्भव है, परन्तु क्या युद्ध करनेमें प्रवृत होकर योग की आलोचनामें प्रवृत्त होना समयोचित है ? इसके उत्तरमें यह कहा Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता परिचय . जाता है कि नहीं, ऐसा नहीं; यह स्वाभाविक व्यापार-मानव प्रकृतिका अंग है। किसी कर्म करनेके प्रारम्भमें मन स्वभावतः पार्श्ववत्तीं और आनुषंगिक व्यापार और अवस्थाके वश विशेष प्रकारसे चालित होता है। जैसे कि किसी पवित्र देवस्थानमें किसी दुष्कर्मका अनुष्ठान करनेके लिये उचत होनेसे उस पवित्र स्थानके माहात्म्यसे मन स्वभावतः एक मुहूर्त्तके लिये भी अनुष्ठेय कर्मका दोष गुण विचार करनेमें प्रवृत्त होता है, यहां पर भी ठीक उसी प्रकार है। अर्जुन युद्ध में प्रवृत्त हुये सही, परन्तु जिस क्षेत्रमें उनके ख्यातनामा पूर्वपुरुषगण अनेक प्रकारके धर्म कार्यका अनुष्ठान कर गये, जिसकी गौरवस्मृति उनके हृदयमें सर्वदा जागरूक है, उसी क्षेत्रमें पदार्पण करके यागयज्ञादि न करके खजन और ज्ञाति नाशक कार्य में प्रवृत्त होनेसे क्या उनके मनमें कुछ भी द्विधा भावका उदय होना सम्भव पर नहीं है ? विशेषतः जिस कर्मका परिणाम अतीव भयावह और जीवन मंशयकर है, वैसा कठिन कार्य में प्रवृत्त होनेसे साधारणतः मन अतीव तीव्र उद्बोगसे आक्रान्त और संशय युक्त होकर क्षणकालके निमित्त भी कर्त्तव्याकर्त्तव्य विचारमें "मैं-मेरा" के स्वरूप-निर्णयमें स्वभावतः नियुक्त होता है। अजुनकी भी उसी प्रकार अवस्था हुई थी। इन सब संशयों की मीमांसा करना ज्ञानका विषय है, परन्तु योग बिना ज्ञान नहीं होता, फिर ज्ञान बिना योग मी नहीं ठहरता; यह दोनों परस्पर सापेक्ष पदार्थ हैं। अतएव ऐसी अवस्थामें युद्धक्षेत्र में योगका उपदेश असम्भव नहीं है। .. और एक बात है। कोई ऐसा भी कह सकते हैं कि, यदि गीता इतिहास और अध्यात्मशास्त्र दोनों ही हो, तौभी.गीताका ऐतिहासिक व्यक्तियोंको मानवचित्तके विविध प्रकार वृत्तियोंका नाम स्वरूप गण्य करना क्या कष्ट-कल्पना नहीं है १ . इस कारण गीता अवश्य कवि कल्पना रूपक मात्र है, इतिहासके साथ वास्तवमें इसका कुछ सम्बन्ध Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवतरणिका नहीं है। इस प्रकार उक्तिका उत्तर देना साधारणतः कुछ कठिन मालूम होता है, परन्तु जो लोग हिन्दु शास्त्रको मानते हैं उनके लिये कुछ कठिन नहीं है। शास्त्रमें है और श्रीमत् शंकराचार्यदेव भी अपनी गीताभाष्य की उपक्रमणिकामें कहा है कि, भगवान भूभार हरण और धर्म राज्यका संस्थापन करनेके लिये ही ( जैसे युग युगमें अवतीर्ण होते हैं, वैसे ) उस समय में भी "अंश" के साथ अवतीर्ण हुये थे। उनका अंश क्या है ? वह विश्वरूपी है; इस जगत्में जितने प्रकार चरित्र होना सम्भव है, वह समस्त ही उनका अंश है। विशेषतः जगत्में प्रकृतिको क्रीड़ामें काल वशसे ("महता कालेन" ) पराम्परा प्राप्त ज्ञान धर्म नष्ट हो जानेसे, उस ज्ञान धर्मको उज्ज्वल और स्थायी रूपसे बाह्य जगन्में पुनः प्रकाश करनेके लिये जिस जिस प्रकृति और चरित्रका प्रयोजन होता है, उन्होंने ( भगवानने ) आत्म विभूतिविस्तार करके उस उस प्रकृति और चरित्रको ही स्थूल रूपसे सृजन करके खुद अपने भी लौलाका उपयोगी शरीर धारण किया था। यह कहना अधिक है कि, उस समय जिन सब प्रकृति और चरित्रकी उन्होंने स्थूलरूपसे बाह्य जगत्में प्रकाश किया था, सो सब अन्तर्जगत् में मानव हृदयमें चिरन्तन वृत्तिरूपसे वर्तमान है। अन्तर्जगत् की अनुरूप क्रिया बाह्यगजत्में प्रकाश करके धर्मसंस्थापन करनेके अमिप्रायसे ही वह आविर्भूत हुये थे। इसलिये गीताको कवि-कल्पित रूपक कहा नहीं जा सकता। गीता स्वयं पद्मनाभिके मुखपद्मसे निकला है। जिस ज्ञानसे त्रिलोक पालित होता है, गीता उसी ज्ञान का समष्टि है ( "गीता ज्ञानं समाश्रित्य त्रिलोकी पालयाम्यह" )। इसलिये यहां भी कोई असंगति भाव लक्ष्य नहीं होता, और भी, गीता-उपदेशका देश-काल-पात्र (४र्थ अ. ३ श्लोक ) विचार करनेसे -स्पष्ट प्रतीयमान होता है कि, भगवानने अपने भक्त और सखा अर्जुन को कुरुक्षेत्र समर-प्रांगणमें उभयपक्षके मध्यस्थानमें गीताका उपदेश Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . गीता परिचय करके उनके योगराज्यके कुरुक्षेत्रके अनुरूप ही भोगराज्यमें कुरुक्षेत्रका संघटन किया था। इसका विपरीत भाव अनुमान करके गीताको कवि कल्पित रूपक कहना ठीक नहीं है। जब भगवानने अर्जुनको इस प्रकारसे गोताका उपदेश किया, तब संजयने व्यासदेवके प्रसादसे दिव्य दृष्टि लाभ करके श्रीकृष्ण-मुखनिःसत उस वचनावलीसे विदित होके धृतराष्ट्र के निकट अविकल वर्णना की। सर्वज्ञ भगवान व्यासदेवने जगत्के हितके लिये श्रीकृष्णार्जुनकी वही सब कथा अविकल लिपिबद्ध करके धृतराष्ट्र संजय-संवाद रूपसे महाभारतमें सन्निविष्ट किया है। सच है कि गीताका उपदेष्टा वह महापुरुष इस समय स्थूल शरीर . वारण करके वर्तमान नहीं है, परन्तु वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म आत्मस्वरूपसे सर्व प्राणियों के अन्तरमें वर्तमान है, वह नित्य है, और अनादिकालसे सर्व प्राणीके हृदयमें विराज करके वंशी वादन कर रहा है। मानव, वासना वश होके विषयके विषम फन्देमें पतित होनेसे, उनका उस मोहन रूप देखने और वंशीध्वनि सुनने नहीं पाता है। जो आत्म-योगानुष्ठान से आवरण-शक्तिको हटाके विषय अतिकम कर सकेंगे, वही उस पुरुष • का साक्षात्कार लाभ कर सकेंगे, वही उनको ( भगवानको ) अपने शरीरके धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र में प्रवृत्ति-निवृत्ति समूहके बीच में सारथी रूप से पावंगे और उनके मुखसे निम्स्त गीता श्रवण करेंगे। यह बात अभ्रान्त सत्य है, अमूलक कल्पना नहीं है, परन्तु ऐकान्तिक चेष्टांका प्रयोजन है। उद्यमशील पाण्डव लोगोंने भक्तिके बलसे भगवत्कृपा लाभ करके जिस प्रकारसे पृथिवीमें धर्मराज्य स्थापन किया था, सांधक भी उद्यमशील और भक्तिमान होनेसे ठीक उसी प्रकारसे भगवत् कृपालाभ करके अपने शरीरमें “असपत्नं ऋद्धं राज्यं' अर्थात् आत्म राज्य स्थापन कर सकेंगे। इसलिये गीता एकाधारमें ऐतिहासिक घटना भी है, आध्यात्मिक घटना भी है। इसलिये कहा गया कि, गीता इतिहास मूलक होकरके भी अविच्छिन्न ज्ञान प्रवाह स्वरूप है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्तरणिका - २-गीताका अधिकार गीता ब्रह्मविद्या स्वरूपिणी है। इसलिये समुदय विद्या ही इसके अन्तर्गत है। गीताकी सम्यक आलोचना करनेसे वह कल्पवृक्षके न्याय फलप्रसव करता है। गीता समुदय शास्त्रका सार है; इसलिये इसका प्रत्येक श्लोक बल्कि प्रत्येक पाद भी सूत्रसदृश अनन्त भाव प्रकाशक है; अतएव गीता सर्वतोमुखी है। इसको गुरूपदेश अनुसार भक्तिपूर्वक अनुशीलन करनेसे सर्वशास्त्रवेत्ता हुआ जाता है, पृथक् रूपसे दूसरे किसी शास्त्रका अध्ययन करना नहीं पड़ता। एक बात में, गीताको ज्ञानमयो कहा जा सकता है। इस जगत्में जो कोई जो कुछ भाव लक्ष्य करता है, गीताके अबलम्बनसे वह अपने अभीष्ट पयको सम्यक सद्भासित देखता है। समुदय धर्मक्षेत्रमें गीता ध्र + ज्योति सदृश नित्य और स्थिर है। इसकी व्यवहार जाननेसे यह घूर्णायमान आलोकके सदृश निरन्तर ईप्सित पथको लक्ष्य करा देती है। भगवानने खुद कहा है "गीता ज्ञानं समाश्रित्य त्रिलोकी पालयाम्यह"। वस्तुतः गीताका “ये यथा मां प्रपद्यन्ते तां स्तथैव भजाम्यहम्" यह वाक्य प्रकृत सत्य है; गीतीका व्यवहार जो जिस मक्सेि करेगा, वह उसी भाक्से इसको अपने अनुकूलमें फलदायक रूपसे देखेगा। असल बात यह है कि, गीता योगी के लिये योगशास्त्र, दार्शनिकके लिये दर्शन, ज्योतिविदके लिये ज्योतिष, वैज्ञानिकके लिये विज्ञान, नैतिकके लिये नीति और साधुके लिये सदाचार है। आर्य ऋषिके वाक्यानुसार असंकोचसे कहा जा सकता है कि, "ज्ञानेष्वेव समप्रषु गीता ब्रह्म स्वरूपिणी"। यह यथार्थ उक्त हुआ है कि-- ."गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः। ____ या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता ॥" गीता जो योगशास्त्र और विज्ञानशास्त्रं दोनों है, यह बात 'क्रियावान साधकको विशेष रूपसे जानना आवश्यक है, क्योंकि एक Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीताका अधिकार मात्र गीताका आश्रय करके ही वह ज्ञानविज्ञान वित् होके परम कारण में चित्तलय कर सकेंगे। इसलिये गीताका योग और विज्ञान विषय में कुछ आलोचना की जाती है गीता योगशास्त्र है। मानवकी चित्तवृत्ति का मनोवृत्ति समूह असंख्य हैं। असंख्य होने पर भी उनको पांच प्रकारकी अवस्थामें विभाग किया जा सकता है। चित्तके वह पाच प्रकार की अवस्था ये हैं, यथा,___(१) क्षिप्त। मनको अस्थिर और चंचल अवस्थाका नाम क्षिप्त अवस्था है। इस अवस्थामें मन एक न एक विषय ग्रहण और त्याग करनेमें ही व्यस्त रहता है, “स्थिर नहीं होता। यही इसका स्वभाव है। - (२) मूढ़। जब मन काम, क्रोध, निद्रा, तन्द्रा, आलस्य प्रभृति द्वारा अभिभूत होकर कर्तव्याकर्तव्य ज्ञानशून्य होता है तबहीं मनकी मूढ़ अवस्था है। . . । (३) विक्षिप्त। किसी एक सुखके विषय पानेसे मन उसीमें आकृष्ट होता है और उसोको अवलम्बन करके क्षणकालके लिये स्थिर होता है। परन्तु स्वभाव दोषके वश उसी दम पुनराय अस्थिर और चञ्चल होता है। इस क्षणविराम विशिष्ट चञ्चल अवस्थाका नाम ही विक्षिप्त अवस्था है। (४) एकाग्र। जब मन अन्तरके अथवा बाहरके किसी एक लक्ष्य को अवलम्बन करके, ( रजोका चंचलता और तमोका अभिभूतावस्था वा निश्चष्टता त्याग पूर्वक ) केवलमात्र सत्त्वके सहारेसे उसी लक्ष्य में स्थिर होकर उसीका स्वरूप प्रकाश करता रहता है, दूसरा कुछ अवलम्बन नहीं करता, तबही मनको एकाप्र अवस्था है। (५) निरुद्ध। और जब मन इस प्रकार एकाप्र होकर अपनेको भी भूल जाता है, कोई वृत्ति वा क्रिया रहती नहीं, अबलम्बन भो Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० अवतरणिका नहीं रहता, एकदम वृत्तिविहीन निरालम्बावस्था प्राप्त होकर अपने कारणमें मिलित वा युक्त होता है, तबही मनकी वा चित्तकी निरुद्ध अवस्था कही जाती है। । . इन पांच अवस्थाओंको प्रथम तीन अवस्था ही साधारण है, शेष दो अवस्थाको अभ्याससे आयत्त करना पड़ता है। चित्तवृत्तिकी उस निरोध अवस्थाका नाम ही योग है। उस उस निरोध-अवस्था प्राप्तिके लिये क्या करना पड़ता है और निरोधअवस्था प्राप्तिके पहिले कौन कौन अवस्था भोग करनी होती है और पीछे भी क्या होता है, वही सब बातें अर्थात् योगके साधन प्रकरण तथा पूर्व और परावस्था ही गीतामें शुरूसे आखिर तक लिखी है । गीता अध्ययन करनेसे ही यह बात स्पष्ट मालूम होता है। इस कारण उसको सप्रमाण करना आवश्यक नहीं है। साधनाका तीन अवस्थायें हैं। पहिले विश्वास करके क्रिया करना होता है, उसीसे विश्वास दृढ़ होनेसे भक्तिका विकाश होता है। भक्तिके परिपाकसे ज्ञानका उदय होता है। साधनाका यह विश्वासभक्ति-ज्ञान ही यथाक्रमसे गीताका कर्म उपासना और ज्ञान यह तीन विभाग हैं। गीताका प्रथम छः अध्याय कर्म, द्वितीय छः अध्याय उपासना और आखिरी छः अध्याय ज्ञान है। गीता इन तीन षटकों में विभक्त है। गीताका एकके बाद एक अध्याय योगसाधनाका ही एकके बाद एक क्रम है। योगसाधनमें प्रवृत्त होकर साधक एक एक करके जैसी जैसी अवस्थाको प्राप्त होता है, वही गीतामें एक एक अध्याय करके लिखा है। उसका क्रम ऐसा है यथा . साधक मायाके वशसे “अहं ममेति" संसार मोहसे मोहित रहनेके लिये पहलेही वैराग्य द्वारा संसार-वासनाको नाश करने में उद्यत होते ही विषादग्रस्त होते हैं (१ म अ.); बाद इसके गुरुकृपासे Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीताका अधिकार ११ सांख्यज्ञानमें अर्थात् संख्यागणना द्वारा सत् और असत्की पृथकवा समझ करके (२य अः) कर्मानुष्ठानमें प्रवृत्त होते हैं (३य अ) उसके बाद कर्ममें अभिज्ञता (ज्ञान ) लाभ करके (४र्थ अः) प्राणापानको समता साधन पूर्वक शुद्धचित्त होके कर्मका वेग नाश करते हैं (५म अः); उसके बाद स्थिर धीर अवस्था प्राप्त होकर ध्यानमें प्रवृत्त होते हैं (६ष्ठ अः) यही छः अध्याय है गीताका कर्मकाण्ड पश्चात् ध्यानके फलसे क्रमानुसार ज्येयवस्तुके सामीप्य प्राप्त होकर साधक ज्ञानविज्ञानविद् होते हैं (ज्म अ.); उसके बाद अपुनावृत्ति गति प्राप्तिके उपाय स्वरूप तारक ब्रह्मयोग अवगत होते हैं (८म अ), तदन्तर. आत्माका जगद्विलास प्रत्यक्ष करके राजविद्या-राजगुह्य योगारूढ़ होकर (हम अः) सर्व विभूति अवगत होते हैं. (१०म अः) परमेश्वरकी विभूति मालूम होते ही मनके उदार हो जानेसे विश्वरूप दर्शन होता है (११श अः ), विश्वरूपमें आत्माका अनन्तरूप दर्शन करके साधनको. भक्ति वा आत्मैकानुरक्तिका चरम विकाश स्वरूप आत्मज्ञान बाभ होता है (१२श अः)। यह छः अध्याय ही गीताका उपासनाकाण्ड है। इसमें कर्म और ज्ञान मिला हुआ है। आत्मज्ञान लाभ होनेसे ही ययाक्रम-प्रकृति-पुरुपकी पुनकता ( १३श अः), गुणत्रयको पृषकताः (-१४स बार, अक्षर और पुरुषोत्तमकी. पृषकता ( १६श अः) दैवासुर-सम्पदकी पृथकता (१६श अः) और श्रद्धात्रयकी पृथकता . (१५श )-इन सब विषयोंका ज्ञान लाभ होता है। उसके बाद सल्यासका तस्व अवयव-होकर साधक सर्वधर्म परित्याहा करके मोक्षलाभ करते हैं ( १८श अः)। यह अन्तिम छः अध्याय ही गीताका ज्ञानकाण्ड है। इससे मालूम होता है कि क्रियावान साधक अब अच्छी तरह समझ सकेंगे कि योजनुष्ठान करने में यही गीता उनका एकमात्र अबलम्बनाई। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अवतरणिका ___ गीता विज्ञान शास्त्र है। स्वभावके कार्य विषयमें विशेष प्रकार ज्ञानका नाम विज्ञान है। स्वभाव वा प्रकृति दो प्रकार की है-जड़ और चैतन्य । जड़ विषयमें जो विशेष ज्ञान है वह जड़ विज्ञान; और चैतन्य विषयमें जो विशेष ज्ञान है वह चैतन्य विज्ञान है। क्षिति, अप, तेज मरुतू, व्योम-यह पञ्चभूतके जड़ाश्रय होनेसे इन सबके विषयमें जो विशेष ज्ञान है, उसको जड़ विज्ञान; और मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त-इन चार प्रकारके अन्तःकरणके चैतन्याश्रय होनेसे, इनके सम्बन्धमें जो विशेष ज्ञान है, उसको चेतन्य विज्ञान कहते हैं। . पृथ्वीतत्व, रसतत्त्व, तेजस्तत्व, वायुतत्त्व और आकाशतत्त्व-इन सब तत्त्वका मिश्र तथा अमिश्र क्रियाकलाप देखना और इनमेंसे स्थूल के ऊपर सूक्ष्मकी कार्यकरी शक्तिका प्रयोग तथा तत्साधनोपयोगी विविध उपाय उद्भाबन-प्रभृति क्रिया ही जड़ विज्ञानका विषय है। जड़तत्वको आलोचना करनेसे मालूम होता है कि तत्त्व जितना सूक्ष्म होवेगा, उसको संयत करनेसे स्थूलतत्त्वके ऊपर उसकी कार्यकरी शक्ति उतनी ही अधिक होवेगी। अब यह स्थूल पचतत्त्वसे मन-बुद्धिअहंकार-चित्त यह चार पाद विशिष्ट अन्तःकरण अतीव सूक्ष्म हैं। इस चित्तादि पार्दै विशिष्ट सूक्ष्मतत्त्वको संयत करनेसे यह पृथिव्यादि स्थूलतत्त्व समूहके ऊपर किस प्रकार क्रिया करके किस जगह कैसा फल उत्पन्न करता है, और इसको अपने कारणमें युक्त करनेसे भी इसका किस प्रकार परिणाम होता है, उस उस विषयका तत्स्वानुसन्धान करना ही चैतन्यविज्ञानका विषय है। जड़विज्ञानसे केवलमात्र विषयश्रीकी वृद्धि होती है, परन्तु, चैतन्यविज्ञानसे विषयश्री तथा परमार्थश्री दोनोंकी ही वृद्धि होती है। जड़विज्ञान चैतन्यके ही अन्तर्गत है। चैतन्यविज्ञानविद् होनेसे सर्वज्ञत्वशक्ति आती है जिसमें जड़विज्ञान भी आयत्त होता है। ज्ञानविज्ञानविद् योगीगणने निर्णय किया है कि अन्त:करणवृत्ति वा चित्तवृत्तिको संयत करके प्राकृतिक Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीताकी व्याख्याका कारण और उद्देश्य तत्त्व पर आरोपित करनेसे विभूति लाभ होता है और अपने कारण में युक्त करनेसे कैवल्य प्राप्ति होती है। यह सब वैज्ञानिक तत्व एकमात्र योगानुष्ठानसे ही विदित हुआ जाता है। गीता भी, उसी योगमार्गको प्रत्यक्ष कराके, किस प्रकारसे विज्ञानविद् हुआ जाता है तथा ज्ञान लाभ किया जाता है, उसीका उपदेश किया है। गीताके ४र्थ अध्यायका द्रव्ययज्ञ हो जड़विज्ञान है और अन्यान्य ज्ञानयज्ञ ही चतन्य विज्ञान है। इसके व्यतोत, भगवत्सत्वा और उसके विश्वरूपमें. विभिन्न विलास ही यथाक्रमसे ज्ञान और विज्ञान रूपसे ७म अध्याय में वर्णित हुआ है। विज्ञानविद् होनेसे जिस जिस विभूतिका विकाश होता है वह १०म अभ्यायमें वर्णित हुआ है और ज्ञानद्वारा सन्न्यास अवलम्बन करनेसे जो कैवल्य-स्थिति वा पराशान्ति प्राप्ति होती है उसका प्रकरण १८श अध्यायमें ६१-६२ और ६५-६६ श्लोकोंमें व्यक्त हुआ है। इस गीताकी क्रियानुष्ठानसे जितनी ही आलोचना की जायगी, उससे मालूम हो जायगा कि, यह (गीता) विज्ञानशास्त्रका सार है। ३-गीताकी व्याख्याका कारण और उद्देश्य पूज्यपाद शंकराचार्य तथा श्रीधरस्वामी प्रभृति महात्माओंने भाष्य-टीका आदि लिखकर गीताके रहस्यपूर्ण अर्थको सरल कर दिया है और अधुनातन कालमें भी अनेक महापुरुषोंने हिन्दी-बंगला प्रभृति भाषाओंमें गीताकी व्याख्या करके मानवोंका विशेष हितसाधन किया है। वही सब संस्कृत-बंगला-हिन्दी प्रभृति भाषाओंमें लिखित व्याख्या मनुष्यकी आदरणीय है। उन सबके वर्तमान रहनेसे गीता के दूसरे व्याख्यानकी आवश्यकता नहीं है। परन्तु गीता योगशास Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ . अवतरणिका है। जो लोग योगमार्गमें विचरण करना प्रारम्भ करते हैं, वे लोग इन सब भाष्य-टीका-टिप्पणि प्रभृतिओंसे अपनी क्रियापद्धतिका प्रकृत आभास प्राप्त नहीं कर सकते। इसका कारण यह है कि, एक तो संस्कृत भाष्य-टीका आदि सबका साध्यायत्त नहीं है, दूसरा शंकराचार्य-प्रभृति महात्माओंने गीताका समुदय रहस्य भेद करके भी, लौकिक बहिमुख अर्थको प्रधान करनेसे, अल्पज्ञ लोग उसमेंसे अन्तमुख अर्यको प्रहण करने में समर्थ नहीं होते। असलमें, गीताका सम्पूर्ण प्रकृत योगशास्त्रीय व्याख्या नहीं है कहनेसे भी अत्युक्ति नहीं होता। इधर, योगसाधनामें गीताको छोड़कर दूसरा उपाय भी नहीं है। साधक लोग जो कुछ करेंगे, प्रतिपदमें उनको गीताका आश्रय लेना हा पड़ेगा नहीं तो विघ्नग्रस्त होवेंगे; परन्तु गीताका प्रकृत: योगार्थ अवगत न रहनेसे गीताका प्रकृत अभिप्राय नहीं समझ सकते। उनके इस अभावको दूर करनेके लिये शंकराचार्य और श्रीधरस्वामी इन दो महात्माओंके पदानुसरण करके गीताका योगशास्त्रीय व्याख्या प्रणयन करनेमें प्रयत्न किया गया। संस्कृताभिज्ञ पाठकोंके सुविधाके लिये प्रति श्लोकका संस्कृत अन्वय देकर साधारणके लिये अनुवाद दिया गया है। उसके बाद योगशास्त्रीय व्याख्या दिया गया है। इस व्याख्याको सर्वसाधारणको उपयोगी सरल करनेके लिये यथा सम्भव साधारण भाषामें लिखा गया है। कारण कि गीता साधारणकी सम्पत्ति है; इसके भाव-ग्रहणमें किसी को वञ्चित करना हमलोगोंका अभिप्राय नहीं है। . Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीताके कुछ शब्दोंका अर्थ ४-गीताके ( कतिपय ) कुछ शब्दोंका अर्थ गीता उपनिषदका सार और महाभारतका अङ्ग है। इसलिये प्रवृत्ति-धर्म और निवृत्ति-धर्म दोनों इसके अन्तर्गत हैं। प्रवृत्तिमार्गमें केवल भोग और सृष्टि है, निवृत्तिमार्गमें त्याग और मुक्ति है। योगसाधना निवृत्ति-धर्म है। गीताके योगार्थ समझना हो तो निवृत्तिधर्मके अनुसार शब्दोंका अर्थ करना होगा। इस कारणसे, प्रवृत्तिनिवृत्ति मार्ग भेदसे एकही शब्द किस तरह भिन्न भिन्न अर्थ युक्त होता है उसीको गीतामेंसे कुछ शब्दोंका अर्थ उदाहरणस्वरूप दिखाया जाता है__ (१) 'कर्म', 'विकर्म', व 'अकर्म'। कुछ करना ही 'कर्म' है, वह वाह्य क्रिया हो या प्राभ्यन्तरिक क्रिया उसमें कुछ बात नहीं है। एक कर्म कृत होनेसे चित्तमें जिस संस्कारकी उत्पत्ति होती है, उसके अवस्थाभेदसे परवती कर्मका पोषक, बाधक अथवा नाशक होता है; आशय यह है कि जिस प्रकार कर्मसे संस्कार उत्पन्न हुआ है, परवत्ती कर्म उसीके अनुरूप होनेसे ही, वह संस्कार उस परक्ती कर्मका पोषक होता है, नहीं तो बाधक अथवा नाशक। यह संस्कार ही 'विकर्म' है। यह जन्मजन्मान्तरीण कोंके फल होनेसे ही देव कहा जाता है। इसीसे जन्म और संसार-भोग होता है। कर्मानुष्ठानसे इसीका क्षय करना पड़ता है। प्रवृत्ति-निवृत्ति-मार्ग भेदसे कर्म और विकर्मका अर्थ भिन्न रूपसे नहीं लक्ष्य होता; केवल अकर्म सम्बन्धमें भिन्नार्थ लक्ष्य होता है। शास्त्रने जिन कर्मोका अनुष्ठान करना निषेध किया है, वही सब शास्त्र-निषिद्ध कर्म प्रवृत्तिमार्गके 'अकर्म' हैं। और कर्मानुष्ठान द्वारा कर्मक्षय होकर जो कर्म-विहीन अवस्था पाती हैं, वही निवृतिमार्गका अकर्म' है; इस अकर्मको ही 'नैष्कर्म्य ( १८ श्रः ४६ श्लोक) कहते हैं। [जो कर्म शास्त्र-निषिद्ध नहीं है, उसका अपव्यवहार होना ही कुकर्म कहा जाता है ] । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवतरणिका (२) 'ज्ञान', 'विज्ञान' व 'अज्ञान'। आत्मज्ञानका नाम 'ज्ञान' है और प्रत्येक तत्त्वके पृथक् पृथक् ज्ञानका नाम 'विज्ञान' है। बहुतेरे टीकाकार लोग विज्ञानके अर्थमें विगतज्ञान अर्थात् ज्ञानके अतीत अवस्था 'असम्प्रज्ञात समाधि' को बतलाये हैं, परन्तु इस योगशास्त्रीय व्याख्या में उस अर्थको नहीं लिया गया। तत्त्वोंके विशेष ज्ञान इस अर्थमें ही विज्ञान शब्दका व्यवहार हुआ है। टीकाकार लोग विज्ञान शब्दको जिस अर्थमें व्यवहार किये हैं, इस व्याख्यामें 'अज्ञान' शब्द को उसी अर्थमें व्यवहार किया गया है। इस कारण प्रवृत्ति-निवृत्ति भेदसे अज्ञानका दो अर्थ होता है। जीव माथाके वशसे विषयवासनामें लिपटके संसार-मोहसे मोहित और आत्मविस्मृत होकर जो "मेरा मेरा" करके भ्रमित होता है, वही प्रवृत्तिमार्गका "अज्ञान" है। और लययोगसे अकर्ममें उपनीत होनेके बाद जो वृत्ति-विस्मरणअवस्था आती है, जब अपनेको भी भूल जाना होता है, “मैं” कहने को भी कोई नहीं रहता है, वही निवृत्तिमार्गका "अज्ञान" है। उसी अज्ञानको "असम्प्रज्ञात समाधि” कहते हैं। . (३) "धर्म" व "धर्म"। जिस शक्तिको अवलम्बन करके इस विश्वको सृष्टि-स्थिति-लय क्रिया सम्पन्न होती है, उसीको धर्म कहते हैं; वही सत्य स्वरूप है। इस सत्यमें मिभ्याका आरोप होनेसे ही प्रवृत्तिमार्गका अधर्म होता है, इस अधर्मको पाप कहते हैं; इसलिये ज्यों ज्यों मिथ्याकी वृद्धि होती है, त्यों त्यों अधर्मकी भी वृद्धि होती है। परन्तु जो शक्ति सृष्टि-स्थिति-लयका धारक है, उसी शक्तिके अतीत पदमें, जहां सृष्टि-स्थिति-लय क्रिया नहीं है, जो नित्यधाम है, जहाँ अवलम्बन करके रहनेका कुछ नहीं है, केवलमात्र निरालम्बाबस्था ही वर्तमान है, वही निवृत्तिमार्गका अधर्म है; इस अधर्मको ही कैवल्यस्थिति कहते हैं। अतएव, कर्मके द्वारा कर्मक्षय करते करते ज्यों ज्यों निरालम्बावस्थाकी वृद्धि होती है, त्यों त्यों अधर्मकी वृद्धि होती है (४र्थ अः ७म श्लोक देखो)। . Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधनं प्रकरण [धर्म, व्यक्तिगत, समाजगत वा जातिगत भावसे विभक्त होनेवाला नहीं है। वह विश्वजनीन अविच्छिन्न वस्तु है। लोग इस विश्वजनीन धर्मके उद्देश्यसे जो जो क्रम बनाते हैं वा भिन्न भिन्न पन्थोंका अवलम्बन करते हैं, उसीको ही विधर्म कहा जाता है। विधर्म शब्द सापेक्ष है, किसीको साथ लिये बिना इस शब्दका व्यवहार नहीं हो सकता। अतएव हिन्दू, बौद्ध, ईसाई, मुसलमान प्रभृति जितना धर्म है वह सब परस्पर परस्परका विधर्म है। वैसे ही आत्मधर्मके पास प्राकृतिक धर्म विधर्म है। फिर एक तस्वके धर्मके पास दूसरे तत्त्वका धर्म विधर्म है । गीताका "परधर्मो भयावहः” इस वाक्यका परधर्म ही विधर्म है। विधर्म व्यभिचारग्रस्त होनेसे ही कुधर्म होता है। -:: ५-साधन प्रकरण अब योग साधनाके विषयमें दो एक बात लिखकर अवतरणिका समाप्त किया जाता है। यह विश्वजगत् आत्मासे विनिर्गत हुश्रा है,-"विश्वमात्मविनिर्गतम्"। इसलिये योगी लोग आत्माको छोड़ स्वतन्त्र ईश्वर वा किसी देव देवीकी आराधना नहीं करते। वे आत्म साधक हैं; आत्मप्रतिष्ठा वा ब्राह्मीस्थिति ही उनका परम पुरुषार्थ है। जो पदार्थ इस विश्वब्रह्माण्डका मूल कारण और सर्व शक्तिके श्राश्रय है, जो स्वभावत: सर्वव्यापी है और सर्व जीवके भीतर चैतन्यरूपसे प्रकाशमान है, उस अद्वितीय पदार्थमें मनःसंयोग करना ही उनका आशय है। कारण कि मनुष्य सुख चाहता है। तत्त्वदर्शी योगीन्द्रगण देखे हैं कि, जगत्में जितना पदार्थ है, उसमें मन लगानेसे जो तृप्ति और सुख मिलता है, बहः परिणामी, थोड़ा और अनित्य है। इसलिये परित्याग करनेके Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ अवतरणिका योग्य है। परन्तु जो वस्तु इन समस्त जागतिक पदार्थों के सृष्टि-स्थितिनाशका कारण है, उसमें मनको संयुक्त करनेसे जो सुखका उदय होता है, उसका और नाश नहीं है; वह अनन्त और नित्य होनेसे 'उपादेय' है। इसीलिये योगीगण अपने शरीरके भीतर ही उस अद्वितीय वस्तु सर्वशक्ति कारणमें मनःसंयोग करनेको यत्न ( अभ्यास ) करते हैं। वह सर्वशक्तिकारण अद्वितीय वस्तु ही “परमात्मा” है। वह इस शरीरमें कहां है, और किस प्रकारसे उसमें मनःसंयोग किया जाता है, तस्वदशी योगीन्द्रगण उसका भी निर्णय किये हैं। वह लोग देखे हैं कि, वह वस्तु सर्वव्यापी होनेसे भो मस्तिष्कके भीतर ब्रह्मरन्ध्रमें ही चतन्यमय स्वरूप विकाश है और प्रणव ही उसका वाचक है। उस ब्रह्मरन्ध्रमें उपस्थित होना होय तो, प्राणको अवलम्बन करके ब्रह्ममन्त्र प्रणवके साथ मेरुदण्डके भीतर भीतर मनको क्रमानुसार एक चक्रसे दूसरे चक्रमें उठाते उठाते भ्रमध्यमें लाकर स्थिर करना पड़ता है; उसके बाद मन किसी अलौकिक शक्तिसे प्राणके साहाय्य व्यतीत अनायाससे मस्तिष्कमें उठ जाकर ब्रह्मरन्ध्रमें प्रवेश कर सकता है, और वहां पर उस सर्वशक्तिकारणमें संयुक्त होकर अनन्त ब्रह्मानन्दमें विभोर हो जाता है। यही अतिमृत्यु पद है; यहां आनेसे फिर जन्ममृत्युके बालोड़नमें नहीं पड़ना होता। इस आनन्दावस्थाको प्राप्त करनेके लिये यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि नामके आठ प्रकारके साधना वा अष्टाङ्गयोगका अभ्यास करने होता है। यह अष्टप्रकार साधन प्रायत्त होनेसे मन को प्राकृतिक चतुर्विंशति तत्स्वके भीतर जहां चाहे वहां संयत किया जा सकता है, उससे अणिमा, लधिमा प्रभृति सर्व प्रकार सिद्धि लाभ होती है उसीको विभूति कहते हैं । परिशेषमें उत्तम वैराग्य द्वारा सर्व विभूतिको त्याग करके ब्रह्मानन्दानुभव-अवस्थाका भी त्याग होनेसे Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन प्रकरण सब निर्वाण हो जाता है, ज्ञान-शेय-ज्ञाता कुछ भी रहता नहीं, जो मूल है केवल वही रहता है; इसीको ही कैवल्य वा मुक्ति कहते हैं । यही योगशास्त्रका संक्षेप विवरण है। ___ मेरुदण्ड और मस्तिष्क ही योगीके आश्रय हैं। यही योगमार्ग भी हैं। यह मार्ग कैसा है और इसका बनावट कैसा, वही संक्षेपमें नीचे लिखा गया है, और समझने और समझानेके सुभीतेके लिये कुछ चित्र भी दिये गये हैं। मेरुदण्ड खोखला है। मस्तिष्क जिस उपादानसे बना है, वह खोखला भी उसी उपादानसे परिपूर्ण है। उस उपादानके ठीक बीच में से एक छिद्र युक्त नाड़ी बराबर गुह्यदेशसे मस्तिष्क तक फैली है; उस नाडीको सुषुम्ना कहते हैं। उस खोखलेके भीतर उसी उपादान से निर्मित्त एकके बाद एक करके १म चित्र कई एक पद्म हैं । गुह्यसंलग्नस्थल में चार दल-विशिष्ट एक पद्म है, उसको मूलाधाधर कहते हैं; लिङ्गमूलके ठीक सीधे स्थानमें छः दलविशिष्ट स्वाधिष्ठान नामका एक पद्म है; नाभिमूलके ठीक सीधे स्थानमें दश दल-विशिष्ट मणिपुर नामसे एक पद्म है; हृदय (अर्थात् दोनों स्तनके ठीक बीच) के ठीक सीधे स्थानमें द्वादश दल-विशिष्ट अनाहत नामक पद्म हैं; कण्ठमूल के ठीक सीधे स्थानमें सोलह दल इड़ा.......... पिङ्गला...... सुषुम्ना ....... Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवतरणिका विशिष्ट विशुद्ध नामक पद्म है, और दोनों भ्र के ठीक बीचमें दो दलविशिष्ट आज्ञा नामक पद्म हैं। ये सब पद्म चक्र भी कहते हैं। इसीलिये इन छः पद्मको षट्चक्र भी कहते हैं। इन सबके ऊपर मस्तिष्कमें सहस्र दल-विशिष्ट सहस्रार नामक पद्म है। (१म चित्र देखो ) सुषुम्ना इन सातों पद्मको भेद करके खड़ी है, ठीक जैसे कि सूत में सात पद्म गूंथा हुआ है। इनहीं सात पद्मको सप्त स्वर्गवा सप्तव्याहृति-स्थान कहते हैं। नाडीमात्रही अन्तःशून्य (खोखला ) नलके सदृश होता है। सुषुम्ना भी वैसी ही है। सुषुम्नाके भीतर स्वाधिष्ठानसे लेके ऊपर तक फैला हुआ वा नाम करके एक नाड़ी है और उसके भीतर मणिपुरसे लेके चित्रा नाम करके एक दूसरी नाड़ी है। इन तीन नाड़ियों के आकाशमय साधारण छिद्रको ब्रह्मनाड़ी कहते हैं । इस ब्रह्मनाडीका आकार योगीगण कहे हैं कि "केशाग्रस्य कोटीभागैकमार्ग” अर्थात् यह अति सूक्ष्म अतीन्द्रिय बुद्धिग्राह्य पदार्थ है। इड़ा और पिङ्गला नामक दो नाड़ियां यथाक्रमसे मूलाधारस्थ सुषुम्ना-मुखके वाम और दक्षिणसे उत्थित होकर प्रत्येक पद्मको वेष्टन करके परस्पर सुषुम्नाके साथ काटकर युक्त होते हुये श्राज्ञा पर्य्यन्त उठा है। विशुद्धके ऊपर गईन और मस्तकके खोलीके ठीक सन्धिस्थलको अर्थात् मस्तकको पीठके तरफ झुका देनेसे जिस जगह पर गढ़ा हो जाता है, उस स्थलको मस्तक-प्रन्थि कहते हैं। वह तीन नाड़ियां जितने स्थानमें परस्पर काटकर युक्त हुये हैं; विशुद्ध चक्रके ऊपर यह मस्तक-प्रन्थि भी उसमेंसे एक है। यहाँसे सुषुम्ना मस्तकके खोपड़ीके भीतर प्रवेश किया है, और इड़ा और पिङ्गला यथाक्रम, दहिने और बांये तरफसे होते हुये दोनों भ्र के बीचमें पुनराय Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन प्रकरण सुषुम्नाके साथ मिला है ( १म चित्र देखो)। वहांसे इड़ा वाम नासापुटमें और पिङ्गला दक्षिण नासापुटमें गयी है। ___ मस्तक-प्रन्थिसे सुषुम्नाकी गति कुछ विचित्र हो है ( २य चित्र देखो ) उस प्रन्थिसे सुषुम्ना दो शाखाओंमें विभक्त हुआ है उसमें से एक शाखा मस्तकके भीतर मस्तिष्कके नीचेसे थोड़ा टेढ़ा हो पाकर भ्र के पास थोड़ा ऊर्द्धमुख होकर आज्ञाके कर्णिकाको भेद करके इड़ापिङ्गलाके साथ मिला है; पश्चात् बाहर आकर उर्द्धमुखमें ठीक सीधा उठकर कपारके बीचो बीच २य चित्र स्थानमें भीतरी तरफ एक अतिसूक्ष्म छिद्रपार होकर भीतरमें प्रवेश करके थोड़ा सा झुककर थोड़ा वक्रगति लेकर ऊर्द्धमुखमें खड़ा होकर मस्तिष्कमें सहस्रारको भेद करके ब्रह्मरन्ध्रमें प्रवेश किया है। दूसरी शाखा मस्तकप्रन्थिसे ऊपर के तरफ खोपड़ीके नीचे नीचे शिखर तक (अर्थात् जहां शिखा रक्खा जाता है, वहां तक) इड़ा............ सीधे उठके, वहांसे थोड़ा पिङ्गला...... टेढ़े होकर ब्रह्मरन्ध्रमें प्रवेश किया है। सुषुम्नाके इस शाखाका ब्रह्मरन्ध्रस्थ मुख बन्द है, प्रथम शाखाका मुख खुला है। इसलिये एक शाखाके छिद्रके साथ दूसरे शाखाके छिद्रसे संयोग नहीं है। योगीके योगावलम्बनसे प्राण त्याग सुषुम्ना ....... Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ अवतरणिका होनेके समय सुषम्नाका वह ब्रह्मरन्ध्रस्थ बन्द मुख खुल जाकर दोनों शाखाके छिद्र मिलके एक हो जाते हैं। इसीका नाम ब्रह्मरन्ध्रकका फट जाना है। तीन नाड़ियां जितने स्थानमें परस्पर काटकर संयुक्त हुई हैं, सर्वत्र ऊपर नीचे दोनों तरफमें ही तीन तीन करके मुख हुआ है; परन्तु मस्तक-प्रन्थिमें सुषुम्ना दो शाखाओंमें विभक्त होनेसे वहां ऊर्ध्वदिशामें चार मुख हुई है। मस्तक-प्रन्थिके इस चारमुख-युक्त-स्थानमें मनको स्थापन करके, वहांसे ठीक सीधे भ्रमध्यमें मानस दृष्टि निक्षेप करना होता है, और प्राणको सुषम्नाके उस निम्नशाखासे भ्र मध्यमें प्रवाहित करना होता है। शरीर ही क्षेत्र है। गुणक्रियाक विभाग अनुसार यह शरीर तीन अशोंमें विभक्त है ( सं चित्र देखो)। दश इन्द्रिययुक्त सर्व शरीर एक अंश है। इसमें रजस्तमः ३य चित्र प्रधान है, इसका नामा कमे- सहस्रार ... क्षेत्र वा कुरुक्षेत्र है। मूला धारसे आज्ञा पर्यन्त षट्चक्र . आज्ञा . ... दूसरा अंश है; यहाँ सस्क- विशुद्ध ... रजः प्रधान; इसका नाम अनाहत .... धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र है। और मणिपुर ... बाझाके ऊपरसे सहस्रार तक स्वाधिष्टान ... "दशाङ्गुल" तृतीय अंश है, मूलाधार ... यहां सास्वतमः प्रधान है। इसका नाम धर्मक्षेत्र है । यह धर्मक्षेत्र निष्क्रिय भूमि है। वितरित्र अर्थात् धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र नामक षटचक्र ही साधन-समरका सीत्रको बात ही गीताके प्रथम श्लोकमें कहा गया है । (तमःसत्त्व प्रधान) | कुरुक्षेल पन पक्षव धर्मझव (रजःसत्त्व प्रधान) (२) (रजस्तमः प्रधान (१) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्म लस साधन प्रकरण साधनसमर-क्षेत्र षट्चक्रमें प्राणकिया (प्राणायाम ) द्वारा प्राणप्रवाहको सूक्ष्म और स्थिर करनेसे, मन आज्ञामें आरूढ़ होकर शान्तभावसे निष्क्रियपद परागतिमें जिस क्रमानुसार उठ जाता है, वह उपनिषदमें व्यक्त है; यथा "इन्द्रियेभ्यः पराह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिबुद्धरात्मा महान् परः॥ महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषो परः। पुरुषान्न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परागति ॥" (४र्थ चित्र देखो)। प्राणायाम द्वारा इन्द्रिय समूह निगृहित होनेसे 'अर्थ' अर्थात् सूक्ष्म तन्मात्रा . ४र्थ चित्र वा अन्तावषयका विकाश होता ह; इसी समयसे मनबुद्धि-अहंकार-चित्तके आवरण धारे धीर लय-प्राप्त होता रहता है, और प्रत्येक प्राक्रणम उस सवव्यापी अद्वितीय सर्वशक्ति कारणसे विविध प्रकार निर्वचनीय क्रियाशक्तिका विकाश होता। ह (४थं अः ५म और म श्लोकका व्याख्या देखो)। __ मस्तक-प्रन्थिसे भूमध्यमें मनके द्वारा स्थिरभाक्से दृष्टि निक्षेप करनेसे वहां जो चिदाकाश निदान मत वित Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवतरणिका अखण्डमण्डलाकार-पद-मध्यगत विन्दु देख पड़ता है, वही कूट है। यह कूट अव्यक्त और चित्तावरणके संयोग-मध्यमें पुरुषके समसूत्र स्थल में स्थित है ( ४र्थ चित्र देखो) इस कूटको भेद करनेसे प्राकृतिक आवरण समूह भेद हो जाता है। उस कूटके बहिर्भागमें अव्यक्तसंक्रम स्थलमें “कोटी सूर्यप्रतीकाशं चन्द्रकोटी सुशीतलं" जो चिज्ज्योतिका विकाश होता है, वही विवस्वान्-सविलमण्डल है, और भीतरी तरफ अखण्डमण्डलाकार चन्द्रमण्डल, परिदृष्ट होता है। महत्तत्त्व वा चित्तावरणके बाद वह जो आकाश है, उसको चिदाकाश कहते हैं, उसीको अव्यक्त भी कहते हैं। अव्यक्त शब्दसे अन्धकारको नहीं समझना, यह प्रकाशसे परिपूर्ण है; इसके अनन्त परिवर्तनशील विलासको वर्णन करके शेष नहीं किया जा सकता; जो थोड़ा बहुत कहने जाओगे वही नहीं हो जायगा, उसका कुछ भी ठीक ठीक समझा नहीं जाता; यही माया * है। इन्हींसे सृष्टिविकारका प्रारम्भ होता है इसीसे यह मूला प्रकृति है। इसका नाम असंख्य हैं परन्तु किसी नामसे इसका स्वरूप व्यक्त नहीं होता; इसलिये इसको अव्यक्त कहा जाता है। इस अव्यक्त पर्य्यन्तमें जो कुछ है वह सब असत् है। उस असतके ऊपर जो पुरुष है, वही सत्, और परागति * मा=नास्तिवाचक शब्द, या=अस्तिवाचक शब्द; इन दो अर्थ के मिलानेसे जो होता है वही माया है,-निर्णयके अतीत पदार्थ । भगवान्मे स्वयं कहा है "मम माया दुरत्यया"। युद्ध करके मायाको जय किया ( मायाका स्वरूप अवगत हुआ) नहीं जा सकता, चण्डी ( दुर्गापाठ ) में वही दिखाया गया है। मायाको अतिक्रम करने वा जय करनेका उपाय भगवान्ने कहा है-“मामेव प्रपद्यन्ते माया मेतो तरन्ति ते"। अव्यक्तका स्वरूप निर्णय करनेकी चेष्टा न करनी चाहिये, एकदम पुरुषपर लक्ष्य स्थिर करना होता है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन प्रकरण २५ है। पन्द्रहवें अध्यायका उत्तम पुरुष यही है, क्योंकि यह घर और अक्षरके अतीत है। मायामुक्त चैतन्य अर्थात् कूटस्थ-चैनन्य वा ईश्वर को अक्षर कहते हैं, और परा अपरा प्रकृतिको क्षर कहते हैं [५म चित्र देखो]। लययोगसे जब पुरुषका पुरुषत्व मिट जाता है, सत् और ५म चित्र MMENबखान वित्त सरतल धामा माया। (इस मायामुक्त चैतन्यका नाम ईश्वर है)। अविधा। वा अपरा प्रकृति। (इस अविद्याभुक चैतन्यका नाम पराप्रकृति घा जीव है। ( पञ्चभूत मिलाके) चौबीस तत्त्व होते असत् मिलके युक्त होके एक हो जाता है, तबही "सदसत् तत्परं यत्" हो जाता है, अर्थात् एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म हो जाता है [४र्थ चित्र देखो]। योगमार्ग और साधन प्रकरण सम्बन्धमें यह जो चित्रके साथ विवरण दिया गया, इसीसे प्रथम अभ्यासीगण इस विषयमें स्थूल स्थूल धारणा कर ले सकेंगे। इससे विशदभावमें समुदय विषयको Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवतरणिका सूक्ष्मरूपसे वर्णन करना निष्फल है; क्योंकि योग प्रानुष्ठानिक व्यापार है; पुस्तक पढ़के जो आनुमानिक ज्ञान होता है उससे कुछ फल नहीं है। अभ्यासियोंके लिये केवल इडा-पिङ्गला-सुषुम्ना नाड़ीत्रय और चक्र समूहोंके संस्थान अवगत होना विशेष प्रयोजन है इसलिये चित्रमें केवलमात्र उतना ही दिखाया गया; दूसरा कुछ नहीं। सद्गुरूपदिष्ट क्रियाके अनुष्ठानमें साधक ज्यों ज्यों अपनी साधना में उन्नति लाभ करेंगे, त्यों त्यों वह स्वयं योगके समुदय विषयको क्रमशः निजबोधज्ञानसे प्रत्यक्ष करेंगे और समझेंगे। अलम् । -प्रकाशक Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ श्रीमद्भगवदीता प्रारम्यते । ॐ तत् सत् ब्रह्मणे नमः । ॐ नारायणं नमस्कृत्य नररुचैव नरोत्तमम् । देवी सरस्वती व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ अथ करादिन्यासः। ॐ अस्य श्रीमद्भगवद्गीतामालामन्त्रस्य भगवान् वेदव्यास ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीकृष्णः परमात्मा देवता, अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादाश्च भाषस इति बीजं, सर्वधर्मान् परित्यन्य मामेकं शरणं बजेति शक्तिः, अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच इति कीलकं; नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नेनं दहति पावक इत्यङ्गुष्ठाभ्यां नमः, न चैनं क्लेदयन्त्यापोन शोषयति मारुत इति तर्जनीभ्यां नमः, अच्छोद्योऽयमद्राह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव चेति मध्यमाभ्यां नमः, नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातन इत्यनामिकाभ्यां नमः, पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रश इति कनिष्ठिकाभ्यां नमः, नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि चेति करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः। . अथ हृदयादि न्यासः। नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक इति हृदयाय नमः, न . चनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत इति शिरसे स्वाहा, अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेयोऽशोष्य एव चेति शिखायै वषट् , नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनावन, इति कवचाय हुं, पश्य मे पार्थ रूपाणि ग Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतशोऽथ सहस्रश इति नेत्रत्रयाय वौषट् , नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि र इति अस्त्राय फट् , श्रीकृष्णप्रीत्यर्थ पाठे विनियोगः। अथ न्यानम् । ॐ पार्थाय प्रतिबोधितां भगवता नारायन स्वयं व्यासेन प्रथिता पुराण मुनिना मध्ये महाभारतम् । अद्वतामृतवर्षिणी भगवतीमष्टादशाध्यापिनीमम्ब त्वामनुसन्दधामि भगवद्गीते भवद्वेषिणीम् ॥ १॥ नमोऽस्तु ते व्यास विशालबुद्धे . फुल्लाविन्दायतपत्रनेत्र । येन त्वया भारततैलपूर्णः प्रज्वालितो ज्ञानमयः प्रदीपः ॥२॥ प्रपन्नपारिजाताय तोत्रवेत्रैकपाणये । मानमुद्राय कृष्णाय गीतामृतदुहे नमः ॥३॥ सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः । पार्थों वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् ॥ ४॥ वसुदेवसुत देवं कंसचानूरमईनम् । देवकी परमानन्दं कृण्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ ५ ॥ भीष्मद्रोणतटा जयद्रथजला गान्धारनीलोत्पला शल्यप्राहवती कृपेण वहनी कर्णेन वेलाकुला। अश्वत्थामविकर्णधोरमकरा दुर्योधनावर्तिनी सोत्तीर्णा खलु पाण्डवै रणनदी कैवर्तकः केशकः ॥ ६ ॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाराशर्यवचः सरोजममलं गीतार्थगन्धोत्कटं नानाख्यानककेसरं हरिकथा संबोधनाबोधितम् । लोके सज्जनषट्पदैरहरहः पेपीयमानं मुदा भूयाद् भारतपङ्कजं कलिमलप्रवंसि नः श्रेयसे ॥७॥ मूकं करोति वाचालं पङ्गु लंघयते गिरिम् । यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम् ॥८॥ यं ब्रह्मावरुणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवैः वेदः साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः॥ ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः॥६॥ ओम् । Page #39 --------------------------------------------------------------------------  Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगणेशाय नमः। श्रीमद्भगवद्गीता । योगशास्त्रीय आध्यात्मिक व्याख्या। 'प्रथमोऽध्यायः ।। .. धृतराष्ट्र उवाच । धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सकः । ..... मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥१॥ .. : अन्वयः : धृतराष्ट्रः उवाच । हे संजय ! युयुत्सवः ( यो मिच्छन्तः)? आRET: ( दुर्योधनादयः मत्पुत्राः ) पाण्डवावे ( युधिष्ठिरादयः पाण्डपुत्राः) मर्मक्षेत्रे समवेताः ( मिलिताः सन्तः ) कि अकुर्वत ? ॥ १ry अनुवाद। धृतराष्ट्र पूछते हैं, हे संजय ! युद्धच्छु हमारे पुत्रगणने तथा पाहुपुत्रगणने युद्ध करने के लिये धमक्षेत्ररूप कुरुक्षेत्रमें मिलकर क्या किया ? ॥ १॥ __ व्याख्या। धृतं राष्ट्र येन सः "धृतराष्ट्र"। धृत शब्दसे पहिलेसे धारण करके रहे हैं जो, और राष्ट्र शब्दसे राज्यको समझना; जो महाशय पहिलेसे राज्य को धारण कर रहे हैं उन्हींको धृतराष्ट्र कहा जाता है। इस शरीररूप राज्यके सर्वत्र जिनका प्रभाव विस्तृत (फैला) है। शरीररूप राज्यको और सुख और दुःखका भोग करने वाला जो है उसीको धृतराष्ट्र जानना। इस शरीरके सुख दुःखका भोक्ता मन है। अतएव मनहीको धृतराष्ट्र कहके मानना। और मन जो है उसको स्वयं ( शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध ) विषय लेनेकी शक्ति नहीं है। ज्ञानेन्द्रिय ( कणे, त्वक, चक्षु, जिह्वा, नासिका ) की सहायतासे . सिक सहायतास Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता जो विषयसमूह शरीरके भीतर लिया जाता है मन ही उसका भोग करने वाला है, इसलिये मनको क हा जाता है। धृतराष्ट्र भी अन्ध हैं। "धृतराष्ट्र उवाज" वचनका अर्थ १म अध्यायके दूसरे और २१वें श्लोककी व्यापार _ "धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्र" इस शरीरका नाम क्षेत्र है। सत्व, रज, तम तीन गुणोंके क्रियाविभाग करके यह शरीर तीन अंशोंमें विभक्त है। दशों इन्द्रियां (कर्ण, त्वक्, चक्षु, जिला, नासिफल को पांच ज्ञानेन्द्रियाँ; और वाक , पाणि, पाद, पायु, उपस्थ ये पांच कर्मेन्द्रियां) इसका प्रथम अंश हैं; पीठकी रीढ़को ( मेरुदण्डको) आश्रय करके जो सुषुम्ना नाड़ो मूलाधारसे सहस्रार पर्यन्त विस्तृत है, वह सुकुम्मासंलग्न षटचक्र द्वितीय अंश है, और माझाचकके ऊपरसे सहसार पर्यंत “दशांगुल स्थान" तृतीय अंश है। प्रथम अंशमें वहिर्जगतके क्रियासमूह सम्पादित होते हैं। यह स्थान रजस्तमोप्रधान है। यहां निरवच्छिन्न कर्मप्रवाह वर्तमान रहनेसे इसका नाम "कुरुक्षेत्र" वा "कार्यक्षेत्र" हुआ। तृतीय अंश सत्वतम प्रधान है। इस स्थानमें क्रियाविहीन स्थिर प्रकाश वर्तमान है, इसलिये इसका नाम "धर्मक्षेत्र" हुआ। और द्वितीय अंश, जो मन बुद्धिकी लीलाभूमि है, जहांसे सूक्ष्मभूतसमूह बहिर्मुख होकर इन्द्रियोंको क्रियाशील करता है, पुनश्च अन्तर्मुख होकर आत्मज्योतिको प्रकाश करता है, वही सुषुम्नासंलग्नं षट् का रजसत्वप्रधान हैं। यह अंश धर्म और कर्म दोनों की श्राश्रयभूमि है इसलिये इसका नाम "धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र” हुआ। शरीरका यह अंश बजासत्वप्रधान होनेसे भी इसके विशेष २ स्थानमें उन दोनों गुणोंकी निया अल्पसधिक (ोड़ा बहुत) परिमाणमें है। जो स्थान मूलाधारके पास और कुरुक्षेत्रके निकट है, यहां रजोगुणका परिमाण अधिक, और सबगुणका कम है। वैसे ही जो स्थान आज्ञाचक्रसे भिड़ा हुआ और धर्म - ८ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोबके निकल कर जहां सताका परिमाण अधिक है और रजो मणका विमान कम और मूलाधार से जाचकके नीचेतक फैला हुआ मक्ष नाके तीनमें अर्थात् मणिपुरचको उन दोनों रजः सत्व) गरेका परिमाण बराबर है, इसलिये यहां "समान वायु” की अखस्थिति है। इस धर्मशेल मनकी बात ही इस लोका कही हुई ही योगमार्ग है। और आज्ञाचक अज्ञानतामय है इसलिये इसका दूसरा नाम अज्ञानचक है। क्रियाविशेषसे इस योगमार्गके भीतरसे उस अज्ञानचक्रको भेद करके परम शिवमें कुलकुण्डलिनी चिके मिलन करने का नाम ही “योग” है। . 5 . "मामकाः पाण्डबा" Phमामकाः' मनोवृत्तियोंको और "पाण्डवाः” बुद्धिवृत्तियोंको जीनना। अर्थात् स्वरूपज्ञान के प्रकाश करनेवाली वृत्तियोंको बुद्धिवृत्ति, और विपरीत ज्ञान को प्रकाश करनेवाली वृत्तियोंको मनोवृत्ति कहते हैं। विपरीत उसको कहते हैं जैसे दर्पण (आईना ) के सामने खड़े होनसे उसमें जो छायामूर्ति दिखलाई पड़ती है, उसको (छायाको) कार्याका स्वरूप विकाशं कह कर मन पहिले हो मान लेता है। परन्तु बुद्धिके द्वारा विचार करनेसे निश्चर्य होता है कि वह कायाका "स्वरूपविकाश नहीं है, किन्तु विपरीत विकाश है, अर्थात् शरीरका दक्षिण अंश छाया में वाम अंश रूपसे दिखलाई पड़ता है। इसलिये पूज्यपाद आय्य लोग कह गये हैं-"विश्वं दर्पणदृश्यमाननगरीतुल्य" । तंद्र पात्मज्ञान और जगद्धम काया-छायासम्बन्धवत् 'विमा सूतका गुंथा हुश्रा फूलका हार सदृश है। मन सामने जो कुछ देखता है, उसीको सच्चा मान लेता है और उसमें आकृष्ट होकर संकल्पविकल्परूप क्रिया करता रहता है। इन्द्रियोंमें प्रधान होनेसे और इन्द्रियग्राह्य विषयों द्वारा परिवेष्टित रहनेके सबबसे, मन सदा विषयमें आसक्त रहता है, क्योंकि संगसे ही प्राथमिकी गति Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता होती है, "संगांत् संजायते कामः"। इसलिये कहता हूँ कि, अन्त:करणका जो प्रवाह केवल विषयकी तरफ दौड़ता है, उसीको मनोवृत्ति जानना। यह प्रवाह, स्थान विशेषमें, दिक्भेद करके भिन्न भिन्न भावसे तरंगाायत है। उस एक एक तरंगको एक एक वृत्ति कहते है। वह जो विषयामिमुखा स्रोतका विभन्न अंगिमा है, वही "मामकाः" अर्थात् कामनासमूह है। यह सब ध्तराष्ट्क [ मनके ] शतपुत्र वा दुर्योधनादि शत भाई हैं। इन सबका प्रवत्त संसार स्खी वृत्ति वा अकर्त्तव्यनिचय ] कहते हैं; यथा काम, काध, लोभ मद, मत्सरता, निद्रा, तन्द्रा, आलस्य, राग, द्वेष, स्नेह, ममता इत्यादि। बुद्धि सामने जिसको देखती है उसीको निश्चय कर लेती है अर्थात् नाप लेतो है, आत्माही इसका नापनेवाला मानदण्ड है और नापनेसे वस्तु दो अंशों में विभक्त हुई है। प्रथम सत्-( "तदर्थीय कर्म" परिणामी होनेसे भी सत्में पहुँचा देनेके सबबसे इसीके अन्तर्गत ) जो नित्य और अपरिणामी है, और दूसरा असत्-जो अनित्य और परिणामी है। आत्माकी तुलनामें सत् और असत्रूपसे क्तुविभाग करनेको वस्तुविचार कहा जाता है। इस वस्तुविचारमें श्रात्मा मानदण्ड होनेसे बुद्धिवृत्ति अतीव सूक्ष्म भावसे तथा निरवच्छिन्न रूपसे, आत्माकी ओर प्रवाहित रहती है, यहो अन्तःकरणका द्वितीय प्रवाह है। यह भी भूतसमूहके संयोगसे भिन्न भिन्न भावोंमें तरंगायित . है। श्रात्माभिमुखी प्रवाहकी विभिन्नभंगिमा ही "पाण्डवाः” (पण्डा इति ज्ञाने ) अर्थात् कर्त्तव्यनिचय है। इन सभोंको निवृत्ति (असंसारमुखी वृत्ति ) कहते हैं; यथा विवेक, विचार, वैराग्य, शम, दम, तितिक्षा, उपरति, श्रद्धा, समाधान, मुमुक्षुता इत्यादि । 7. मनुष्य में सदाही ये दोनों प्रवाह क्रियाशील रहते हैं। उसके फलस्वरूप विभिन्न विषयसंसर्गसे चाहे पहिला, या दूसरा-या दोनों ही मिश्ररूपसे अदल बदल कर कुछ कालके लिये प्रबलतर हो उठते हैं; Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय लेकिन कोई भी स्थायी नहीं होता। परन्तु वैज्ञानिक ताडितकोषमें तड़ित्प्रवाहके दोनों मुख युक्त कर देनेसे जैसे दोनों प्रवाहोंके भीतर एक अभिभूत और दूसरा प्रक्लतर होकर वृत्ताकारसे अखण्ड स्रोतमें बहा करता है, वैसेही यदि अन्तःकरणकी इन दोनों वृत्तियोंको किसी प्रकारसे क्रिया विशेष द्वारा ( यह क्रिया गुरु मुखसे जानना चाहिये ) युक्त कर दिया जाय तो पहिलो वृत्ति ( विषयाभिमुखी) अभिभूत और दूसरी (आत्माभिमुखी) प्रबलतर होकर निरन्तर आत्माकी अोर प्रवाहित होती रहती है; यही युक्तावस्था वा योगस्थ होकर कर्मावस्था है। यह अवस्था ऊर्द्धगतिमें लाकर भूत और भविष्यत् नामक कालविभागको दूर करके केवल वर्तमानको ही विद्यमान रखती है और इस प्रकार त्रिकालज्ञ बना देती है। यही चरम निवृत्तिका प्रथम सोपान है। “समवेता युयुत्सव" धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्रही योगमार्ग है; युद्ध करनेकी इच्छा होनेसे ही इस स्थानमें समवेत ( सम्मिलित ) होना पड़ता है। अर्थात् साधकको संसारभ्रम आत्मज्ञानमें लय करना हो तो इस स्थानमें आना पड़ता है; यहाँ आनेसे साधकको देख पड़ेगा कि बहुतसा पुखीकृत संस्कार फर्मानुसार आकर उनपर आक्रमण करता है और लक्ष्यभ्रष्ट करके बहुत दूर फेक देता है; पुनश्च वैसेही इकट्ठा हुआ दूसरे प्रकारका संस्कार पाकर मनमें घृति, उत्साहादि शक्ति उत्पन्न करके उनको पुनः लक्ष्यकी ओर भेजता है। प्रथम संस्कार निचय विषयसंसर्ग-जन्य और दूसरा सत्संसर्गजन्य है। मन विकारग्रस्त होनेसे ही विषयमें आसक्त होता है; और विचारयुक्त होनेसे ही सद्वस्तु ग्रहण करनेमें समर्थ होता है। अतएव पहिला मानसिक विकारका फल है, इसलिये "मामकाः" और दूसरा मानसिक विचारका (वि=विगत, चारचलना फिरना ) अर्थात् ज्ञानका फल है, इसलिये 'पाण्डवाः'। मनका Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता संकल्प-विकल्प परित्याग करके जो अवस्थान, अथच बुद्धिकी क्रिया संम् होती है, फिर मिट भी जाती है, परन्तु सिद्धान्त स्थिर नहीं होता, इस प्रकारका अवस्थान ही मानसिक विचार-अवस्था है। गुरूपदिष्ट क्रियाकालमें मन सूक्ष्मावलम्बी होनेसे विस्तारको प्राप्त होता है, तब उसकी संकीर्णता नष्ट हो जाती है, इसलिये इस जन्म और पूर्व जन्मके अर्जित 'सु' 'कु' कर्म संस्कार-समूह प्रत्यक्ष होते रहते हैं। आजन्म विषय-वासना द्वारा जड़ित रहनेसे साधकका विषयसंस्कार सत्संस्कार से अधिकतर शक्तिसम्पन्न होकर उनको लक्ष्यभ्रष्ट तथा वशीभूत कर लेता है; परन्तु गुरूपदेशका संस्कार ( कूटस्थ चतन्य वा श्रीकृष्ण ) सतत जागरूक रहनेसे उसके आलोक द्वारा सत्संस्कारसमूह पुनरुद्भासित होकर उनको पुनः लक्ष्यामिमुखी करता है। यह विषय संस्कार ही प्रवृत्ति और सत्संस्कार निवृत्ति है। नदी-निक्षिप्त काष्ठखण्ड ज्वार (समुद्रोत्थित जलविकर्षण ) भाटा ( समुद्रसे उस जलका पुनराकर्षण ) के वशसे उजान-भाटीमें अर्थात् विकर्षण और आकर्षणसे संचालित होने पर भी परिशेषमें जैसे विशाल सागरमें जाकर गिरता ही है, विकर्षणका वेग उसको अटका नहीं सकता, वैसे ही धैर्य धारण करके गुरूपदेशके अनुसार क्रिया करते रहनेसे, प्रवृत्तिसमूह चाहे कितना ही प्रबल हो, अन्तमें विशाल शान्तिसागर (ब्रह्मपद) तक पहुँच हो ही जाती है। सत्चेष्टाशील साधक मात्रको यह आक्षेपण और विक्षेपण मालूम है; क्रियाके प्रारम्भसे ही यह आक्षेपण और विक्षेपण होता रहता है इसीलिये कहा कि-युद्धच्छु होनेसे ही समवेत होना पड़ता है। ___"किमकुर्वत संजय" दश दिनके युद्ध में भीष्मके पतित होनेके पश्चात् रणक्षेत्रसे हस्तिनापुरमें (कर्मक्षेत्र, जहां धृतराष्ट्र वा मन रहता है ) संजयके लौट पाकर भीष्मके पतनकी वार्ता सुनानेके लिये उपस्थित होनेपर Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय धृतराष्ट्रने संजयसे युद्धका हाल पूछना प्रारम्भ किया। संजयने युद्धका विवरण क्रमानुसार श्रीकृष्णार्जुन-संवाद (गीता ) रूपमें वर्णन किया। इसका अर्थ यह है कि, मणिपुरस्थ दशदल अतिक्रम करके चित्राके भीतर प्राणवायु प्रवेश करानेसे ही कुलकुण्डलिनी चैतन्य-युक्त होती है, तब साधकका बाह्यज्ञान अभिभूत होकर वैषयिक अहत्व (अर्थात् चिदाभास वा अस्मिता जो दशो दिशाओं में व्याप्त होकर जीवोंका जीवत्व प्रतिपादन कर रहा है ) निस्तेज होता है। इसीको भीष्मका पतन कहकर निर्देश किया गया है। कुलकुण्डलिनीको जाग्रत करनेसे स्थिर आत्म-ज्योति प्रकाश करनेवाले मानसचक्षुका उदय होता है; उस चक्षुसे तीनों काल ( भूत, भविष्यत्, वर्तमान ) की घटनावली प्रत्यक्ष होती रहती है। उसके पीछे विकर्म ताड़नके द्वारा साधक जब फिर कर्मक्षेत्रमें अवतीर्ण होता है, तब विषयोंके द्वारा वेष्टित हो जाने पर आत्म-ज्योति परोक्ष होनेसे भी, स्मृति जागरूक रहती है, इस करके "धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में प्रथमसे शेषपर्यन्त संघटित व्यापार-समूहकी छाया मात्र उनके मनमें उदय होती रहती है, तब साधक उन व्यापारोंको लेकर मन ही मन प्रश्न करता रहता है और वे प्रश्न (गुरूपदिष्ट क्रियालब्ध ) दिव्य दृक्शक्तिसे मीमांसित (प्रत्यक्षीभूत ) होते रहते हैं। इसीको गीतामें धृतराष्ट्र-संजय सम्बादरूप कथन कहा है। साधककी जाग्रतावस्थाका नाम धृतराष्ट्र और उनकी क्रियालब्ध मानस दृष्टि, अन्तष्टि वा दिव्य दृष्टिका नाम संजय है (अध्याय ११ श्लोक ३५की व्याख्या देखो)। .. क्रियाके प्रारम्भसे चिदाभास नष्ट होनेतक प्रवृत्तिको ताड़ना और निवृत्तिकी प्रेरणा आदि जो जो घटनाएँ उपस्थित हुई हों, उन सबका आनुपूर्विक स्मरण करना ही साधकका उद्देश्य है। इसके बाद क्या किया' 'उसके बाद क्या किया इस प्रकार स्वकृत अतीत घटनासमह चिन्ता करके स्मरण करते जामेसे, मनमें जिस प्रकारके प्रेश्न उदयं Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रीमद्भगवद्गीता होते हैं, यह भी उसी प्रकारका सरल प्रश्न है ; अतएव धृतराष्ट्रने संजयसे ऐसा प्रश्न क्यों किया, इस प्रकारका सन्देह होनेका कोई कारण नहीं है ॥ १॥ . संजय उवाच । दृष्ट्वातु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा । आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥२॥ अन्वयः। तदा तु राजा दुर्योधनः न्यूढं ( व्यूह रचनयाधिष्ठित्तं ) पांडवानीकं दृष्ट्वा आघाय्य उपसंगम्प (द्रोणाचार्यसमीपं गत्वा ) वचनं अब्रवीत् ॥ २॥ अनुवाद। संजय कहते हैं,-पांडवसैन्योंकों व्यूहरचनासे अवस्थित देख कर राजा दुर्योधन द्रोणाचार्यके समीप जाकर इस प्रकार बोले ॥२॥ व्याख्या। 'संजय उवाच' इस कथाका अर्थ २१वें श्लोककी व्याख्यामें देखो। नाट्यशालाका एक नट जैसे अभिनयकालमें भिन्न भिन्न साज सामान लेकर भिन्न भिन्न आकार धारण करलेता है, और वह स्वयं जो है सोही रहता है, तद्र प एक ही मनुष्य कभी कुबुद्धिके वशीभूत होकर मूर्तिमान काम, क्रोध, लोभ प्रभृति हो जाता है, पुनश्च कभी सुबुद्धिके वशमें आकर साक्षात् शम, दम, तितिक्षास्वरूप बन जाता है। ठीक उसी प्रकार साधक भी गुरूपदिष्ट क्रियामें साधनमार्गमें विचरण करते करते समयके अनुसार प्रापही श्राप कभी धृतराष्ट्र, कभी संजय, कभी दुर्योधनादि तथा कभी अर्जुन और श्रीकृष्ण होकर गीताको प्रत्यक्ष करता है। इसलिये दुर्योधन कहनेसे समझना चाहिये कि, साधकका विषयवासनाधीन अतिमानी अवस्था है। 'राजा दुर्योधन'। (दुः= दुःखमें, युध युद्धकरना+अन )दुरखमें योधनीय, अर्थात् जिसके साथ अतिकष्टसे युद्ध किया जा सके वही दुर्योधन है। यह दुर्योधन ही ३य अध्यायका 'कामरूपं दुरासदं' है। इसलिये कामना वा विषयवासनाका नाम दुर्योधन है। इसीको Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय अतिमान भी कहते हैं । मनोवृत्तियोंमें यह कामना प्रधान और प्रबल है, इसीसे इसको धृतराष्ट्र (मन) का ज्येष्ठ पुत्र कहा गया, और इसीके वशमें मन अविरत चालित होनेसे, तथा शरीरका सर्वत्र इसका प्रभाव विस्तृत रहनेसे राजा यही है। "व्यूढं पाण्डवानीकं दृष्ट्वा" पाण्डवव्यूह' धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्रके पश्चिम ओर पूर्वमुखी होकर उदीयमान ज्योतिर्मय सूर्यमण्डलको देखता हुआ युद्धके लिये प्रस्तुत है, और कौरवगण पूर्व दिशामें खड़े होकर पश्चिमाभिमुखी अर्थात् विषयमुखी होनेसे सूर्यज्योतिको पश्चात् भागमें लिये हुए अवस्थित हैं । ___ शरीर-कोषके सम्मुख भागका नाम पूर्व, पश्चाद्भाग का नाम पश्चिम, दाहिने भागका नाम दक्षिण और वामभागका नाम उत्तर दिक है। इस कोषको पूर्व दिशामें ही सवितृमण्डल देख पड़ता है; साधक मात्र इस विषयको जानते हैं। विवेक वैराग्य-शम-दमादि साधन चतुष्टय सम्पन्न होनेके पश्चात्, साधन-मार्गमें आकर सामने अर्थात् पूर्व दिशामें सूर्य-ज्योति लक्ष्य करनेसे ही अतिमानाश्रित संसारानुकूल वृत्तिसमूह सम्मुख खड़े होकर साधकको विमुख करनेकी चेष्टा करता है; इसलिये विवेक वैराग्य का दल पूर्व मुखी श्रार अतिमानी महामोहका दल पश्चिममुखी है। इन दोनों दलों • साधन चतुष्टय यथा(१) “नित्यानित्य वस्तुविवेकः" अर्थात् नित्यवस्तु एक ब्रह्म ही है उसको छोड़कर और जो कुछ है सब अनित्य है; यह निश्चय ज्ञान । (२) "इहामुत्रार्थ फलभोग विरागः" अर्थात् इह काल का सुख और पर कालमें स्वर्ग भोगकी इच्छा परित्याग। (३) “शमादि षट् सम्पत्तिः" अर्थात् शम = मनोनिग्रह, दम= चक्षुरादि वाद्य न्द्रियकी वृत्तिका निग्रह, तितिक्षा-शीतोष्ण सुख दुःखादि कष्ट सहिष्णुता, उपरति स्वधर्मानुष्ठान, श्रद्धा - गुरुवाक्यमें विश्वास, समाधान - चित्तकी एकाग्रता। (४) "मुमुक्षुत्व" अर्थात् हे विधे ! मेरा मोक्ष ( मुक्ति) हो जाना चाहिये-यही दृढ़ इच्छा रहना। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० श्रीमानवद्गीता का आमना सामना और संघर्ष ही साधनसमर हैं; और इसी साधनसमरका नाम क्रिया है। क्रियाके प्रारम्भ कालमें ही निवृतिपक्षीय शम दमादि साधनाके अनुकूल वृत्तिसमूह वासनापटमें प्रतिलित होता है, यही दुर्योधनका पाण्डवव्यहदर्शन है। "आचार्यमुपसंगम्य" द्रोण प्राचार्य हैं। इन्होंने ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर क्षत्रिय वृत्ति अवलम्बन कर कुरु पाण्डव दोनों पक्षोंको धनुर्वेदकी शिक्षा दी। काक (कौवा ) जैसे दो चक्षु रहने पर भी किसी एक चक्षुसे देखता है, दोनों चक्षुओंसे एक साथ देख नहीं सकता, इन्होंने भी वैसे ही दोनों पक्षोंके गुरु होकर भी एकही पक्षका अवलम्बन किया था। यह द्रोण हो संस्कारज-बुद्धि है। भले-बुरे सब प्रकारके कर्मही संस्कारमें परिणत होते हैं, इसलिये उससे जो बुद्धि उत्पन्न होती है, वह जीवको, क्या भला क्या बुरा, दोनों दिशाओं में दौड़ाती है; इसलिये वह संसारी और मुक्तिकामी दोनों पक्षोंकी गुरु है। यह बुद्धि सर्वतोप्रसारिणी होनेपर भी मार्जित अर्थात् निर्मल न होनेसे, वह संसारकी सीमामें ही आबद्ध रहती है, विरागकी और लक्ष्य रहनेसे भी वह उस ओर कार्यकारी नहीं होती; ग्रही द्रोणके कौरव पक्ष अवलम्बनका कारण है। क्रियाके प्रारम्भ कालमें साथककी दुर्योधनवृत्ति पांडववृत्तिसमूहको दर्शन कर, संसारभावकी प्रतिपोषकस्वरूप सांस्कारिक बुद्धि बलवत् रहकर जिसमें वैराग्यकी पोषक न हो, इसलिये चेष्टा करता है। यही आचार्यके समीप गमनका तात्पर्य है। .... वचनं अब्रवीत्" - युक्तिपूर्ण वहुअर्थव्यञ्जक संक्षेप और हृदयग्राही वाक्यका नाम वचन है (इसका भावार्थ २०वें श्लोककी व्याख्यामें देखो )। इसलिये कहते हैं ॥२॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ प्रथम अध्याय पश्यतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्। - व्यूढा द्र पदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥३॥ अन्वयः। हे पाण्डुपुत्राणामाचार्य! तव शिष्येण धीमता द्रुपदपुत्रण ( धृष्टद्युम्नेन ) व्यूढौँ एतां महती चमू पश्य ।। ३ ।। अनुवाद। हे पाण्डुपुत्रगणके आचार्य । अपने शिष्य बुद्धिमान् धृष्टय म्न द्वारा व्यूहरचनासे सज्जित पाण्डवोंका यह विशाल संन्य अवलोकन कीजिये ॥३॥ व्याख्या। द्र पदका पुत्र-धृष्टद्युम्न = चैतन्यज्योति है। विवेक वैराग्यादिकी अनुगामी वृतिसमूह साधनकालमें सभी चैतन्यमुखी होती हैं और चैतन्यज्योतिक सहयोगसे सतेज होकर विवेककों खिलाते हैं । इसलिये धृष्टद्युम्न वा चैतन्य ज्योति द्वारा साधनानुकूल वृत्तिसमूह सजाया हुश्रा है, ऐसा वर्णन किया गया है ॥ ३॥ अत्रशूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि । युयुधानों विराटश्च द्र पदश्च महारथः॥४॥ धृष्टकेतुश्चकितानाः काशीराजश्च वीर्यवान। पुरुजित् कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुंगवः ॥ ५॥ युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् । सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥ ६ ॥ अन्वयः । युधि मीमार्जुनसमाः महेष्वासाः ( महाधनुर्धराः ) शूराः अत्र ( अस्यां चम्बा वर्तन्ते )। युयुधानः ( सात्यकिः ), विराटश्च, महारथः द्रुपदश्चं, धृष्टकेतुः (चेदीराजः ), चेकितानः, वीर्यवान् काशीराजश्च, पुरुजित् , कुन्तीभोजश्च, नरपुंगवः शैब्यश्व, विक्रान्तः युधामन्युश्च, वीर्यवान् उत्तमौजाश्च, सौभद्रः ( अभिमन्युः), प्रौपदेयाच (प्रति विन्ध्यादयुः द्रौपद्यां जाताः पञ्चपुत्राः)-(एते ) सर्वे एव महारथाः ॥४॥५॥६॥ ___ अनुवाद। मीमार्जुन जसे महाधनुर्धर शूर लोग इस सैन्यमें युद्वार्धी हुये हैं। यह जौ युयुधान, विराट, महारथ द्रुपद, धृष्टकेतु, चेकितान, पौवान् काशीराज, पुरुजित् , कुन्तीभोज, नरश्रेष्ठ शव्य, विक्रमशाली युधामन्यु, धीयान् उत्तमीणा सौभद्र और द्रौपदेयगण है, ये सब ही महारध हैं ॥४॥५॥६॥ .. ९. . Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। इन सब नामोंका आध्यात्मिक अर्थ है(१) युयुधाम= श्रद्धा। यह अकेले हैं, परन्तु अनन्त विपक्षसैन्यके साथ युद्ध करनेकी क्षमता रखते हैं। (२) . विराट=समाधि । (विविगत, राट - राज्य ); जो अपना राज्य दूसरेके हाथमें देकर सदा अलग रहते हैं, वही विराट हैं । (३) द्र पद = (द्र =द्र त, पद = गमने) अन्तर्यामीत्व शक्ति, वैद्य तिक शक्ति वा तीव्र घन वेग। (४) धृष्टकेतु =यम। धृष्टानि संयतानि, केतनानि स्थानानि यस्य यस्य सः। जिस अवस्थामें स्थान समूह अर्थात् छात्रों चक्रकी क्रियायें ही संयत होती हैं। (५) चेकितान स्मृति । चिकि शब्दसे झिल्ली, तान शब्दसे स्वर; यह चिकिका पुत्र चेकि अर्थात् क्षीण किंमिंट स्वर है, जो साधना करते करते अनाहत नादके उठनेसे पहिले साधकों को सुनाई देता है। बहुत ही बालक साधक भी इसको जानते हैं। (६) काशीराज-प्रज्ञा, श्रेष्ठ प्रकाश शक्ति । (७) पुरुजित्-प्रत्याहार, सामान्य विश्राम। (८) कुन्तीभोज-श्रासन । कुन् =कर्षणे। (ह) शैब्य =नियम। कल्याणदायिनी शक्ति। (१०) युधामन्यु-प्राणायाम। युद्ध सुनते ही मात्र जिनके क्रोध का उदय होता है। (११) उत्तमौजा वीर्य। (१२) सौभद्र=संयम। धारणा, ध्यान और समाधि का एकत्र समावेश। (१३) द्रौपदेय =पंचबिन्दु। पंचीकृत पंचमहाभूतों के विकार ॥ ४ ॥५॥६॥ ' अस्माकन्तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम। ... नायका मम संन्यस्य संज्ञार्थ तान् ब्रवीमिते ॥७॥ अन्धयः। हे द्विजोत्तम। तु अस्माकम ये विशिष्टाः मम सैन्यस्य नायकाः तान् निषोध; ते संज्ञार्थं तान् ब्रवीमि ॥७॥ अनुबाद। हे द्विजोत्तम ! हम लोगों में जो सब प्रधान तथा हमारा सन्य के नायकान सबको मालूम कीजिये ; आपके अषगति के लिये उन सबका नाम कहता हूँ॥७॥ HHATHREn -TTA Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय व्याख्या। द्रोण संस्कारज बुद्धि होनेके कारण द्विज हैं-"जन्मना जायते शुद्रः संस्काराद्विज उच्यते । वेदपाठी भवेद्विप्रो ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः॥" ब्राह्मण होकर चतुर्वेद अवगत रहने के कारण तथा क्षत्रिय वृत्ति अवलम्बन कर धनुर्वेदाभिज्ञ होनेसे द्रोणका उत्तमत्व है। बुद्धि ब्रह्मानन्दका भोग भी करती है, पुनः संसार बन्धनमें पड़ कर अपनापराया समझनेमें इष्ट की रक्षा और अनिष्ट का नाश करनेके लिये प्रस्तुत रहती है, इसी कारणसे बुद्धिकी उत्तमता है ॥७॥ भवान् भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितियः। अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिजयद्रथः ॥ ८॥ अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः । नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः॥६॥ अन्वयः। भवान् (द्रोणः ), भीष्मश्च, कर्णश्च, समितिजयः ( संग्रामजयी) कृपश्च, अश्वत्थामा, विकर्णश्च, सौमदत्तिः (सोमदत्तस्व पुत्रः भूरिश्रवाः ), जयद्रथः, अन्ये च बहवः शूराः, सर्वे मदर्थेत्यक्तजीविताः ( मत्प्रयोजनार्थ जीवितं त्यक्त अध्यवसिताः ) नानाशस्त्रप्रहरणाः ( नानाविध शस्त्रप्रहरणक्षमाः) युद्धविशारदाः (युद्ध निपुणाः ) ॥ ८॥९॥ अनुवाद । आप, भीष्म, कर्ण, समरविजयो कृप, अश्वत्थामा, विकर्ण, सौमदत्ति, जयद्रथ तथा और भी दूसरे दूसरे बहुत वोर हैं, जो सब मेरे लिये प्राण त्याग करने को तैयार है, वह सभी नानाप्रकार अस्त्र शस्त्र धारो और युद्ध में निपुण हैं ॥१९॥ व्याख्या। इन सब नामों का आध्यात्मिक अर्थ है-(१) भवान् द्रोण। दो चक्षु रहने से भी जिनकी दृष्टि एक चक्षु में है, जो एक ओर की जगह युगपत् दोनों ओर देख नहीं सकते, जैसे काक। संस्कार जनित बुद्धि । (सर्वतोमुखी होने पर भी एक ओर लक्ष्य रखनेसे यह बुद्धि निर्मल नहीं है। जो बुद्धि केवल ब्रह्ममुख में प्रेरण करती है, वही निर्मल है। इसलिये पाण्डु ही निर्मल बुद्धि है, क्योंकि Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ श्रीतजपवद्गीला पाण्डमे संज्यके साथ विषय भोग परित्याग कर एकमात्र ,ईश्वर की यामधमा मान दिया था। यह निर्मल बुद्धि भी जीवका बन्धन है, इसलिये इसको लय करनेके लिये साधक को थोड़ा श्रासक्ति का प्रयोग करना पड़ता है; जैसे उस आसक्ति का उदय होना, वैसे बुद्धि का भी ळय पाना। माद्रीमें आसक्त होनेके कारण पाण्डु की मृत्यु होने का यही तात्पर्य है )। (२) भीष्म आभास चैतन्य वा 'अस्मिता। अविद्या जनित अहंकार। (३) कर्ण = कर्त्तव्य कर्म वा राग। (४) कृप- कल्पना वा अविद्या । (५) अश्वत्थामा = रुद्र, यम, काम और क्रोध, इन चारों शक्तियों का एकत्र समावेश वा कर्मफल । एकके कर्मफल द्वारा दो तीन पुरुष पर्यन्त भोग भोगना पड़ता है; विशेषतः पितामह का दोष-गुण पौत्र पर उतरता है। अश्वत्थामा द्वारा परीक्षितके प्राण नाश की चेष्टा का भावार्थ भी यही है । (६) विकर्ण =अकर्त्तव्य कर्म वा द्वष। (७) सौमदत्ति (भूरिश्रवाभूरि श्रवति यः सः )=कर्म वा संसार । (८) जयद्रथ =अभिनिवेश वा मृत्युभय। ..."अविद्यास्मिता राग द्वषाभिनिवेशाः क्लेशाः।" इति पातञ्जल। - (६) अन्ये च बहवः शूराः शल्य कृतवर्मादि । शल्य = कण्टक वा शेल, जिसके रहनेसे क्रमान्वय क्लेश भोगना ही पड़ता है। कर्मसंस्कार अच्छा चाहे बुरा हो, वह जीवके संसार वन्धन का कारण है। इसलिये शल्य जीवका संस्कारज कर्म है। क्रियायोग कर अन्तमें यह आकाश तत्वमें लय होते हैं इसलिये, महाभारतमें युधिष्ठिर द्वारा शल्य बधकी बात प्रकट हुई है। कृतवर्मा-शरीर के प्रति मोह, शरीर की रक्षा करने की प्रवृत्ति। "युद्धविशारदा"-वह सब वृत्तियां सकर्म की सिद्धिके प्रक्षों कण्टक स्वरूप होनेसे जीवको संसार मार्गमें RAM Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय ३१५ आबद्ध कर रखनेके लिये समर्थ है अर्थात् उन सबमें कोई एक भी रहनेसे जीवका निस्तार वा मुक्ति नहीं होती ॥८॥ अपर्याप्त तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् । पर्याप्त त्वि तेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥ १० ॥ अन्वयः। भोष्माभिरक्षितं अस्माकं तत् ( तथाभूतवेरैयुक्त) बलं (सैन्यं ) अपर्याप्तं ( असमर्थ भाति ), तु ( किन्तु ) एतेषां ( पाण्डवानां ) इदं बलं पर्याप्तं ( समर्थे भाति ) ॥ १०॥ अनुवाद। भीष्म द्वारा रक्षित हमलोगोंकी वह सन्य अपर्याप्त है, किन्तु भीम द्वारा रक्षित पाडवों की यह मैन्य पर्याप्त है ॥ १० ॥ व्याख्या। ३यसे १०म श्लोकका भावार्थ । -धृष्टद्युम्न द्रोणका शिष्य है, इसका अर्थ यह है कि, चतन्यज्योति बुद्धिके द्वारा हो प्रकाश पाती है। परन्तु चैतन्यज्योति प्रकाश होते ही बुद्धिको लय करने की चेष्टामें रहती है, तब साधकके मनमें वासना वृत्ति जागरूक होकर विषय बुद्धिको उत्तेजित करनेके लिये ही मानो कहती है, हे बुद्धि ! तुम जिसको प्यार करती हो और तुमसे हो जिसकी वृद्धि है, वह चैतन्यज्योति ही तुमको नष्ट करने पर उद्यत हुई है; अब उसको प्रभय न देना, शीघ्रही उसको विनष्ट करो। यद्यपि चतन्यज्योति द्वारा उद्भासित वो युयुधानादि वृत्ति समूह ही महारथ हैं ( जिस पर भन दिया जाय, वही मनको खींचके कामनाको स्तम्भन करनेकी शक्ति रखता है ) अर्थात् तीब्रवेगशाली, ऐसे कि वायु और तेज जैसे वेगवान, तथापि, वह सब कुछ भी नहीं, अस्मदादि पक्ष की तुलनामें वह सब अकिंचित्कर हैं, क्योंकि अस्मद् पक्षमें श्राप, भीष्म और कर्ण प्रभृति के रहनेसे हम सबमें क्षत्रियबल और ब्रह्मबल दोनों ही बल वर्तमान हैं। परन्तु उन सबके (दलमें) केवलमात्र क्षत्रियबल रहनेसे वह निस्तेज हैं। केवल ऐसा ही मही, अस्मदादिका दल अपरिमित Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ श्रीमङ्गगवद्गीता है; और भीष्म जो श्रमास -चैतन्य है, जिनकी मृत्यु वा लय भी नहीं कहा जा सकता, वही हम सबके रक्षक हैं। परिमित, हम सबसे बहुत ही कम, तथा रक्षक जो सदा च चल और अनिश्चित - प्रताप है । और उन सबका दल भीम अर्थात् वायु है, ११ श श्लोक कहनेका हेतुस्वरूप मानो और भी कहा गया कि, - भीष्म कर्णको अर्द्धरथी कहनेके कारण कर्ण ( कर्त्तव्य कर्म ) क्रोध के मारे प्रतिज्ञा कर चुके कि, जितने दिन भीष्म युद्ध करेंगे उतने दिन वह अस्त्र धारण न करेंगे। ( समरांगन में कर्त्तव्य कर्मका अभाव ही दुर्योधन भयका कारण है। ) अतएव : अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः । भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥ ११ ॥ अन्वयः । भवन्तः सर्वे एव सर्वेषु अयनेषु च यथाभागं अवस्थिताः ( सन्त: ) भीष्मम् एव अभिरक्षन्तु ॥ ११ ॥ अनुवाद | आप सब लोग प्रत्येक व्यूह के प्रवेश द्वार पर अपने अपने विभाग के अनुसार खड़े होकर भीष्मकी ही रक्षा कीजिये ॥ ११ ॥ व्याख्या । " भीष्मकी ही रक्षा कीजिये" कहने का तात्पर्य यह है कि, चिदाभास अर्थात् देहात्माभिमानिता वा अस्मिता के सचेत रहनेसे, हजारों ब्रह्मज्ञानका उपदेश भी किसी तरहसे किसी कालमें वासनाजालको नष्ट न कर सकेगा । "सर्वेषु अयनेषु ” – मूलाधारादि छः चक्रही अयन अर्थात् योगका पथ हैं । प्रत्येक चक्रमें ही प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों पक्ष विद्यमान हैं, यथा : Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय स्थान पाण्डव पक्ष कौरव पक्ष मूलाधार... क्षिति (सहदेव) शम काम ( दुर्योधन) स्वाधिष्ठान... अप ( नकुल) दम मणिपुर... तेज (अर्जुन) ..तितिक्षा क्रोध ( दुःशासन ) और मृत्युभय ( जयद्रथ ) परस्पर सापेक्ष होनेसे यह लोग इकट्ठे रहते हैं। लोभ ( कर्ण = कर्तव्य कर्म और | विकर्ण - अकर्तव्य कर्म) मोह ( शकुनि इन्होंने मोह | उत्पन्न कराके कौरवोंकी य त । क्रियामें प्रवृत्त किया था।) मद ( मद्रराज शल्य ) अश्वस्थामा कर्मफल मरुत (भीम) उपरति अनाहत... विशुद्ध... ब्योम (युधिष्ठिर) श्रद्धा आज्ञा... कूठस्थ चैतन्य (श्री | मत्सरता (भीष्म, द्रोण और कृप) कृष्ण ) समाधान शमादि बन्धु और कामादि रिपु जीवमात्रों के कर्मफल का प्रकाश है इसलिये अश्वत्थामा इन मूलाधारादि छः स्थानों में ही है। तस्य संजनयन् हर्ष कुरुवृद्धः पितामहः। सिंहनादं विनद्योच्चः शंखं दध्मौ प्रतापवान् ॥ १२ ॥ अन्वयः। कुरुवृद्धः प्रतापवान् पितामहः (भीष्मः ) तस्य ( दुर्योधनस्य ) हर्षे संजनयन् उच्चैः (महान्तं) सिंहनादं विनद्य (कृत्वा) शंखं दध्मौ (पादितवान् ) ॥१२ । अनुवाद। तब प्रतापवान् कुरुवृद्ध पितामह भीष्मने उन्हें ( दुर्योधनको ) आनन्दोत्पादन करा उच्चैःस्वरमें सिंहनादकर शंखध्वनि की॥ १२॥ व्याख्या। पड़ता जब बुरा पड़ता है, तब रसिकता भी गाली हो करके खड़ी होती है। दुर्योधनने पाण्डवोंके ऊपर गुरुका क्रोध उद्दी Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. श्रीमद्भगवद्गीता “ पन करा अपने कल्याणकी आकांक्षामें बात कहने जाकर “पाण्डुपुत्रोंके प्राचार्य" ऐसी बुरी बात कह दी। गुरुके हृदयमें थोड़ा आघात लगा। गुरुने सोचा कि दुर्योधन मुझे अर्थ देता है, इसलिये आज उसने मुझको "पाण्डुपुत्रोका प्राचार्य" कहा, अपना गुरु स्वीकार न किया; पक्षान्तर में हमारे ऊपर प्रभुता भी दिखलाई; यह सोच करके उन्होंने उपेक्षा कर दुर्योधनके बातका उत्तर देना उचित न समझा। भीष्मने आचार्यका यह उपेक्षा समझकर जिसमें दुर्योधन निरुत्साह न हो जाय, इसलिये सिंहनाद और शंखध्वनि की। सिंहनाद, शंख। -साधना के प्रथम अवस्थामें जब क्रिया विशेष द्वारा वायुका निरोध होता रहता है, तब अभ्यासके अल्पताके कारण वासनाके वशमें वायुकी ताड़ना करके साधक अवरुद्ध वायुको त्याग करने के लिये बाध्य होते हैं, और उस रुद्धवायु की यातनासे शीघ्र शीघ्र निष्कृति पानेके लिये इस प्रकार वेगसे दीर्घ निश्वासको छोड़ते हैं कि, भीतर में वो सिंहनादके सदृश मालूम होता है, और साथ ही साथ एक ध्वनिका उत्थान होता है (अल्प साधनामें ही वह ध्वनि सुननेमें आती है ), उसका स्वर मोटा और गम्भीर है; वही भीष्मकी शंख-ध्वनि है। निश्वास वेगसे त्याग होनेके कारण शरीर सुस्थ मालूम होता है, और उसका आवाज सुननेमें मधुर होनेसे एक प्रकारका आनन्द भी होता है, उससे वासना वृत्ति खिल आती है, क्योंकि फिर बाहरके विषय भोगके लिये सुयोग आ पहुँचा। इसको ही दुर्योधन का हर्ष कहा जाता है; उस श्रुतिमधुर शब्दको सुनते जाओ तो, वह वायुके ताड़नसे शीघ्रही मिलावटके साथ एक अस्पष्ट शब्दमें परिणत होता है, इसलिये तुमुल है ( जो नीचे कहा जाता है)। ___ भीष्म जो "कुरुवृद्धः पितामहः” है, उसका कारण निम्नलिखित योगशास्त्रके अर्थके साथ कुरु वंशकी सूची पढ़नेसे हो समझ सकते हैं। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय शान्तनु (१) प्रथमा पत्नी गंगा (२) द्वितीया पत्नी सत्यवती (४) भीष्म (३) वेदव्यास (५) चित्रांगद (६) बिचित्रवीर्य (७) प्रप्रमा पत्नी अम्बिका(८)+ वेदव्यास + द्वितोया पत्नी अम्बालिका(ह) __धृतराष्ट्र (१०) पाण्ड (११) प्रथमा पत्नी गायारो(१२)द्वितीया पत्नी वैश्या(१३) .. दुर्योधनादि शतपुत्र (१६) युयुत्सु (१७) प्रथमा पत्नी कुन्ती (१४) द्वितीया पत्नी माद्री (१५) युधिष्ठिर (१८) भीम (१६) अर्जुन (२०) नकुल (२१) सहदेव(२२) | इन पांचो की प्रथमा पत्नी द्रौपदी (२३) द्वितीया पत्नी सुभद्रा (२४) . पञ्चविन्दु =शून्य | सौभद्र (अभिमन्यु) (२५) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० श्रीमद्भगवद्गीता -- (१) शान्तनु = निर्विकार ब्रह्मचैतन्य । (२) गंगा=चैतन्या प्रकृति । (३) भीष्म=आभास चैतन्य ( गंगाके गर्भसे आठ पुत्र हुये, वही सब अष्ट वसु हैं; अष्टम् का नाम प्रभास= अस्मिता वा भीष्म )। (४) सत्यवती = जड़ प्रकृति। (५) वेदव्यास=भेदज्ञान ( पराशर ऋषिके शुक्रजात पुत्र) । (६) चित्रांगद = ऐश महतत्त्व। (७) विचित्रवीर्य = ऐश अहंकार। (६) अम्बालिका = निश्चय वृत्ति। (८) अम्बिका = संशय वृत्ति । (११) पाण्डु = निर्मल बुद्धि ( यह (१०) धृतराष्ट्र-मन (अन्ध )। पुरुष होकरके भी नपुसकवत् (१२) गान्धारी= प्रवृत्ति शक्ति । थे।) (१३) वैश्या- प्रवृत्ति आसक्ति (१४) कुन्ती-निवृत्ति शक्ति । । (ग्रहण, त्याग )। (१५) माद्री = निवृत्ति आसक्ति। (१६) दुर्योधनादिकम (१८) युधिष्ठिर =आकाश-तत्त्व क्रोधादि । ( शब्द गुण)। (१७) युयुत्सु युद्धेच्छा (इसने १६) भीम = वायुतत्त्व (शब्द । युद्धके प्राकालमें ससैन्य पांडव स्पर्श मुण)। पक्षका अवलम्बन किया था)। (२०) अर्जुन =तेजस्तत्त्व (शब्द स्पर्श रूप गुण )। (२१) नकुल =रसतत्त्व (शब्द स्पर्श रूप रसगुण) (२२) सहदेव पृथ्वीतत्त्व (शब्द स्पर्श रूप रस गंध गुण) (२३) द्रौपदी-कुलकुण्डलिनी। (२४) सुभद्रा अतिशय मंगल (७ संख्याके बाद बायें किनारे शक्ति । अर्थात् बायें तरफके स्तम्भमें (२५) अभिमन्यु =संयम अर्थात् षांडव वंश और दाहिने तरफके धारणा-ध्यानसमाधिका एकत्र स्तम्भमें धृत्तराष्ट्रका वंश दिखाया समावेश। गया है। ) ॥१२॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय ततः शंखाश्च भेय॑श्च पणवानकगोमुखाः । सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥ १३ ॥ अन्वयः। ततः ( तदनन्तरं ) शंखाश्च भेर्यश्च पणवाः (मर्दलाः ) आनका: ( ढक्वाः ) गोमुखाश्च ( वाद्यविशेषाः ) सहसा एव अभ्यहन्यन्त ( वादिताः ), सः शब्दः तुमुलः ( महान् ) अभवत् ॥ १३॥ ___ अनुवाद। उसके बाद शङ्ख, मेरो, पणव, आनक, और गोमुखादि बाजे सहसा बज उठे; उपका तुमल शब्द हो गया ॥ १३ ॥ व्याख्या। साधकके इस अवस्थामें श्रा पहुँचनेसे उनके शरीरकी नाड़ी समूहके छिद्र पथमें वायुके प्रवेश करनेके कारण नाना प्रकारके शब्द उठते हैं। तुरी, भेरी, ढक्का, ढोल, कांसी, वंशी प्रभृतिके एक साथ बजनेसे जो गोल माल मिला हुआ एक शब्दका झुरमुट सुनने में आता है, यह शब्द भी उसी तरहका एक है, जैसे बहुत दूरसे हाट, सट्टी या बाजारका रव मच रहा है, वैसा ही शब्द सुनाई देता है॥ १३॥ - ततः श्व तैर्हयैर्युक्त महति स्यन्दने स्थितौ । _माधवः पाण्डवश्च व दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः ॥ १४ ॥ ___अन्वयः। ततः श्वेतः यः ( अश्वैः ) युक्त महति स्यन्दने ( रथे ) स्थितौ माधवः ( श्रीकृष्णः ) पाण्डवश्च ( अर्जुनश्च ) एव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः ( प्रकर्षण वादयामासतु ) ॥ १४ ॥ अनुवाद। इसके उपरान्त माधव ( श्रीकृष्ण ) और पाण्डव ( अर्जुन ) ने श्वेत अश्वयुक्त महारथमें बैठके दो शङ्ख बजाये ॥ १४ । व्याख्या। वासनावृत्ति ( प्रवृति द्वारा साधकके उतर पड़नेसे भी आत्ममुखी वृत्ति (निवृत्ति ) मनमें उदय हो करके फिर उनको ऊर्द्धमना करती है, अर्थात् साधक जब वहिमुखी वृत्तिको समेटके हृदयमें प्रवेश करते हैं, तब अधिकतर ऊंचे किसी एक स्थानमें वह अटक जाते हैं; वही स्थान महती स्यन्दन या उत्कृष्ट रथ है। तब साधकको एक Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ श्रीमद्भगवद्गीता शुभ्र ज्योतिः देखनेमें आती है; वही "श्वत अश्व" है, वह ज्योतिः तत्क्षणात् चार टुकड़े होकर दाहिने, बायें, ऊंचे, नीचे की तरफ विद्यु - द्वगकी तरह दिखाई देके हट जाती है। उसी ज्योतिके बाद (हृदयमें ) अखण्ड मंडलाकार घोर कृष्णवर्ण पद दिखाई देता है। वही "माधव” ( मालक्ष्मी, सत्वगुणा महाशक्ति [प्रकाश] +धव= पति [कृष्ण ] अर्थात् महत् प्रकाश जिसकी गीदमें बैठ कर प्रकाशित होते हैं, वही माधव हैं)। अन्तमें साधकको इस कृष्ण वर्ण मण्णालके पश्चात् (भीतर) एक अधिकतर उज्ज्वल गहरा कृष्णवर्ण विन्दु देख पड़ता है; वही बिन्दु "पाण्डव” (अर्जुन) हैं। इस प्रकार देखते-देखते मन जब निष्पन्द हो जाता है, तब एक आकाशव्यापी शब्दका उत्थान होता हैवह शब्द केसा और उसका उत्पत्ति स्थान भी किस प्रकारका है, इसके उपरान्तके श्लोकमें वह कहा जाता है ॥ १४ ॥ पांचजन्यं हृषोकेशो देवदत्तं धनंजयः। पौण्ड् दध्मौ महाशंख भीमकर्मा वृकोदरः ॥१५॥ अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः । नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥ १६ ॥ काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः । धृष्टद्य म्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥ १७ ॥ द्र पदौ द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते । सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक पृथक् ॥१८॥ अन्वयः। ह्रषीकेशः पांचजन्यं ( शङ्ख ), धनंजयः देवदत्त ( शंख ) भीमका वृकोदरः ( भीमः ) महाशंखं पौण्ड्र दध्मौ; कुन्तीपुत्रः राजा युधिष्ठिरः अनन्तविजयं (शंखं) दध्मौ; नकुलः सहदेवश्च सुधोषमणिपुष्पकौ ( शङ्खो दध्मतुः ); हे पृथिवीपते । परमेष्वासः काश्चश्च ( काशीराजः ), महारथः शिखण्डी च, धृष्टद्युम्नः, विराटश्च, अपराजितः सात्यकिश्च, द्रु पदः द्रौपदेयाश्च, महाबाहुः सौभद्रश्च, सर्वशः ( सर्वे एव ) पृथक् पृथक् शङ्खान् दध्मुः ॥ १५ ॥ १६ ॥ १७ ॥ १८॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय २३ अनुवाद । ह्रषीकेशने पांचजन्य शङ्ख, धनंजयने देवदत्त शङ्ख, भीमका वृकोदरने पौण्ड्र नामक महाशङ्ख, कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिरने अनन्तविजय शङ्ख, नकुलने । सुघोष और सहदेवने मणिपुष्पक नामक शङ्ख बजाया। हे महाराज ! महाधनुर्धर काशीराज, महारथ शिखण्डो, धृष्टद्युम्न, विराट, अपराजित सात्यकि, द्रुपद, द्रौपदेयगण ओर महाबाहु सुभद्रातनय प्रभृति वीरोंने पृथक् पृथक् शंख बजाये ॥ १५ ॥ १६ ॥ १७ ॥ १८ ॥ व्याख्या। "हृषीकेशः" -द्वषोका=इन्द्रिय समूह, ईश= नियन्ता; जो इन्द्रियोंके नियन्ता हैं, जिसके तेजसे इन्द्रिय समूह अपना अपना काम काज करती हैं, वही ह्रषीकेश (श्रीकृष्ण) कूटस्थ-चैतन्य हैं, इनका स्थान आज्ञाचक्र है। मूलाधारादि पांच चकसे उठे हुये पांच स्वर एक साथ मिल करके आज्ञाचक्रके भीतरसे अनुभवमें आती है, इसलिये श्रीकृष्णके शंखको पांचजन्य कहते हैं। “धनञ्जय” –धन-विभूति (जन्म, मृत्यु, सुख, दुःख, क्षुधा, तृष्णा ), जय = जय करना; अर्थात् विभूति विजयी ही धनंजय पदवाच्य है। तेजसे ही क्रिया शक्तिका विकाश होता है, वायु भी तेजसे ही बहती रहती है; अतएव जो कुछ शक्तिका प्रकाश है, वह तेज द्वारा ही है, इसलिये तेजतत्वका नाम धनंजय है। इनका स्थान मणिपुर चक्र है; वहां यह वैश्वानर नामसे जीवकी जीवनी शक्ति (अन्न-पचनरस रूप अमृत) प्रदान करते हैं। यह वैश्वानर देव ही सब देवताके मुखस्वरूप हैं; इसीलिये साधनक्रमसे उस मणिपुर चक्रसे जो वीणा शब्दवत् शब्द उठता है, उसका नाम देवदत्तशंख ध्वनि है, अनुभवात्मिका वृत्ति वा सानन्द सम्प्रज्ञात समाधि अवस्था है। . ___ "वृकोदर"- ( वृक=अग्नि, उदर = पेट; वृक नामा अग्निके पेटमें रहनेके कारण भीमका नाम वृकोदर है )-वायुतत्व । अग्नि वायुसे ही उत्पन्न हो फिर वायुमें ही लयको प्राप्त होती है, इसीलिये कहा जाता है कि वायुके भीतर अग्नि है। इसी कारणवश वायुतत्वको वृकोदर कहा जाता है। वायुका स्थान हृदयस्थ अनाहत चक्र है । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ श्रीमद्भगवद्गीता साधन क्रमसे यहाँसे दीर्घ घण्टा निनादवत् एक शब्द उठता है, उसीका नाम पौण्ड्र-शंखध्वनि, अहंकार वृत्ति वा सास्मिता सम्प्रज्ञात समाधि अवस्था है। ___ "महाशंख"-"नृललाटास्थिखण्डेन रचिता जपमालिका। महाशंखमयी ज्ञया महाविद्या सुसिद्धिदा ॥” (नोलतन्त्रम् )। अर्थात् आज्ञाचक्रके ऊपर "दशांगुल” स्थानमें ( कपालके अस्थिखण्डके नीचे ही, माथाके विउके बाहरमें ) ५१ एकावन छिद्रयुक्त अति कोमल एक खण्ड अस्थि है; उसीको महाशंख कहते हैं। उसके ठीक बीचके छिद्रको सुमेरु कहते हैं। शरीरका समस्त स्थान ही आहत है, केवल वह दांगुल परिमित स्थान ही अनाहत है। साधनाक्रममें वायु जब वह सुमेरु भेद करके सहस्रारमें जाती है, तबही दीर्वधण्टा-निनादवत् अकम्पन महाशंख-ध्वनि सुनने में आती है; वही भोमकी शंखध्वनि है। 'युधिष्ठिर"-( युद्ध करके जिसको कोई हटा नहीं सकता )= आकाश-तत्व। आकाश सदा काल स्थिर है; मट्टी-जल-तेज -वायुको प्रबल ताड़नासे भी आकाशमें किसी प्रकारकी चंचलता नहीं आतो; इसीलिये आकाश-तत्वका नाम युधिष्ठिर है। इनका विशुद्ध चक्र है; साधनकम में इस चक्र से मे -गर्जन-शब्दवत् शब्द उठता है; इसीको अनंतविजय-शंखध्वनि कहते हैं, क्योंकि इस शब्दको दूसरा कोई शब्द अतिक्रम करं नहीं सकता। इस शब्दमें मन मिला देनेसे सर्ववृत्तिशून्य असम्प्रज्ञात समाधि अवस्था आती है। ___ "नकुल" =रसतत्व। जितने प्रकारका रस है, भोग करके उसका शेष कोई कर नहीं सकता, अर्थात् भोगसे रसका पार (सीमा) मिलती नहीं; इस कारण रसतत्वका नाम नकुल है। इनका स्थान लिङ्गमूलस्थ स्वाधिष्ठान चक्र है। साधन क्रममें यहाँसे वेणुशब्दवत् शब्द उठता है; जिसका नाम सुघोष शंख ध्वनि है, यह निश्चयात्मिकता वृत्ति वा सविचार सन्प्रज्ञात समाधि अवस्था है। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ प्रथम अध्याय "सहदेव” = पृथ्वीतत्व । (सह-सहित, देव जो खेलता रहता है)। पृथ्वीके साथ ही जीवका खेल, अर्थात् पांच भूतोंके भीतर शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये पांच गुणयुक्त पार्थिवाणुके साथही जीवका घनिष्ठ सम्बन्ध अधिक है; इसलिये पृथ्वी-तत्वका नाम सहदेव है; इस घनिष्ठताके कारण ही ( स्थल ) शरीराभिमान प्रबल है। मूलाधार चक्र इस पृथ्वीतत्वका स्थान है; साधन क्रमसे यहांसे मत्तभृगशब्दवत् शब्द उठता है; यही मणिपुष्पक शख ध्वनि है, यह संशयात्मिका वृत्ति वा सवितर्क सम्प्रज्ञात समाधि अवस्था है। कूटस्थ लक्ष्य करके ही क्रिया करनेका उपदेश है। भाज्ञाचक्रमें अकम्पन स्थिति लाभ करनेसे ही ज्ञान विज्ञानविद् हुआ जाता है; . क्योंकि यहां अति सूक्ष्माकारसे पंचतत्व ही वर्तमान रहता है, इसलिये मूलाधारादि पंच चक्रका जानने वाला विषय समूह यहां ही मालूम हो जाता है; फिर तत्वातीत निरंजन पुरुष भी वहां विद्यमान हैं, इससे संस्पर्श के लिये “प्रज्ञानमानन्दं ब्रह्म” "तत्वमसि” "अहं ब्रह्मास्मि" इत्यादि महावाक्य समूह का अर्थ प्रत्यक्ष करके, पश्चात् ब्राह्मीस्थिति लाभ करके "सर्वे खलु इदं ब्रह्म" ज्ञानमें जीवन्मुक्त हो करके विचरण किया जाता है। क्रियाकालमें क्रिया करते करते कूटस्थमें मनस्थिर होते होते एक वायु नीचेसे ऊर्द्ध दिशामें सरासर तीब्रवेगसे उठती रहती है, और उसीके साथ एक शब्दका भी उत्थान होता है, उसी शब्दको 'नाद' कहते हैं। किन्तु कूटस्थ में लक्ष्य रखके मनस्थिर होनेके समय, उस वायु का धक्का (शब्डकी ध्वनि ) पहिले आज्ञाचक्रमें ही अनुभव होता है। वह नाद एकाग्र मन कर सुननेसे समझमें आता है कि, भिन्न भिन्न बहुत सा स्वर इकट्ठा मिले हुये एक स्वतन्त्र शब्द सरीखे बज रहा है; वही शब्द ही हृषीकेशका पाँचजन्य शंखध्वनि है। तब ( गुरुपदेशके मतसे) मानस क्रियासे उस ध्वनिके भीतर प्रवेश करने के लिये चेष्टा करनी पड़ती है। चेष्टा मात्रसे ही, उस वायुके Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता शक्तिसंचारके कारण-स्वरूप मणिपुरस्थ तेज-तत्वका आविर्भाव होने पर उस ध्वनिके ठीक बीचमें एक तेजोमय ज्योति खिल आती है (ध्वनेरन्तर्गतं ज्योतिः” ), वेसे साथही साथ ध्वनिका.भी परिवर्तन होता है, तब ठीक झंकारके साथ बीणा-शब्दवत् शब्द बज उठता है । यह शब्द ही अर्जुन का “देवदत्त" शंखनाद है। उस वीणा-शब्दके भीतर मनको प्रवेश कराते जाओ तो, उस ऊर्द्धगामी वायुके धक्कामें वायुतत्वका प्रकाश प्रत्यक्षमें आता है, और साथ ही साथ शब्द बदलकर दीर्घधण्टानिनादवत् ध्वनि श्रुतिमें आती है। यही शब्द भीमका पौण्ड्रनामा महा शंखध्वनि है। इस शब्दके भीतर मनको प्रवेश करानेसे, तीब्र बैद्य दिक शक्ति उत्पन्न हो मनको विशुद्धमें उठाकर आकाशव्यापी कर देती है। बाहर भी शरीरमें रोमाञ्च होता है, और मेघगर्जन सदृश शब्द सुननेमें आता है, वही शब्द युधिष्ठिरका अनंतविजय-शंख ध्वनि है। विशुद्ध कमलमें पहुँच करके उस वायुका वेग एकदम निस्तेज हो जाता है। पांच भौतिकका अवलम्बन न पानेसे वह और ऊपर उठ नहीं सकता, तब धीरे-धीरे नीचे की तरफ विस्तार होता रहता है; निम्नगति होनेसे ही उसका धक्का ( कोई प्रकार बाधा न पाकर ) एकदम स्वाधिष्ठानमें पहुँचते ही सुमधुर वेणु शब्दवत् शब्द उठता है, वहो शब्द नकुलका सुघोष-शंखरव है । इस समयमें एक प्रकार अपार आनन्द रसके प्रकाशसे मन विभोर हो जाता है; किन्तु उस वायुका वेग, नीचेकी तरफ क्रमानुसार प्रबलसे प्रबलतर होनेपर, स्वाधिष्ठानको स्पर्श करके ही मूलाधार में आ जाती है; क्रम अनुसार उसका वेग जैसा स्थिर होता है; वसाही ठीक मत्तभृङ्गके शब्द सदृश शब्द उठता है; जिसका नाम सहदेवका मणिपुष्पक-शंखध्वनि है। इस शब्दमें साधकका मन बड़ा मतवाला हो जाता है; जैसे मतवाला होना, वैसे ही चंचलताका प्रकाश, उस चंचलताको आश्रय करके मन बाहरमें आ पहुंचता है। इस समय साधक को निमिषके भीतर "पृथक् पृथक्" बहुतसा. शब्द एकादिक्रमसे Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय २७. सुनने में आता है। इन सब शब्दोंका विषय १७/१८ श्लोकमें लिखा है। किन्तु मनके चंचलता हेतु उन सब शब्दोंके क्षणस्थायी और . अपरिस्फुट होनेसे वह अच्छी तरह धारणामें नहीं आता। . साधकके क्रियाकालमें प्रवृत्ति और निवृत्तिके ताड़नमें अभिभूत होकर कूटस्थकी तरफ लक्ष्य फेंकने में बाध्य होने पर साधक क्रमान्वय नाना प्रकारके रंग बिरंगे रूप देखते और नाना प्रकार बारीक मोटा स्वर सुनते हैं। उन सबकी बात इन कई श्लोकोंमें कही गई है ॥ १५ ॥ १६ ॥ १७ ॥ १८ ॥ स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्। - नभश्च पृथिवीञ्चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ॥ १६ ॥ अन्वयः। सः तुमुलः घोषः (शब्दः ) नभश्च पृथिवीं च एव व्यनुनादयन् (प्रतिध्वनिभिः आपुरयन् ) धात राष्ट्राणां ( दुर्योधनादीनां ) हृदयानि व्यदारयत् ( विदारितवान् ) ॥ १९ ॥ अनुवाद। उस तुमुल शब्दने आकाश और पृथिवीको अपनो प्रतिध्वनिसे विशेष प्रकारसे परिपूर्ण कर धार्तराष्ट्रोंके हृदयको (मानो) विदीर्ण किया ॥ १९ ॥ व्याख्या। वैसे स्वरसमूह जब सुनने में जाते हैं, तब साधकका अन्तःकरण अवश हो करके उसी तरफ आकृष्ट होता है। पृथिवी । (मूलाधार ) और आकाश (विशुद्ध) पर्यन्त समस्त स्थान हो नादसे परिपूर्ण हो जाता है। परन्तु तब उनके मनमें वासना-वृत्तिके प्रबल रहनेसे भला बुरा समझमें न आनेके कारण उन सब शब्दोंको उपद्रव-जनक समझकर साधक उसे परित्याग करनेकी चेष्टा करते हैं, लेकिन कर नहीं सकते। हृदयमें एक प्रकारकी व्याकुलता आ जाती है, जिससे मालूम होता है कि हृदय मानो विदीर्ण हो गया। साधनक्रममें, सर्व प्रथम नाद् उठना प्रारम्भ होनेसे ही ऐसी अवस्था होती है। यह सब स्वयं ही समझा जाता है, कहकर समझाया नहीं जा सकता। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ श्रीमद्भगवद्गीता उद्वगके समय मनमें एक बुरा भाव उठनेसे उसके बाद ही स्वभावतः अच्छे भावका उदय होता है; यह अभ्रान्त सत्य है। इसलिये साधकके मनमें इस प्रकार "धृतराष्ट्र" भावके उदय होनेके बाद ही ( २० श्लोकमें लिखा हुआ है ) “पाण्डव" भाव उठता है। किन्तु वासनाके प्रबल रहनेसे जैसे ज्ञानकी बातें भी अज्ञानतासे पूर्ण हो जाती हैं; २१ श्लोकमें अर्जुनके कथन समूह भी उसी प्रकारके हैं ॥ १६ ॥ अथ व्यवस्थितान दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान कपिध्वजः । प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः । हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ॥२०॥ अन्वयः। हे महीपते ! अथ ( महाशब्दानन्तरं ) शस्त्रसम्पाते प्रवृत्त ( सति) तदा कपिध्वजः पाण्डव: ( अर्जुनः) व्यवस्थितान् ( युद्धोद्योगे अवस्थितान् ) धात राष्ट्रों को देखके धनुः उद्यम्य ( उत्तोल्य ) हृषीकेशं इदं वाक्यं आह ॥ २० ॥ . अनुवाद। हे महाराज ! अनन्तर शस्त्र सम्पातमें प्रवृत्त होने पर, कपिध्वज अर्जुनने युद्धोउद्योगके लिये अवस्थित धार्तराष्ट्रोके देखके धनु उठाकर हृषीकेशसे यह बात कही ॥ २०॥ व्याख्या। "कपिध्वज"-क्रियाकालमें जुवानको उलट कर नासारन्ध्रके ऊपर श्लेष्माके स्थानको अतिक्रम करके डगला थोडासा बाई तरफ हिलाकर (आपही हिल जाता है) रखना होता है, इसीको साधकको कपिध्वज अवस्था कहते हैं। "धनुरुद्यम”–मेरुदण्ड अर्थात् पीठकी रीढ़का नाम धनु है । "समं कायशिरोग्रीव" होनेसे ही पीठकी रीढ़धनुषाकारमें पिछाड़ीकी तरफ झुक जाती है। छातीको चितकर मस्तकको सीधा उठा चिबुक को कण्ठकूपकी तरफ संयत कर रखनेसे ही मेरुदण्ड उस प्रकार आकार धारण करता है। इसलिये उस प्रकार बैठनेका नाम "धनुरुद्यमन" है। ऐसे समय प्रवृत्तिका दल छिद्र पाते मात्र विषयकी ओर Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. प्रथम अध्याय दौड़ता है। और निवृत्तिका दल भी साधकको आत्मामें मिलानेके लिये आत्ममुखमें ले जाता है, इस प्रकारसे समस्त वृत्तियां भी अपना अपना काम सबसे पहले करने के लिये स्थिर और प्रस्तुत होके रहती हैं। इस प्रकारकी अवस्थाको ही "प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते” कहकर व्यक्त किया गया। इसी अवस्था में ही हृषीकेशका (हृषिका=इन्द्रियां, ईश=नियन्ता) आविर्भाव होता है, अर्थात् समुदाय इन्द्रिय वृत्तिके निज निज कार्यमें उन्मुख रहनेसे उन सबके ऊपर, आधिपत्य करानेकी शक्ति साधकमें आती है, उसी संयम-शक्तिका नाम हृषीकेश है ॥ २०॥ . . अर्जुन उवाच ॥ सेनयोरुभयोमध्ये रथंस्थापय मेऽच्युत ॥ २१ ॥ यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् । कर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥ २२ ॥ योस्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः। धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेयुद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥२३॥ अन्वयः। हे अच्युत ! उभयोः सेनयोः मध्ये मे रथं स्थापयः अहं बोद्ध कामान् अवस्थितान् एतान् -अस्मिन् रणसमुद्यमे कैः सह मया योद्धव्यं ( तत् च ) यावत् ( साकल्य) निरीक्षे। (अपिच ) युद्ध दुबुद्ध धात राष्ट्रस्य ( दुर्योधनस्य ) प्रियचिकर्षिवः ( हितं इच्छन्तः सन्तः ) ये एते अत्र समागताः, अहं तान् योत्स्यमानान् (युद्धार्थीन् ) अवेक्षे ॥ २१ ॥ २२ ॥ २३ ॥ अनुवाद। अर्जुन कहते हैं । हे अच्युत ! हमारा रथ दोनों सेनाके ठीक बोचमें ( सन्धिस्थलमें ) रखिये। युद्धच्छा. करके यह जो संन्य समूह खड़ी हुई है, इस युद्धमें इनमें किसके किसके साथ मुझे युद्ध करना पड़ेगा, उसे अच्छी तरहसे में देख लू। और भी इस युद्ध में दुर्बुद्धि दुर्योधनकी हित कामना करके जो जो यहां आये हैं, उन सब युद्धार्थीयोंका भी मैं दर्शन कर लू॥ २१ ॥ २२ ॥ २३ ॥ व्याख्या। "अर्जुन उवाच”–अब श्रीकृष्णार्जुन सम्बाद प्रारम्भ हुआ। इसलिये कहा गया "अर्जुन उवाच" = अर्जुन कहते हैं । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता अर्जुन (अ+रज्जु+न, ८ म अध्यायका १ म श्लोककी व्याख्या देखिये )--जो पाश मुक्त नहीं है, अर्थात् साधकके संसाराबद्ध जीवावस्थाका नाम अर्जुन है। यहां साधकको ही अर्जुन कहा गया है। साधकको साधनाके जीवन में भिन्न भिन्न अबस्थाओंका भोग करना पड़ता है, उस एक एक अवस्थामें उनका एक एक नाम भी पड़ता है। योगशास्त्रका सारभूत इस गीताको समझनेके लिये साधारणतः साधककी तीन अवस्थाओं का उल्लेख किया जा सकता है। पहली 'अवस्था-दीक्षा-संस्कारसे द्विजत्व ले करके क्रियाके प्रथमसे प्रारम्भ करके मृणालतन्तु सदृश अति सूक्ष्म सुषुम्ना-पथके प्रवेश-द्वारमें आने पर्यन्त होती है। यह अवस्था एकदम चंचलतामय है। यही साधककी बालक अवस्था है। इस अवस्थामें केवल गुरुकृपाबलसे कूटस्थज्योतिसे उन्मना ( ऊर्द्धमें आकृष्ट मन ' होकर क्रिया करते करते साधक्के हृदयमें बलका संचय होता रहता है। यही अवस्था महाभारतमें पाण्डवोंके बनवास-कालके नामसे वर्णित हुई है। इसके बाद द्वितीय अवस्था है। क्रिया द्वारा मनकी प्रबल चन्चलताको नष्ट तथा बाहरका ज्ञान क्षीण करके सुषुम्नामें उस सूक्ष्मातिसूक्ष्मतम छिद्रपथमें मनको प्रवेश कराना ही साधककी द्वितीयावस्था है। उस समय शरीरकी जो जो अवस्था होती, और मनमें जो जो भाव उठते, तथा जो जो दर्शनमें और सुननेमें आते हैं, वही समस्त श्रीकृष्णार्जुनसम्बाद कहकर "गीता" के नामसे वर्णन किया गया है। इस अवस्थामें साधकको केवल अर्जुन नामसे अभिहित किया गया। क्योंकि, वासना क्षय न होनेसे कर्मबन्धन श्हनेसे भी रजः सत्वगुण करके क्रियाशील रहने से उनसे सर्वदा निर्मल कर्म ही सम्पादन होता रहता है। ( महाभारतमें भी लिखा हुआ है कि, सदाकाल निर्मल कर्म करनेसे हो तृतीय पाण्डवका नाम "अर्जुन" हुआ था)। इस 'अवस्थाको प्राप्त ( प्रथम श्लोक कथित धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्रमें आगत ) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय साधकको केवल अर्जुन नाममें निर्देश करनेपर भी, गीताके बहुत ही स्थानमें उनको पार्थ, धनजय, पाण्डव, कौन्तेय, सब्यसाची आदि नामोंसे सम्बोधन किया गया है, क्योंकि देखा जाता है धर्मक्षेत्रकुरुक्षेत्रमें उपस्थित होनेसे भी उनके मनमें प्रथमतः माया-ममतादि रूप दुर्बलताका प्रकाश, फिर बीच बीचमें विराग भाव भी प्रकाशित हुआ, उनके उस समयके मनकी अवस्था समूहको प्रकाश कर देनेके लिये ही भिन्न भिन्न नामसे उनको सम्बोधन किया गया है। और भी एक बात है,-साधकके इस अवस्था में आ पहुंचनेसे सामने चालक स्वरूप कूटस्थचैतन्य "श्रीकृष्ण" आगे खड़े होते हैं, इसलिये कृष्ण सारथि हैं; इस समय साधकके मनमें जाननेके लिये जो इच्छायें होती हैं, कूटस्थचैतन्यकी तेजोमय ज्योतिसे उसका उत्तर स्वरूप उनके मनमें आपही आप उसका मीमांसा प्रकाश पाती रहती है, और नाना प्रकार आकाशसम्भवा (अशरीरी) वाणो भी कह सुनते रहते हैं। वही सब दर्शन, श्रवण करके साधक अवाक हो करके स्तम्भित हो जाते हैं। ( ११ श अः में यही सब व्यक्त हुआ है ) । इसके बाद तृतीयावस्था है। उस द्वितीयावस्थामें क्रिया करते करते सुषुम्नाके भीतर ब्रह्मनाड़ीसे ऊचे तरफ उठते उठते जब भीष्मरूप अविद्याभुक्त अहंत्व (देहात्माभिमान ) निष्क्रिय हो जाता है, तब साधककी एक प्रकारकी समाधि होती है। समाधिके भोग कालमें उनकी साधनाकी चेष्टाके स्थिर हो जाने पर विकर्म रूप सञ्चित कर्म राशि फल देनेके लिये उनको बार बार खींच करके अनजान भाव में नीचे उतारकर एकदम बाहरके विषयमें लगा देती है। सुतरां तब उनको मनो-धर्मशील होना पड़ता है। उस समय चतन्यज्योतिका प्रकाश न रहनेसे, स्मृतिशक्ति के सहारेसे अन्धवत् क्रिया करके साधनलब्ध अनुभवात्मिकी दिव्य हशक्तिसे आमूल अपना साधन-प्रकरण उनको देखना पड़ता है। इस अवस्था प्राप्त साधकको गीतामें धृतराष्ट्र कहा गया है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता ___ महाभारतमें लिखा है, धृतराष्ट्र अर्जुनके ज्येष्ठतात हैं। अतएव एकही साधकको एकदफे अर्जन और एकदफे धृतराष्ट्र कहना विसदृश जान पड़ता है। किन्तु मनमें रखना उचित है कि, गीता योगशास्त्र है। २४ तत्वोंके जिस तत्वमें जब चेतना शक्ति खेलती रहती है, उस समयमें वही तत्व चेतनायुक्त हो करके अपना काम करती रहती है। जो कुछ काम काज है वह एक हो शरीरमें वृत्तिभेद करके भिन्न भिन्न भावमें होता रहता है। इसीसे यहां पितापुत्र-आत्मीय-स्वजनादिवत् कोई सम्बन्ध ही नहीं। रूपककी वर्णना करनेसे उन्हीं सब सम्बन्धोंको ले गपोड़ा बांधना पड़ता है। योगशास्त्रसे इतिहासकी यही पृथकता है। द्रष्टव्य (१) गीताको समझनेके लिये तीन अवस्थाओं अवश्य समझना चाहिये। इन तीन अवस्थाओंको छोड़ करके साधककी और भी अनेक अवस्थायें हैं। उसकी अन्तकी अवस्था महाप्रस्थानकाल है। जिसका उपाय ८ म अध्यायमें वर्णित किया गया है। वह सब विषय यहां कहना बेप्रयोजन है । - द्रष्टव्य (२) द्वितीय अवस्था 'श्रीकृष्णार्जुन-सम्बाद” है। इसलिये गीतामें अर्जुन और भगवान्की उक्ति समस्तको इस अवस्थाको लक्ष्य करके ही समझना चाहिये। और तृतीय अवस्था "धृतराष्ट्रसंजय सम्बाद” है; इसलिये संजयकी उक्ति समूहको साधककी तृतीय अवस्थाको लक्ष्य करके समझना होगा। अब २१ । २२ । २३ श्लोक का अर्थ कहा जाता है___ साधक सुषम्नाके प्रवेश-द्वारके ठीक भीतर पहुँचकर देखते हैंहैं-कूटस्थके स्निग्ध तेजकी ज्योति “अच्युत” अर्थात् स्थिर, धीर अथच आकर्षण शक्तिसे युक्त है। उसमें साधककी दृक्शक्ति सम्पूर्ण रूपसे आकृष्ट हो जाने पर फिर दूसरी तरफ नहीं जाती, स्थिर हो रहती है; ( यही अच्युत अवस्था है )। साधककी दृष्टि इस प्रकार स्थिर Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय होनेसे भी, विषयवासनाका क्षय न होनेसे उनको चंचलताग्रस्त भी . होना होता है; किन्तु गुरुपदेशके अनुसार प्रवृत्ति-निवृत्ति या आकर्षण-विकर्षण शक्ति-दोनोंके मध्य स्थानमें (सेनयोरुभयोर्मध्ये ) रहनेकी चेष्टा भी बलवती रहती है। यही भाव २१ श श्लोकमें व्यक्त हुआ है, इस समय साधकके मनमें स्मृति उठती है—एकदफे देख लू ! कौन कौन वृत्तियां अब परस्पर प्रतिद्वन्द्वि भाव करके वर्तमान हैं; किसके साथ मुझको युद्ध करना पड़ेगा (२२ श श्लोक ) वा विषयवासना वृत्तियोंको बलवत् रखनेके लिये कौन कौन वृत्तियां मनमें उदय हुए हैं (२३ श श्लोक ) ॥ २१ ॥ २२ ॥ २३ ॥ संजय उवाच । एवमुक्तो हृषीकेशो गुड़ाकेशेन भारत । सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥२४॥ भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् । उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति ॥२५॥ अन्वयः। हे भारत ! गुड़ाकेशेन (जितनिद्रे णाजुनेन ) एवं ( उक्त प्रकारेण ) उक्तः ( सन् ) हृषीकेशः ( श्रीकृष्णः ) उभयोः सेनयोः मध्ये भीष्मद्रोणप्रमुखतः (भीष्मद्रोणयोः सम्मुखे ) सर्वेषां च महोक्षिताम् ( राज्ञां सम्मुखे ) रथोत्तमं स्थापयित्वा-हे पार्थ ! एतान् समवेतान् कुरून् पश्य इति उवाच ॥ २४ ॥ २५ ॥ अनुवाद। संजय कहते हैं-हे भारत ! जितनिद्र अर्जुन कर्तृक इस प्रकार उक होने पर हृषीकेशने उभय सेनाके मध्यस्थलमें भीष्म, द्रोण एवं समुदय राजन्य -वौके सन्मुखमें उत्तम रथ स्थापन करके "पार्थ! ये सब समवेत कौरवोंको अवलोकन करो" यह कहा ।। २४ ।। २५॥ व्याख्या। साधक पूर्व कथित प्रकारसे क्रिया विशेषके बाद नीचे उतर. करके मनोधर्मी हो करके दिव्यदृष्टिमें पुनः जो देखते हैं, वही "संजय उवाच" है। और मनोधी हो करके साधक जो आत्मचिन्ता करते हैं, वही उनकी "भारत" अवस्था है। भारतभा-दीप्ति Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ श्रीमद्भगवद्गीता प्रकाश; उसमें रति-आसक्ति जिनकी, वही भारत हैं। एक मात्र चतन्य ही प्रकाश, और चतुर्विंशति तत्वात्मिका प्रकृति ही अप्रकाश है। एवम् प्रकार प्राकृतिक अधिकार में रह करके जो आत्मज्योति लक्ष्य करते हैं, वही भारत हैं। ...- "गुड़ाकेश” (गुडाका = निद्रा, अलसता; ईश=नियन्ता ) = निद्राजयी। अनलस साधकको ही गुड़ाकेश कहते हैं; अविश्रान्त क्रियमान अवस्था ही गुड़ाकेश अवस्था है। निद्राजयी होनेसे ही "अच्युत” लाभ होता है। वही निद्राजयो, जो अज्ञानज निद्राको दमन करके ज्ञानज निद्राका (समाधि-विश्रामका) आश्रय लेनेमें समर्थ हैं; अर्थात् जो साधक क्रिया कालमें निद्राके लिये अवखन्नता तथा चंचलतामें न पड़ करके प्रकाशमय स्थितिलाभ कर सकते हैं। विषयचिन्ता करते करते उससे उत्पन्न अवसन्नतामें अभिभूत हो करके रहनेका नाम अज्ञानज निद्रा वा "निद्रा" है। और श्रात्मलक्ष्य करते करते अपनेसे विषय-वृत्ति मिट जाने पर मनका जो अकम्पन विश्राम होता है, उसीका नाम ज्ञानज निद्रा, आत्मनिष्ठा वा “समाधि" है । इस गुडाकेश अवस्थामें मनमें किसी प्रकारकी इच्छा उपस्थित होनेसे उस इच्छानुसार मानसेन्द्रियको चलानेकी शक्ति पाती है, वह शक्ति कूटस्थसे ही प्रकाश पाती है, इसलिये “अच्युत" को तब हृषीकेश (इन्द्रिय समूहका नियन्ता ईश्वर ) कहा है। ये अवस्था समूह सूक्ष्म होनेसे भी साधन-मार्गमें थोड़ीसी चेष्टा करनेसे ही सहजमें समझमें आ जाती है। उस प्रकार (२१ श श्लोकके लिखे अनुसार) मध्यस्थलमें रहनेकी इच्छा होनेसे ही गुरुकृपालब्ध हृषीकेश (इन्द्रियोंके ऊपर आधिपत्य करनेकी शक्ति ) द्वारा साधक अपना उत्तम रथ उभय सेनाके ऐन बीच स्थानमें स्थापन करते हैं। "रथोत्तम"-रथ कहते हैं जिसमें चढ़के जाया जाता है, अर्थात् जो चलनेवाला बैठनेका वा स्थितिका स्थान है। मूलाधारसे आज्ञा Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय चक्र पर्यन्त तीन स्थितिका स्थान है-“दं” मूलाधार और स्वाधिष्ठान के मध्यस्थल कामपुरमें, “यं" अनाहतमें, और "पं" विशुद्ध कमलके ऊपर और आज्ञाके नीचे मस्तक-ग्रन्थिमें। मनोमय शरीर "द" स्थानमें रखनेसे केवल मूलाधारका ज्ञान होता है; "य" स्थानमें रखने से मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, और अनाहत, यह चार चक्रका ज्ञान होता है; और "प" स्थानमें रखनेसे षट्चक्रका मूलस्वरूप अपंचीकृत सूक्ष्म तत्व समूह कारणके साथ प्रत्यक्ष होता है। और भी वह "प" स्थानमें रहनेसे साधकको कपिध्वज तथा कृष्णसारथी होना होता है। इसीलिये साधन-कालमें उस स्थानको “रथोत्तम" कहा है। ___ "उभय सेना”—प्रवृत्ति ( संसारमुखी वृत्ति ) और निवृत्ति(असंसारमुखी वृत्ति )। "प्रवृत्ति"-वैषयिक अहंकार वा आभासचैतन्य (भीष्म ), एवं विषय-संस्कारज व्यभिचारी बुद्धि (द्रोण) द्वारा चालित वासनामुक्त काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मस्सरता आदि, और इनही सबका पोषक निद्रा, तन्द्रा, संशय, अय, आलस्य, दीर्घसूत्रता प्रभृति साधन-प्रतिकूल विविध वृत्ति समूह है। "निवृत्ति”विवेक, वैराग्य, ज्ञान, भक्ति, श्रद्धा, शम, दम, तितिक्षा, उपरति, समाधान, मुमुक्षुत्त्व प्रभृति साधना के अनुकूल वृत्ति समूह हैं । कूटस्थमें लक्ष्य रख करके चैतन्य ज्योतिको सन्मुखमें प्राप्त हो करके "उत्तम” स्थान अधिकार करके विषयमुखी और श्रात्ममुखी दोनों वृत्तिके ठीक बीचमें रहनेसे भी जनमके प्रारम्भ दिनसे आज पर्यन्त वर्द्धित विषय-संस्कार इस समयमें अति सूक्ष्म हो करके सर्वतोमुखो हो जाता है; इसलिये साधकके मनमें "अहं ममत्व" भाव प्रबलतर हो उठता है। यह "अहंममत्व" भाव जीवका अपने प्रकृतिसे ही प्रकाश पाता है; प्रकृति ही जननी है। इसलिये साधकके उस अवस्थाको 'पार्थ' कहा गया है। पार्थपृथाका पुत्र अर्थात् मातृ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता भावापन्न साधक। प्रथ = विख्यात होना, अकत्र्तवाचक-शब्द अर्थात् जो आपही आप विख्याता या स्वनामख्याता है, उन्होंको "पृथा" कहते हैं। प्रकृति खुदही स्वनामख्याता है। इस प्रकृतिसे उत्पन्न हो करके स्वनामख्यात जो सब है, उन्हीको ही पार्थ कहते हैं । (श्राकाश-युधिष्ठिर, वायु=भीम, तेज =अर्जुन, इन सभों को भी इसीलिये पार्थ कहा है क्योंकि मातृभाव प्रकाश करके ये सब प्रकाशित होते हैं)। साधक इस समयमें आपही आप गुरूपदेशकमसे पूर्वमुखी रहनेसे, प्रतिपक्षीय भीष्म, द्रोण तथा प्रधान प्रधान वृत्ति समूहको (यद्वारा मही अर्थात् पार्थिव सुख भोग किया जाय ) सम्मुखमें देखते रहते हैं। तब "इन सब समवेत कौरवोंको दर्शन करो” इस प्रकारका ज्ञान उनके हृदयमें उठता है ।। २४ ॥ २५ ।। तत्रापश्यत् स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान् । प्राचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा । श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ॥ २६ ॥ अन्वयः। अथ पार्थः ( अर्जुनः ) तत्र उभयोः सेनयोः अपि पितॄन् पितामहान् आचार्यान् मातुलान् भ्रातृन् पुत्रान् पौत्रान् तथा सखीन् श्वशुरान् सुहृदश्च एष स्थितान् ( उपस्थितान् ) अपश्यत् ।। २६ ॥ अनुवाद। अनन्तर अर्जुनने उक्त स्थानमें दोनों सेनाओं के पितृगण, पितामहगण, आचार्यगण, मातुलगण, भ्रातृगण, पुत्रगण, पौत्रगण, तथा सखा-श्वशुर-सुहृदगण-सबका उपस्थित देखा ॥ २६ ॥ व्याख्या। तब वह मातृभावापन्न साधक साधनके अनुकूल प्रतिकूल आमूल वृत्ति समूहको प्रत्यक्ष करते हैं। मनुष्यके शरीरमें साधनाका साहाय्य करनेवाली हजारों नाड़ियां हैं, उन्हीं सब नाड़ियोंसे मन-बुद्धिके सहयोगसे नाना प्रकारकी वृत्ति उठती है, पुनश्च एक वृत्ति उठनेसे उसमेंसे बहुत सी नवीन वृत्तियोंकी सृष्टि Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ प्रथम अध्याय होती रहती है, इस प्रकारसे वृत्ति समूह मिश्र अमिश्र रूप करके अनन्त आकारमें उठती रहती है। शरीर-तत्वविद् भगवत्परायण आर्य्यऋषिगणने उन्हीं सबको रूपकमें परिणत करके संसारवाले नाना सम्बन्धसे सजाकर व्यक्त किया है। इसीलिये यहां पिता पितामह प्रभृति शब्दोंके प्रयोग है ॥ २६ ॥ तान् समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान् बन्धूनवस्थितान् । कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ॥ २७॥ अन्वयः। सः कौन्तेयः ( अर्जुनः ) तान् सर्वान् बन्धून् अवस्थितान् समोक्ष्य परया कृपया ( दयया ) आविष्टः ( गृहीतः ) विषीदन् ( सन् ) इदम् अब्रवीत् ॥२७॥ अनुवाद। उन कुन्तीपुत्र ( अर्जुन ) ने उन समस्त वन्धुगणको रणस्थलमें अवस्थित देख करके, अतिशय करुणाविष्ट तथा विषण्ण होकर यह बात कही ॥ २७॥ व्याख्या। साधक गुरूपदेश प्राप्त कर कैवल्य-स्थिति लेनेके समय देखते हैं कि, विषय-भोगकी समूची वृत्तियोंको नष्ट करना पड़ेगा; किन्तु कैवल्य-स्थितिके ऊपर लोभ रहनेसे भी विषय-भोगको इच्छा तब भी प्रबल रहनेके कारण साधक भोग-साधन वृत्तियोंको अधिक तरहसे अपना विचार, ममतापरायण हो, गुरूपदेशकी कठोरताको थोडासा ढीला करके अपना इच्छाके अनुसार उसको बना लेनेके लिये, वशीकरण मन्त्र स्वरूप निष्फल रोलाई रोते रहते हैं,-"विषय भोग भी करूंगा, योग भी करूंगा, साधु भी होउंगा”—ऐसा होनेसे ही मानो मनके माफिक होगा। साधकके इस प्रकार अपने वशमें रहनेकी चेष्टाको ही-"कौन्तेय" शब्द द्वारा प्रकाश किया गया है । कुन्ती आकर्षणी मन्त्र द्वारा अपनी इच्छानुसार देवताओंको अपने वशमें लाई थी। अर्जुन भी माताके स्वभावका अनुकरण करके कृष्णको (गुरुको ) अपने वशमें लाकरके एकही साथ भोगी तथा योगी दोनों हो होनेका चेष्टा करते हैं। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता ___ गुरुने उपदेश दिया है विषय-वासनाको एकदम त्याग करनेके लिये; किन्तु शिष्य उस वासनाको ही प्राणका प्राण मान करके उसके ऊपर अत्यन्त कृपा-परवश (आसक्त) होते हैं। पश्चात् इस प्रकार अवस्थापन्न होनेसे मनमें जिस जिस भावका उदय होता है वह वही कहते हैं ॥२७॥ अर्जुन उवाच । दृष्ट्मान् स्वजनान् कृष्ण युयुत्सून् समवस्थितान् । सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।२८।। वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते । गाण्डीवं संसते हस्तात् त्वक् चव परिदह्यते ॥२६॥ अन्वयः। अर्जुनः उवाच। हे कृष्ण ! इमान् स्वजनान् ( बन्धुजनान् ) युयुत्सून् समवस्थितान् ( योद् म् इच्छन्तः पुरतः सम्यगवस्थितान् ) दृष्ट्वा मम गात्राणि (करचरणादीनि ) सीदन्ति ( विशीयन्ते ) मुखं च परिशुष्यति; मे शरीरे वेपथुश्च रोमहर्षश्च जायते, हस्तात् गाण्डीवं स्रसते, त्वक् च एव परिदह्यते ॥ २८ ॥ २९ ॥ ___ अनुवाद। अर्जुन कहते है-हे कृष्ण ! युद्ध च्छु ये सब अपने जनों को सामने उपस्थित दर्शन करके हमारा सकल अंग अषसन्न और मुख परिशुष्क होता है, हमारा शरीर विशेष करके कम्पायमान तथा रोमाश्चित होता है, हाथकी मुट्ठीको ढिलाईसे गाण्डीव गिरा पड़ता है, एवं हमारे सर्व शरीरमें जैसे एक ज्वालासी जान पड़ता है ॥ २८ ।। २९ ॥ व्याख्या। इस अवस्थामें साधककी मानसिक चंचलता अधिकसे अधिक होने पर, शरीरसे पसीना निकलता, मुख सूखता, तमाम शरीर कांपता, और रोमाञ्चित् होता है। हाथकी मुट्ठी ढीली होनेसे गाण्डीव (धनुष ) हाथसे खिसक पड़ता है, और सर्व शरीरके भीतर बाहर एक ज्वाला जैसी मालूम पड़ती है। इन सब अवस्थाओंको साधक मात्र ही स्वतः अनुभव करते हैं, इसलिये अधिक समझानेका और प्रयोजन नहीं। किन्तु मुट्ठीसे गाण्डीव खिसक पड़नेके सम्बन्धमें Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय थोड़ासा समझाना होगा। "समंकायशिरोमोवं" हो करके बैठनेसे साधकका मेरुदण्ड (पीठकी रीढ़ ) पीठके तरफ संकोच हो करके पीठको डोंगा सरिस बना देती है। इस अवस्थामें स्थित मेरुदण्डको गाण्डीव कहते हैं। साधकके मनमें चंचलता आनेसे ही शरीरमें कम्पादि उपस्थित हो करके सर्व शरीर टन टन् झन् झन् करके साधकको और सीधा रहने नहीं देता। शरीर ढीला होनेसे ज्ञानमुद्राका बन्धन भी खुल जाता है। इस अवस्थाको "गाण्डीव गिरपड़ा" कह कर व्यक्त किया गया है ॥ २८ ॥ २६ ।। न च शक्नोम्यवस्थातु भ्रमतीव च मे मनः। निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ॥३०॥ अन्वयः। अवस्थातुं न च शक्नोमि, मे मनः च भ्रमति इव । हे केशव । विपरीतानि निमित्तानि च ( अनिष्टसूचकानि लक्षणानि ) पश्यामि ॥३०॥ अनुवाद। मैं और बैठ नहीं सकता, मेरा मन चक्र घूमनेकी तरह घूमता है; केशव ! में विपरीत दुर्लक्षण समूहको देखता हूँ ॥ ३०॥ व्याख्या। इस अवस्थामें साधक बड़े व्याकुल हो पड़ते हैं, साधनामें एक पग भी आगे बढ़ नहीं सकते; मन अत्यन्त चंचल हो करके भ्रमणशील अवस्थाको पहुँचता है, और तमाम विपरीत लक्षण भी प्रकाश पाते रहते हैं। इसलिये साधक कहने में बाध्य होता हैकहाँ कैवल्य-स्थिति पाकर शान्ति लाभके उद्देश्यसे. योग, सो ऐसा न होकरके, हे केशव! (१० म अध्यायके १४ श श्लोकमें केशव पदका अर्थ देखिये ) यह तो देखता हूँ ठीक विपरीत-प्राणको संशयमें डालनेवाली यन्त्रणामय नरक-भोगके निमित्त है। मैं तो और स्थिर रह नहीं सकता ॥ ३०॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे। न कांक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ॥३१॥ अन्वयः। हे कृष्ण ! आहवे ( युद्ध ) स्वजनं हत्वा श्रेयः (कल्याणं ) न च अनुपश्यामि विजयं च न कांक्षे राज्यं सुखानि च न ( कांक्षे ) ॥ ३१॥ अनुवाद। हे कृष्ण। युद्ध करके अपने स्वजनके मारनेसे मैं तो कोई शुभफल नहीं देखता; मैं विजय नहीं चाहता, राज्य नहीं चाहता, सुख भी नहीं चाहता ॥ ३१॥ ___ व्याख्या। इन सब श्लोकोंमें “कृष्ण" शब्दका व्यवहार होनेसे समयोचित यथार्थ भाव प्रकाश हुआ है। कृष्ण कूटस्थचैतन्य हैं। "कृषि भू वाचकः शब्दो णश्च निवृत्ति वाचकः। तयोरैक्यं परब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते"। कृषि =कर्षणे, भूः वाचक शब्द; ण= निवृत्तिवाचक शब्द, मुक्ति इच्छा न रहनेसे भी जो महापुरुष खींच ला करके निर्वाणको प्राप्त करा देते हैं, वहीं कृष्ण हैं। साधकके मनमें विषयवासना प्रबल होनेसे मन चंचल हो करके नीचेकी तरफ उतरना चाहता है, शरीर भी शिथिल होता रहता है, किन्तु कूटस्थका वही मन मतवाला करने वाली मोहिनी रूप उसको खींच रखती है, उतरनेकी इच्छा होनेसे भी मानो उतरने नहीं देती। साधककी यह अवस्था ठीक सर्पका छुछुन्दरी पकड़नेके सदृश है, अगरच छोड़दे तो अन्धा हो, अर्थात् मन मतवाला वह मोहिनी रूप और देखने न पाता; यदि निगल जावे ( उस ज्योतिको यदि अपने अन्तःकरणमें रख ले) तो ऐसा होनेसे मर जावे, अर्थात् उनकी वह वासना समूह नष्ट हो जावे। अब उनको उभय संकट आ पहुंचा। इसलिये कहते हैं कि, हे कृष्ण ! इस समरमें अर्थात् प्राणायाम क्रिया द्वारा इस वृत्ति समूहको नष्ट करनेसे किसी प्रकार कल्याण दिखाई नहीं देता ( क्योंकि शान्तिके बदले में केवल अशान्ति ही आती है ); विजय मैं नहीं चाहता, राज्य सुख भी नहीं चाहता। "विजय" =संयम; "राज्यं सुखानिच" =योगसिद्धि ॥३१॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय ४१ किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगेर्जीवितेन वा। येषामर्थे कांक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ॥३२॥ त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च । श्राचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ॥३३॥ मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिस्तथा। एतान्न हन्तुमिच्छामि नतोऽपि मधुसूदन ॥३४॥ अन्वयः। हे गोविन्द ! न: ( अस्माकम् ) राउयेन किं (किं प्रयोजनं ), भोगैः “जीवितेन वा किं? येषां अर्थे नः ( अस्माकम् ) राज्यं भोगाः सुखानि च कांक्षितं, ते इमे आचार्याः पितरः पुत्राः तथा एव च पितामहाः मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः तथा सम्बन्धिनः प्राणान् धनानि च त्यक्त्वा (प्राणधनादित्यागं अंगीकृत्य युद्धार्थे ) युद्ध अवस्थिताः। हे मधुसूदन ! नतः अपि ( अस्मान् मारयतः अपि ) एतान् हन्तुम् न इच्छामि ॥ ३२ ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ अनुवाद। हे गोविन्द ! राज्यसे अस्मदादिका क्या प्रयोजन ? भोग सुखसे भी क्या प्रयोजन ? जीवनसे भी प्रयोजन क्या ? जिन लोगोंके लिये हम सबको राज्य, भोग और सुखकी प्रार्थना है, वही सब तो वह आचार्यगण, पितृगण, पुत्रगण और ऐसे कि पितामहगण, श्वशुरगण, पौत्रगण, श्यालकगण, तथा कुटुम्बगण धन और प्राण की आशा छोड़ करके मरने मारनेके लिये इस युद्ध में उपस्थित हुये हैं । हे मधुसूदन ! हम लोग इन लोगों द्वारा बध होनेसे भी इन लोगों का विनाश करनेकी मैं इच्छा नहीं करता ॥ ३२ ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ व्याख्या। "गोविन्द”। -गो शब्दमें पृथिवी; इस पृथिवीको जो पालन करता है, वही गोविन्द हैं। साधक अब देखते हैं, कि इस शरीर रूप क्षेत्रमें साधककी जो कुछ अन्तःकरणवृत्ति है, समस्त ही कूटस्थचैतन्य द्वारा प्रकाश पा रही है; वह अच्छी तरह समझते हैं कि किसीके ऊपर उनका अपना कुछ कर्तृत्व नहों, जो कुछ है वह समस्त चेतना-शक्तिसे ही होता है; तथापि मायाके विपाकमें पड़ करके "अपने पराये” का भ्रम उनका नहीं मिटता। इसलिये साधक ज्ञानके Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ श्रीमद्भगवद्गीता प्रकाशके समयमें कूटस्थचैतन्यको गोविन्द करके भी जानते हैं, फिर मातृभाव ( अहं-ममत्व-ज्ञान करके विषयासक्ति) ले करके कहते हैंराज्य लेके अस्मदादिका क्या होवेगा ? भोगमें प्रयोजन क्य. ? जिन्दा रहनेसे आवश्यक क्या ? जिन लोगोको लेकरके इच्छा करता हूँ कि राज्य-भोग सुख-भोग करूंगा, वही सब तो इस युद्ध में धनप्राणत्याग करेंगे ऐसा ही दिखाई देता है। हे मधुसूदन ! मैं आपही मरू सो भी अच्छा है, इन सबको नष्ट (त्याग ) करनेमें मैं राजी नहीं हूँ। ___ अब देखना चाहिये-"राज्य, भोग, सुख” ये सब कौन चीज हैं ? साधनका उद्देश्य है कि जन्म-मरण रूप संसार-बन्धनसे मुक्त होना, अर्थात् मरत्व परित्याग करके अमरत्व लाभ करना। शरीर षविकार-सम्पन्न है। "अस्ति, जायते, बर्द्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति इति षट विकाराः”। अज्ञानता करके पहिलेसे ही साधककी धारणा है कि साधना करनेसे ही शरीरके वह विकार समूह नष्ट हो जावेंगे, और यह शरीर रूप राज्य उनके स्वायत्त होगा, जितने दिनों इच्छा हो यह राज्य अपने इच्छा अनुसार भोगते रहेंगे और सुखी होवेंगे; जल स्थल अन्तरीक्षमें रह करके विषय-संगके साथ ब्रह्मानन्द-सुख भोग करते रहेंगे। किन्तु हाथ हथियार करके साधनामें प्रवृत्त होकरके देखते हैं कि, सब ही विपरीत है; पहिले ही उनको बड़े प्यारका भोग-वासना त्याग करना पड़ता है, बादमें अहंकारको जन्म भरके लिये बिदा देना पड़ेगा, और विषय-बुद्धिको एकदम जलांजली देनी होगी; और भी देखते हैं कि, चक्षु-कर्ण-नासिकादि इन्द्रिय-समूह को संयत करके सर्वद्वार निरुद्ध करना होगा, ऐसे कि मनको भी हृदयमें अवरोध करके प्राणको मस्तकमें स्थापन करना पड़ेगा। ऐसे ही सब काम करनेके लिये जब वह गये, तब देखते हैं कि, प्राणान्त करनेवाली शारीरिक यातना है । तब मनमें होता है कि जीवनमुक्तिके Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय ४३. सुख भोगकी कोई आवश्यकता नहीं, मैं जैसे हूँ वैसे ही अच्छा। पर जाऊं तो भी अच्छा है, तथापि भोग-वासना नष्ट करना अच्छा नहीं; संसारमें वासना पूरण नहीं होता केवल अभाव भोग करना पड़ता है। वह भी अच्छा है, तथापि इस प्रकार कष्ट सहा नहीं जाता; चक्षुकर्णादि संयत करनेसे अन्धा-बहिर होना पड़ेगा ऐसा होने से यह शरीर रूप मांसपिण्ड बहन करके व्यर्थ जीवनमुक्त नाम लेके घूमनेका प्रयोजन नहीं। और भी इस प्रकारकी अवस्या में भोगवासना त्याग करके जीवित रहनेसे कौन प्रयोजन सिद्ध होवेगा ? मरना ही अच्छा ह । ( अज्ञानताके लिये पहिले पहिले साधन कष्टसे अधीर होकरके साधकके मनमें इस प्रकारके सोच का तरंग उठता रहता है। साधन मार्गमें थोड़ीसो चेष्टा करनेसे ही यह सब अनुभव प्रत्यक्ष होता है )। __ "मधुसूदन"। -शरीरकी तथा मनकी यन्त्रणा (आधिव्याधि) में अधीर होकरके अपनेको नितान्त विपदग्रस्त समझके साधक "विपत्तेमधुसूदनः” इस वचनको स्मरण करके कूटस्थके तरफ लक्ष्य करके मधुसूदन शब्द उच्चारण करते रहते हैं। क्योंकि अशुभ नष्ट करते हैं कह करके हरि का नाम मधुसूदन है । यथा "मधुक्लीवं च माध्वीके कृतकर्म शुभाशुभे। भक्तानां कर्मणाचैव सूदनं मधुसूदनः॥ परिणामाशुभं कर्म भ्रान्तानां मधुरं मधु । करोति सूदनं योहि स एव मधुसूदनः ॥ "प्राचार्य्याः पितरः पुत्राः” इत्यादि । -नाड़ी-चक्रके भीतर स्थिर वायुकी क्रिया द्वारा साधकमें जिस जिस प्रकार शक्ति लाभ होती हैं, और उस उस शक्तिसे जिस जिस प्रकार की वृत्तियां उत्पन्न होती हैं, उन सबको इत्याकार जानिये। जो महाभाग क्रिया करके क्रियामें प्रतिष्ठा लाभ करते हैं. वही पुरुष अपने पाप यह सब समझते हैं। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ - श्रीमद्भगवद्गीता इस प्रकार निजबोध ज्ञानको भाषामें व्यक्त करनेकी चेष्टा करना विडम्बनाके अतिरिक्त और कुछ नहीं ॥ ३२ ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किन्नु महीकृते । निहत्य धार्तराष्ट्रान् नः का प्रीतिः स्याज्जनाईन ॥३५॥ अन्वयः। त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः ( प्राप्त्यर्थे ) अपि ( हन्तु न इच्छामि ); किन्तु ( किं पुनः ) महीकृते ( महीमात्र प्राप्तये )। हे जनाईन ! धार्तराष्ट्रान् निहत्य नः ( अस्माकम् ) का प्रोतिः स्यात् ? ॥ ३५ ॥ ___ अनुवाद। सामान्य पृथिवी का क्या बात है, त्रिभुवनका राजत्व प्राप्त होनेसे भी मैं इन लोगोंको मारनेकी इच्छा नहीं करता हूँ; हे जनाईन ! धातसष्ट्रों को विनाश करके हम सबको क्या सुख लाभ होगा ? ॥ ३५ ॥ व्याख्या। जनाईन = (जन+अ =यात्रा करना+अनट) 'पुरुषार्थ लाभके लिये जनोंसे जो याचित होते हैं। जनाईन-शब्द प्रयोगसे साधकका यह मनोभाव प्रकाश पाता है कि हे गुरो! दया कीजिये ! इस प्रकार कठोरता स्वीकार हमसे हो नहीं सकता; मुझसे जो हो सकता है, जिसमें मेरा भोग भी रहे और योग भी हो, ऐसा कोई उपाय कहिये। (अब साधक सांसारिक बुद्धिसे परिचालित होकरके अथच धर्मभाव अवलम्बन करके अपनेही जिद वजाय रखनेकी चेष्टा करते हैं )॥३५॥ पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः । तस्मान्नाहीं वयं हतु धार्तराष्ट्रान सबान्धवान् । स्वजन हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥३६॥ अन्वयः। एतान् ( आत्मीयगुरुजनसमन्वितान् ) आततायिनः* ( शत्रुन् ) हत्वा अस्मान् पापं एव आश्रयेत् तस्मात् सबान्धवान् धात राष्ट्रान् हन्तु वयं न अर्हाः ( योग्याः) हे माधव ! स्वजनं हि हत्वा कथं सुखिनः स्याम ।। ३६ ॥ * अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपणिर्धनापहः। क्षेत्र दारापहारी च पड़ेते आततायिनः ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय अनुषाद। इन लोगोंके आततायी ( शत्रु ) होनेसे भी इन लोगोंका प्राण लेनेसे हम लोग पाप भागी होवेंगे, कारण सबान्धव दुर्योधनादिको विनाश करना अस्मदादि को उचित नहीं। हे माधव ! स्वजन वध करके अस्मदादि को क्या सुख. मिलेगा ? || ३६ ॥ व्याख्या। "माधव" मा लक्ष्मी, धव=स्वामी । साधकके मनमें उठता है कि, जो त्रिलोकके नियन्ता हैं, वही माधव-लक्ष्मीपति हैं; फिर वही महापुरुप योगाचार्य भी हैं, उनमें तो भोग, योग, दोनों ही वर्तमान हैं; तब उन्हींका अनुकरण करना अच्छा है। यह सब सोचते हैं कि, ये सब वृत्ति मेरे अन्तःकरणमें हैं इस करके मैं साधनाके रास्तामें बाधा पाता हूँ सही, किन्तु इन सबके नष्ट करनेसे ही हममें धर्म कहां रहता है ? हमारा शरीर रूप संसार इन्द्रियोंके सहारा बिना क्षणमात्र भी चल नहीं सकता। इन्द्रियोंका काम काज बन्द करना ही यदि योग हो, तब पाप और किसको कहूँगा ? इन्द्रियोंके काम काज बन्द होनेसे शरीरमें व्याधि (आत्मपीड़न), उपस्थित जरूर होवेगी; सो कदापि धर्म हो नहीं सकता; स्वजन बध करनेका पाप होगा ही, सुख क्या मिलेगा ? अतएव हे गुरो! इन सबकी रक्षा करके अगर योगका उपाय हो तो मुझसे कहिये, नहीं तो इन सब पाप कर्ममें हमारी प्रवृत्ति नहीं होती ॥ ३६ ॥ यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः । कुलक्षयकृतं दोष मित्रद्रोहे च पातकम् ॥ ३७॥ कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितम् । कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनाईन ॥३८॥ अन्वयः। हे जनाईन! यद्यपि एते (धात राष्ट्राः ) लोभोपहतचेतः ( राज्यलोभेन भ्रष्टविवेकाः सन्तः ) कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकं न पश्यन्ति, कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिः अस्माभिः अस्मात् पापात् निवतितु कथं न ज्ञेयं । (निवृत्तावेव बुद्धिः कर्तव्या इत्यर्थः ) ३७ ॥ ३८ ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद । यदि लोभके मारे चेतना गँवाकर धार्तराष्ट्रगण कुलक्षयकृत दोप और मित्रद्रोहके पाप देख नहीं रहे हैं, किन्तु हे जनाईन! हम लोग कुलक्षयकृत दोष को प्रत्यक्ष करके इस पाप कार्यसे निवृत्त क्यों न होवे? ३७ ॥ ३८ ॥ व्याख्या। ६ष्ठ अध्यायके ५म श्लोकमें है, "आत्मैव ह्यात्मनौ बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः' अर्थात् श्राप ही अपने बन्धु श्राप ही अपने शत्र हैं। इस शरीर रूपी राज्यमें मनुष्य जब वासनाधीन रहते हैं, तब वह पापही कभी भोगी कामी वा चोर इस प्रकार नाना साजमें सजते रहते हैं। इस समयमें भले भावको उनका मन छूता ही नहीं, मनमें भला भाव अानेसे भी, असह्यकर समझ करके उस भावको मन से भगा देते हैं। फिर उसी मनुष्यका जब कोई सत् काम काज वा सत् चिन्ता करने वाला समय आ जाता है, तब मन्द भावको भी उनका मन छूता नहीं। मन्द भाव मनमें उठनेसे उसको शत्रु समझ करके मनसे दूर कर देते हैं। फिर आप ही आप अपने मनको बुरे भावसे अलग होते, और भले काममें लगे रहनेका उपदेश करते हैं; आपही अपने उपदेष्टा, आपही अपने शिष्य होते हैं। मनुष्य मात्र को यह अवस्था मालूम है। साधनामें भी ऐसा ही है। एक साधक ही, एक बार धृतराष्ट्र होते हैं, एक बार दुर्योधनादि होते हैं, फिर भीष्म, द्रोण, कर्ण प्रभृति भी सज करके दर्शन देते हैं, वासनाके वशवत्ती होकर मनमें जब जो भाव उठता है, तब वह आकार ही धर लेते हैं। फिर जब वासना क्षय करनेका समय आता है वा चेष्टा करते हैं, तब भी मनमें जो जो भाव उठता रहता है, उसी उसी भावके अनुसार अपनेको उसी भावका भावुक श्राकारसे गढ़ लेते हैं। उसके फलसे कभी अपने ही कर्ता कभी उपदेष्टा, कभी पात्मज्योतिके पूर्ण विकाशमें पड़ करके कूटस्थचैतन्यमें मिलके गुरु बन जाते हैं । पुनश्च कूटस्थसे उतर पा करके जीव सजके अर्जुन बन करके प्रश्न करते रहते हैं। बात यह है कि, एक ही साधक साधन क्रममें जैसी जैसी अवस्थामें Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ प्रथम अध्याय आ पड़ते हैं, उसी उसी भावापन्न हो करके कार्य करते रहते हैं। यह एकलेसाईपना ही गीताका मूल तत्त्व है। ___ इस ३१३८ श्लोकका अन्तर्गत भाव भी ठीक इसी अनुरूप है। साधक अपने प्रतिकूल वृत्तियोंको चेतना-सम्पन्न मनमें निश्चय करके आप ही आप बोलते रहते हैं। एकही अन्तःकरणसे समुदय वृत्तियां उत्पन्न हुई हैं, इसलिये ये सब एकही कुल-सम्भूत हैं। इन सबका कार्य है, आब्रह्मस्तम्ब पर्यन्त विश्वब्रह्माण्डका ज्ञान ला करके चित्तपटमें पहुँचा देना; अतएव यह सब (एकक्रिय) मित्र हैं। प्रभेद का विषय यह है कि, इन सबके भीतर एक अंश केवल मात्र ब्रह्मज्ञानको ला करके चित्तको प्रकाशमान करते हैं, और दूसरे अंश केवल मात्र विषय-ज्ञानको ला करके चित्तको आवरित करते हैं। साधक ब्रह्मज्ञानकी तरफका एक (अर्जुन ) बन करके अपना बनाया हुआ गुरु स्वरूप अपनेको अर्थात् कूटस्थचैतन्य ( जनाईन ) को कहते हैं, यह विषय-ज्ञानके दल समूह लोभके मारे हत-बुद्धि हो गये हैं, इस युद्धके प्रारम्भ होनेसे दोनों पक्षके क्षयहेतु कुलक्षय का दोष, और मित्रबध का पाप होवेगाही, वह इन सबकी नजरमें आता ही नहीं; किन्तु हम लोग जान सुनके इन पापोंसे निवृत्त क्यों न हों? ॥ ३७॥ ३८ ॥ कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः। धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥३६॥ अन्वयः। कुलक्षय ( सति ) सनातना8 ( परम्पराप्राप्ताः ) कुलधर्माः प्रणश्यन्ति, धर्मे नये (सति) अधर्मः कृतस्नं कुलं उत (अपि ) अभिभवति (आप्नोति ) ॥३९।। अनुवाद। कुलक्षये होनेसे सनातन कुलधर्म नष्ट होवेगा, धम्म मष्ट होनेसे समस्त कुल अधर्मसे परिपूर्ण हो जावेगा ॥ ३९ ॥ व्याख्या। कुलक्षय-“कु” =शब्दस्पर्शादि विषय “ल” =भोगवासना। विषयभोगवासनाका नाम "कुल" है। विषय दो प्रकारके Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ श्रीमद्भगवद्गीता हैं। बाहरके अांख, कान, नाक आदिसे जो शब्दस्पर्शादि भोग होता है, वह भी विषय है; और सर्वद्वार संयम करके आत्ममुखमें जो रूप-रस-शब्दादि उपभोग किया जाता है, वह भी विषय है। प्रथम वाला वहिर्विषय है, इसलिये स्थूला दूसरा अन्तर्विषय है इसलिये सूक्ष्म है। वहि विषय-भोगसे विषयमें लपटना, और अन्तर्विषय-भोगसे विषय त्यागके लिये विषयसे अलग होना पड़ता है। यह स्थूल-सूक्ष्म विषय भोग सप्तदश कलासे ही होता है। दश इन्द्रिय, पंच प्राण, मन और बुद्धि यही सब सप्तदश कला हैं; वासना, वैराग्य प्रभृति जो कुछ वृत्तियां हैं, वह सप्तदश कलासे ही उत्पन्न होती हैं। यही समुदय "कुल" है। आत्म-युद्धमें ये समस्त क्षयको प्राप्त होती हैं। इन सबके प्रत्येकका एक एक गुण वा धर्म है, जैसे चक्षुका धर्म देखना, कानका धर्म सुनना, मनका धर्म संकल्प विकल्प करना इत्यादि। ये धर्म, शरीरके साथ ही साथ जन्म ले करके, शरीरान्त पर्य्यन्त सर्वकाल विद्यमान रहते हैं। इसलिये सनातन अर्थात् ( सर्वके ) चिरन्तन। उस कुलक्षयके होनेसे, ये सनातन धर्म नष्ट हो जाता है, जैसे चक्षु निस्तेज होनेसे अच्छा दर्शन होता नहीं, कानके निस्तेज होनेसे सुनाता नहीं, मन दुर्बल होनेसे संकल्प-विकल्प की लहर घट जाती है इत्यादि। इस प्रकार क्षय अर्थात् नष्ट होने पर भी जो कुछ अवशिष्ट रहेगा, वह सब अधर्मसे अभिभूत होवेगा, अर्थात् समस्त उलट-पलट हो जावेगा, जैसे धान कहनेमें कान सुनना, पित्तरोगग्रस्त रोगियोंके आंखसे सुफेद रंगको जरद दिखाई पड़ना, इत्यादि ॥ ३ ॥ अधर्माभिभवात् कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः। .. स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ॥४०॥ अन्वयः। हे कृष्ण ! अधर्माभिभवात् कुलस्त्रियः प्रदुष्यन्ति; हे वार्ष्णेय ! स्त्रीषु दुष्टासु ( सतीषु ) वर्णसंकरः जायते ॥ ४० ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय ४६ अनुवाद। हे कृष्ण ! अधर्मका प्रादुर्भाव होनेसे कुलस्त्रियां दूषिता होवेंगी हे वाष्र्णेय ! स्त्रियोंके दुष्टा होनेसे वर्णसंकर उत्पन्न होवेंगे ॥ ४०॥ __ व्याख्या। इस प्रकार अधर्म अर्थात् विपर्याय होनेसे कुलसी दूषित होगी। जिसके गर्भ सन्तान उत्पत्ति होती है, उसीको स्त्री कहते हैं। चैतन्य-संयोगसे भीतर और बाहरकी इन्द्रिय समूह सुख, दुःख, वासना, वैराग्य, राग, द्वष प्रभृति विविध वृत्तियां उत्पन्न करती हैं। इसीलिये ये शरीर और इन्द्रिय सब ही स्त्री हैं। ये स्त्री सकल दूषिता होवेगी अर्थात् शरीर व्याधि ग्रस्त होवेगा। और व्याधि-प्रस्त होनेसे ही वर्णदोष अर्थात् शरीरका रूप-लावण्यादि नष्ट होवेगा तथा शारीरिक यन्त्रादियों का काम करनेवाली शक्ति भी बदल जावेगी स्व-स्वरूपमें नहीं रहेंगी ॥ ४० ॥ संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च। पतन्ति पितरोह्यषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥४१॥ अन्वयः। संकरः कुलघ्नानां कुलस्य च नरकाय एव (भवति ), एषां (कुलनाना) पितरः लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ( सन्तः नरके ) पतन्ति हि ॥ ४१ ।। अनुवाद। वर्णसंकर कुलनाशकोंके तथा कुलके नरकके निमित्त होवेगा; इन लोगोंके पितगण लुप्तपिण्डोदक हो करके निश्चय ( नरकमें ) पतित होवेंगे ॥४१॥ व्याख्या। व्याधिवाले शरीरके मनोभावमें ब्रह्मज्योति प्रकाश पा ही नहीं सकता; सर्वदा दुश्चिन्ता, मन्द दिशामें रति मति है इसलिये दश दिशामें शरीरका क्षय होता रहता है; सुस्थ अवस्थामें क्रिया करते करते अनुभवके (अणु होनेके ) समय जिन सब महापुरुषोंके साथ साक्षात् होता है, जो ब्रह्मज्योति ( पिण्ड) दर्शन होता है तथा सहस्रारसे जो सुधा ( उदक) क्षरण होकर सकलकी पुष्टि साधन करता है, वह लोप हो जाता है, ठीक रास्तेमें प्राणायाम (क्रिया) होती ही नहीं, इसलिये अनुभव नष्ट होता है। इस अनुभवके -४ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता समयमें स्थूल शरीरका कुछ ज्ञान रहता नहीं, अथच सूक्ष्मशरीरकी क्रिया जाग्रत अवस्थाके सदृश चलती रहती है। मृत्युके पश्चात् पितृलोग भी तैजस-आकार धारण कर छायाशून्य सूक्ष्म शरीरमें क्रिया फल भोगते रहते हैं, प्रत्यक्ष होता है। पितृ अवस्था और इस अनुभवकी अवस्था कार्य्यतः एक ही है, केवल स्थूल शरीरके पात न होनेके लिये थोडासा फरक रहता है मात्र । उस अनुभव अवस्थाका उदय बन्द हो जाता है, इस कारण पितृ-लोगोंका पतन और पिण्ड, उदक तथा क्रियाका लोप, कहा गया है ॥४१॥ दोषरेतैः कुलप्नानां वर्णसंकरकारकैः । उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधाश्च शाश्वताः ॥ ४२ ॥ अन्वयः। कुलघ्नानां एतैः वर्णसंकरकारकैः दोषः जातिधर्माः शाश्वताः कुलधाः च उत्सायन्ते (लुप्यन्ते ) ॥ ४२ ॥ अनुवाद। कुलनाश कोंके वर्णसंकर करनेवाले इन समस्त दोनों में जातिधर्म तथा सनातन कुलधर्म लुप्त होगा ॥ ४२ ॥ व्याख्या। वर्गसंकरके उत्पादक शारीरिक विकारसे शरीर काम लायक नहीं रहता। जिस जातिका जिस कुलका जो सनातन धर्म है, वह भी उस वर्णसंकर शरीरसे सम्पादन हो नहीं सकता, इसलिये उत्सन्न होता है ॥४२॥ उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनाईन । नरके नियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रम ॥ ४३ ॥ अन्वयः। हे जनाईन ! उत्सन्न कुलधर्मागां मनुष्याणां नियतं नरके वासः भवति इति अनुशुश्रम ( वयं श्रुतपन्तः ) ॥ ४३ ॥ अनुवाद। हे जनाईन ! जिन सब मनुष्यों का कुलधर्म नष्ट होता है, वे लोग नियत नरकमें बास करते है, ऐसा हमने सुना है॥४३॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय व्याख्या। “जनाईन"-जन-जन्म, अईन=पीड़न; जन्मको जो पीड़ित करते हैं अर्थात् जो मुक्ति देते हैं, उन्हींको जनाईन कहा जाता है। यहाँ कूटस्थ-चैतन्यको ही लक्ष्य करके कहा जाता है किहे जनाईन! सुननेमें आता है कि जिन लोगोंके मनोधर्म हैं, अगर चे उन सबका तमाम शरीर-धर्म दूषित होकर उनके शरीरपातका उपक्रम होवे, तो उन सबके मनमें ऊच्च चिन्ता-अभिलाषादि और नहीं आती, किसी प्रकार प्रायश्चित्त करने वाली ( क्रिया विशेषके द्वारा चित्तकी शुद्धि-सम्पादित करने की) शक्ति नहीं रहती; वो सब निरन्तर निदारुण कष्ट भोगते हुये नीच-चिन्तासे शरीर पात करते हैं ॥४३॥ अहो बत महत् पापं कत्तु व्यवसिता वयम् । यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥४४॥ अन्धयः। अहोवत ( महत् कष्टं ) यत् राज्यसुखलोभेन स्वजनं हन्तं उद्यताः ( सन्तः ) वयं महत् पापं कत्त व्यवसिताः अध्यवसायं कृतवन्तः ) ॥४४॥ अनुवाद। अहो क्या सर्वनाश है। राज्यसुखके लोभके मारे स्वजनका विनाश करनेके लिये उद्यत होकर हमलोग महत् पाप करनेका उद्योग करते हैं ॥ ४४ ॥ व्याख्या। हरि ! हरि ! मैं योगके कुहक जालमें पड़कर अपने सहजात शरीरको नष्ट कर योग-राज्य पानेके लिये हाथ बढ़ाता हूँ। हाय ! हाय ! हाय ! क्या महापाप करता हूं ; अपने शरीरको आपही नष्ट करता हूँ, आत्महत्या करता हूँ। कैसा सुखका लोभ है, छि ! छि !! छि !!! पहिले पहिले साधक योगमें प्रवृत्त होकर अज्ञानताके मारे योगका तत्त्व न समझके जब अवसन्न तथा हताश हो पड़ते हैं, तब मनके भीतर इस प्रकार प्रापही श्राप धिक्कार आता है ॥४४॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता यदि मामप्रतीकारमशस्त्र शस्त्रपाणयः। धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥ ४५ ॥ .. अन्वयः। यदि शस्त्रपाणयः धार्तराष्ट्राः रणे अशस्त्रं अप्रतीकारं ( अकृतप्रतीकारं तुष्णी उपविष्टं ) मा हन्युः ( हनिष्यन्ति ), (तहिं ) तत् ( हननं ) मे (मम) क्षेमतरं ( अत्यन्त हितं ) भवेत् ॥ ४५ ॥ __ अनुवाद। अगर वे शस्त्रधारी धात राष्ट्रगण रणमें हमें अशस्त्र तथा अप्रतीकारक दर्शन करके भी हनन करें, तो भी हमारा परम कल्याणकर होवेगा ॥ ४५ ॥ व्याख्या। मनमें जब धिक्कार आता है तब साधक सोचते रहते हैं कि-जाने दो, अब मैं योगक्रिया न करूंगा; विषय वृत्तिके आकर्षणका नाश करनेके लिये प्राणायाम रूपशस्त्र ग्रहण न करूंगा, कोई प्रतीकार भी न करूंगा। इसमें यदि मुझको धार्तराष्ट्र-वृत्ति अर्थात् संसारमुखी-वृत्ति समूहले आक्रान्त होकर ज्वालामय संसार यन्त्रणामें जन्म जन्म जल मरना हो तो वह भी भला, तथापि भोग त्याग करके तमाम इन्द्रिय-वृत्ति नष्ट करनेवाले उपायसे विकलांग होकर जीक्मृतवत् होकर जीवन्मुक्त नाम खरीदना अच्छा नहीं। इस प्रकार योगानुष्ठान कर ब्रह्मराज्यका मुझे कुछ दरकार नहीं ॥४५॥ संजय उवाच । एवमुक्त्वार्जुन संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् । विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥४६॥ • अन्वयः। संजयः उवाच। अर्जुनः एवं उक्त्वा शोकसंविग्नमानसः (शोकाकुलितचित्तः सन् ) संख्ये ( युद्ध ) सशरं चापं ( धनुः ) विसृज्य ( परित्यज्य ) रथोपस्थे ( रथोपरि ) उपाधिशत् ।। ४६ ।। अनुवाद। संजय कहते हैं। शोकाकुलितचित्त अर्जुन, युद्ध स्थल में ऐसा कहकर सशर धनुष परित्याग कर रथके ऊपर बैठ गये ।। ४६ ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय व्याख्या। इस प्रकार कहके तब साधक शोकमें आकुल होकर धनु फेंक देते हैं, अर्थात् मेरुदण्डको शिथिल कर देते हैं, उसे फिर सीधा नहीं रखते। मेरुदण्ड सीधा न रहनेसे प्राण (शर) भी फिर सरल राहकी ओर उठ नहीं सकता, टेढ़ीगति पकड़ता है (गहित पथमें चरण करता है)। इस समय साधक केवल चिन्ताकुल होकर (रथोपस्थे ) कूटस्थकी तरफ देखकर चुपचाप बैठ रहते हैं। जिन लोगोंने साधन-मार्गमें केवल मात्र अग्रसर होना प्रारम्भ किया है, सुषुम्नाके भीतर प्रवेश करके स्थिर आत्म-ज्योतिके प्रकाशित करनेकी शक्ति पाई नहीं है, वह साधक थोड़ासा प्राणायाम करनेसे ही इस अवस्थाको समझ सकेंगे, क्योंकि पक्का अभ्यास न होनेसे सब शरीर, विशेष करके घुटना, कमर, और पीठ पिराते रहते हैं, और स्थिर रह नहीं सकते। दोनों पैर लम्वा कर देते हैं, शरीर ढीला कर डालते हैं, तथा साधन विषयमें हताश होकर उदास मनसे चुप चाप बैठ रहते हैं ॥४६॥ इति श्रीमहाभारते शतसाहस्या संहितायां वैया सिक्यों भीष्मपर्वणि श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन सम्वादे अर्जुनविषाद योगो नाम प्रथमोध्यायः ॥ ॐ॥ ____ * रथोपस्थे बैठनेका अर्थ द्वितीय अध्याय ३ य श्लोक की व्याख्या में देखिये ॥४६॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता द्वितीयोऽध्यायः । -:0 संजय उवाच । तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् । विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूनः ॥ १ ॥ अन्वयः। संजयः उवाच। मधुसूदनः तथा कृपया आषिष्टं अश्रुपूर्णाकुलेक्षणं विषोदन्तं तं ( अर्जुनं ) इदं वाक्यं उवाच ॥१॥ अनुवाद। संजय कहते हैं। मधुसूदनने तादृश कृपाविष्ट अश्रुपूर्णाकुलित-लोचन विषादग्रस्त अर्जुनसे यह बात कहा ॥१॥ व्याख्या। दृश्यमान परिणामी पंच महाभूतोंके ऊपर उठनेसे ही सम्यक् जय करना होता है, वह सम्यक जय करनेके पश्चात् जो दिव्य दृष्टिका प्रकाश होता है, उसीको संजय (सं=सम्यक् +जय) कहते हैं; और उस दिव्यदृष्टिमें प्रत्यक्ष करके जो अपरोक्षज्ञान उत्पन्न होता है, जिस ज्ञानके विरुद्धमें सन्देहका कारण पर्यन्त भी नहीं रहता, उस ज्ञानमें जो समझमें आता है, उसीको संजयकी उक्ति कहते हैं। "विष" कहते हैं जिसमें व्यापन-शक्ति है, आ-आसक्ति, ददान करना; व्याप्तिमें आसक्ति देनेका नाम "विषाद” है। जीव जिसके नाम-रूप दिया है उस मायामय विश्वमें जैसी व्यापकता है, जोव जिसको ब्रह्म कहता है उस ब्रह्म-शब्दके अर्थ में भी उसी प्रकारकी एक व्यापकता है। ब्रह्मकी व्यापकत्वमें आसक्ति देनेसे मायांश विलोप होकरके ब्रह्मत्व प्राप्ति करा देती है, और मायाके ( विश्वके ) व्यापकत्व में आसक्ति देनेसे शोचनामें पड़ना होता है। साधक ब्रह्मकी Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय व्यापकतामें मिलनेके लिये गये तो अभ्यासके दोष करके, मायाकी व्यापकतामें आसक्ति दे करके, "हमारा" शब्दके अर्थ में जो जो सब खड़ा होता है, वही सबको लेकरके माया योगमें आ करके कृपामें फंस गए। यही "विषाद योग है"। इसलिये मायासे चक्षुमें जल श्राकर बाहरकी दृष्टि शक्ति आवरण हुई। जैसे बाह्य-दृष्टिका अवरोध हुआ, वैसेही अन्तर्लक्ष्यका पर्दा खुल गया, और रोमांच-करी अनुभवका उदय । वो अनुभव ही मधुसूदनका उक्ति है अर्थात् अपने प्रश्नका उत्तर निजबोधरूप प्रात्म-ज्ञानमें आपही आप अपनी मीमांसा करता है "मधु” कहते हैं, अति मिष्ठ द्रव्यको; जीवको संसार-भोग-वासना ही मिठी चीज है। उसी वासना-रूप मधुका जो सूदन ( विनाशक ) है, अर्थात् जो प्रभु जीवको संसार विपावसे मुक्त करते हैं, वही "मधुसूदन” (कूटस्थ तारकब्रह्म ) हैं। उनमें ज्ञान वैराग्यादि समस्त ऐश्वर्य ही सर्वदा विराजमान हैं; इसलिये वह भगवान है ॥१॥ श्रीभगवानुवाच। . कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् । अनाय॑जुष्टमस्वय॑मकीर्तिकर मर्जुन ॥२॥ अन्वयः। हे अर्जुन । विषमे ( एतादृश संकटे ) त्वा ( स्यां ) इदं अनाव्यंजुष्टं (भनार्यसेवितं ) अस्वयं अकीतिकरं कश्मल कुतः समुपस्थितम् ? ॥ २॥ अनुवाद । श्रीभगवान कहते हैं-अर्जुन ! एतादृश विपम-समयमें तुममें ये अनार्यसेषित अस्वर्गकर तथा अकीतिकर कश्मल केसे उपस्थित हो .ये ? ॥ २॥ व्याख्या। सम कहते हैं ऊंचे नीचे ( हिलने डोलने ) से विहीन अवस्थाको। "मैं-मेरा" ज्ञान न रहनेसे वासनाका लेशमात्र नहीं रहता। "हमही हम" रूप क्या जाने कैसे अस्तित्व-बोधक भाव रहता है मात्र। साधन-चतुष्टय-सिद्ध होकर ये अवस्था भोग करके Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता नीचे उतर पाकर संसार बीज नष्ट करनेके लिये अग्रसर होते ही "विषम" अर्थात् असमान अवस्थाका चरम विकाश होता है। तब "मैं" "मेरा” “पर” इन तीनोंका ज्ञान प्रबल होकर, धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्रमें चरम क्षत्रिय-बल प्रकाशकर रजोगुण खिल आता है; उसीसे "मेरा” की रक्षा करने और "पर" के नष्ट करनेका वेग तीव्रतम होता है, किन्तु अनवधानतासे दूरत्यया मायाके चक्रमें पड़नेसे ही हृदयमें अर्थात् कूटस्थमें दृश्य और द्रष्टाके ठीक बीचमें सूति सरिसे फूट फूट गोल गोलाकार सीधी टेढ़ी रंग बेरंगके न जाने कितने गिज बिज करते हुये देखनेमें आते हैं, उसी का नाम "कश्मल” है। उस समय बुद्धि अविद्याके वशमें आकरके भ्रममें पड़ती है, इसलिये “पर" को अपना समझ मन मान लेता है। मनका यह विकृत भाव भी "कश्मल" है । कश्मल-अनार्यसेवित, अस्वये और अकीर्तिकर है। "अनार्यसेवित"। -जो साधक मनका सूक्ष्मावलम्बी कर चैतन्यमय जगत्में समदशी होते हैं, वही आर्य्य हैं। और जो जड़जगत्में जड़त्वके झमेले में पड़कर समताको खोते हैं, वही अनार्य हैं । मायाके खिंचावमें पड़नेसे ही विषमतामें पहुँचकर अनार्य होना पड़ता है, तब अन्तराकाश कश्मलमें ढक जानेसे कश्मल ही कश्मल दर्शनमें आते हैं, अर्थात् केवल कश्मलकी ही सेवा करनी पड़ती है। "अस्वयं"। -स्वर्गस्+व+र+ग; "स" = सूक्ष्मश्वास, "व" =शून्य, 'र" =तेज, "ग" =गति। सूक्ष्मश्वासके शून्य होनेके पश्चात् जो तेजोमयगति होवे, वही स्वर्ग अर्थात् आत्मज्योति-प्राप्ति है। "य" ( ष्यण ) प्रत्यय करनेसे ही होता है स्वर्ग्य अर्थात् आत्मज्योति-प्रापक। वह आत्मज्योति-प्राप्ति जिसमें नहीं होता है, वोही अस्वयं (थ-अभाव+स्वयं) है। मायाके खिंचावमें पड़नेसे ही अधोगति होती है, तत्क्षणात् कश्मल आ पहुँचता है, और स्वर्ग Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय (आत्मज्योति ) दिखाई नहीं देती, क्रमशः अधिकतर तमसाच्छन्न होना पड़ता है। इसलिये कश्मल अस्वर्य है। ___ "अकौतिकर"। -कर्मकी सिद्धि हो जानेके पश्चात् जो ख्याति होती है, उसीका नाम कीत्ति है, जैसे संसार ग्रहण करनेसे संसारी, धनको प्रायत्ताधीन करनेसे धनी, ज्ञान लाभ करनेसे ज्ञानी, विज्ञान जाननेसे वैज्ञानिक, योगमें अभ्यस्त होनेसे योगी, कर्मकी परिसमाप्ति करनेसे सन्न्यासी इत्यादि। कर्मकी परिसमाप्ति ही ब्रह्मत्व है; किन्तु परिसमाप्तिके पूर्वमें इसके भिन्न भिन्न स्तर हैं, उन उन स्तरोंको एक एक कीतिका स्थान कहते हैं। जो साधक समस्त स्तर अतिक्रम कर चरम ऊर्द्ध स्तरमें पहुंचे हैं, वही कीर्तिमान हैं, वही जीवन्मुक्त हैं, विदेह-मुक्ति उनके “हस्तामलकवत्" आयत्त (इच्छाधीन) हैं। जो साधक वीर हैं, किसी प्रकारसे जो मायाके वशमें नहीं पाते, दश दिशामें मायाका खिंचाव रहनेसे भी जो अपना उजान ( उर्द्ध) गति नहीं छोड़ते, वही पुरुष अवाधतः कीति शिखरमें उठते रहते हैं। कदाचित् शिखरमें पहुँचनेके पूर्व समयमें भी कालके वशमें उनका शरीर-त्याग हो जावे, तब भी उसके लिये उनको अवसन्न होना नहीं पड़ता, उनकी साधनलब्ध आकर्षणी शक्ति तब अति प्रबल हो करके विद्युत्-वेगसे निमिष-मध्यमें उनको सकल स्तर पार कराके दूर ऊपरमें ले जाता है, वह भी अनन्तजीवन पाते है, अर्थात् अपुनरावृत्तिस्थिति लाभ करते हैं। इसीलिये प्रवाद है कि, “कीतिर्यस्य स जीवति”। किन्तु जो वीरत्व-परिशून्य होकर मायाकी खिंचाईसे सुजान गति नहीं ले सकते, अटक पड़ते हैं, उनके सामनेमें कश्मल श्रा करके चिदाकाशको कुयासाकृत (कुज्झटिकावृत ) करके दिव्य मानस दृष्टि ढांक देती है। तब वह राहभूले दिशाभूले बनकर मायाके श्रावत में पड़के चक्र खाते रहते हैं, उसे फिर कीतिलाभ नहीं होती, अकीति ही होती है, क्योंकि निष्फल कर्म तथा असत् कर्मका नाम ही Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ श्रीमद्भगवद्गीता अकीर्ति है। इस प्रकार अकीर्तिमान् साधकको जीवन-प्राप्ति नहीं होती अथवा अनेक देरसे होती है; कारण यह कि, शरीर त्यागके .. समयमें कीर्ति जैसे जीवको कर्म सीमा अतिक्रम करा देता है अकीर्ति वैसी उनको अनेक नीचे स्तरमें फेक देती है, अथवा खींच रखकर सीमा पार होने नहीं देती इसलिये उनको जन्म-मरणके वशमें पड़ना पड़ता है। इसीलिये भगवान कहते हैं, इस प्रकार कश्मल तुममें कैसे आये ? श्रात्म-प्रभा-शक्तिसे तुमने जो "भूभूव" आदि सर्वजयी होकर स्वर्ग भ्रमण किया है, अर्थात् सहस्रारके सहस्र दलमें विचरण किया है, महादेवके प्रसादसे पाशुपत अस्त्र पाया है, अर्थात् सहस्रार कर्णिकाके मध्यगत ब्रह्म-बिन्दुमें आत्मोत्सर्ग करके निमेष मध्यमें सकल अशुभ-नष्ट करनेवाले शिव-पदमें प्रतिष्ठित होनेकी शक्ति पाई है ! वैसे तुममें तो इस प्रकारकी मोह-प्राप्ति शोभा नहीं देती !! ॥२॥ कुब्यं मास्म गमः पार्थ नैतत् त्वय्युपपद्यते। क्षुद्र हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥३॥ अन्वयः। हे पार्थ ! क्ले ब्यं मास्म गमः, एतत् त्वयि न उपपद्यते ( योग्यं न भवति ); हे परन्तप ! क्षुद्र ( तुच्छं ) हृदयदौर्बल्य ( कातय्यं ) त्यक्त्वा उत्तिष्ठ ।।३।। अनुवाद। हे पार्थ ! क्लीवताको ग्रहण न करना; यह तुममें शोभा नहीं पाती; हे परन्तप ! हृदयका तुच्छ दुर्वलताको छोड़कर उत्थित होओ ॥ ३ ॥ व्याख्या। तुम पृथाके पुत्र हो ! तुम्हारी माता पृथा (पृथ् = क्षेपणे; क्षेपण-शक्ति, साधकका साधन-जीवनकी जननी है ) अपने गुणकर्म-विभाग-शक्ति-बलसे स्वेच्छा, परेच्छासे बराबर अपनी पूर्व पूर्वावस्थाको त्याग करती हुई चली आई,-ऐसी कि अपने जन्मदाता पिता शूरसेनको त्याग करके उनको कुन्तिभोजकी कन्या भी होनी पड़ी थी। वही मात्गुण तुममें भी विद्यमान हैं। तुम भी इच्छा करनेसे Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय उसी मातृशक्तिके बलसे मायिक भाव परित्याग कर ब्रह्म भाव लेने में शक्तिमान हो। इसलिये कहता हूँ कि, इस प्रकार क्लीवताका आश्रय न करना। क्लव्य कहते हैं क्लीवके भावको। क्लीव (हिजड़ा) जैसे संसारमें स्त्री-पुरुषत्व-विहीन हो करके केवल मात्र संसार-क्लेश ही भोगती रहती है, वैसे ही साधन-मार्गमें आकर जो मायाकी खिंचाईमें पड़कर पौरुषविहीन होता है, ऊँचेमें भी आसक्ता नहीं, तथा आशा बलवती रहती है, इसलिये इच्छा करके नीचेमें भी नहीं आ सकता ; केवल मात्र साधन-कुश ही उनको सार होता है। तुम परन्तप (पराया-शक्तिको जो तापित करता है अर्थात् प्रकृति-वशी-शक्तिसम्पन्न) अर्थात् सूक्ष्म प्राणायामसे प्राकृतिक चंचलताको नष्टकर योगारूढ़ होनेमें समर्थ हो; अतएव तुममें इस प्रकार क्लोवत्व (पौरुषहीनता) शोभा नहीं पाती। हृदयकी यह तुच्छ दुबलता त्यागकर (उत् ) ऊर्द्ध में (तिष्ठ ) स्थित हो जाओ। "द" "य" "प" "" ये चार स्थितिके स्थानके भीतर साधन-समयमें "प" स्थानमें स्थिर रह करके शाम्भवी-मुद्रासे कूट भेद करना पड़ता है। यह "प" आज्ञाके नीचे विशुद्धके ऊपरमें स्कन्ध और मस्तकके सन्धिस्थलमें अवस्थित है; पंचतत्वोंके ऊपर है इसलिये उत् ( ऊर्द्ध)। जिह्वाको उलट, कर दाढ़ी खींचकर बाहर वाले कण्ठ-कूपमें लगाकर छातोमें जोर देकर बैठके, मेरुदण्ड (पीठकी रीढ़) स्कन्ध और मस्तकको समान और सीधा करनेसे नस समूहके खिंचावसे, मस्तक-ग्रन्थि "प" और आज्ञाचक्र ये दोनों केन्द्र ही समसूत्र होते हैं। वह समसूत्र अवस्था ही कपिध्वजअवस्था है ( १ म अः२० श्लोकका व्याख्या देखो)। मायिक विषय मनमें आनेसे ही ग्रन्थि शिथिल होकर दोनों केन्द्र फिर उस समसूत्रमें रहता नहीं, "प" थोड़ी नीचे और आज्ञाचक्र ऊंचेमें श्रा जाता है। इसी अवस्थाको रथोपस्थमें बैठना कहते हैं। संसार बीज नष्ट करना हो तो कारताको परित्याग करके उस प्रकार "प" और आज्ञा Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० श्रीमद्भगवद्गीता चक्रको समसूत्रमें रखना पड़ता है, तब शाम्भवी-प्रयोग करनेसे ही कूट भेद हो जानेसे, अति सूक्ष्म प्राणाघातसे ही बीज भेद हो जाता है फिर अंकुरित नहीं होता अर्थात् श्वासकी ठोकरसे मन मर जानेसे चैतन्य-समाधि लाभ होती है ॥३॥ अर्जुन उवाच। कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणञ्च मधुसूदन । इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजाविरिसूदन ॥४॥ अन्वयः। हे अरिसूदन ! हे मधुसूदन ! अहं पूजाहौं भीष्मं द्रोणं च प्रति संख्ये ( युद्ध ) इषुभिः कथं योत्स्यामि ॥ ४॥ अनुवाद। हे शत्रदमनकारी मधुसूदन ! इन ( पूजाई ) पूजाके योग्य भीष्म तथा द्रोणके साथ युद्धमें वाण द्वारा किस प्रकार युद्ध करूंगा ? ॥ ४ ॥ व्याख्या। जीवके शरीरमें दो शक्ति निरन्तर क्रिया करती रहती हैं। एक "नर" दूसरी "नारायण"। नर मूलाधारमें रहकर चतन्यसत्त्वाको वैषयिक अज्ञानज तमःमें मिला देनेके लिये, और नारायण सहस्रारमें रहकर उसी चैतन्य-सत्त्वाको अवैषयिक ज्ञानज तमःमें ला करके पालन करनेकी चेष्टा करते हैं। इस चेष्टाका फलही, अर्थात् उन दो शक्तिका समवाय-जनित बल ही जीव-भाव वा जीवत्व है। चैतन्य-सत्त्वा अर्थात् मन जैसे उन दोनों शक्तिकी खिंचाईमें पड़ा है, वैसे प्राण भी पड़ा है, एक दफे भीतर, एक दफे बाहर जोलाहेके कपड़ा बिनने (बुनने ) वाली डरकी तरह चल रहा है। मन-सूक्ष्म और स्वाधीन है, प्राण-स्थूल और अधीन है मन-जीवत्व, प्राणजीवन है; केवल यही प्रभेद है। उस नर-नारायणको माया-ब्रह्म वा मायिकशक्ति-ब्राह्मीशक्ति भी कहा जाता है। माया त्याग करके ब्रह्ममें जानेकी चेष्टा करनेसे ही; माया ततक्षणात् खींचती रहती है। मन तब प्राणका आवागमन रूप (दोलना) सरिस, माया-ब्रह्मके ठीक Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ द्वितीय अध्याय बीचमें दोलता रहता है, अर्थात् एक दफे आत्म-ज्ञान की शक्तिसे ऊपरमें उठता है, फिर विषय-ज्ञानके दोषसे नीचे उतर पड़ता है। आत्म-ज्ञानमें-"हम ही सबके प्रभव तथा हमसे ही सर्व प्रवर्तित" इस प्रकार स्वाधीनभाव आता है। विषय-ज्ञानमें-"आप सर्वज्ञ गुरू, मैं अज्ञ शिष्य” इस प्रकार अधीन-भाव आता है। इन दोनों भावोंको ही यथा-क्रम करके आत्म-भाव तथा जीव-भाव कहते हैं । जीव-भावका संशय आत्म-भावमें समाधान होता है। यह श्रीकृष्णार्जुनका कथोपकथन ही जीवात्म-भावका संशय-समाधान है। ये दोनों एक ही की भिन्न अवस्थायें हैं; मैं हो समझता हूँ, मैं ही समझाता हूँ,-माया की खिंचाईमें पड़नेसे ही अर्जुन, और न पड़नेसे ही भगवान् । योग मार्गकी आत्म-कुटीर में ऐसा ही प्रत्यक्ष होता है। साधक ! अब समझ लो कि-"अर्जुन उवाच" "श्री भगवानुवाच"। वाक्यका अर्थ क्या है। "संख्ये"। सं-सम्यक् , स=आकाश, य=यान, ए= स्थिति, अर्थात् देहाभिमान त्याग करके सम्पूर्णरूप आकाश-यानमें (चिदाकाशमें ) स्थित हो करके। ___ "इषुभिः"। आत्ममन्त्र तथा हंस परस्पर समन्वय करनेसे प्राण अतीव सूक्ष्म तथा तीव्रवेगशाली होता है; इसोका नाम इषु वा वाण(भेद करनेवाली चीज ) है। इसीसे ही अन्तरावरण समूहका भेद हो जाता है। ___ साधक (अर्जुन ) संसार बीज नष्ट करनेके लिये खड़े हुये हैं, किन्तु मायिक विफलता करके ज्ञान ढक पड़नेसे उनको अनेक संशय हो रहा है। इसीलिये आत्म-भाव मधुसूदनको लक्ष्य करके सोचते हैं,-"देहसे अलग हो करके तथा मनको आकाश-सदृश निलिप्त करके, सूक्ष्म-प्राणचालनसे श्वासके टक्करसे मनको कैसे मारूंगा ? अर्थात् ( भीष्म ) मनके अहत्व, एवं (द्रोण ) मन-चालित बुद्धिको Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ श्रीमद्भगवद्गीता नष्ट करूंगा ? – उस समय में “मन्त्र" उत्- चारण-शक्ति संकुचित हो जाता है, प्राणका आकर्षण किस प्रकार सम्भव होवेगा ? और भी इस ममत्व करके ही हमारी वृद्धि एवं इस बुद्धिसे ही हमारी समृद्धि या विभूति है; इस ममत्वके बलसे विश्वको मैं-मय (जैसे इक्षुरस में ) चीनी ) करता हूं तथा प्राकृतिक बुद्धिबलसे तत्त्व-निरूपणसे विज्ञानविद् होकर विभूतिवान् हुआ हूँ. - इसलिये ये दोनों ही तो हमारे पूजनके - योग्य हैं, नाश करनेके लिये नहीं !” ऐसा ही भ्रम होता है ॥ ४ ॥ गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तु भैक्ष्यमपीह लोके । हत्वार्थकामस्तु गुरुनिदैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥ ५ ॥ अन्वयः। महानुभावान् गुरून् अहत्वा ( गुरुवधमकृत्वा ) इह लोके भैक्ष्यम ( भिक्षान्नं ) अपि भोक्तु हि ( निश्चितमेव ) श्रेयः ( उचितं ) गुरून् हत्वा तु इह एव रुधिरप्रदिग्धान् ( रुधिरलिप्तान् ) अर्थकामान् (अर्थकामात्मकान् ) भोगान् भुञ्जोय ( अश्नीयाम् ) ॥ ५ ॥ अनुवाद | इन सकल महानुभव गुरुगणको बिना वध किये अगर चे मुझे इस लोक में भिक्षान्न भोजन करना हो, तब भी कल्याण- कर है; किन्तु इन लोगोंको "निधन करने से इस लोकमें ही आत्मीयके रुधिरलिप्त अर्थ कामका उपभोग करना होगा ॥ ५ ॥ व्याख्या । " अतएव अति प्रतापशाली उन दोनों को नष्ट न करके अगर चे इहलोक अर्थात् प्राकृतिक अधिपत्थमें रह कर काम्यकर्मसे अभावको आपूरण करना हो ( भैक्ष्य ), तब भी अच्छा तथापि उन दोनों को नष्ट कर प्रकृतिके ऊपर आधिपत्य मिलना 'अच्छा नहीं; क्योंकि अहंत्व न रहनेसे संवेद रहता नहीं तथा प्राकृतिक बुद्धि न रहनेसे, भला, बुरा भी रहता नहीं, उस अवस्था में विषय Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय भोग वा शरीर-धारण बिडम्बना मात्र है, जैसे जिह्वाके ऊपर कांटा जैसा निनवाँ हो जाय तो स्वाद लेनेकी शक्ति न रहनेसे सुखका भोजन जैसे दुःखमय होता है, वैसे ही।” (गुरून् गौरवे बहुवचन )॥५॥ न चतद्विद्मः कतरन्नौ गरीयौ यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः। ... यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥ ६ ॥ अन्वयः। यत् वा जयेम ( वयं जेष्यामः) यदि वा नः (अस्मान् ) जयेयु: ( एते जेष्यन्ति ), ( एतद्द्वयोर्मध्ये ) कतरत् (किं नाम ) गरीयः (अधिकतरं भविष्यति ) एतत् च न विद्मः। यान् एव हत्वा न जिजीविषामः ( जीवितुन इच्छामः ) ते धात राष्ट्राः प्रमुखे ( सम्मुखे ) अवस्थिताः ॥ ६॥ ... . अनुवाद : यदि हम सब जय लाभ करें, यदि वह सब हम लोगोंको पराजय करें, इन दोनोंके बीचमें कौन हम लोगोंके लिये गुरुतर है, यह भी समझ नहीं सकते। जिन सबको वध करके जीने की इच्छा नहीं करता, वही धार्तराष्ट्रगण ही सामने खड़े हैं ॥ ६॥ व्याख्या। इस प्रकार भावनाके पश्चात् पुनः भावना होती है,-"भला, कौन अच्छा है ? प्रकृतिके वशमें रहना अच्छा, कि प्रकृतिको वशमें करना अच्छा, समझ तो आता ही नहीं! प्रकृतिके बशमें रहने से संसार-बीज नष्ट नहीं होता, फिर प्रकृतिको वश करने से विषय-भोग नहीं रहता;-जिन सबको लेके विषय-भोग करूगा-जिन सबको नष्ट करके जीता रहने में कोई फल न रहनेसे जीनेकी इच्छा होती ही नहीं, वही सब मानसिक वृत्ति समूह सामने खड़ी हैं ! अब क्या करूं!!" ॥ ६ ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः । यच्छ्र यः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥ ७॥ अन्वयः। कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः ( एतान् हत्वा कथं जीविष्याम इति कार्पण्यं, दोषश्च कुलक्षयकृतः, ताभ्यां उपहतः अभिभूतः स्वभावः शौर्य्यलक्षणः यस्य सः अहं ) धर्मसंमूढ़चेताः (युद्ध त्यक्त्वा भिक्षाटनमपि क्षत्रियस्य धम्मोऽधर्म वा इति सन्दिग्धचित्तः सन् ) त्वां पृच्छामि, यत् मे श्रेयः स्यात् तत् निश्चितं ब्रहि अहं ते शिष्यः, त्वां प्रपन्नं ( शरणंगतं ) मां शाधि (शिक्षय ) ॥७॥ अनुवाद : आत्मोय विनाश करके कसे जिऊंगा, इस प्रकार कातरता तथा फुलक्षय करनेसे दोष होगा इस प्रकारके दोष की चिन्तासे हमारा स्वभाव ( शौय्यं । अभिभूत हुआ है । और युद्ध त्याग करके क्षत्रियको भिक्षावृत्ति ग्रहण करना धर्मसंगत है कि नहीं, इस विषयमें मेरे मनमें सन्देह उपस्थित हुआ है; इसलिये मैं आपसे पूछता हूँ, जिससे हमारा श्रेय हो निश्चय करके कहिये मैं आपका शिष्य आपके शरणागत हूँ मुमको शिक्षा दीजिये ॥ ७ ॥ व्याख्या। साधक इस श्लोकमें कर्तृत्व अभिमानका एक बारगी त्याग कर गुरुपदमें आत्मसमर्पण करते हैं, कहते हैं "ममतापरायण होनेसे हमारी बोधशक्ति ढक गई, चित्त भी धर्म-विषयमें मोहको प्राप्त हुआ है। इसलिये आपसे पूछता हूँ कि जो श्रेय हो वह निश्चय कर मुझसे कहिये। मैं शिष्य आपके शरणागत होता हूँ, उपदेश दीजिये कि मैं क्या करू।" -शिष्यत्व स्वीकार करके शरणापन्न न होनेसे, तत्त्व-उपदेश मिल नहीं सकता। यह बात प्रकाश्यमें जैसी वैसी ही भीतरमें भी है। कारण देखा जाता है कि, क्रियाकालमें अहंकार ( कर्तत्वभाव ) त्याग करके भक्तिपूर्वक गुरुचरणोंमें आत्मसमर्पण न करनेसे और किसी प्रकारसे ही अन्तर्दृष्टि नहीं खुलती, तत्त्वज्ञान लाभ भी नहीं होता। इसलिये सद्गुरुका शिष्यत्व स्वीकार ही इस श्लोक का उपदेश है ॥७॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय न हि प्रपश्यामि ममापनुद्यात् यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् । . अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यं ॥८॥ अन्वयः। भूमौ ( पृथिव्यां ) असपन ( निष्कण्टकं) ऋद्ध (समृद्ध) राज्यं सुराणामपि आधिपत्यं च (सुरेन्द्रत्वंच ) अवाप्य (प्राप्य ) यत् ( यत् कर्म) इन्द्रियाणां उच्छोषणं ( अतिशोषकर ) मम (मदीयं) शोकं अपनुयात् ( अपनयेत् ), तत् हि न पपश्यामि ॥ ८॥ अनुवाद। पृथिवीमें निष्कण्टक और समृद्ध राज्य, यहां तक कि देषगणके असर आधिपत्य पानेसे भी यह सुझाई नहीं देता कि जिससे मैं अपनी इन्द्रियोंके शोषक इस शोकको दूर कर सकू ॥ ८॥ व्याख्या। भूमि-क्षेत्र, यह शरीर है। असपत्न-नि:शत्रु । देवप्रतिकूलता, असत्वृत्ति, तथा प्राकृतिक विकृति *-यही तीनों शत्रु हैं। आसन-प्राणायामादिसे इस शरीरके विषयमें जितना जितना परिज्ञान होता रहे, उतना ही उतना निःशत्रु राज्य होता है; तब विशेष विशेष क्रियासे जो योग-सिद्धि लाभ होती है, उसीको ऋद्धि वा विभूति कहते हैं। योग-सिद्ध हो करके विभूति-भूषण होनेसे ही शरीर असपत्न ऋद्ध राज्य होता है। सुर (स+उ+र)-स-ईश्वर, "प्राणोहि भगवानीशः” अतएव प्रा; उ=सहस्रार-स्थिति-पद; र= तेज, प्राण सहस्रारमें स्थिर होनेके पश्चात जो तेजोराशि प्रकाश पाती है, वही सुर है। उस तेजके आगे पीछे "नाद विन्दु" में मन समर्पण करनेसे जो शक्ति लाम होती है, वही सुराणां आधिपत्य है ॥८॥ * देषपूर्वकृत संचित कर्म है। संचित-कर्म का क्षय न होनेसे किया पुरुषकारसे उस संचित कर्मको अतिक्रम न करनेसे नवीन कर्मका फल मिल नहीं सकता। असत्वृत्ति-विषयासक्ति है। प्राकृतिक विकृति-वायु पित्त कफका प्रकोप है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता -- संजय उवाच । एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुड़ाकेशः परन्तपः । न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तुष्णीं वभूव ह ॥६॥ अन्वयः। संजयः उवाच । गुड़ाकेशः (जितनिद्रः ) परन्तपः ( शत्रुतापनः अर्जुनः ) हृषीकेशं ( इन्द्रियाणां ईश्वरं कृष्णं ) एवं ( उक्तप्रकारं ) उत्तवा, “न योत्स्ये" इति गोविन्दं उत्तवा, तुष्णीं बभूव ह ॥९॥ अनुवाद। संजय कहते हैं,-गुड़ाकेश परन्तप अर्जुनने हृषीकेशसे ऐसा कहकर फिर कहा कि "हे गोविन्द ! मैं युद्ध न करू गा" । और फिर चुप हो रहे ॥९॥ व्याख्या। गुड़ाकेश परन्तप अर्जुन (साधक ) जब पूर्वोक्त प्रकारसे कह रहे थे, तब वह कूटस्थ-चतन्यको हृषीकेश रूप करके प्रत्यक्ष करते थे, अर्थात् देखते थे, कि कूटस्थ-चैतन्य ही इन्द्रिय-समूहके नियन्तारूपसे विराज रहे हैं। इसके बाद जैसे ही उन्होंने स्थिर किया और युद्ध (क्रिया ) न करूंगा (जो होनेको हो ), वैसे ही गोविन्द रूपका प्रकाश होता है (गो= विश्व-समूह, पंचकोशसमन्वित यह शरीर है; विद् =जानना। जो विश्वका ज्ञाता, साक्षी, धाता है वही पुरुष गोविन्द है। ) अर्थात् साधक कूटस्थ-ब्रह्मको इस विश्व-कोषके सर्वसाक्षी धाता-स्वरूपसे देख करके उनको ही "सर्वस्व पुरुष” प्रत्यक्ष करते हैं। इस प्रकार होनेसे ही अनासक्ति भाव खिलता है, तब साधकमें एकदम तुष्णीभाव आ जाता है। निस्तब्ध अवस्थाको तुष्णीभाव कहते हैं। इस अवस्थामें इन्द्रिय समूह अपने अपने कामसे अवसर लेते हैं, मन चेष्टा शून्य हो करके कुछ अवलम्बन न करनेसे अपने आपमें रहता है। यह तुष्णीभाव-गुड़ाकेश एवं परन्तप न होनेसे हो नहीं सकता। जिन्होंने निद्राको (अलसताको) जीत लिया-जो निद्राको भी निद्रित करना सीखे हैं जो निद्राको सम्पूर्ण रूपसे अपने अधीन कर प्रयोजनके अनुसार निद्रा-भोग कालमें भी माया चक्रसे स्वप्न कुहकमें नहीं .. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय पड़ते अर्थात् जाग्रत-स्वप्नमें जो सर्वदा आत्म-चतन्यमें रहते हैं, वह पुरुष ही गुड़ाकेश हैं। और जो आसन सिद्ध हुये हैं, अर्थात् शिरा-प्रशिराका पथ क्रूर वायु-पित्त-कफ करके श्रावद्ध रहनेके लिये पहले पहले श्रासन-कालमें घुटना, कटि, पीठ, पीठके रीढ़ आदि स्थानोंके दर्द करनेसे जैसा विघ्न उत्पन्न होता था, दृढ़ अभ्याससे वह सब कष्ट नष्ट करके अनायास स्थिरासनमें जो बहुत देर तक रह सकते हैं, किसी प्रकार कायरताका अनुभव नहीं करते; वरंच आसन करके बैठनेसे लम्बे-पड़ने वाला-श्राराम सरिस आरामका अनुभव करते हैं, एक बातमें कहनेसे कहना होता है कि प्राकृतिक सैन्यका कोई भी जिनका उद्यम भंग नहीं कर सकता, वही पुरुष परन्तप हैं ॥४॥ तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत । सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदंवचः ॥ १० ॥ अन्वयः। हे भारत ! हृषीकेशः प्रहसन् इव (प्रसन्नमुखः सन् ) उभयोः सेनयो मध्ये विषीदन्तं ( विषादग्रस्तं ) तं (अर्जुनं ) इदं वचः उवाच ॥ १० ॥ अनुवाद। हे भारत । हृषोकेशने हंसते हुये दोनों सेनाके ठीक बीचमें स्थित विवादग्रस्त अर्जुनसे ये बात कही ॥१०॥ व्याख्या। हृदयमें उस प्रकार तुष्णीम्भाब पाने से ही हृषीकेश प्रहसन होते हैं, अर्थात् स्निग्धोज्ज्वल बिजलीकी छटासे अन्तराकाश ज्योतिर्मय हो पड़ता है, चित्त पुलक करके भर जाता है। (वह , ज्योति-वह आनन्द भाषामें व्यक्त हो नहीं सकती, जो भाग्यवान् साधक ६।७ श्लोकके अनुसार कत्तत्त्वाभिमान परित्याग करके अन्ध शिष्य बनके उस तुष्णीम्भाव अवस्थामें आ सकते हैं, वही समझते हैं )। किन्तु दो अंशमें विभक्त प्रत्यक्ष वृत्ति समूहके मध्यभागमें मन अपनेमें आप रहनेसे, विषयविवज्जित विषण्ण-भाव रह जाता है, तब Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता कूटस्थ-श्रीबिन्दुसे निम्न प्रकार वाक्यका उच्चारण होता है* ( भावका स्फरण होता है)। जिन महाभागने उस अवस्था में पहुँच कर उस वाक्यको सुने हैं, वह धन्य हैं, उनका जीवन सार्थक है, और पुरुष पद वाच्य भी वही हैं ॥ १०॥ श्रीभगवानुवाच ॥ अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे। गतासूनंगतासूश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥ ११ ॥ अन्वयः। त्वं अशोच्यान् ( शोकस्य अविषयोभूतान् ) अन्वशोचः ( अनुशोचितवान् ), च (पुनश्च ) प्रज्ञावादान् (पण्डितानां शब्दान् ) भाषसे; (किन्तु ) पण्डिताः (विवेकिनः ) गतासून् ( गतप्राणान् ) अगतासूश्च ( जीवतोऽपि ) न अनुशोचन्ति ॥ ११॥ ___ अनुवाद। तुम अशोच्य विषयमें शोक करते हो, फिर पण्डित सरिस वचन भी पोलते हो, किन्तु क्या मृत क्या जीवित किसीके लिये पण्डितगण शोक नहीं करते ॥ ११॥ ... व्याख्या। जो जो साधक क्रियाके परावस्थामें रहते हैं, उन उन साधकके अन्तःकरणमें चांचल्य तथा स्थिरत्व (जीवित और मृत) कुछ भी प्रकाश नहीं पाता। तुम यह स्थितिपदमें न रह करके भी स्थितिपदमें रहने सरिस बचनका भाषण करते हो, अथच सर्वदा चंचल तथा अस्थिर अवस्थामें अवस्थित रहते हो ॥ ११ ॥ • सात्त्विक आहार, सात्त्विक व्यवहारका आश्रय करके सात्त्विक भावमें गुरूपदेश पालन करते रहनेसे शीघ्र ही गीता-गायत्री आपही आप उच्चारित होती रहती है, जो सुननेमें आती है। इसलिये वेद तथा उपनिषदको “श्र ति" कहते हैं। भगवद् वाक्य किसी मनुष्यके रचित नहीं हैं। ऐकान्तिक विश्वाससे जो पुरुष सद्गुरूपदिष्ट पयमें विचरते हैं, वह महात्मा इसकी सत्यता समझते हैं, तथा जो भाग्यवान् विचरेंगे, वह भी समझेगे। भाषा तथा अनुमानसे समझा या समझाया जा नहीं सकता। भुक्तभोगी न होनेसे इस अवस्था का परिज्ञान होता ही नहीं ॥ १० ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय नत्वेवाहं जातुनासं नत्वं नेमे जनाधिपाः। न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥ १२॥ अन्वयः। अहं जातु ( कदाचित् ) न आसं इति तु न एव; त्वं न आसीः इति न, इभे जनाधिपाः (नृपाः ) न आसन् इति तु न अतःपरं वयं सर्वे न भविष्यामः (न स्थास्यामः ) इति च न एव ॥ १२॥ अनुवाद। मैं जो कभी न था ऐसा नहीं, तुम जो न थे ऐसा भी नहीं; ये राजन्यवर्ग जो कभी नहीं थे वह भी नहीं, इसके पश्चात् हम सब फिर न रहेंगे ऐसा भी नहीं ॥ १२॥ व्याख्या। "मैं"-श्रात्मभाव वा परमात्महू; "तुम"-जीवभाव; "जनाधिप”–जन=अन्तःकरण वृत्ति समूह, अधिप-इन सबके भीतर जो जो प्रधान हैं। जीवभाव एवं आत्मभावके समवायसे यह जो चेतनशरीर है, इस शरीरके पूर्व में यह जीव तथा आत्मभाव था, अन्तवृत्ति भी था; न रहनेसे अभीका (वर्तमान कालका) यह समवाय नहीं होता; क्योंकि अतीत तथा वर्तमान कर्मसूत्रमें बंधा हुआ है। वह बन्धन न खुलनेसे, भविष्यत्में भी ये समवाय रहेगा, अर्थात् फिर "मैं" "तुम" "ये" सब उत्पन्न होंगे ॥ १२ ॥ देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। तथा देहान्तरप्राप्तिधीरस्तत्र न मुह्यति ॥ १३ ॥ अन्वयः। देहिनः (देहाभिमानिनः जीवस्य ) अस्मिन् देहे (स्थूलशरोरे) कौमारं यौवनं जरा ( इति अवस्था परिवर्तनं ) यथा भवति, देशान्तरप्राप्तिः ( एकदेहनाशे अन्यदेहप्राप्तिरपि ) तथा मपति; धीरः ( धीमान् ) तत्र (देहनाशोत्पत्ती) न मुह्यति ( आत्मा एव मृतो जातश्च इति न मन्यते ) ॥ १३॥ अनुवाद। जीवके इस (स्थूल ) देहमें कौमार यौवन जरा आदिको अवस्थाका परिवर्तन जैसा होता है, वैसीही देहान्तर प्राप्ति भी है अतएव धोर व्यक्ति उससे मोहित नहीं होते ॥ १३ ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। इस शरीर में जैसे कौमार यौवन जरा करके भिन्न भिन्न अवस्थायें आती हैं ( किन्तु देही का कोई परिवर्तन नहीं होता वह ज्यों का त्यों ही रहता है ), जीवकी भिन्न भिन्न देह प्राप्ति भी उसी प्रकार (अवस्था एवं आवरणका परिवर्तन मात्र ) है। इसमें धीर* (धी-बुद्धि, रा धातु-ग्रहण करना ) अर्थात् जो साधक बुद्धिक्षेत्रमें स्थिति लाभ करते हैं, वह मोहित नहीं होते। वह महाशय निश्चयात्मिका वृत्ति द्वारा सत् असत्को पहचानकर सत्का ही आश्रय करते हैं असत्के मोहमें नहीं पड़ते ॥ १३ ॥ मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः। आगमापायिनोऽनित्यास्तास्तितिक्षस्व भारत ॥ १४ ॥ यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ। समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ १५ ।। अन्वयः: हे कौन्तेय ! मात्रास्पर्शाः तु ( इन्द्रियवृत्तीनां विषयेषु सम्बन्धाः ) शीतोष्णसुखदुःखदाः (शीतोष्णादिप्रदाः) आगमापायिनः ( आगमापायशोलाः ) अतएव अनित्याः; हे भारत! तान् तितिक्षस्व ( सहस्व )। हे पुरुषर्षभ । एते (मात्रास्पाः ) यं समदुःखसुखं धीरं ( धीमन्तं ) पुरुषं न व्यथयन्ति ( न अभिभवन्ति ) सः हि अमृतत्वाय ( मोक्षाय ) कल्पते ( योग्यो भवति ) ॥ १४ ॥ १५ ॥ अनुवाद। हे कौन्तेय ! त्रात्रास्पर्श सकल ( विषयमें इन्द्रिय-वृत्ति के संयोग ) शीत-उष्ण-सुख-दुःख प्रदान करते हैं; वह सब आगमापायि ( उत्पत्तिनाशधर्मी) अतएव अनित्य हैं। हे भारत ! ( तुम उन सभोंको सहन करते चलो)। हे पुरुषर्षभ! ये सब ( मात्रास्पर्श ), सुख दुःख समान ज्ञान करने वाला जिस धौर पुरुषको व्यथित नहीं कर सकते वहो पुरुष अमृतत्व (मोक्ष ) पानेके योग्य हैं ।। १४ ॥ १५॥ * "विकारहेतौ सति विकियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीराः।” अर्थात् विकारका हेतु रहनेसे भी जो विकारग्रस्त नहीं होते उन्हें ही "धीर" कहते हैं ॥१३॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय ७१ व्याख्या। मन-श्रादि ग्यारह इन्द्रियोंके वृत्तियां मात्रा कही जाती हैं। इन सबके साथ विषयके टक्कर (छुआछूत होने) लगनेका नाम मात्रास्पर्श है। उस टक्करसे ही शीत, उष्ण, सुख, दुःख उत्पन्न होता है; यह सब भी फिर उत्पत्ति विनाशशील होनेके कारण अनित्य है। इसीलिये उन सबको तितिक्षासे अर्थात् "दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः ' सुखेषु विगतस्पृहः वीतरागभयक्रोधः” हो करके सहन करना होता है। सुषुम्नान्तर्गत ब्रह्मनाड़ी धरके प्रति चक्रमें "मामनुस्मरन्” करते करते उठनेके समय शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध ये पांचों विषय साधकको भोग देनेके लिये नाना मोहिनी रूप धारण कर उपस्थित होते हैं; मोहित होकर उसमें मन स्पर्श करनेसे ही फंसना होता है, किन्तु भोग चिरकाल नहीं रहता, समय आनेसे ही भयको प्राप्त होता है, रह जाता है केवल संसार-बन्धन। उन सब विषयोंकी ओर भ्रक्षेप न कर मनको संयत कर सूच्यग्र परिमित कूटस्थ-बिन्दुमें लक्ष्य स्थिर करके तन्मय होनेसे, अमृत पद पाया जाता है ॥१४॥१५॥ नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥१६॥ अन्वयः। असतः भावः न विद्यते, सतः अभावः न विद्यते; तत्त्वदशिभिः तु अनयोः उभयोः अपि अन्तः दृष्टः ॥ १६ ॥ अनुवाद। असत्का अस्तित्व नहीं है, सत् वस्तुको अषियमानता भी नहीं है। तत्पदशिंगण इन दोनोका ही अन्त देख चुके हैं ॥ १६ ॥ व्याख्या । - तत्त्व-वस्तुका स्वरूप है। वस्तु दो प्रकारके हैं, सत् और असत्। सत्-आत्मा; असत्-आत्माको छोड़ करके और सब, अर्थात् २४ अंशमें विभक्ता प्रकृति है। असत् वस्तुको अवस्तु भी कहते हैं। दर्शन दो प्रकार के हैं,-अनुलोम और विलोम । मूलसे डगला देखना विलोम दर्शन; यही सृष्टि-प्रकरण है। उगलासे मूल देखना अनुलोम-दर्शन है, यही मुक्ति-प्रकरण है। सृष्टिकरण Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ श्रीमद्भगवद्गीता में दृष्टि डगलेकी ओर रहनेसे विविध विषय-तरंगके आलोड़नमें अज्ञानके अंधियारेमें आच्छन्न होता है, स्वरूप दर्शन होता नहीं। मुक्ति-प्रकरणमें कार्यसे कारणका अनुसन्धान होता है, इससे दृष्टि एकमात्र मूलमें ही आवद्ध रहती है, इसलिये ज्ञानालोक करके स्वरूप दर्शन होता रहता है, तब पञ्चीकृत एव अपञ्चीकृत पंच महाभूत स्थूलसे सूक्ष्मतम हो करके कैसे पृथिवी जल, जल तेज, तेज वायु, वायु आकाश, आकाश तन्मात्रा इत्यादि हो करके इन सकलका पृथक् अस्तित्व मिट कर केवल मात्र "कारण" अवशिष्ट रहता है, वह देखनेमें आता है। वह कारण ही बीज है। उसका और कोई कारण नहीं है, किसी प्रकारके क्षय-वृद्धि-परिवर्तन भी नहीं है। यह बीज ही सत् है। जो महाशयगण मुक्ति-प्रकरणमें तत्त्वदर्शी होते हैं, वह सत् और असत् दोनोंका ही अन्त जानते हैं, अर्थात् जानते हैं कि असत्का पृथक् अस्तित्त्व नहीं है, अस्तित्त्व सत्का ही है ॥ १६ ॥ अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् । विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित् कर्तुमर्हति ॥१७॥ अन्वयः। येन इदं सर्वे ( जगत् ) ततं (व्याप्तं ) तत् तु अविनाशि विद्धि; कश्चित् अस्य अव्ययस्य विनाशं कत्तु न अर्हति ॥ १७ ॥ अनुवाद। जगत्व्यापी होकर जो महदात्मा हैं, उनको अविनाशिके रूपमें जानना ( इस अव्ययको कोई विनष्ट कर नहीं सकता ॥ १७॥ व्याख्या। जैसे एक मृण्मय घटका अणु परमाणु मट्टीके अतिरिक्त और कुछ नहीं, घड़ेको फोड़ देनेसे जो मट्टी हैं वही मट्टी ही रह जाती है, आत्मा और यह विश्व भी वैसा ही है। विश्वके टूटने फूटनेसे आत्माका कुछ नहीं होता, आत्मा जैसीकी तैसी ही रहती है। यह विश्व आत्मामय है, जैसे जलमें रस, इसलिये आत्मा छोड़ करके विश्वका कोई स्थान वतमान नहीं। जैसे एक जलका कठिन, तरल, Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय वाष्पीय मीन प्रकार आकार करके तीन प्रकार नाम होनेसे भी वस्तु एक ही एक रहता है, केवल अवस्था भेद करके नाम-भेद हो जाता है। तद्रप जीव, माया, ब्रह्म एक आत्माकी ही अवस्था और नामका भेदमात्र। इसलिये किसी स्थानसे आत्माको हटा कर आत्माशून्य किया नहीं जाता, सदैव प्रात्मा परिपूर्ण रहता है। इसलिये आत्मा अव्यय अर्थात् व्ययविहीन है। अतएव ऐसे अक्षयको, किस रीतिसे क्षय करोगे ॥ १७॥ अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः । अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद् युध्यस्व भारत ।। १८ ।। अन्वयः। अनाशिनः अप्रमेयस्य नित्यस्य शरीरिणः ( आत्मनः ) इमे देहाः अंततः ( नश्वराः ) उकाः; हे भारत । तस्मात् युध्यस्व ।। १८॥ अनुवाद। अविनाशी, अप्रमेय, नित्य, आत्माके ये समस्त देह अनित्य (विनाशशील ) कहे जाते हैं । अतएव हे भारत ! तुम युद्ध करो ॥ १८ ॥ व्याख्या। पूर्व दो श्लोकमें वृहत् ब्रह्माण्डकी बात कह करके, अब शरीर-शरीरि अर्थात् क्षुद्र ब्रह्माण्डकी बात विशेष करके कही जाती है। इन दोनों ब्रह्माण्डके सम्बन्धमें यदि कहना हो तो कहा जाता है कि जसे जलराशिमें वायुके संयोगसे अनन्त तरंग-फेन-बुबुद् हो करके ( जो जल उसी वायुके ही स्थूल आकारके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं) बहुत क्षणके बाद (वायुका प्रशमन करके ) शान्त हो जाता है, उसका जलीयांश जलमें, वायुका अंश वायुमें जाता है, दृष्टिका धोखा उत्ताल-तरंग रहता नहीं, विषमता-शून्य बराबर समान रहता है, ठीक वैसे इस ब्रह्माण्डमें चैतन्य संयोग करके प्रत्येक शरीर उत्पन्न एवं पश्चात् (चैतन्यवियोग करके विनष्ट होता है। शरीरी अर्थात् चैतन्य अनन्त एवं उपमा-रहित; और यह शरीर मायाके विकार होनेके कारण परिवर्तनशील (अन्तवन्त ) तथा अनित्य है; यही Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता सिद्धान्तकी बातें ( उक्त्वा ) है। अतएव इस अनित्य शरीरके ऊपर ममतापरायण न होकर युद्ध करो, अर्थात् लय योगमें प्रवृत्त हो जाओ।। १८ ।। य एनं वेत्ति हन्तारं यश्च नं मन्यते हतम् । उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥ १६ ॥ अन्वयः। यः एनं ( आत्मानं ) हन्तारं वेत्ति, यः च एनं हतं मन्यते, तौ उभौ न विजानीतः (न ज्ञातवन्तौ ); अयं न हन्ति, न हन्यते ॥ १९ ॥ अनुवाद। मनमें इस आत्माको जो हन्ता मान लेते हैं, एवं इनको जो हत मानते हैं, उन दोनोंको ही-प्रकृत तत्त्व मालूम नहीं, क्योंकि यह आत्मा किसीको हनन भी नहीं करता, एवं किसीसे हत भी नहीं होता ॥ १९ ।। व्याख्या। साधक ! तुम ऊपरमें उठ करके देखो, आत्मा पूर्ण एवं एक है, आत्मा ही जगत है; दो न होनेसे वह हन्ता तथा हत कुछ भी हो नहीं सकता ॥ १६ ॥ न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं __भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ २० ॥ अन्वयः। अयं ( आत्मा ) कदाचित् न जायते न म्रियते वा; भूत्वा वा भूयः न भविता; अयं अज: नित्यः शाश्वतः पुराणः, शरीरे हन्यमाने न हन्यते ॥ २०॥ अनुवाद। यह आत्मा कदापि जन्म भी नहीं लेता मरता भी नहीं, अथवा उत्पन्न होकर पुनराय उत्पन्न होवेगा भी नहीं। यह अज, नित्य, शाश्वत तथा पुराना है। शरीरके विनाश होनेसे इसका विनाश नहीं होता ॥ २० ॥ व्याख्या। अज = जो कभी जन्मता नहीं, नित्य =जो सर्वकालमें विद्यमान रहता है, शाश्वत =अविनश्वर, पुराण =जो सृष्टिके पहले, और संहारके पश्चात् विद्यमान रहता है। आत्मा इस रूप स्वभाव Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय सम्पन्न होनेके कारण वह शरीर हत होनेसे भी हत नहीं होता। शरीरका नाम कोष है; कोष पांच हैं, अन्ममय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, और आनन्दमय । प्रथम वाले स्थूल, द्वितीय, तृतीय, और चतुर्थ वाले सूक्ष्म, एवं पंचम अर्थात् शेष वाले कारण शरीर हैं। एकके नष्ट होनेसे, वह लय योग करके सूक्ष्मत्व लेके दूसरेमें परिणत हो करके, अन्तमें "सर्वलय होनेके पश्चात्" सत् सत्त्वामें मिलता है; जैसे "जलका बिम्ब जलमें उदय होकर, उस जलमें ही मिल जाता है" ॥ २० ॥ वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् । कथं स पुरुषः पाथ कं घातयति हन्ति कम् ॥ २१ ॥ अन्वयः हे पार्थ! यः एनं ( आत्मानं ) अजं अव्ययं नित्यं अविनाशिनं वेद, सः पुरुषः कथं कं घातयति, कं हन्ति ? ॥ २१॥ अनुवाद। हे पार्थ । जो आत्माको जन्मरहित, क्षयरहित, नित्य तथा अविनाशि जानते हैं, वह पुरुष किस प्रकारसे किसके हाथ किसका हनन करावेंगे, और किस रूपसे किसको हनन करेंगे? ॥२१॥ व्याख्या। जो (क्रिया विशेषका अनुष्ठान करके ) आत्माको अविनाशि, नित्य, अज, एबं अव्यय (क्षय-शून्य ) जानते हैं (प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ), वह पुरुषको अर्थात् “अव्यक्तात् परः" जो परागति है, उसको ही प्राप्त होते हैं। तिनमें (सबहीके एक हो जानेके कारण ) किसीके हाथ किसीको वध करानेकी वा वध करनेकी युक्ति दिखाई नहीं देती ; क्योंकि करने धरने वाला कोई रहता नहीं ॥ २१ ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ २२ ॥ अन्वयः। यथा नरः जीर्णानि वासांसि विहाय अपराणि नवानि गृह्णाति, तथा देही जीर्णानि शरीराणि विहाय अन्यानि नवानि संयाति ॥ २२ ॥ अनुवाद। मनुष्य जैसे जीर्ण वस्त्रको परित्याग करके दूसरे नवीन वस्त्रको 'ग्रहण करते हैं, आत्मा भी वैसे ही जीर्ण शरीरको परित्याग कर दूसरे नवीन शरीरको ग्रहण करता है ॥ २२ ॥ व्याख्या। संसारमें जो जन्म मरण देखनेमें आता है, वह केवल पुराना कपड़ा छोड़ कर दूसरा नवीन वस्त्र पहिननेके सदृश आवरण परिवर्तन मात्र है, पुराने अपटु देहको छोड़ करके, जीव दूसरी एक नवीन पटु देहको प्रहण करता है ॥ २२ ॥ नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । च चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ २३ ॥ अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ २४ ॥ अन्वयः। शस्त्रानि एनं ( आत्मानं ) न छिन्दन्ति, पावकः (अग्निः ) एनं न दहति, आपः ( जलं) एनं न च क्लेदयन्ति, मारुतः (एनं ) न शोषयति। अयम् (आत्मा) अच्छेयः, अयम् अदाह्यः, अक्लेद्यः, अशोष्यः एव च; अयम् नित्यः, सर्वगतः, स्थाणुः ( स्थिरस्वभावः रूपान्तरापत्तिशून्यः ), अचलः (पूर्वरूपापरित्यागी), सनातनः (अनादिः ) ॥ २३ ॥ २४ ॥ अनुवाद। इस आत्माको शस्त्र समूह छेदन कर नहीं सकता, अग्नि इनको दहन कर नहीं सकती, जल इनको भिगो नहीं सकता, वायु इनका शोषण कर नहीं सकता, इसी कारण यह ( आत्मा ) अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य, तथा अशोष्य है, आत्मा Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय नित्य, सर्वगत, स्थाणु ( स्थिर स्वभाव ), अचल ( सदा एकरूप ) एवं सनातन ( अनादि ) है ॥ २३ ॥ २४ ॥ व्याख्या। मायिक विकारसे उत्पन्न हुआ भूत समूह निर्विकारके ऊपर किसी शक्तिका प्रयोग कर नहीं सकता। अस्त्र-शस्त्र, अग्नि, जल, वायु-ये समस्त प्रकृति, प्रकृति-विकृति, और विकार हैं। इसलिये आत्माको अस्त्र-शस्त्रसे टुकड़े टुकड़े करना, अग्निसे जलाना, जलसे भिगोना, वायुसे शोषण करना हो नहीं सकता; इसी कारण यह (आत्मा) अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य तथा अशोष्य है। आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, ठूठे वृक्ष सरिस अटल, अचल, एवं अनादि है ॥ २३ ॥ २४ ॥ अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते । तष्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥ २५॥ . अन्वयः। अयम् अव्यक्तः अयम् अचिन्त्यः अयम् अविकाय्य उच्यते तस्मात् एनं एवं ( यथोकप्रकारेण ) विदित्वा अनुशोचितुन अर्हसि ॥ २५॥ . अनुवाद। यह आत्मा अव्यक्त, अचिन्त्य तथा अधिकार्य कहा जाता है। अतएव इसका स्वरूप जानकर निश्चय ही तुम्हारा शोक करना उचित नहीं ॥ २५॥ व्याख्या। २३ श्लोकमें कहा हुआ है कि-आत्मा, पृथ्वी, अग्नि तथा वायुसे स्पृष्ट-(स्पशंदोष सम्पन्न ) होता नहीं। फिर इस श्लोकमें कहा जाता है कि-आकाश भो आत्माको छू नहीं सकता, क्योंकि आत्मा-'अव्यक्त' अर्थात् अति सूक्ष्म होनेके कारण शब्दसे भी अप्रकाश्य हैं; अन्तःकरण इनको धारण कर नहीं सकता, क्योंकि यह "अचिन्त्य” अर्थात् चिन्ताके भी विषय नहीं हैं, यह "अविकार्य" अर्थात् मायातीत ( विकार मायामें ही है, आत्मामें नहीं, जैसे आकाशमें मट्टीका प्रलेप)। इन अवस्था-समूहका तुमने आनुष्ठानिक अनुभव करके अर्थात् कूटस्थके उपर उठ करके निजबोध द्वारा जान Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता करके वाणीमें प्रकाश किया है (उच्यते )। अतएव आत्माको इस प्रकार जान करके शोक करना तुम्हारे लिये उपयुक्त नहीं ॥ २५ ॥ अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् । तथापि त्वं महाबाहो नैनं शोचितुमर्हसि ॥२६।। जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्र वं जन्म मृतस्य च । तस्मादपरिहार्य ऽर्थ न त्वं शोचितुमर्हनि ॥२७॥ अन्वयः । अथ ( यद्यपि ) च एनं ( आत्मानं ) नित्यजातं नित्यं मृतं वा मन्यसे, तथापि हे महाबाहो। त्वं एनं शोचितुन अर्हसि, हि ( यस्मात् ) जातस्य मृत्युः ध्रुवः (निश्चितः) मृतस्य च जन्मधु वं, तस्मात् अपरिहार्य ( अवश्यम्भाविनि) अर्थे त्वं शोचितुं न अर्हसि ॥ २६ ॥ २७ ॥ अनुवाद। और यदि इनको (आत्माको ) नित्यजात वा नित्यमृत मनमें मानलो तो हे महाबाहो! ऐसा होनेसे भी तुम इनके लिये शोक कर नहीं सकते; क्योंकि जिसने जन्म लिया है उसका मरण अवश्य है तथा मरनेसे भी जन्म लेना अवधारित है। अतएव इस अपरिहार्य विषयके लिये शोक करना तुम्हारे लिये सचित नहीं ॥ २६ ॥ २७ ॥ व्याख्या । अपना साधनलब्ध निजबोधरूप ज्ञान छोड़ करके भी यदि तुम सांसारिक नियमको ले इनको (आत्माको ) नित्यजात एवं नित्यमृत मनमें निश्चय कर लो, तो ऐसा होनेसे भी तुम्हारा शोक करना उचित नहीं; क्योंकि जन्म लेनेसे ही मरना होता है, फिर मरनेसे ही जन्म लेना पड़ता है। यह एक बिल्कुल ही सच्ची बात है। जन्म और मरण क्या है ?-चैतन्यके नाम-रूपका आवरण ग्रहण करनेका नाम जन्म, और आवरण विहीन होनेका नाम मुक्ति है, फिर पल्टा आवरण लेनेके लिये असावधान हो करके शेष निश्वास त्याग करनेका नाम मरण है। आवरणको ही शरीर कहते हैं। वह शरीर तीन प्रकारके हैं-स्थूल, सूक्ष्म, और कारण । पंचीकृत-पंचमहाभूत J . ... Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय ७६ निम्मित, षट-विकार-सम्पन्न जो भोगायतन है वही स्थूल शरीर है, अर्थात् अस्थिमांसादि-गठित शरीर है । सूक्ष्म शरीर अपंचीकृतपंचमहाभूत-निम्मित, भोगसाधन, एवं सप्तदशफलायुक्त है। (पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचकर्मेन्द्रिय पंचप्राण, मन, और बुद्धि इन सप्तदशको सप्तदश कला कहते हैं । ) निद्राकालमें स्थूल शरीरके बिछौनेके ऊपर बेखबर पड़नेसे भी स्वप्नयोगमें जो शरीरमें क्रिया होती है, उसीका नाम सूक्ष्म शरीर है। और कारण शरीर इन दोनों शरीरका अविद्यारूप कारण मात्र वा बीज है। मृत्युके ठीक पहले जीव वाह्यज्ञान-शून्य होकर सूक्ष्म शरीरमें रहता है, तब उसका समुदय कृतकर्म सामने उपस्थित हो करके फल देनेके लिये प्रस्तुत होता है। साधनसिद्ध योगीके सत्कर्म समूह चिज्ज्योति विकाश कर (सूर्यतेजसे जैसे कुज्झटिका ) समुदय आवरण नष्ट करा देनेसे उनको मुक्तिपदकी प्राप्ति होती है, अर्थात् उनके स्थूल शरीर त्यागके साथ ही साथ तीनों शरीरका ही त्याग हो जाता है, और फिर शरीर धारण करना नहीं पड़ता। किन्तु असाधक किम्बा असिद्ध साधक कर्ममें आबद्ध रहनेसे, चिज्योतिका दर्शन न पा कर केवल शब्दस्पर्शादि विषयोंका दर्शन करते रहते हैं, आवरण भेद वा नष्ट कर नहीं सकते, इसलिये स्थूल शरीर त्याग होनेसे भी सूक्ष्म और कारण शरीर लेके रह जाते हैं। तब, स्वप्नकालमें समुदय इन्द्रिय वृत्ति और संस्कारके साथ भ्रमण सदृश, सूक्ष्म शरीरमें "आकाशस्थ निरालम्ब वायुभूत" होकरके समुदय वृत्ति और संस्कारके साथ विचरण करते रहते हैं। इसीका नाम मृत्युकी पर अवस्था है। किन्तु बीज जैसे क्षेत्र में पड़ करके काल साहाय्यसे वृक्षाकार धारण करता है, वैसे ही वो सूक्ष्म और कारण शरीर-रूप क्षेत्रस्थ चैतन्य यथाकालमें स्वसंस्कारवशमें अर्थात् जिस भावका स्मरण करके मृत्यु हुई थो, उसी भावके अनु- 5 सार स्थूल शरीर धारण करते हैं। इसीका नाम जन्म है। अतएव Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता जबतक कर्म क्षय हो करके आवरण दूर न हो जाय, तबतक उसी प्रकार शरीर ग्रहण और त्याग अर्थात् जन्म और मरण होता रहता है । ये जन्म-मरण दो प्रकारके हैं,-श्वासगत और शरीरगत। श्वास ग्रहण करके उससे जीवन रक्षा करके भोगके पश्चात् उस श्वासको त्याग करना पड़ता है। श्वासके इस ग्रहण और त्यागको ही श्वासगत जन्म और मृत्यु कहा जाता है। जबतक जीवन है तबतक ये श्वासगत जन्ममृत्यु-प्रवाह' बहता रहता है। ठीक इसी प्रकार जीवत्व जितने दिन है, शरीरगत जन्ममृत्यु-प्रवाह भी उतने दिन है,-जाव एक देह धारण करके, भोगके शेषमें उसको त्याग करके, संचित कर्मराशि भोग करनेके लिये फिर दूसरो एक नवीन देह ग्रहण करते हैं। जैसे जीवन धारण करनेसे जीवनका शेष न होने तक श्वासका ग्रहण और त्याग करना ही पड़ता है; तैसे ( संचित कर्मराशिका क्षय हो करके ) जीवत्वका शेष न होने तक शरीरका ग्रहण और त्याग करना ही पड़ता है;-ये अनिवार्य है। अतएव अपरिहार्य विषयमें शोक करना तुम्हें उचित नहीं ॥ २६ ॥२७॥ अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमथ्यानि भारत । अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥२८॥ अन्वयः। हे भारत ! भूतानि अन्यक्कादीनि व्यक्तमध्यानि अव्यक्तनिधनानि एव; तत्र परिदेवना का ? ॥ २८॥ अनुवाद। भूत सकल (प्राणीगण) आदिमें (सृष्टिके पहले) अव्यक (अप्रकाश ), मध्यमें (कुछ कालके निमित्त) व्यक्त (प्रकाश ), तथा मृत्युके पश्चात् फिर अव्यक्त ही हो जाते हैं। अतएव इसमें दुःखका विषय क्या है? ॥२८॥ व्याख्या। आदि-अन्त-मध्य विशिष्ट जो कुछ है वही भूत है। अतएव ये भोगायतन शरीर, अन्त:करण एवं नाना वृत्तियोंका आधार स्वरूप विभिन्न मिश्रामिश्र शिरा प्रशिरा की क्रिया-सब ही Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय भूत है। यह सब भूत उत्पत्ति (जन्म) होनेसे पहले कैसी अवस्था में रहते थे, वह किसीके दर्शनमें आता नहीं; फिर लयके ( मरणके बाद) पश्चात् किस प्रकारको अवस्था प्राप्त होती है वह भी कोई नहीं जानता;-ये दोनों ही अव्यक्त हैं। केवल उस उत्पत्ति-लयकी मध्यावस्था व्यक्त अर्थात् इन्द्रियोंके ग्रहणीय-नियमित चंचलताका विकाश, गुणत्रयकी क्रिया है। यह तीनों ही प्राकृतिक नियमके अधीन-अवश्यम्भावी हैं। इसके लिये दुःख करना, रोना, पीटना फिर शोक करना काहेको? और भी देखो! तुम "भारत" (भादीप्ति, आत्मज्योति+रत-आसक्त) अर्थात् योगानुष्ठानमें आत्मज्योति प्रत्यक्ष करके उसमें युक्त हुये हो, और उसी ज्योतिके सहारेसे योगमार्गमें अन्तर्लक्ष्य में प्रत्यक्ष देख चुके हो कि, ब्रह्माश्रया माया,* जो अव्यक्तमूल है, उनसे ही त्रिगुणात्मक चौबीस कला-विशिष्ट ये प्राकृतिक जगत् सृष्टि हुअा है ( १४ श अः देखो);-लय-योगमें ये सब ही पुनः मकड़ीके जालका सुति मकड़ीसे मकड़ीमें मिला लेनेके सदृश, उस अव्यक्तमें ही मिल जाता है;-केवल सृष्टिके प्रारम्भसे लयके पूर्व पर्य्यन्त मध्यवर्ती कालकी क्रियात्मक अवस्था ही व्यक्त है-इसका आदि भी वही अव्यक्त, अन्त भी सोइ अव्यक्त है। इसका स्वरूप प्रत्यक्ष करके भी तुम इसमें क्यों शोक करते हो ? ऐसा न करना चाहिये। इच्छा करके शौकसे अपने गलेमें फांसी नहीं डालना ॥२८॥ आश्चर्यवत् पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्य्यवद्वदति तथैव चान्यः । आश्चर्य्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥ २६ ॥ * जंसे सत्य प्रत्यक्षका अवसर न रहनेसे भी मिथ्या अप्रत्यक्ष कल्पना करके उसको मानलेना, वैसे ही ब्रह्ममें माया भी है ।। २८ ।। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R श्रीमद्भगवद्गीता ___ अन्वयः। कश्चित् एनं आश्चर्यवत् पश्यति, तथा एव च अन्यः आश्चर्यवत् बदति, अन्यश्च एनं आश्चर्यवत् शृणोति, कश्चित् श्रुत्वा अपि एनं न च एष वेद ॥ २९॥ अनुवाद। कोई कोई इसको (प्रोक्तविषयोंको ) आश्चर्य सरिस देखते हैं; कोई कोई आश्वयंवत् इसको कहते हैं, कोई कोई इसको आश्चर्य हो करके श्रवण करते हैं, फिर कोई कोई श्रवण करके भी इसको जान ( समझ ) नहीं सकते ॥ २९ ॥ व्याख्या। साधक ! जिस रोज सद्गुरुकी कृपासे तुमने अपनेको प्रथम दर्शन किया था, उस दिन तुमने आप ही आप मनमें आश्चर्य (जो नहीं जानते हैं वहीं आश्चर्य है ) मान लिया था कि नहीं ? उस अपरूप रूपकी बात जब तुमने वाणीमें कहने की चेष्टा पाई थी, उस रूपको प्रकाश करने वाली भाषा न पा करके, व्यक्त करने में अशक्त हो करके, आपही आप तुमने अपनेको आश्चर्य में पाया था कि नहीं? फिर स्मरण करो-उसी प्रणवके गर्भमें नाद, नादके गर्भमें बिन्दु, उसी अर्द्धनारीश्वर बिन्दुसे ( बिन्दुखिल करके जब एकसे दो बिन्दु होकर ) एक बिन्दु प्रकृति नामको लेकरके जब नाचते नाचते प्रथम बाहर हुये, उसके साथ ही साथ पुरुष भी (स्थिर बिन्दु) नाचते रह गये (दोनों बिन्दुके ही कम्पन ); पुरुषका कम्पन अति अधिक दर्शनमें आनेके कारण उसका नाम हुआ "ताण्डव” और प्रकृतिका कम्पन धारणामें आने के कारण उसका नाम हुआ "लास्य" । इसलिये ताण्डवका “ता" और लास्यका "ल' दोनों मिल करके शब्द हुआ "ताल"। अखण्ड-नादके गर्भमें ये प्रकृति देवीका ताल क्रममें पादचारण करनेसे जो व्यजन-मिलन होता है उसीको छन्द कहते हैं, वो छन्द फिर ह्रस्व, दीर्घ प्लुत उच्चारणके लघु, गुरु भंगिमा से सात स्वरमें सुनाई देती है। जब तुमने उस शब्दको प्रथम सुना था तब तुम घबराके आश्चर्य भावमें डूबे थे या नहीं ? अच्छा! फिर जब तुम इसके बाद भावके अधिकतासे भावके सागरमें डूब कर Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय वितल तलमें चले गये थे, तुम्हारा "अहत्व" मिट गया था, क्या तब तुम कुछ मालूम कर सकते थे ?-तब और तुम्हारे जानने लायक विषय कुछ नहीं था, कोई ज्ञान भी नहीं था, उस समय जानने और न जाननेका विषय कुछ नहीं रहता, सब समझका शेष हो जाता है । "अहंत्व" बोध भी जब न रहे, तब कौन किसको जाने ? इस श्लोक में तुम अपनी कई अवस्थाओंको मिला देखो ॥ २६ ॥ देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत । तस्मात् सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ ३० ॥ अन्वयः। हे भारत ! अवध्यः अयं देही ( आत्मा) सर्वस्य देहे नित्यं (भवति :; तस्मात् त्वं सर्वाणि भूतानि शोचितुन अहंसि ॥ ३० ॥ अनुवाद। हे भारत ! अवध्य थे जो देही ( आत्मा ) है वह सर्व देहमें नित्य वर्तमान हैं; अतएव तुम मर्व भुतोंके लिये शोक न करना ॥ ३०॥ व्याख्या। तुम भारत-आत्मज्योति-निविष्टचित्त हो; तुम जानते हो और अभी प्रत्यक्ष देख भी चुके हो, ये जो देहस्थ चैतन्य श्रात्मा (देही ) है, वह अवध्य तथा सर्व शरीरमें (जगत्के भीतर आयतन विशिष्ट जो कुछ सब शरीर-चेतन ही हो या अचेतन ही हो ओर उद्भिद भी होय ) नित्य वर्तमान है। अतएव इस नित्य वर्तमानको छोड़ करके अनित्य-देह जो भूत है, उसके लिये तुम शोक न करना, ऐसा शोक करनेसे तुम्हारी शोभा नहीं होती ॥३०॥ स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि । धाद्धि युद्धाच्छ्र योऽन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते ॥३१॥ अन्वयः। अपच स्वधर्म अवक्ष्य विकम्पितु न अर्हसि; हि ( यस्मात् ) क्षत्रियस्य धर्मात् युद्धात् अन्यत् श्रेयः न विद्यते ॥ ३१॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद । और भी स्वधर्मको देख करके विकम्पित होना तुम्हारे लिये उचित नहीं; क्योंकि क्षत्रियोंके पक्षमें धर्मयुद्धके अतिरिक्त श्रेयस्कर दूसरा और कुछ नहीं है ॥ ३१॥ व्याख्या। स्वधर्म-आत्मघम। आत्मक्षेत्र बुद्धिक्षेत्रके ऊपर है। लययोगका आश्रय करके इस क्षेत्रमें आ पहुंचनेसे, (अनुलोमकी गतिमें ) केवल अहंकारका आविर्भाव करके, हम ही सब, मैं ही मैं हूँ इस प्रकार स्थिर धोर अतिस्निग्धोज्वल तडित्पुञ्जवत् प्रकाशमय "मैं” रूपको एक-रस अवस्था आती है, उसीको स्वधर्म जानना चाहिये। साधक ! तुमने गुरूपदेश-प्राप्त सहस्रारके क्रियायोगसे ध्वनिके अन्तर्गत ज्योति भेद तथा मनको विलय करके, विष्णुपद में मिलकर स्घधर्माको प्रत्यक्ष अनुभव किये हो-समझ भी चुके हो; समझनेके पश्चात् तुम्हारा इस प्रकार कम्पित होना ठीक नहीं। तुम क्षत्रिय-आत्मराज्यसंस्थापनेच्छु हो; उस आत्मधर्मके हेतु शमदमादिके साथ श्रात्म निग्रहके लिये (शरीर ही “मैं” हूँ, ये अभिमान नष्ट करनेके लिये ) युद्ध (प्राणायाम) बिना तुम्हारा और दूसरा श्रेयः है ही नहीं ॥ ३१ ॥ यहच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् । सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमोदृशम् ॥ ३२ ॥ अन्वयः। हे पार्थ ! यदृच्छपा च ( अप्राथिताप ) उपपन्नं (प्राप्तं) अपावृतं (उन्मुक्त) स्वर्गद्वारं ( इव ) ईदृशं युद्ध सुखिनः क्षत्रियाः लभन्ते ।। ३२ ।। अनुवाद। हे पार्थ। आपही आप उपस्थित् उन्मुक्त स्वर्गद्वार-स्वरूप ईदृश युद्ध सुखी क्षक्षियगणको ही प्राप्त होता है ।। ३२ ।। • * “यो बुद्धः परतस्तु सः"--३ य अः २४ श्लोक। "मनसस्तु: पराबुद्धिः बुद्धरात्मा"-श्र तिः ॥३१॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय व्याख्या। सुख-सु-सुन्दर, शुभ; ख-शून्य । क्षिति अप, तेज, मरुत्, व्योम-ये पांचही 'कुछ' हैं; जिसका आदि-अन्त-मध्य है, उसीको ही कुछ कहते हैं, वो कुछ न रहना ही “शून्य" अर्थात् अविषय है। अभावका आपूरण ही अर्थात् प्राप्तिका प्राप्ति या आकांक्षा मिट जाना ही "शुभ” है। शान्तिके लिये ही आकांक्षा है । अविच्छिन्न निस्वैगुण्य अवस्था ही शान्ति है। मात्रास्पर्श समूहके (२ य अः १४ श्लोक) उत्पत्ति विनाशशील और अनित्य होनेके कारण शान्ति नहीं आती। किन्तु अात्माके नित्य होनेके कारण, विषय छोड़ करके अात्मामें आ पड़नेसे ही शान्तिमय आत्मानन्द लाभ होता है। इस विषयशून्य शान्तिमय अवस्थाको ही सुख कहते हैं। जो यह सुख भोगते हैं वह भाग्यवान् पुरुष ही सुखी है। जो क्षत्रिय अर्थात् आत्मज्योतिके प्रकाशका रक्षाके लिये वीर्यशील हैं, तथा सुखी हैं वह पुरुषरत्न इस प्रकार युद्धलाभ करते हैं; क्योंकि यह युद्ध अनायास-लब्ध है। क्षत्रियवृत्ति-सम्पन्न सुखी साधक दिव्य दृष्टि करके देखते हैं कि, मानसिक वृत्ति सकल आप ही आप (किसी प्रकारका चेष्टा न करनेसे भी) नाना विवय में दौड़ता हुआ उनको (साधक को) आत्मपदसे हटा देनेके लिये चेष्टा कर रही हैं। इसीलिये यह युद्ध अनायास लब्ध है। और भी यह युद्ध स्वर्गका उन्मुक्त द्वार स्वरूप अर्थात् आत्मगतिका खुला हुअा दरवाजा है; क्योंकि जो साधक ऊँचे स्तर में उठ गये हैं वह जानते हैं कि देहात्माभिमान नाश करने वाला सूक्ष्म प्राण-चालन ठीक होनेसे ही एक प्रस्फुटित मणिमय (हीराके तेज सरिस ज्योतिसदृश ) अवकाश वा छिद्रसे "कोटीसूर्य्यप्रतीकाशं चन्द्रकोटी सुशीतलं" आत्मज्योति खिलती हुई बाहर निकल आती है, दशनमें आती है। इसलिये भगवान् कहते हैं कि हे पार्थ! बड़े भाग्यसे इस युद्ध ( क्रिया) मिलता है ॥ ३२ ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ श्रीमद्भगवद्गीता अथचेत् त्वमिमं धर्म्य संग्रामं न करिष्यसि । ततः स्वधर्म कीर्तिच हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥ ३३ ॥ अन्वयः। अथचेत् ( यदि ) त्वम् इम धम्भ्य ( धर्मविहितं ) संग्राभं न करिष्यसि, ततः स्वधर्मे कीत्तिं च हित्वा पाय अवाप्स्यसि ।। ३३ ।। अनुवाद। अभी अगरचे तुम यह धर्म युद्ध न करोगे तो ऐसा होनेसे स्वधर्म तथा कीत्ति परित्याग करके तुम पापको प्राप्त होंगे ॥ ३३ ॥ व्याख्या। साधककी उस सुखकी अवस्थाके आते ही साधक सामने शुद्ध चैतन्यमय श्रीकृष्ण परमात्माका दर्शन करते हैं, और क्षत्रिय वृत्ति रहनेसे प्रवृत्ति-निवृत्ति को क्रिया समूह साधकमें प्रत्यक्ष होती है। इसलिये कहा गया-सुखी क्षत्रिय हो करके यदि तुम अभी यह आत्मधर्म-विषयक प्रवृत्तिनाशक युद्ध (प्राणायामादि साधना) न करोगे तो उससे स्वधर्म ( ब्राह्मीस्थिति ) और कीर्ति (ब्राह्मीस्थिति प्राप्त होने की चेष्टामें अनुष्ठित कर्ममें जो एक एक सिद्धि लाभ होने के पश्चात् आत्मख्याति अर्थात् अपने सामर्थके प्रति अपनी विशुद्ध प्रशंसा और विश्वास होता है, वही) परित्याग करके तुमको पापमें अर्थात् प्राकृतिक चंचलता में-जन्म मृत्युके प्रवाह में पड़ना होवेगा ॥३३॥ अकीर्तिव्चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् । सम्भावितस्य चाकीतिमरणादतिरिच्यते ॥ ३४ ॥ अन्वयः। अपिच भूतानि ते अव्ययां अकोत्ति कथयिष्यन्ति; सम्भावितस्य ( बहुमतस्य ) अकीतिः भरणात् अतिरिच्यते ( अधिका भवति ) ॥ ३४ ॥ अनुवाद। और भी भूतगण तुम्हारे अक्षय अकीत्तिमें घोष करेंगे; समर्थ पुरुषको अर्कात्ति मृत्युसे भी अधिक होती है ॥ ३४ ।। व्याख्या। साधक ! यदि तुम क्रियामें इतनी दूर अग्रसर होनेके पश्चात् अभी कातरता कर प्राणायामादि क्रिया (युद्ध ) त्याग करो Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ द्वितीय अध्याय तो, जिस कर्ममें तुम अकृतकार्य हुए हो कर्मप्रारम्भ करके सिद्धि लाभ करने की शक्ति हुई नहीं, वही तुम्हारी अकीति। यह अर्काति केवल इसी जन्ममें तुम्हारे मनमें अनुशोचना का उद्रेक करके निरस्त होवेगी ऐसा नहीं; यह अकीति तुम्हारे लिये अव्यय अक्षय होकरके रहेगी। क्योंकि भूत सकल (अपंचीकृत पंचमहाभूतनिम्मित सूक्ष्मावयव मन आदि सप्तदश कला ) तुम्हारी उस अकीत्तिकी घोषणा करके अव्यय करेगा अर्थात् अति उन्नति की अति अवनति कारण करके बार बार तुमको जन्म मृत्युके प्रवाहमें डाल कर पूर्वकृत कर्मकी स्मृति संस्कारके हाथसे तुमको निष्कृति पाने न देगा; तब, ( संसारवाही मूढ़ लोग कष्ट भोग करके जैसे कहता रहता है “जनम जनम मैं कितने पाप किये हैं-कितनी गोहत्या नरहत्या, स्त्रीहत्या की है, अब उसीका फल भोग रहा हूं" इसी प्रकार करके ) घोर संस्कारके कृपामें तुम्हारे ही मुखसे ऐसी ऐसी बातें निकलेंगी;-इसीको ही घोषणा जानिये । फिर वह समस्त कार्य भी संस्कारमें परिणत होकर तुम्हारी भावी उन्नतिका कण्टक होवेगा। इसलिये कहता हूँ कि साधक ! तुम सम्भावित ( बहुमत, पूजित ) अर्थात् मन बुद्धि प्रभृति सप्तदश कलाके श्रेष्ठ हो; तुम इच्छा करके यदि यह अकीर्ति लोगे, तो यह तुम्हारे मरणसे भी अधिक होवेगी। क्योंकि मरनेसे शरीर का विच्छेद होनेके पश्चात् कृतकम्मका संस्कार ही रह जाता है, प्राकृतिक यन्त्रणा रहती नहों, वह शरीरके साथ ही साथ मिट जाती है सही किन्तु इस करके पर जन्मके शरीर में दूनासे भी अधिक परिमाण यन्त्रणा भोग करनी पड़ती है ॥ ३४ ॥ भयाद्रणादुपरतं मस्यन्ते त्वां महारथाः। येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥ ३५ ॥ अन्वयः। महारथाः त्वां भयात् रणात् उपरतं (निवृत्त) मस्यन्ते (मन्येरन् )। येषां च त्वं बहुमतः भूत्वा लाघवं यास्यसि ॥ ३५ ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता ___ अनुवाद। महारथ समूह मनमें समझेंगे कि भय करके तुम युद्धसे प्रतिनिवृत्त हुये हो; जो लोग तुमको अनेक श्रेष्ठ कह करके मानते हैं, उन लोगोंके पास तुम बहुत छोटे हो जावोगे ॥ ३५ ॥ व्याख्या। अकृतकार्य होनेसे केवल बाहरके ही सामर्थ्यवान् लोग तुम्हारी अवज्ञा और घृणा करते हैं, ऐसा नहीं; अन्तःकरणके भीतर भी प्रवृत्ति-निवृत्तिके भीतर प्रधान प्रधान वृत्ति समूह ( महारथाः) मनमें उदय हो करके आत्मग्लानि उत्पन्न करती हैं; तब मनमें होता है, हाय हाय !! डरके मारे उपरत (पीछेपांव ) हुआ हूँ !मुझको धिक है ! उस प्रकार, पहले पहले जिन सब वृत्तियोंके ऊपर एक शक्ति रहनेसे आत्ममान बनी रहती है, पश्चात् उन सबके प्रधान हो उठनेसे आप ही आप अन्तःकरणमें थोड़ासा लघु होना पड़ता है, पहले सरिस मन और उतना तेज धर नहीं सकते। साधक ! तुम अपना सब प्रकारका अभिज्ञताके साथ मिलाके देखलो, सब मिल जावेगा ॥३५॥ अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः । निन्दन्तस्तव सामर्थ्य ततो दुःखतरं नु किम् ॥३६॥ अन्वयः। तव अहिताः ( शत्रवः ) तवसामय निन्दन्तः बहून ( अनेक प्रकारान् ) अवाच्यवादान् च वदिष्यन्ति; ततः दुःखतरं किं नु ? ॥ ३६ ।। ___ अनुवाद। शत्रुपक्ष तुम्हारी शक्ति सामर्थ्यकी निन्दा करके बहुत ही अकथ्य कथनका प्रयोग करेगा; दुखका विषय इससे अधिक ओर क्या हो सकता है ? ॥३६।। व्याख्या। अहितों अर्थात् शत्रु समूह* ( रिपु और इन्द्रियगण ) तुम्हारे सामर्थ्य की निन्दा करेंगे, अनेक अनिष्टकी बातें भी कहेंगे, अर्थात् तुम आपही. आप मनही मनमें अपनी अनेक प्रकार निन्दा ग्लानि करते रहोगे। इससे अधिक दुःखदायी और क्या है ? "धिकजीवितं व्यर्थमनोरथस्य" ॥ ३६ ॥ * शत्र-२य अ. ८ म श्लोकका व्याख्या देखो ॥ ३६॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ द्वितीय अध्याय हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् । तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।। ३७ ॥ अन्वयः। हे कौन्तेय ! हतो वा स्वर्ग प्राप्स्यसि, जित्वा वा महीं भोक्ष्यसे; तस्मात् युद्धाय कृतनिश्चयः ( सन् ) उत्तिष्ठ ।। ३७॥ अनुषाद। हे कौन्तेय ! यदि मरो तो स्वर्ग लाम करो,-यदि जयी होओ तो पृथिवी भोगकर सकोगे; अतएव युद्धके लिये कृतनिश्चय हो करके उठ बंठो ॥ ३७ ॥ व्याख्या। यह साधन-समर करते करते मर जानेसे भी तुमको स्वर्ग (आत्मगति लाभ ) होवेगी; क्योंकि सत् कर्म करते करते शरीर त्याग होनेसे, मृत्यु सन्धिमें अभ्यासके बल करके मनमें सत् वस्तु ही उदय होबेगा; जिसमें सद्गति प्राप्ति अवश्यम्भावी है (६ ष्ठ अः ४०-४६ श्लोक देखो। और यदि जय लाभ कर सकोगे तो “महीं भोक्ष्यसे” अर्थात् असपत्न ऋद्ध राज्य भोगते रहोगे (८ म श्लोक देखो ) अर्थात् जीवन्मुक्त हो जाओगे। अतएव युद्धके लिये कृतनिश्चय होकरके ऊर्द्ध में स्थित हो जाओ ( उत्-तिष्ठ) (३ य श्लोक देखो ) ॥ ३७॥ सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ ३८ ॥ अन्वयः। सुखदुःखे समे ( तुल्ये ) कृत्वा, तथा लाभालाभौ जयाजयौ ( समौ कृत्वा ) ततः युद्धाय युज्यस्व ( सन्नद्वोभव ) एवं ( युद्ध कुर्वन् ) पापं न अवाप्स्यसि ॥ ३८॥ अनुवाद। सुख-दुःख, लाभ-अलाभ तथा जय-पराजय समान ज्ञान करके युद्ध में युक ( प्रस्तुत) हो जावो; इस प्रकारसे ( युद्ध करनेसे ) तुम पापको प्राप्त न होओगे ॥ ३८॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। सुख १२ श्लोकमें व्याख्या की गई है। दुःख-दुः= कलुषित, ख=आकाश; वासना रहनेसे ही अन्तराकाश आवरणशक्ति करके ढक जाता है, तब अभावपूर्ण शून्यमय अंधियारी से भरी हुई एक अवस्था अाती है; सुन्दर जो आत्मज्योति है, उसकी रेखा मात्रका भी दर्शन नहीं मिलता, प्राण आय चाय करता है, मन व्याकुल होता है, वही दुःख है। सुख-दुःख लाभ-अलाभ, जयपराजय समान करके अर्थात् "दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः” होकरके, युद्ध के लिये ही (गुरु कहते हैं बोल करके ) युद्ध करता हूँ, इस प्रकारसे फलाकांचा छोड़ देके कर्तव्य ज्ञान करके युद्ध अर्थात् प्रवृत्ति-निग्रहमें यत्न करो। ऐसा करनेसे और तुमका पाप (चंचलता, जिसमें साधकको अवश करके स्थान और लक्ष्य भ्रष्ट होना पड़ता है) स्पर्श न करेगा अर्थात् कर्म-अकर्म-विकर्म जिसमें रहोगे निरन्तर ब्राह्मीस्थिति पावोगे॥ ३८ ॥ एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगेत्विमां शृणु। बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबन्ध प्रहास्यसि ॥ ३९ ॥ अन्वयः हे पार्थ! सांख्ये ( परमार्थ वस्तु विवेक विषये ) एषा बुद्धिः ते (तुभ्यं ) अभिहिता ( कथिता )3 योगे तु ( कर्मयोगेतु ) इमां बुद्धिं शृणु यया बुद्धया युक्तः ( सन् ) कर्मबन्धं प्रहास्यसि ( प्रकर्षेण त्यक्ष्यसि ) ॥ ३९ ॥ अनुवाद। हे पार्थ ! मैंने सांख्यमत सिद्ध यह ज्ञान तुमसे कहा, अब योगमत करके इस ज्ञान का विषय कहता हूं श्रवण करो, जिस ज्ञानमें युक्त होनेसे तुम कर्म बन्धनको परित्याग कर सकोगे।। ३९ ॥ व्याख्या। साधक ! यह जो निश्चय करने वालो बुद्धि तुमसे कही गई, वही सांख्यका मत है; किन्तु योगका मतमें वह बुद्धि किस प्रकार होती है, सुनो,-जिसके युक्त होनेसे तुम सम्पूर्ण रूपसे कर्म बन्धनको त्याग कर सकोगे। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय ६१ सांख्य क्या ? संख्या द्वारा वस्तुत्व निरूपण कर लेनेका नाम सांख्य है। इसमें प्राकृतिक २४ तत्त्व और पुरुष एक, ये २५ पदार्थकी गणना करके विश्वकोषकी सत्त्वा समझी जाती है;- यह अनुमान. और अनुभवसिद्ध* समष्टि ज्ञान है, इसलिये सांख्य शब्दमें ज्ञानको समझाते हैं। और योग ? एकको और एक वस्तुके साथ मिला कर तदाकार कर देनेका नाम योग है; यह योग सम्पूर्ण अनुष्ठानसिद्ध है। जैसे पृथिवी-तत्त्वको लय करके रस-तत्त्वमें मिला कर एक करना योग है, रसको ऐसे ही तेजके साथ मिलाना योग है, तद्वत् देज वायुमें, वायु आकाशमें, आकाश तन्मात्रामें, तन्मात्रा मनमें, मन बुद्धिमें, बुद्धि अहंकारमें, अहंकार महत्त्वत्त्वमें वा चित्तमें चित्त अव्यक्त वा मूल प्रकृतिमें, सबके पश्चात् प्रकृतिको पुरुषमें मिला देनेका नाम योग है। किन्तु पूर्व पूर्व योग शेष योगके क्रम बिना और कुछ नहीं है, इसलिये उस क्रमका नाम योगमार्ग तथा क्रमकी परिसमाप्तिका नाम योग है। साधक यह योग प्राप्त होनेसे ही योगी, और नीचेके स्तरमें रहनेसे ही योगाभ्यासी हैं। योगी हो करके योगावस्था छोड़के नीचे वाले स्तर में उतर आनेसे जो ज्ञान होता है, वह भी सांख्य है। अतएव योगका प्रथम भी सांख्य शेष भी सांख्य, योगका मूल भी सांख्य, फल भी सांख्य है। जो मूल है, वह सम्पूर्ण आनुमानिक वा उपदेश प्राप्त ज्ञान-“सांख्य-योग”; और जो फल है, वह योगका प्रानुष्ठानिक ज्ञान "मोक्ष-योग” है;-यही इसमें पृथकता, नहीं तो एकही है। २४ । २५ श्लोक में जो जो प्रकाश हुआ है, वही सांख्य मतकी बुद्धि वा ज्ञान है; इसमें पृथिवीसे आत्मा पर्य्यन्त समुदयकी सत्त्वा प्रत्यक्ष होती रहती है। किन्तु योगमें जो ज्ञान होता है उसमें नीचे वाले स्तर समूहका लय होता चला आता है, जिससे नीचे वाला ज्ञान एक * अनुसूक्ष्म, भव-होना; ज्ञातव्य के साथ तदाकारत्व प्राप्ति ॥ ३९ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्रीमद्भगवद्गीता दम मिट कर क्रम अनुसार ऊँचेमें उठकर एकहीमें परिणत हो जाता है। यह जो विषयसे समेट ले पाना आत्ममुखी बुद्धि है, इस बुद्धि द्वारा युक्त होनेसे ही ( एक मात्र प्राणायामसे ही उस प्रकार होता है, उसका प्रकरण गुरुपदेशगम्य है ) प्रारब्ध, संचित जो कुछ कर्मबन्धन है, समस्त ही सम्पूर्ण रूपसे छूट जाता है ॥ ३६ ॥ नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते । स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥४०॥ अन्वयः इह (मोक्षमार्गे कर्मयोगे) अभिक्रमनाशः (प्रारम्भस्य नाशो निष्फलत्वं ) न अस्ति प्रत्यवायश्च न विद्यते; अस्य धर्मस्य (कम्मंयोगस्य) स्वल्पं अपि ( अनुष्ठितं ) महतः भयात् (जन्ममरणादिलक्षणात् रं-ससा भयात् ) त्रायते ( रक्षति ) ॥ ४०॥ अनुवाद । इस कर्मयोगमें अभिक्रमका नाश (प्रारम्मकी निष्फलता ) नहीं है प्रत्यवाय भी नहीं है; इस धर्मका अल्पमात्र भी अनुष्ठित होनेसे महत् भय ( जन्म मृत्युके प्रवाह ) से त्राण करता है ।। ४० ॥ व्याख्या। इस कर्मयोगमें अभिक्रमका (अभिसन्मुखमें, क्रम = गमन करना ) अर्थात् आत्माभिमुख गतिका नाश नहीं होता, क्योंकि "तदर्थीय” कर्म होनेसे इसका "अभाव” नहीं होता; वैसेही प्रत्यवाय वा विपरीत गति भी नहीं होती, क्योंकि योगी ६ ष्ठ अः ४४ श्लोकके अनुसार परजन्ममें भी पूर्वाभ्यासकी शक्तिसे अवश होकर आत्माभिमुखमें बढ़ते जाते हैं। इस धर्मका (योगावलम्बनका) अल्पमात्र भी महत् भयसे त्राण करता है। संसारमें जन्ममृत्यु ही महत् भय है। प्रवृत्तिमार्गमें (विलोम वा संसारमार्गमें ) रहनेसे ही विषयमें लक्ष्य रहता है, किन्तु विषयके अनित्यताके हेतु उसी एक विषयका भोग शेष करके विषयान्तर लेनेके लिये उसका त्याग अनिवार्य है; अतएव मृत्यु निश्चय है। मृत्यु होनेसे ही पुनः जन्म होता Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय है। यह जन्म-मृत्यु बराबर होता ही रहता है, शेष नहीं होता। किन्तु निवृत्तिमार्गमें (अनुलोम वा योगमार्गमें ) थोड़ासा भी अप्रसर होने से अभिक्रमनाश और प्रत्यवाय रहता नहीं इससे लक्ष्य नित्यमें आकृष्ट होता है; इसलिये श्वासगत या शरीरगत चाहे जिस प्रकारकी मृत्यु हो, दो-पांच जन्मके बाद ही जन्म मृत्वृके प्रवाहके परपारमें पहुँचा जा सकता है। "बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान् मां प्रपद्यते" ॥४०॥ व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन । बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥४१॥ अन्वयः। हे कुरुनन्दन ! इह ( मोक्षमार्गे कम्मंयोगे ) बुद्धिः व्यवसायात्मिका (निश्चयात्मिका) एका (च भवति); हि ( किन्तु ) अव्यवसायिनाम् ( बहिर्मुखाना कामिना ) बुद्धयः बहुशाखा: अनन्ताश्च ( भवन्ति ) ॥४१॥ अनुवाद। हे कुरुनन्दन ! इस कर्मयोगमें बुद्धि व्यवसायात्मिा (निश्चयात्मिका) तथा एक होती है; किन्तु अव्यवसायियोंको बुद्धि बहुशाखायुक्त और अनन्त होती है ॥४१॥ ___व्याख्या। इस कर्मयोगसे बुद्धि "व्यवसायात्मिका" (वि= आकाश, चक्षु+अव= विस्तार+सो=मरण ) अर्थात् आकाशमय चक्षुमें विस्तृत होकर स्थिर हो जानेसे स्थिरतामयी वा निश्चयात्मिका होती है, एवं “एका" अर्थात् कूटस्थमध्यस्थ "कोटी-सूर्यप्रतीकाशं चन्द्रकोटी सुशीतलं” तारकके भीतर ( तारक नक्षत्रके भीतर) प्रविष्ट होनेके पश्चात् वह एकानन्द वा ब्रह्मानन्दमय हो जाती है। किन्तु. अव्यवसायियोंके (अ= निषेधार्थ+वि= विशेष+अव= निश्चय + सो उद्योग करना ) अर्थात् जो लोग विशेष निश्चयताके साथ उद्योग ( उत् =ब्राह्मीमार्ग में, योग-प्राणायामादि रूप प्रानुष्ठानिक क्रिया) नहीं करते, उन सबकी (बुद्धयः ) बुद्धि एकत्व छोड़ करके नानात्वमें: Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता पतित होनेके लिये बहुशाखायुक्त तथा अनन्त होती है । "बहुशाखायुक्त' अर्थात् भिन्न भिन्न विषयके संसर्गमें आकरके भिन्न भिन्न प्रकारकी होती है; और "अनन्त' अर्थात् विषय-भोगमें आबद्ध रह करके बार बार जन्म-मृत्युके आलोड़नमें वृद्धिको ही प्राप्त होती रहती है, विषय छोड़ करके ब्रह्ममें आके चिरविश्राम नहीं पाती"निर्वाणपरमां शान्ति” नहीं पाती ॥ ४१॥ यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः। वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥ ४२ ॥ कामात्मानः स्वर्गपराः जन्मकर्मफलप्रदाम् । क्रियाविशेषबहुला भोगैश्वर्यगति प्रति ॥ ४३ ॥ भोगैश्वर्य्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् । व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥४४॥ अन्वयः। हे पार्थ ! अविपश्चितः कामात्मानः स्वर्गपरा8 ( ये जनाः ) वेदवादरताः ( अतएव ) अन्यत् न अस्ति इति वादिनः ( वदनशीलाः सन्तः ) इमां यां जन्मकर्मफलप्रदा भोगैश्वय्यंगति प्रति क्रियाविशेषबहुला पुष्पिता (विषलतावत् आपातरमणीयां ) वाचं प्रवदन्ति, तया ( वाचा ) अपहृतचेतसां भोगैश्वयंप्रसक्तानां ( तेषां ) बुद्धिः समाधौ व्यवसायात्मिका न विधीयते ( भवति ) ॥४२॥४३॥४४॥ अनुवाद। हे पार्थ! जो सब अविवेकि कामात्मा स्वर्गपरायण लोग वेदवादरत हैं अतएव 'अन्य कुछ है नहीं" इस प्रकारके वक्ता होकर ये जो जन्मकर्मफलदेनेवाला भोगैश्वर्य प्राप्तिकी उपाय स्वरूप क्रियाविशेषबहुल मनहरणकरनेवाली वाक्य कहती है, उसी वाक्य द्वारा अपहृतचित्त तथा भोगैश्वर्यमें आसक्त होनेसे उन सवको बुद्धि समाधिमें व्यवसायात्मिका नहीं होती ॥ ४२ ॥ ४३ ॥ ४४ ।। व्याख्या। विपश्चित् ( वि+प्रविप्रकृष्ट =चि= संग्रह करना+ क)-जो कोई विप्रकृष्टको अर्थात् दूरवतीको संग्रह करते हैं। दूर कितने प्रकारका है ? देशगत, कालगत तथा पात्रगत-ये तीन प्रकारके Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ द्वितीय अध्याय दूर हैं। देशगत दूरवतीको हाथ और पैर द्वारा अर्थात् शारीरिक क्रिया द्वारा संग्रह ( सम्यक् प्रकार करके ग्रहण) किया जाता है; कालगत दूरवर्तीको भूत-भविष्यत्के अनुमान एवं विचार द्वारा अर्थात् अन्तःकरणकी क्रिया द्वारा ग्रहण किया जाता है; तथा पात्रगत दूरवत्तींके संग्रह ( सम्यक् प्रकार करके ग्रहण ) अनुभव द्वारा अर्थात् अनु होते होते सबके शेषमें चित्तधर्मके पार होनेके बाद अर्थात् लय योग द्वारा अन्तःकरणवृत्तिका लय करते करते मायिक सब कुछ मिट जानेके बाद आत्मामें प्रात्मा मिलने पर होता है। जो शरीर, मन और आत्मा-ये तीनों एक करके दूरवती (षटचक्रके पर पारस्थित ) नाद बिन्दुको सम्यक् प्रकार ग्रहण कर सकते हैं अर्थात् उसमें मिल जा सकते वा मिलनेको चेष्टा करते हैं, उसको विपश्चित् कहते हैं। किन्तु जो मनुष्य क्रियायोग करके उस दूरवर्तीको संग्रह नहीं करते वा संग्रह करनेकी चेष्टा नहीं करते-निकटवर्ती अर्थात् पंचचक्रके भीतर दृश्यमान विषयका ग्रहण करते हैं, उनको अविपश्चित कहते हैं। निष्काम कमके अनुष्ठानसे ही दूरवर्तीका ग्रहण होता है; सकाम कर्मसे दूरवर्तीका ग्रहण नहीं होता, निकटवत्तीका ग्रहण होता है। इसलिये सकाम पुरुष ही अविपश्चित् अर्थात् अविवेकी है। अविवेकी कामनापरवश होकर विषय-सुख भोगोंका सर्वोत्कृष्ट स्थान जो स्वर्ग, उसीको लक्ष्य करता है। स्वर्ग लाभ ही काम्यकर्मका सर्वोत्कृष्ठ फल है. वेदके कर्मकाण्डमें इसी प्रकार विधान है। वह लोग वेदके उन उन वचनोंको लेकर "स्वर्ग लाभ ही श्रेष्ठतम फल है, उसे छोड़ कर और (दूसरा ) कुछ नहीं है" ऐसी नाना प्रकारकी साज सज्जावाली मनोहर बातें कहते हैं। इस प्रकार करनेसे ऐसा होता है कि, वो सब अपनेको भूलकर नित्यानित्य-विचार विहीन होकर भोग और ऐश्वय्य लेकर ही मतवाले बने रहते हैं, समाधिमें व्यवसातात्मिका बुद्धि-युक्त हो नहीं सकते। क्यों नहीं हो सकते उसका विषय खुलासा कहा जाता है Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता ___ कर्म दो प्रकारके हैं,-सकाम और निष्काम; बहिर्मुखमें स्थूल शरीर और अन्तमुखमें सूक्ष्म शरीर द्वारा यह किया जाता है। इसलिये कर्मकी एक सीमा है। बाहरमें जैसे अत्यधिक परिश्रम करके शरीरके क्लान्त और अचल होनेसे काम काज कुछ होता नहीं, निश्चष्ट हो पड़ता है, भीतरमें भी वैसे कर्म चरम अवस्थाको प्राप्त होनेसे ही बिलकुल मिट कर एक स्थिर भाव आ जाता है। उस स्थिर भावका नाम ही समाधि है। अतएव यह समाधि, क्रियाकी अवश्यम्भावी फल है। किन्तु कर्मके सकाम-निष्कामता हेतु समाधि दो प्रकारको समझना चाहिये । सकाम कर्ममें लय होनेके समय कामना वाले विषयकी स्मृति संस्कारको लेकर विश्राम लेना पड़ता है; समाधि भंग होते ही जाग्रत होनेके साथ ही साथ वो स्मृति भी फिर जाग उठती है; इसीका नाम जड़समाधि है। इसमें विभूति लाभ ही होती है, मुक्ति नहीं होती। निष्काम कर्म करके समाधि लेनेके समय कामना नहीं रहती, इसलिये केवल चतन्यमें हो लक्ष्य रहती है और उसी चतन्यमें ही लीन होना पड़ता है। यह अवस्था छूट जानेसे मनमें वृत्ति मात्र ही उदय नहीं होती, कदाचित यदि वृत्ति भी श्रा जाये तो, क्या जाने मैं कैसे अच्छा रहा, इस प्रकार एक आनन्दरसका नशासे अन्तःकरण मतवाला रहता है; इसका नाम चैतन्यसमाधि वा ब्राह्मीस्थिति है। इस चैतन्यसमाधिके ग्रहणके पहले ही बुद्धि व्यवसायात्मिका होती है। इसीलिये कहा हुआ है कि आसक्त वालोंकी समाधि होनेसे भी बुद्धि व्यवसात्मिका नहीं होती॥४२॥४३॥४४॥ त्रैगुण्यविषया वेदाः निस्त्रगुण्यो भवार्जुन । निद्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ ४५॥ अन्वयः। हे अर्जुन ! वेदाः त्रैगुण्यविषयाः (त्रिगुणान्विताः); (त्वं ) निर्द्वन्द्वः नित्यसत्त्वस्थः निर्योगक्षेमः आत्मवान् ( भूत्वा ) निस्त्रगुण्यः (त्रैगुण्यातीतः) भव ॥४५॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय अनुवाद। हे अर्जुन ! वेद सकल गुण्य विषयक हैं; अतएब निन्द, नित्यसत्त्वस्थ, निर्योगक्षेम तथा आत्मवान् होकर त्रिगुणरहित हो जावो ॥ ४५ ॥ व्याख्या। जानना जो कुछ है वह समस्त वेद है। वेद-ऋक्, यजु, साम, अथर्वण इन चार भागमें विभक्त है। त्रैगुण्य ही इस वेद का विषय है। रजः सत्त्व तमः-ये तीन गुण हैं; इन गुणके समष्टिका नाम त्रैगुण्य है। रजोगुणका धम-क्रिया, फल-दुःख, (कारण, काम करते जानेसे ही परिश्रम है)। सत्त्वका धर्म-प्रकाश ( जो आपही आप होता है, निजबोधरूप), फल-सुख है। तमोका धर्म --स्थिरता (नाश ), फल-मोह है। इन तीनोंका मिश्र धर्मसुख-दुःख-मोहका सामञ्जस्य; फल-आनन्द है। बीजकी अकुरोत्पादिका शक्ति जैसे जल, वायु, और तेजके सहारे बिना प्रकाश नहीं पाती, वैसे ये तीन गुण परस्पर पृथक रहनेसे अपनी अपनी क्रियाका प्रकाश करके दिखा नहीं सकते ; तीनोंके परस्पर मिश्रणसे ही प्रत्येककी क्रिया खिल कर बाहर निकल पाता है। किन्तु उस मिश्रणमें यदि प्रत्येकका अश समान ( बरोबर )हो रहे, तो किसी क्रियाका प्रकाश नहीं होता, साम्य भाव आता है; असमान भागसे ही क्रिया खिलती है। मूलाधारमें तमःका शेष हो करके सत्त्वका प्रारम्भ तथा रजोका पूर्ण विकाश होता है; स्वाधिष्ठानमें रजः बारह आना, सत्त्व चार आना; मणिपुरमें रजोसत्त्व बरोबर समान समान (तृतीयचित्र देखिये )। ऊँचे दिकमें मणिपुर पार होनेसे ही रजोका परिमाण सत्त्वसे क्रम क्रम करके अधिक से अधिक कम होता रहता है। इसलिये मूलाधारसे मणिपुर पर्यन्त ही रजः प्रबल है। आसनमें बैठनेसे पहले ही कर्ममय रजः का अवलम्बन करके, अर्थात् स्थूलशरीरगत करण समूहमें बल प्रयोग करके, आसक्ति पूर्वक प्राण-चालन करना पड़ता है; जबतक प्राण सूक्ष्म होकरके मनको लेकर बनाके भीतर Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ श्रीमद्भगवद्गीता . प्रवेश न करे, तबतक प्राण-कर्म अति प्रबल,-मन चंचल,-कूटस्थ मेघावृतके समान रहता है; दर्शन करनेके योग्य जो कुछ हैं वह सब दूर दूर में ईषत्-विद्युत-चमक करके प्रकाशित अस्पष्ट चंचल छाया सदृश, अस्पष्ट रूपसे दर्शन देता रहता है; इसीको ही दुःख कहा जाता है (दुः=दूरमें, खं-शून्य ) पश्चात् बज्राके भीतर प्रवेश करके मणिपुर चक्रमें उपस्थित होनेसे; वहां रजः सत्त्व समान परिमित होने से भी (दुःखमें) दूर आकाशमें सूर्य मण्डलके भीतरसे रक्तवर्णा द्विभुजा अक्षसूत्रकमण्डलुकरा हंसासनसमारूढ़ा कुमारी ब्राह्मी-शक्ति प्रत्यक्ष होती है, तब चारों दिशामें एक प्रकारकी चमक दिखाई देती रहती है; उस चमकके भीतर श्रवण शक्तिको फेंकनेसे मालूम होती है कि, क्या जाने क्या दूर पूर्व दिशामें* उच्चारित होता है, अच्छी तरह समझमें आता नहीं; जैसे एक दिवालके उल्टे तरफके परके भीतरसे बिना दांतका असल बुढ़ि मुखमें जल्दो जल्दी क्या जाने कौन क्या कहता है, इस प्रकार बोधमें आता है। मणिपुर पर्यन्त यह रजोबहूल कर्मप्रधान दुःखमय क्षेत्रमें जो मालूम होता है, वो ही ऋक्वेद-"अ"। वो जो शब्दोच्चारण श्रवगमें आता है, सो ही गायत्री मन्त्र, और वो ही देवी ही ऋक्वेदकी अधिष्ठात्री देवी "गायत्री"-गायत्री को प्रथमा मूर्ति है। ___ मणिपुर भेद करके चित्राके भीतर प्रवेश करनेसे ही चित्र विचित्र नाना प्रकारके रंग देखनेमें आते हैं। 'अष्टधा वलयाकारा" स्थान भेद करके ( क्रिया गुरूपदेशगम्य ) उठनेसे ही अनाहत चक्र मिलता है। उस अनाहतमें सत्त्व बारह अश, रजः चार अंश, और विशुद्ध चक्रमें सत्त्व चौदह अंश, रजः दो अंश है; इसलिये रजोका वेग कम हो जानेसे दुःखका परिमाण क्षय होकर सुखका उदय होता है, * शरीरके सम्मुखदिक पूर्व, पश्चात्माग पश्चिम, दक्षिण तरफ दक्षिण, और वाम भागको उत्तर दिशा समझना चाहिये ॥ ४५ ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . द्वितीय अध्याय अन्तराकाश भी ज्योति करके उज्वलतासे भर जाता है,-मनकी चंचलता-आवेग दूर होता है। इस समय उपासना (उप-समीपे, अासन = स्थिति ) होती रहती है, अर्थात् चित्राके विचित्र वर्णसे मन आकृष्ट होने पर प्राण-क्रियाकी आसक्ति मिट जाती है, इसलिये दृश्य-द्रष्टाका व्यवधान ( फरक ) भी कम हो जाने पर चिद् समीपमें अवस्थान होता है। तब द्वाद्वशदलके भीतर दूसरा एक अष्टदल कमल खिल उठता है; उसके ऊपर ज्योतिर्मण्डलमध्यस्था कृष्णवर्णा चतुर्भुजा त्रिनयना शंख-चक्र-गदा-पद्महस्ता युवती गरुडारूढ़ा वैष्णवी. शक्ति प्रत्यक्ष होती है, उसके साथ ही साथ मृदुमधुर सुस्पष्ट स्वरसे गायत्री मन्त्र निकट में दक्षिण दिशामें (दहिना कानके पीठकी ओरसे) उच्चारित होती रहती है। तत्पश्चात् अन्तर-शाम्भवीसे वो ज्योति भेद हो जानेसे निमेषके भीतर विशुद्ध में षोड़शदल कमल खिल उठता है, उसमें वही देवी फिर विद्य त्वर्णमें दर्शन देके ही अन्तहिता होती हैं। यह सत्त्व-बहुल उपासना-प्रधान सुखमय अनाहत-विशुद्ध क्षेत्रमें जो जाना जाता है, वही यजुर्वेद-“उ”। वो देवी ही यजुर्वेदकी अधिष्ठात्री देवी सावित्री'-गायत्रीकी दूसरी मूर्ति हैं । यही पहले कृष्णवर्ण करके पश्चात् विद्य त्वर्णसे प्रकाशिता होती हैं। इसलिये यजुर्वेद--कृष्णयजुः और शुक्लयजुः दो अंशमें विभक्त है । विशुद्धके ऊपर रजः क्रम अनुसार क्षीणसे क्षीणतम होकर श्राझा में शेष होता है। इस आज्ञामें सत्त्वका पूर्ण विकाश और शुद्ध तमो का प्रारम्भ है ( ३य चित्र देखो)। तीन गुणके भीतर तमोका ही प्राधान्य देखनेमें प्राता है; क्योंकि, (अनुलोममें देखा जाता है ) विशुद्ध तमोके ठीक ऊपरमें ही जगत्प्रसविनी महामाया-स्थिर आधारके ऊपर में ही क्रिया, क्रियाकी ही प्रकाश, फिर स्थिरमें ही Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० श्रीमद्भगवद्गीता . सबका बिराम । आज्ञामें उसका प्रारम्भ होनेसे भी* सर्वत्रही इसका प्रभाव विभिन्न परिमाणमें विस्तृत हैं. वह प्रवाह ही ऊँच दिशामें क्रम अनुसार घणीभूत होते हुये, प्राज्ञामें अपने विशुद्ध सत्त्वामें परिणत होता है। इस स्थानमें एक अपूर्व व्यापारका संघटन देखनेमें आता है,—पूर्णसत्त्वप्रकाशके भीतर, नीचे ऊपरसे यथाक्रम करके रजो और तमा अति सूक्ष्माकार करके परस्पर मिलनेसे, एकाधारमें स्थिरताचंचलताका समावेश,-रजस्तमका मिलन-मुखसे राग रागिणी युक्त विविध छन्दका शब्द लहरी उत्थित;-झकार मंकारसे सप्रणव गायत्री वेद और ऋषिवाक्य समूह अतीव सुस्पष्ट और सुललित स्वरके साथ पश्चिम दिशामें उच्चारित,-देवता, गन्धर्व, ऋषि, यक्ष, रक्ष, किन्नर, ग्रह, विग्रह प्रभृति विश्व-प्रपंच सुनियमसे जैसे नाट्यमचमें अभिनीत होता है,-सृष्टिस्थितिलयका उत्स,-मन प्राण मोहित, चांचल्य विलुप्त,-एकवचनमें कहनेसे कहना होता हे कि, "इहैकस्थं जगत् कृतस्न सचराचरं" प्रकटित ( मूर्त्तिमान ) है। यह तमोप्रभाव युक्त, गानप्रधान. मोह नहीं अथच मोहमय आज्ञाक्षेत्रमें जो जाना जाता है, वही सामवेद-“म” है। उस रजतमोका संयोगविन्दुमें लक्ष्य ठीक करनेसे ही अतिस्निग्धोज्वला शुक्लवर्णा द्विभुजा त्रिशूल डमरुकरा वृषभारूढ़ा वृद्धा रौद्री शक्ति प्रत्यक्षा होती हैं; यह महाशक्ति ही सामवेदकी अधिष्ठात्री देवी 'सरस्वती'-गायत्रीकी तृतीय मूर्ति हैं। आज्ञास्थित सत्त्वके भीतर रजस्तमोके संयोगस्थलको कूट कहते हैं। उस कूटके भीतर एक अनुपम सुवर्णोज्वल विन्दु ही अनादि विश्वनाथ महेश्वर हैं; उसी स्थानसे ही सरस्वती उत्पन्न हैं। उसी ___ * तीन गुण सर्वत्र ही विद्यमान है, किन्तु दो दो का प्राधान्य दिखाई देता है; जहाँ रजस्तम्भ प्रधान है वहां सत्व अभिभूत होकर विलुप्त अवस्थामें रह जाता है। जहां रजःसत्व प्रधान है, तहाँ तमो विलुप्त है; वेसे सत्वतमो प्रधान है, वहां रजो विलुप्त अवस्थामें रह जाता है ।। ४५॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . द्वितीय अध्याय १०१ महेश्वर-मुखसे निरन्तर नाद-लहरीयुक्त वेदादि-मन्त्र उच्चारण होता है; वेदादि-मन्त्रसे ही प्राज्ञा-मूलाधार-व्यापिनी गायत्री-सावित्रीसरस्वती-रूपिणी वेदमाता उत्पन्ना,-रजो द्वारा सर्वत्र उत्-चारिता,तथा प्रकाशमय विशाल सत्त्वके भीतर अवस्थिता है। इसीलिये यही "महेशवदनोत्पन्ना विष्णोहृदयसम्भवा ब्रह्मणा समनुज्ञाता" हैं। आज्ञासे मूलाधार पर्यन्त क्रिय-पदके भीतर यही देवी तीन रूपसे प्रकाशिता तथा सम्पुटित त्रिपाद मन्त्रसे उच्चारिता होती हैं; इसोलिये इनको त्रिपदा कहा जाता है। इनका और एक पाद है, वह चतुर्थ पाद निष्क्रियपदं सहस्रारमें अवस्थित है। ब्राह्मण उपनयन समयमें जो गायत्रो-मन्त्र शिक्षा करते हैं, वह त्रिपदा है;-संन्यास कालमें जो मन्त्र सीखना पड़ता है, वही गायत्रीका चतुर्थ पाद है। चतुर्थ पादमें संन्यासियोंको ही अधिकार है, कन्मीको नहीं; क्योंकि कूटस्थ भेद करके सहस्रारमें न पहुँचनेसे इन्हें पहचाना नहीं जा सकता। कूटस्थ भेद करके श्राज्ञा पार होनेसे ही रजः मिट जाने पर रजःप्रभाव भी धीरे-धीरे मिट जाता है, प्राणक्रिया जैसे ही शेष होता है, वैसे ही निष्किय-पद सहस्रार विकशित होता है, तब स्थिर-प्रकाश ज्ञानज्योति खिल उठतो है;—उस ज्योतिके प्रभावसे अतीत, अनागत, वर्तमान विषय-व्यापार प्रत्यक्ष होता रहता है। इस समयमें जगज्जननी त्रिनयना आद्याशक्ति प्रसन्न हो करके कभी पुरुष, कभी प्रकृति रूप धरके, साधकके भ्रमात्मक द्वतमय मायाजालको छिन्न करके भेदज्ञानका अपनयन करती है, सचतुर्थपाद गायत्री उच्चारिता होती है । ये सब उत्तर दिशामें सुनाई देता है )। उस चतुर्थपादसे सन्यास होता है, अर्थात् शब्द-विन्यास एक प्रणवमें ही परिसमाप्त . हो करके लहरी-विहीन एक-तान (अकम्पन) अनाहत नादका उत्थान होता है; इस नादके भीतरसे एक ज्योतिर्मय विन्दु खिल बाहर Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ 'भगवद्गाता श्रीमद्भगवद्गीता आता है ; यही बिन्दु ही तारक ब्रह्म है, इनका और परिणाम नहीं, मन इनमें अटक जाता है। इस अवस्थामें इन्द्रियवृत्ति क्रिया-बिहीन होती है, अर्थात् विषय है, इन्द्रिय भी है, तथापि भोग नहीं-इस प्रकारको अवस्था होता है। तब आप ही श्राप सम्पादित विश्वव्यापारका द्रष्टा मात्र साक्षी स्वरूप बन करके सदानन्दमय होना पड़ता है। यह अानन्दमय ज्ञानावस्था ही अथर्ववेद-"ॐ" है । उस बिन्दुके भीतरसे एक हिरण्मय मृत्तिका प्रकाश होता है; इनही को परमशिव-नारायण-क्षेत्रातीत निरंजन पुरुष कहते हैं। ये जो मूलाधारसे सहासार पर्य्यन्त क्षेत्रमें जो जो प्रत्यक्ष होते हैं, वह समस्त शब्दरूपका विन्यास-त्रिगुणको क्रिया बिना और कुछ भी नहों; जबतक मन रहता है, तबतक ही वह दृश्य-दृष्टा भाव रहता है। ये सब ही मायाको क्रिया है, इसलिये परिणामशील है । इसीलिये श्रीभगवान कहते हैं - "हे अर्जुन ! तुम निस्त्रगुण्य हो जावो" अर्थात् उस तारक-ब्रह्म निरंजन पुरुषमें मनके अटक जानेसे विलय प्राप्त होने पर जो होता है, वही हो जावो। वह विलय-अवस्था ही निस्वैगुण्य अवस्था-विष्णुका परमपद है। इस निस्त्रगुण्यका उपाय स्वरूप क्रमिक लक्षण कहते हैं-(१) "आत्मवान्'.... आत्माक्षेत्रमें अवस्थित, जब उपासक-“मैं” तथा उपास्य-“मैं” छोड़ करके और कोई किसीका ज्ञान नहीं रहता; निष्क्रिय अवस्था है। (२) 'निर्योगक्षेमः”-उस प्रकार अवस्था पानेके बाद योग अथ त् प्राप्त होनेके विषय और कुछ नहीं रहता, क्षेम अर्थात प्राप्त हुवा विषयकी रक्षा भी नहीं रहती; अतीत अनागत मिट करके केवल मात्र वर्तमान रहता है । (३) “नित्य सत्त्वस्थः”-सुषुम्नाके भीतर जो ब्रह्मनाड़ा है, उसके भीतरके आकाशको नित्यसत्व कहते हैं, यह क्षेत्रातीत तथा क्षेत्रगत नित्यस्थान है। प्राप्त-प्राप्तव्यको एक करके यहाँ श्रानेसे ही निरजन पुरुष दर्शन देते हैं। (४) “निन्द्वः "-नित्यसत्त्वमें उपस्थित होनेसे ही Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ द्वितीय अध्याय शीत-उष्ण सुख-दुःख मैं-मेरा, अहं त्वं-ये द्वैत भाव मिट करके मनका विलय होता है; इसीको ही त्रिगुणातीत विष्णुपद कहते हैं ॥४॥ यावानार्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके। तावान् सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥४६॥ अन्वयः। सर्वतः सप्लुतोदके ( सति ) उदपाने (स्वल्पजलाशये ) यावान् अर्थः (प्रयोजनः वर्तते, न कोऽपि वर्तते इति भावः ), विजानतः ( ब्रह्मज्ञानससम्पन्नस्य ) ब्राह्मणस्य सर्वेषु वेदेषु ( ऋगादिषु ) तावान् अर्थ ( बत्त'ते, ब्रह्मज्ञानिनः निष्कर्मकत्वात् वेदे किमपि प्रयोजनं नास्ति इति सरलार्थः)॥४६॥ अनुवाद। जल करके सर्वस्थान प्लावित् हो जानेसे जगजनके उदपान्का ( स्वल्प जलाशयमें ) जितना प्रयोजन है, ब्रह्मज्ञान सम्पन्न ब्राह्मणों के लिये चारों वेदका भी उतना हो प्रयोजन है ॥ ४६ ॥ .. व्याख्या। नदीके बाढ़के जलसे जब देश प्लावित हो जाता है, तब छोटा छोटा जलाशय यथा कूप आदिके उस जलमें डूब करके एकाकार हो जानेके बाद उस स्वल्प जलाशयका जैसे पृथक अस्तित्व नहीं रहता, जीवोंका जो कुछ प्रयोजन है सब उसी एक जलराशिमें सम्पन्न होता है, वैसे जो ब्राह्मण (ब्रह्मज्ञान प्राप्त ) हो करके "विजानत” होते हैं अर्थात् सब जाननेको जान लेते हैं अर्थात् ज्ञातव्यके चरम सीमा विष्णुपदमें अवस्थित होते हैं, उनके लिये सब एक हो जाता है, वेद भी उनही में मिल जाता है, इसलिये वेदमें उनका और कोई अलहिदा प्रयोजन नहीं रहता ॥४६॥ कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्माणि ॥४७॥ . अन्वयः। कम्मणि एव ते अधिकारः ( अस्ति ) फलेषु कदाचन मा ( अस्तु ); कर्मफलहेतुः मा भूः, अकर्मणि ते संगः मा अस्तु ॥ ४ ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद। कर्ममें ही तुम्हारा अधिकार है, कर्मफलमें कदापि अधिकार न रचना ; कर्मफलके हेतु भी न होना अकर्म में भी अपनी आसक्ति न होने देना ॥ ४७॥ व्याख्या। एक मात्र चैतन्य ही "मैं” पदवाच्य है, उसे छोड़ कर और सब “तुम” पदवाच्य है । जबतक साधक कूट भेद करके स्थितिपदको नहीं पाते हैं, तब तक वह "तुम" पदावाच्य हैं ("ते" ), तब तकही उनके प्राणक्रिया होते रहते हैं, अर्थात् पद्म पद्ममें प्राण विचरण करते रहते हैं, इसलिये उनको कर्ममें अधिकार अर्थात् दखल रहता है। किन्तु कर्म होनेसे ही उसका फल है। जैसे रसायनमें भिन्न भिन्न द्रव्य परस्पर मिल करके रासायनिक क्रियासे नवीन शक्ति उत्पन्न करता है, वैसे मन-प्राण सुषम्नाके अन्तर्गत कमल दलमें वर्ण.रूपा मातृकानिचयके साथ मिलित होकर नाना प्रकार विभूति वा शक्ति उत्पन्न करता है। वह शक्ति साधकको आश्रय करने आती है। साधक यदि उस शक्ति पर "अधिकार" करें, तो ऐसा करनेसे साधक भोगमें आबद्ध होकर और उन्नति लाभ नहीं कर सकते। इसलिये भगवान् कहते हैं;-"कदापि कर्मफल पर अधिकार न करना” केवल ऐसी ही बात नहीं, "कर्मफलके हेतु भी न होना” अर्थात् कर्मफल जिसमें उत्पन्न हो, वह काम न करना। प्रत्येक कमलमें प्राणपात करनेके समय यदि आसक्ति प्राणसे हट करके कमल दलमें पड़ जाये, तो उस संगसे काम उत्पन्न होकर फलोत्पादन करता है; किन्तु यदि उस समय आसक्ति प्राणको छोड़ कर अलग न होने पावे, तो कामोत्पन्न हो नहीं सकता,-प्रा गापातसे केवल शक्ति प्रबुद्ध होता है, उत्थान नहीं करता-"परस्परं भावयन्तः" हो करके "परंश्रेयः" लाभ होता है (३ य अ. ११ श श्लोककी व्याख्या ), कम फलका हेतु होना नहीं पड़ता। और भी कहते हैं-"अकर्मका संग भी न करना” । सुषुम्नान्तर्गत ब्रह्मनाड़ीमें मूलाधारसे आज्ञा पर्य्यन्त प्राण-चालन ही Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय १०५ कर्म है, इस कम्मके पूर्व भी अकर्म है, पश्चात् भी अकर्म है। इस कम्मके पूर्व में "तदर्थीय" क्रिया बिना स्थूल इन्द्रियोंके द्वारा जो कुछ काम होता है, वह सब अकर्म अर्थात् निषिद्ध कर्म है। वैसे ही आज्ञासे उत्तीर्ण होनेके पश्चात् कर्म मिटके जो कर्मविहीन अवस्था आती है, वह भी अकर्म अर्थात् निष्क्रिय अवस्था है। प्रथम अकर्म रजस्तम-क्षेत्रमें, द्वितीय अकर्म सत्वतम:-क्षेत्रमें प्रकाश पाता है। प्रथम वालेमें आसक्ति देनेसे अनन्त विपाकमें पड़ना होता है; दूसरेमें आसक्ति देनेसे अर्थात् निष्क्रिय पद प्राप्त होनेके लिये इच्छा करके क्रिया करनेसे कूटस्थमें कश्मल आता है, अतएव उस कश्मलका भेद न कर सकनेसे नीचे में पड़ा रहना पड़ता है। इसीलिये संगविहीन अर्थात् अनासक्त हो करके कर्तव्य-ज्ञानमें कर्म (क्रिया) को करना होता है;-अनासक्तकी मार्ग खुलासा है; आसक्तका पथ अवरुद्ध ( बन्द ) है। (बादका श्लोक देखो)॥४७॥ योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनजय । सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥४८॥ अन्वयः। हे धनंजय ! योगस्थः ( सन् ) सिद्धयसिदयाः (विषये ) समह भूत्वा संगं त्यक्त्वा कर्माणि कुरु; समत्वं योग: उच्यते ।। ४८ ॥ अनुवाद। हे धनंजय ! योगस्थानमें अवस्थित होकरके सिद्धि एवं असिद्धि सम ज्ञान करके संग त्याग पूर्वक कर्म किया करो। समताको ही योग कहते हैं ॥४८॥ व्याख्या। क्रिय-पद तथा निष्क्रिय-पदके संयोग स्थानको योगस्थान कहते हैं। यह स्थान प्राज्ञाके कूटमें अवस्थित है। कूटके ऊपर लक्ष्य स्थिर करनेसे ही योगस्थ हुआ जाता है। सुषुम्ना-नालके भीतर गुरुके टपदेशके अनुसार प्राण चालना करते करते अन्तमें निरालम्ब निष्क्रिय अवस्था आपही आप आती है, वही कर्मकी सिद्धि है, Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ श्रीमद्भगवद्गीता उसकी न होना ही असिद्धि है। "सिद्धि हो तो अच्छा, न होय तब भी अच्छा, कर्ममें हमारा अधिकार है, मैं कर्म करू”-दृढ़ताके साथ इस प्रकार अनासक्त भाव करके कर्माचरण करनेसे ही सिद्धि असिद्धि समान ( बरोबर ) होता है (यह अवस्था साधना निजबोधगम्य है)। और अगल-बगल स्पर्श न करके केवल मात्र ब्रह्मनाड़ीके अयेन बीच देके गुरूपदेश मतामें प्राणपात करके उठनेसे ही संगत्याग होता है । कूटस्थ में लक्ष्य स्थिर करके फलाफल की ओर मन न देके केवल मात्र ब्रह्माकाशमें विचरण करनेसे ही साम्यभाव श्राता है अर्थात् निश्वास प्रश्वास समान होकरके क्रमशः सूक्ष्म होते होते स्थिर हो जाता है, मन भी कूट पार हो करके "विन्दु-सरोबर" में डूब जाता है, और कोई किसीका भी ज्ञान ( भान् ) रहता नहीं। इस साम्य भावका नाम ही योग है ॥४८॥ दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय । बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥ ४६॥ अन्वयः। हे धनंजय ! हि ( यतः ) बुद्धियोगात् ( पृथक ) कम दूरेण अबरं ( निकृष्टं ), ( अतः ) बुद्धौ शरणं अन्विच्छ । फलहेतवः ( सकामाः नराः ) कृपणाः ॥ ४९।। ___ अनुवाद। हे धनंजय ! जिस हेतु बुद्धिवोग के विना कम अत्यन्त निकृष्ट है तुम बुद्धिके शरणापन्न हो जावो। फलाकांक्षियोंको कृपण कहते हैं ॥ ४९ ॥ व्याख्या। योगस्थ हो करके कर्म करना ही बुद्धियोग है, जब "यत्र यत्र मनो याति तत्रैव ब्रह्म लक्ष्यते” अर्थात् मन जहाँ जहाँ जाय वहाँ वहाँ ही ब्रह्म दर्शन हो, विषय ब्रह्मज्योतिमें ढंका रहे। यदि कर्म करते करते मन ब्रह्मानन्दमें मतवाला होकर एकाग्रीभूत न हो, स्मृति और कल्पनाके सहारेसे विषयको लेके पालोड़न विलोड़न करे, ऐसा होनेसे वह कर्म व्यवसायात्मिका-बुद्धि-युक्त न होकर विषया Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय १०७ त्मिका बुद्धि-युक्त होता है, अर्थात् सकाम होता है । इस सफाम कमको नितान्त निकृष्ट जानना चाहिये, क्योंकि, काम संग दोष करके उत्पन्न होके जीवको तत्प्रसूत फलमें आबद्ध करता है। और भी फलहेतु अर्थात् फलकामी जो है वह सब कृपण हैं। कृपण जैसे अर्थके (रुपये पसेके) प्रति ममता परायण होकर, धन खर्च करके कोई कार्य कर नहीं सकता, केवल माथे पर धनका बोझ लाद कर मरता है; वंसे कामना-परायण लोग चिरकाल कामनाका बोझ माथे पर ढोके मरता है (जो बोझ फिर परजन्मके लिये सञ्चित कर्म-संस्काररूपमें रह जाता है ), कामना परित्यागसे जो नित्य सुख मिलता है, वह सुख वह मनुष्य नहीं पाता। अतएव तुम बुद्धिका श्राश्रय करो,इधर उधर न देखकर मनको विषय-विहीन कर स्थिर लक्ष्यसे उसी तारकब्रह्ममें लीन कर दो ॥ ४६ ।। बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते । तस्मात् योगाय युज्यस्व योगः कम्मसु कौशलम् ॥ ५० ॥ अन्वयः। बुद्धियुक्तो ( पुरुषः ) इह सुकृतदुष्कृते उभे जहाति तस्मात योगाय युज्यस्थ, कर्मसु ( यत् ) कौशलं ( तत् ) योग ॥५०॥ अनुवाद। बुद्धि द्वारा ब्रह्ममें युक्त होनेसे इसी जन्ममें सुकृत-दुष्कृत दोनों ही का त्याग होता है, अतएव योगके निमित्त यत्न किया करो; कम्म में कौशल प्रयोग करनेका नाम योग है ॥ ५० ॥ व्याख्या। बुद्धिके उस विन्दुमें आटक पड़नेसे, 'विश्वज्ञानका विलुप्त होके, निश्चल ब्रह्ममय होना पड़ता है;- उसी अवस्थाका नाम चैतन्य समाधि है। उस समय शरीरका कोई भोक्ता नहीं रहता, इस कारण कालचक्रमें आगत सुकृत-दुष्कृत प्रारब्ध कर्म समूह जीवको आश्रय रूपसे न पाके श्रापही पाप नष्ट हो जाता है। फिर अंकुरित नहीं होतीं। इस प्रकार निष्कृत्विको प्राप्त होनेके लिये योग Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ __ श्रीमद्भगवद्गीता करना होता है। कम्ममें कौशलका प्रयोग करना ही योग है। विशाल जल-प्रवाहका वेग कोई धारण कर नहीं सकता, किन्तु कौशलसे उस प्रवाह की गति विभिन्न दिशामें विविध स्रोत करके घुमा देनेसे धीरे धीरे आयत्तमें आता है, उसी प्रकार प्राण-प्रवाह-रूप जो कर्म जीव शरीरमें स्वभावतः ( आपही आप ) सम्पन्न होता है, किसी प्रकार कौशलसे* उसको विभिन्न राहमें चला देके क्षीण करके लानेसे अपने अायत्तमें लाया जाता है; पश्चात् अात्मतेजसे उस प्राणको यथा स्थानमें आहूति देनेसे जो अवस्था होती है, उसोको योग कहते हैं ॥५०॥ कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः । जन्मबन्धविनिम्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥ ५१ ॥ अन्वयः। मनीषिणः ( पण्डिताः ) बुद्धियुक्ताः ( सन्तः ) कर्मज फलं त्यक्त्वा जन्मबन्धविनिम्मुक्ता ( भूत्वा ) हि अनामयं पदं ( विष्णुपद ) गच्छन्ति ।। ५१ ॥ अनुवाद। मणीषिगण बुद्धियुक्त हो करके कर्मजफल परित्याग कर जन्मरूप बन्धनसे मुक्त होकर जनामय पद अर्थात् भवरोग-विहीन-पदको निश्चय प्राप्त होते है ॥५१॥ * यह कौशल कसी है वह गुरुमुख बिना जाना नहीं जाता। -"शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्" कपटता छोड़ करके वीतराग होके अन्तःकरणके निर्जन स्थानमें परा वैराग्यके साथ यह बात कहनेसे गुरुदेव सूक्ष्म शरीरमै आविर्भूत होकर मनके भीतर वह कौशल प्रकाश कर देते हैं। स्थूल शरीरमें रह करके गुरुदेव जितना उपदेश देते हैं, कृती ( कामका कामी ) शिष्य न होनेसे उस उपदेशको धारण कर नहीं सकते। एकमात्र गुरूपदिष्ट कानुष्ठान करनेसे ही क्रम अनुसार अन्तरावरण सकलके लक्ष्य होते रहनेसे वह सब नष्ट करनेका उपयोगो कौशल भी आप हो आप मालूम हो जाता है; कल्पना अनुमान करके उसके एक भो जाननेका उपाय कोई नहीं, वो कौशल वाणीमें भी ठीकसे कहा जाता नहीं, कहनेसे भी वह बात उपन्यास की घटनावली की बातोंके सहश केवल कल्पनामें ही रह जाती है ॥ ५० ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय १०६ - व्याख्या : चित्त एकाग्र करके बिन्दु धर कर रहनेसे ही मनके ऊपर आधिपत्य करने वाली शक्ति उत्पन्न होती है, -"मन भी मनके अनुसार” होता है, उसीको मनीषी अवस्था कहते हैं, तब मनके मन- . में रहनेसे कर्मफल कोई आश्रय न पाके आपही श्राप क्षय हो जाता है। प्राकृतिक आवरण भेद होनेसे ( और किसी आवरणके भीतर आना नहीं होता, अर्थात् जनम लेना नहीं पड़ता) शान्तिमय विष्णुपदकी प्राप्ति होता है। यह स्थिर निश्चय वाणी है ॥ ५१ ॥ यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति। तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥ १२ ॥ अन्वयः। यदा ते बुद्धिः भोहकलिलं (शरीराभिमानरूपं दुर्भेद्य दुर्ग ) व्यतितरिष्यति, तदा श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च निर्वदं ( वेदनाशून्य ) गन्तासि ॥ ५२ ।। अनुवाद। जब तुम्हारी बुद्धि ( 'मैं शरीर हूँ' यह मिथ्या भ्रम ) मोहरूप दुर्भेद्य दुर्ग अतिक्रम करेगी, तब, तुम्हारा श्रोतव्य ( जो सुनोगे ) तथा श्रत ( जो सुन चुके हो ) विषयमै निर्वेद ( वेदना शून्यता ) होवेगा ॥ ५२ ।। व्याख्या। बुद्धि व्यवसायात्मिका होनेसे ही सब भ्रम मिट जाता है, मोह फिर नहीं रहता-शब्दस्पर्शादिके आवरणमें और मोहित होना नहीं पड़ता; तब श्रोतव्य* अर्थात् भविष्यत् तथा श्रुत अर्थात् भूत-इन दोनोंका ही ज्ञान ( वेदना ) नहीं रहता, केवल वत्तमान ही रहता है; अर्थात् नादके अच्छिन्न और अनाहत हो जाने से उसका श्रादि और अन्त नहीं रहता; प्रवाह निपट आनेसे आगा पीछा नहीं रहता, सबहो वर्तमान हो जाता है, तब कालस्रोत मिट जानेके बाद साधक स्वयं ही कालमें परिणत होते हैं। इसलिये उनमें ___ * लयमागम अन्तमें एकमात्र शब्द हो रहता है, कालनिणय करनेवाला और कोई दूसरा विषय नहीं रहता ; इसलिये श्रुति-ज्ञानसे कालको व्यक्त किया गया ॥५२॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० श्रीमद्भगवद्गीता भूत और भविष्यत्का व्यवच्छेद नहीं रहता। साधक तब अपरिणामी सत् सत्वामें परिणत होकर सदा वर्तमान होते हैं। जीवके "छोटा मैं" "महान्” मैं में मिलने से एक बिना दो नहीं रहता; इसलिये समझना और समझाना भी नहीं रहता; सर्व विषयमें वेद शून्य अवस्था पाती है ॥५२॥ अतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥५३॥ अन्वयः। यदा ते अतिविपतिपन्ना ( श्रतिभिः प्रणवनादः विशेषेण प्रतिपन्ना निश्चिता ) बुद्धिः समाधौ निश्चला अचला स्थास्यति तदा योगं अवाप्स्यसि ॥५३॥ अनुवाद। जब तुम्हारी बुद्धि श्रुति द्वारा विप्रतिपन्न, निश्चल तथा अचल हो कर समाधिमें स्थिर होगा, तब ही तुम योगको प्राप्त हो जायोगे ॥ ५३॥ व्याख्या। अच्छिन्न अनाहत नादके भीतर मन देनेसे, और चित्तके उसमें मुग्ध हो जानेसे, बोध-शक्ति और दूसरे किसीको धारण नहीं करती, केवल उसी नाद मध्य-गत प्रस्फुटित ज्योतिमें आकृष्ट हो रहती है। इस अवस्थामें बोधशक्ति "श्रुतिविप्रतिपन्ना" होकर अर्थात् प्रणवध्वनि सुनते सुनते निश्चयात्मिका होकर "निश्चल” होती है, अर्थात् एक विन्दुसे दूसरे विदु में गमन नहीं करती; पश्चात् ब्रह्ममें समाहित होकर "अचल" अर्थात् स्थिर होती है, अर्थात् बोधशक्तिकी और कोई क्रिया नहीं रहती; ( साधक ) सर्व प्रकार स्पन्दन रहित हो जाता है;-स्पन्दन रहित अवस्था ही योगावस्था है। तथाच उत्तरगीतायां : "अनाहतस्य शब्दस्य तस्य शब्दस्य यो ध्वनिः । ध्वनेरन्तर्गतं ज्योतिर्योतेरन्तर्गतं मनः। तन्मनो विलयं याति तद्विष्णोः परमं पदं" ॥५३॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय १११ अर्जुन उवाच। स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव । स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत ब्रजेत किम् ॥५४॥ अन्वयः। अर्जुनः उवाच । हे केशव ! समाधिस्थस्य स्थितप्रज्ञस्य का भाषा ( लक्षणं ) ? स्थितधीः किं प्रभाषेत ? किं आसीत् ? किं ब्रजेत ? ॥५४॥ अनुवाद : अर्जुन कहते हैं हे केशव ! जो समाधिस्थ होकर स्थितप्रज्ञ हुये हैं उसके लक्षण कैसे हैं ? यह स्थितधी क्या कहते हैं ? किस प्रकार रहते हैं ? कैसी चाल चलते हैं ? ॥ ५४ ॥ व्याख्या। योगावस्थामें जो निस्पन्दन भाव होता है, एक दफा उस भावके प्राप्त होनेसे उससे नीचे उतर पानेसे भी, मन और पहले की तरह विषयमें आसक्त होता नहीं-प्रज्ञा चलते, बैठते, खाते, सोते सर्बदाही उस परमात्मामें लक्ष्य रख करके धीरे धीरे क्रम अनुसार जगतको भी ब्रह्ममय करा देती हैं; जाग्रत अवस्थामें रहनेसे भी मन उसी समाहित अवस्थाका भोग करता है और उस पुरुषमें ज्ञानकी ज्योति स्थिर धीर रहती है, इसीलिये इस अवस्थाको जाग्रत-समाधि कहते हैं। यह जाग्रत-समाधि-युक्त पुरुष ही जीवन्मुक्त हैं । इस प्रकार पुरुषोंका ही लक्षणादि प्रश्न चतुष्टयसे पूछा गया है। इन चार प्रश्न का पहिला तो सामान्य अन्य तीन विशेष हैं। ५५-७२ श्लोक प्रथम प्रश्नका उत्तर है। इसके भीतर ५६, ५७ श्लोक, क्या कहते हैं ? - इस प्रश्नका उत्तर; ५८, ६१, ६८, ६६, ७० श्लोक, किस प्रकार रहते हैं ? -इस प्रश्नका उत्तर; ७१, ७२ श्लोक, कैसे चलते हैं ? -इस प्रश्नका उत्तर है॥५४॥ श्रीभगवानुवाच । प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्टः विथतप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ ५५ ॥ अन्वयः। श्रीभगवानुवाच । हे पार्थ ! यदा ( योगी ) मनोगतान् सर्वान् Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१२ श्रीमद्भगवद्गीता कामान् प्रजहाति, आत्मनि एष आत्मना तुष्टः ( भवति ), वदा ( सः ) स्थितप्रज्ञः उच्यते ॥ ५५॥ अनुवाद। श्रीभगवान कहते हैं-हे पार्थ ! योगी जब मनोगत समुदय वासना परित्याग करके, अपनेमें आपही रह कर आपही आप सन्तुष्ट रहते हैं, उसो बखत योगोको स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ॥ ५५॥ व्याख्या। योगावस्था भोगके बाद मनके नीचे उतर श्रानेसे भी योगीका लक्ष्य आत्मक्षेत्रमें ही रहता है, और नीचके स्तरमें उतरता नहीं, तब जगत्के आत्मामय हो जानेसे, अपनेमें आपही रहना होता है, .इसलिये वहां विषय भोग करके दूषित कोई कामना ही नहीं पहुँच सकती। इस अवस्थाका प्राप्ति होनेसे ही स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ।। ५५॥ दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोधः स्थितधीमुनिरुच्यते ॥५६॥ अन्वयः। दुःखेषु अनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः वीतरागभयक्रोधः मुनिः स्थितधी: उच्यते ॥ ५६ ॥ अनुवाद। दुःखसे जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, जो सुख में भी स्पृहा शून्य हैं, जो पुरुष अनुराग-भय-क्रोधविहीन तथा मुनि है, उन्हींको स्थितप्रज्ञ कहते व्याख्या। संसारमें जिसको सुख और दुःख करके कहा जाता है, वह उस योगीमें रहता नहीं; क्योंकि, विषय लेकरके ही संसारका सुख और दुःख है, वह पुरुष विषयमें रहते नहीं; इसलिये उनमें रागभय-क्रोधका स्थान भी कोई नहीं। उनका मन विश्व-व्यापी परमात्मा में संलीन रहता है इसलिये वो योगो मुनि हैं। मनके विषय-मतवाला अवस्था-प्रबुद्ध अवस्था ही जीव कहलाते हैं; और संलीन अवस्थाईश्वर, तथा प्रलीन अवस्था-शिव वा ब्रह्म हैं। जिथतधी पुरुष ईश्वरभावापन्न हैं ॥५६॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अन्याय ... यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य सुभाशुभम्। नाभिनन्दति न द्वष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥५॥ अन्वयः। यः सर्वत्र अनभिस्नेहः (स्नेहशून्यः ) तत्तत् शुभाशुभं प्राप्य न अभिनन्दति, न दुष्टि, तस्य प्रज्ञा प्रतिष्टिता (सः स्थितप्रज्ञः इत्यर्थः)॥५॥ अनुवाद। जो सर्व विषयमें स्नेहशून्य है, उसी उसी शुभ तथा अशुभको प्राप्त हो करके राग अथवा द्वेष नहीं करते, वह स्थितप्रज्ञ हैं ॥ ५५॥ व्याख्या। सब ही ब्रह्ममय हो जानेसे उनको मैं करके ज्ञान ही रहता है। हमारा यह ज्ञान रहता नहीं। सदाकाल भावावस्थामें रहते हैं इसलिये अभाव उनमें आता ही नहीं। इसलिये उनमें शुभ अशुभ नहीं है, निरानन्द तथा आनन्द भी नहीं है ॥५॥ यदा संहरते चायं कूमोशानीव सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥८॥ .. अन्वयः। यदा च अयं (योगी) कूर्म अंगानि इव इन्द्रियार्येभ्यः (शब्द. स्पर्शादिभ्यः). इन्द्रियाणि (चक्षुरादीनि ) सर्वशः संहरते, (तदा) तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ( भवति)॥५८॥ अनुवाद। कछुआ ( कमठ) जसे बाहरसे मुख हाथ पांवको अपने शरीरके भीतर घुसा लेता है, तहत् योगी जब विषयसे इन्द्रियोंको सम्पूर्ण रूप करके बटोर लेते . है, तब ही उनकी प्रज्ञा प्रतिष्ठिता होती है ॥ ५८॥ . व्याख्या। चक्षु प्रभृति पांच ज्ञानेन्द्रियां हर वखत बहिर्मुख रह करके शब्द-स्पर्शादि बाहरका विषय भोग करती हैं। इन सब इन्द्रियणको बाहरसे समेट ला करके (जैसे जीभ उलट करके, दृष्टि ऊर्द्ध में स्थिर करके काय-शिरं-ग्रीवा समान करके इत्यादि), इन सबकी शक्ति को मनोयोगसे अन्तर ( भीतर) की तरफ चला देनेसे एक प्रकार अद्भुत गन्थ, रस, रूप, स्पर्श और शब्दका उपभोग होता है, उससे तत्त्व समूहका ज्ञान लाभ होता है; पश्चात् गन्ध रसमें, -८ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ श्रीमद्भगवद्रीता रस रूपमें, ऐसे करके सब समेट लानेसे एक मात्र शब्दमें परिणत होता है। तब अन्तःकरण उसी शब्बमें श्राकृष्ट होकरके ( क्रिया विशेष द्वारा) परमात्मामें समाहित होता है। यह चरम समेटनेकी अवस्था आनेसेही प्रज्ञा प्रतिष्ठिता होती है ॥ ५८ ॥ . विषया विनिवर्तन्ने निराहारस्य देहिनः । रसवज रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्त्तते ॥५६॥ अन्वयः । निराहारस्य देहिनः विषयाः रसबर्ज निवर्तन्ते, (किन्तु ) अस्य ( स्थितप्रज्ञस्य ) रसः अपि परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ ५९॥ . अनुवाद। आहारविहोन देहोका मात्र विषय-भोगको निवृत्ति होती है, भोगवासना रह जातो है; किन्तु परं (विष्णुपद ) दर्शनके पश्चात् इनकी भोग-वासनाको भो निवृत्ति होती है ॥ ५९॥ व्याख्या। इन्द्रियों के द्वारा विषय ग्रहण करनेका नाम आहार है। यह आहार नहीं अयच देहाभिमान वर्तमान है अर्थात् “मैं देही मनमें यह धारणा है, इस प्रकार साधकको शब्द-स्पर्शादि विषय अभिभूत होकरके त्याग होता है सही, ( क्योंकि कर्मके स्वाभाविक फलसे ऊपर उठजानेसे एक प्रकार की समाधि * भोगसे विषय-ज्ञान मिट जाता है, ) किन्तु देहाभिमानपाशका बन्धन रह जानेसे उनकी बुद्धि व्यवसायात्मिका नहीं होती; अतएव विषय-भोगका रस मनमें रह जाता है-भूर नहीं जाता। भोगके विषय देखते मात्र भोगाकांक्षा उनके मनही मनमें पुनरुदित होती है। किन्तु लययोग करके जिन भाग्यवानने एक दफे विष्णुपद लाभ किया है, उनके चित्ताकाशके सकिाल ब्रह्मतेज करके उद्भासित् ( उज्ज्वल ) रहनेसे दूसरा कोई तेज वहाँ प्रतिफलित हो नहीं सक्ता; इस करके उनमें विषय भी नहीं रहता. रसकी आकांक्षा भी नहीं रहती ॥ ५६ ॥ • बाजीगर ( जादूगर ) जसे इन्द्रजाल का जादू देखलानेके लिये श्वासको निरोध करके मृतप्रीय रहता है, वह भी इसा प्रकार की समाधि है ॥ ५९॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ द्वितीय अध्याय यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः। इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥६०॥ तानि सर्वाणि संयम्य युक्त पासीत मत्परः । वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥६॥ अन्वयः। हे कौन्तेय !- हि ( यतः ) प्रमाथीनि इन्द्रियाणि यततः (प्रयत्न कुर्वत: ) अपि विपश्चितः (विवेकिनः ) पुरुषस्य मनः प्रसभं ( बलात् ) हरन्ति, (अतः) युक्तः ( योगी ) तानि सर्वाणि ( इन्द्रियाणि ) संयम्य मतपरः ( सन् ) आसीत् । यस्य इन्द्रियाणि वशे ( सन्ति ) तस्य हि प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। ६० ॥ ६१.॥ अनुवाद। हे कौन्तेय । इन्द्रिय समूह प्रमाथी हो करके, हिताहित ज्ञानसम्पन्न , यनशील पुरुषों के मनको बल पूर्वक हरण करता है। इसीलिये युक्त योगी उन सबको संयत करके मत्पर होयके रहते हैं। इन्द्रियगण जिनके वशीभूत प्रज्ञा उन्हींकी प्रतिष्ठिता है ॥ ६॥६१॥ व्याख्या। इन्द्रिया दश-पांच कर्मेन्द्रिय और पांच ज्ञानेन्द्रिय है। बाहरके विषयके साथ संस्रव न रख करके भी इन्द्रियसमूह स्वाभाविक वृत्तिसे पापही आप क्रियामुखी होती हैं, तब अन्तरके भीतर एक प्रकार की पीड़ा उत्पन्न करती हैं; धीरे धीरे क्रिया करनेकी इच्छा प्रबल होय उठ करके हदयको मथन करती रहती है। इन्द्रियमें यह धर्म रहता है इस करके इन सबको प्रमाथी कहते हैं। जिन पुरुषने गुरुपदेशसे समुदय तत्त्व विषय समझकर भला-बुरा ठीक कर लिया है। परन्तु अभी भी अनुष्ठानसे वह उसे अपने प्रायत्तमें ला नहीं सके, किन्तु लानेके लिये यथा नियम चेष्टा करते हैं, उन्होंको “यत्नशीलविपश्चत्” कहते हैं। इस प्रकार विवेकी साधकका मन भी इन्द्रिय करके विषय में आकृष्ट होता है। इसलिये योगी जन इन्द्रियोंको संयत करके, मन ही मनमें भोगके विषयसे उन सबको हटा लाकर, मत्पर होते हैं, अर्थात् मन द्वारा समस्त इन्द्रियोंको बांधकर ला के हिरण्यमय पुरुषमें दृढ़ आबद्ध करते हैं, अर्थात् व्यवसायात्मिका बुद्धि Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता युक्त होते हैं। यदि उस अवस्थामें मत्पर न होकर प्रकृति-पर हो जावें तो, इन्द्रियगण बलपूर्वक मनको वश करेगेही; किन्तु मत्पर होनेसे मनके ऊपर उन सबकी ओर कोई शक्ति रहती नहीं। इसीलिये कहा हुआ है कि, जिनकी इन्द्रियां वशमें आई हैं, उनही की प्रज्ञा प्रतिष्ठिता है ॥ ६०॥ ६१ ॥ ध्यायतो विषयान् पुंसः संगस्तेषूपजायते । संगात् संजायते कामः कामात् क्रोधोऽभिजायते ॥६२॥ . क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाबुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ॥६३॥ अन्वयः। विषयान् ध्यायतः पुंसः तेषु संगः उपजायते, संगात् कामः संजायते, कामात् क्रोधः अभिजायते, क्रोधात् सम्मोहः भवति, सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः (भवति), स्मृतिभ्रंशात् बुद्धिनाशः ( भवति ) बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ॥६॥६॥ अनुवादविषय का ध्यान करनेसे पुरुषका उसी विषयमें आसकि उत्पन्न होती है, आसक्तिसे काम तथा कामसे क्रोधोत्पन्न होता है, क्रोधसे सम्मोह होता है। मोहसे स्मृतिविलोप, स्मृतिविलोपसे बुद्धिनाश तथा बुद्धिनाशसे प्राणनाश (मृत्यु) होता है ।। ६२ ।। ६३॥ .. व्याख्या। इन्द्रिय संयत ही करो, और चाहे जो कुछ करो, यदि मनको मत्पर न करके विषय पर करो * अर्थात् शब्द-स्पर्शादि विषय अवलम्बन करो, तो मन अपने स्वभाव-वृत्ति द्वारा, जलमें दूध सरिस विषयके साथ मिलेगा ( किन्तु मत्पर होनेसे मन जलमें माखन सरिस विषयके साथ मिल नहीं सकता); उस हेल-मेल रूप संगसे काम अर्थात् प्राप्तिकी इच्छा बलवती होती है। यह इच्छा रूप आशा मायाविनी-वहन करके ले जा नहीं सकते इतना अर्थ पाये हो, * परवर्ती श्लोक देखो। इन्द्रिय-संयम विना मत्पर होना होता नहीं; तथा इन्द्रिय-संयम करके मत्पर न होनेसे इन्द्रियों के वशमें पड़ना ही होता है ॥६०॥६१॥ • इसीको ही मिथ्याचार कहते हैं । ३य अः ६ष्ठ श्लोक ।। ६२ ।। ६३ ।। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ११७ द्वितीय अध्याय अभी भी इच्छा होती है और भी कुछ मिल जाय; वैसे मनमें कल्पना कर नहीं सकते, इतनी आशाका पूरण हुआ है, तथापि आकांक्षा मिटती नहीं ; -इसी को ही माया कहते हैं। इस अपूरणीय आकांक्षासे ही क्रोधोत्पत्ति होती है। क्रोध उत्पन्न होनेसे ही मोह आता है अर्थात् कार्या-कार्यका विवेक नहीं रहता। सम्मोह पानेसे ही स्मृतिविभ्रम होता है, अर्थात् स्थूल-शूक्ष्म कारणातीत वाक्य मनके अगोचर सत्-चित्-आनन्द खरूप जो “मैं” हूं उसे भूल करके अनित्य देहादिमें आत्म ज्ञान करके "मैं-मेरा" ज्ञानरूप भ्रमबन्धनमें पड़ना होता है। इस प्रकार भ्रममें पड़नेसे ही बुद्धिनाश होती है अर्थात् मैं ही “मैं” यह निश्चयात्मिका बुद्धि अर्थात् स्थिर विश्वास नष्ट होके संशयात्मिका वृत्ति उपस्थित होती है। इस प्रकार अविश्वाससे ही नाश अर्थात् मृत्यु होती है ; कारण अविश्वासियोंके मन (बुद्धि) प्राणप्रयाण कालमें (शरीरत्याग समयमें ) व्यवसायात्मिका न हो करके पुनः शरीर धारण करनेके बीज-स्वरूप विषय-स्मरण करता रहता है ( २७ श्लोककी व्याख्या देखो.) ॥ ६२.॥ ६३ ॥ रागद्वषवियुक्तस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् । . आत्मवश्यविधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥ ६४ ॥ अन्वयः। तु ( किन्तु ) विधेयात्मा ( विधेयो वशवर्ती आत्मा मनो यस्य सः) आत्मवश्यैः रागद्वेषवियुक्तः इन्द्रियः विषयान् चरन् प्रसादं ( शान्ति ) अधिगच्छति ( प्राप्नोति ) ॥ ६४ ॥ ___ अनुवाद। किन्तु जो विधेयात्मा-संयत-चित्त हैं, वह आत्म-वशीभूत रागद्वेष-विहीन इन्द्रिय समूहसे विषय में विचरण करके भी अर्थात् विषय समस्त भोग करके भी शान्तिलाम करते हैं ॥ ६४ ॥ ___ व्याख्या। ६२-६१ श्लोकमें पुरुषको दो अंशमें विभक्त (बटवारा) किया हुआ है, -प्रथम विषयध्यान करने वाला असंयतचित्त पुरुष, दूसरे निष्कामी संयतचित्त पुरुष। असंयमी ६२-६३, श्लोकके क्रम Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ श्रीमद्भगवद्गीता अनुसार में नाशको प्राप्त होता है, और संयमी ६४ श्लोक्के अनुसार विषयमें चरण करके भी निष्कामता हेतु प्रसाद अर्थात् शान्तिमय विष्णुके परम-पद का दर्शन पाते हैं। "प्रसादस्तु प्रसन्ता” ॥ ६४ ॥ प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते । प्रसन्नचेतसो ह्माशु बुद्धिः पर्यावतिष्ठते ॥ ६५ ॥ अन्वयः। प्रसादे ( सति ) अस्य (यतेः) सर्वदुःखाना हानिः (विनाशः) उपजायते। प्रसन्नचेतसः हि बुद्धिः आशु ( शीघ्र पय॑वतिष्ठते (निश्चली) भवति ) ॥ ६॥ अनुवाद। प्रसाद प्राप्त होनेसे सर्वदुःस्त्रका शेष होता है; प्रसन्नचित्त पुरुषको बुद्धि शोधही स्थिर होती है ।। ६५ ।। ___ व्याख्या। पृथिवी जल, अग्नि, वायु, आकाश-इन पांचका नाम सर्व है। यह सर्व कश्मल रूप घरके अन्तराकाशको छाय (श्रावरण करके ) रहता है, उसी का नाम दुःख है । प्रसाद-लाभ होनेसे अर्थात् ज्योतिर्मय रूपके विकाश होनेसे, उसके प्रभाव करके सकल अधियारी कट जाती है, कोई प्रकार मयलाका चिह्न भी रहता नहीं ; इसलिये चित्त प्रसन्न होता है, अर्थात् निर्मलता हेतु चंचलता-विहीन होके स्थिर होता है। चित्त स्थिर होनेसे ही बोट-शक्ति शीघ्र ही अवलम्बन विहीन होके बुत जाता है । "चलच्चित्ते वसेच्छक्तिः स्थिरचित्त वसेच्छिवः”। इति ज्ञानसंकलनी तन्त्रम् ॥ ६५ ।। नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य नचायुक्तस्य भावना। नं चाभाक्यतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् । ६६ ।। अन्वयः। अयुकस्य बुद्धिः न अस्तिः अयुक्तस्य भावनां च न (अस्ति ) अभावयतः शान्तिः च न ( अस्ति ), अशान्तस्य सुखं कुतः ? ।। ६६ ।। . * इसको ही निर्वाण-स्थिति ( अमनस्कस्थिति) वा तुरीय अवस्था कहते हैं। ७२ श्लोकके ब्राह्मी-स्थिति जाग्रत अवस्थाके भो अन्तर्गत, तथा ब्रह्मनिर्वाण शरीर त्यागके पश्चात् होता है, जिसको विदेह-मुक्ति कहते हैं ।। ६५ ।। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ द्वितीय अध्याय अनुषाद। अयुक्तकी बुद्धि ही नहीं, भावना भी नहीं; भाषामविहीनोंको शान्ति भी नहीं। अशान्तको सुख कहाँ ? ॥६६॥ व्याख्या। शम-दम-तितिक्षा-उपरति-श्रद्धा-समधानादि साधनचतुष्टय-सम्पन्न पुरुष युक्त है, ( ६ष्ट अः २३ श्लोक देखो)। जो प्रयुक्त है अर्थात् साधन-चतुष्टयसम्पन्न नहीं (१ म अः २ य श्लोक, पाद टीका देखो), उसकी बुद्धि व्यवसायात्मिका नहीं है, इसलिये उसके बुद्धिको योग-मार्गका बुद्धि कही नहीं जाती ; और उसकी भावना भी * नहीं है ; अर्थात् आत्मज्ञानमें लक्ष्य ही नहीं होता, क्योंकि उसका चित्त विषय-रागमें रंजित रहनेसे वह दैव ज्योतिका विम्ब धारण कर नहीं सकता। भावना-विहीनकी शान्ति अर्थात् चित्तकी स्थिरता नहीं रहती, क्योंकि मन सर्वदा विषयमें मतवाला रहने से विश्रामका अवसर नहीं पाता। इस प्रकार अशान्त को सुख नहीं होता अर्थात् अन्तराकाश विषय मेघ करके ढका रहनेसे ज्योतिर्मण्डलका विकाश होता ही नहीं ॥ ६६ ॥ इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते। : तदस्य हरति प्रज्ञा वायु वमिवाम्भसि ॥६॥ अन्वयः। मनः चरतां इन्द्रियाणां यत् अनुषिधीयते ( अनुगच्छति ), तत् हि अम्भसि वायुः नावं इब अस्य प्रज्ञा हरति ॥ ६॥ अनुवाद । वायु जैसे जलके ऊपर नौका ( तरणी ) को विक्षिप्त करता है, वैसे, मन विषयचारी इन्द्रियोंके भीतर, जिसके अनुगमन करता है, वही इसकी प्रज्ञापो हरण करती है ॥ ६ ॥ व्याख्या। साधकमात्रको ही मालूम है कि शब्दस्पर्शाद कोई एक विषयके ऊपर मनजानेसे ही आत्माभिमुखी बुद्धि नष्ट हो जाती है ।। ६७॥ * भाषना- अभावमें रह करके, भाष-संक्रम होय होय, ईटश समय सम्तारक वृत्ति ( साधनामें बोधगम्य)। ८ म अः३२ श्लोक "भार देखो। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० श्रीमद्भगवद्गीता तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६८॥ अन्वयः। तस्मात् महाबाहो ! यस्य इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेभ्यः सर्वशः निगृहीतानि, तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६८ ॥ . अनुवाद। हे महाबाहो! इस कारणसे कहा गया है कि, जिसको इन्द्रिय समूह विषयोंसे सर्वतोभावमें निगृहोता हुई हैं, उपीकी प्रज्ञा प्रतिष्ठिा हुई है । ६८॥ . व्याख्या। इसलिये शब्द-स्पर्शादि बिषयसे इन्द्रिय समस्तको निःशेषरूपसे ग्रहण करके संयमी होना पड़ता है, संयमी अर्थात् युक्त न होनेसे कोई साधन होता ही नहीं ॥ ६८॥ या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने ॥ ६६ ॥ अन्वयः। या सर्वभूतानां निशा, संयमी तस्यां जाति; यस्यां भूतानि जाग्रति सा पश्यतः मुनेः निशा ॥ ६९॥ अनुवाद। सर्वभूतों की जो निशा ( रात्रि ) है, संयमी उमोमें जाग्रत रहते हैं; जिसमें भूत सब जागते हैं, उसीमें द्रष्टा मुनिको निशा है ।। ६९ ॥ व्याख्या। मन जब आत्मामें रहता है. इन्द्रिय सकल के लिये तभी निशा है-तब वो सब निश्चष्ट और अभिमृत अवस्था में रहते हैं, मन जब विषयमें रहता है, तब सकल इन्द्रियां जागरित और सचेष्ट रहती हैं, मनको आत्मामें रखना ही संयम (धारणा-ध्यान समाधिके एकत्र समावेश ) है, आत्मनिष्ठ साधक ही संयमी हैं। इन्द्रिय सकलही भूत हैं । इन भूत सकल की जब निशा होती, तब संयमी सजाग रहते हैं, अर्थात् तब उनकी आत्मामें अवस्थितिके हेतु वह उस समयमें स्थूल-सूक्ष्म-कारणात्मक विश्व-संसारके द्रष्टा वा सात्ती स्वरूप और उनका मन तब आत्मामें सम्यक लीन रहता है, इसी करके का Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय १२१ मुनि ("मुनिः संलीनमानसः" ) है। भूत सकल जब जाग्रत रहता है, उन द्रष्टा मुनिके लिये तभी निशा है, क्योंकि उस समय मन विषय-निष्ठ होता है, आत्मक्षेत्र विषयावरण करके श्रावृत रहता है, आत्मज्योति न रहने से आत्ममुखी दृकशक्तिका पथ बन्द होता है, मन भी विषय संस्रवमें आनेसे उतने क्षणके लिये आत्मकियामें निश्चष्ट रहता है ॥६६॥ . आपूय॑माणमचलप्रतिष्ठ, समुद्रमापः प्रविशान्ति यद्वत् । तद्वत् कामा य प्रविशान्ति सर्वे, __स शान्तिमाप्रोति न कामकामी ॥ ७० ॥ अन्वयः। यद्वत् आपः आपूर्यमाणं अचलप्रतिष्ठं समुद्र प्रविशन्ति तद्वत्सर्वेकामाः यं प्रविशन्ति, सः शान्ति आप्नोति, न (तु ) कामझामी ॥७॥ अनुवाद। जसे जलराशि आपूय॑माण अचलप्रतिष्ठ समुद्र में प्रवेश करता है, उसी प्रकार समुदय कामना जिसमें प्रवेश करती है, वह उस शान्तिको प्राप्त होता है कामकामो न होता ॥ ७० ॥ व्याख्या। समुद्र जैसे सदा काल नदी प्रभृतिके जलसे परिपूरणशोल है, किन्तु समुद्रके अवयवको किसी प्रकारको घटी बढ़ी न रहनेसे, उनकी प्रतिष्ठा अचल है। वैसे ही शम्भवी द्वारा जिन्होंने मनको बिन्दुसागरमें इबा देके ( क्रिया अनुष्ठान-सापेक्ष ) अनन्त उदारता लाभ की है, कामना सकल उनके ऊपर आ पड़के बिलीन होती रहती है, उनसे किसी प्रकारकी कामना उठ करके भी विषय अभिमुखमें प्रवाहित नहीं होती ; इसलिये इस प्रकार पुरुष ही ( साधक ही ) शान्ति पाते हैं। किन्तु जिन्होंने कामकामी अर्थात् जो मनुष्य मनको अनन्त में फेंकने में आशक्त हो करके, विषयको शान्तिका प्रालय मनमें समझ प्राकृतिक आकाक्षामें पड़ता है, वह शान्तिको नहीं पाता ॥७॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ श्रीमद्भगवद्गीता • विहाय कामान् यः सर्वान् पुमाश्चरति निस्पृहः।। निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥ १ ॥ अन्वयः। यः पुमान् सर्वान् कामान् विहाय निस्पृहः निर्ममः निरहंकारः ( सन् ) चरति, सः शान्ति अधिगच्छति ( प्राप्नोति ) ॥ १॥ अनुवाद। जो पुरुष समुदय कामना परित्याग करके निस्पृह, निर्मम, था निरहंकार होके विचरण करते हैं, शान्ति वही पाते हैं ॥ १॥ व्याख्या। भोगके विषयका नाम काम है ; (आकांक्षाभी काम )। मनुष्य मात्रके सन्मुख में भोगका विषय है। फिर जो साधक साधनामें थोड़ासा आगे पहुँचते हैं, उन सबके भोगके विषय (विभूति ) की प्राप्ति होती है। उन सब विषय-भोगमें मन देनेसे अर्थात् “कामकामी” होनेसे, बन्धनमें पड़ना होता है, उन्नति नहीं होती। जो पुरुप, सकल प्रकार भोगके विषयको झाडू मारके निकाल देके निस्पृह अर्थात् आकांक्षारहित होते हैं, अर्थात् "आत्मनो न तथा भिन्नं विश्वमात्मविनिर्गतं" इस प्रकार विचार-अनुष्ठानमें "सर्व ब्रह्ममयं” जान करके ममता-विहीन होते हैं, और अन्त में (सर्वशेषमें) "सोह” ज्ञानसे मतवाला हो करके, ममत्वका नाश करके अहंकारविहीन हो करके चरण करते हैं ; वही नित्यानन्द शान्ति लाभ करते हैं। (यह अवस्थाही कर्मका चरम फल-सिद्धावस्था है)॥७१ ॥ एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुमति । स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥७२॥ अन्वयः। हे पार्थ । एषा ब्राह्मो स्थितिः, एनां प्राप्य ( पुमान् ) न विमुह्यति (संसारमोहं न प्राप्नोति ), अस्या स्थित्वा अपि अन्तकाले (मृत्युसमये) ब्रह्मनिर्षाणं (ब्रह्मणि लयं ) मृच्छति ( प्राप्नोति ) ॥ ७२ ॥ अनुवाद । यही ब्राह्मोस्थिति है। इस स्थितिको प्राप्त होनेसे विमोहित होना नहीं पड़ता, इसमें रह करके भी अन्तकाल में ब्रह्मनिर्वाण मिल जाता है ।। ७२॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ द्वितीय अध्याय व्याख्या। पूर्वके श्लोकके अनुसार अवस्थाको प्राप्त हो करके विचरण करनेसे जो अवस्था होती है, वही ब्रह्मज्ञानकी अवस्थाब्राहीस्थिति है। इस ब्राह्मीस्थितिमें सब कुछ ब्रह्मामय हो जानेसे,. बाहरके इन्द्रिय-व्यापार समुदय सम्पन्न होनेसे भी, भेदज्ञान के अभावसे भीतर बाहर एक हो जाता है, इसलिये मोहित होना नहीं पड़ता। इसलिये इस अवस्था में विषयके भीतर रह करके भी शरीर-त्याग होनेके समय ' यत्र यत्र मनो याति तत्रैव ब्रह्म लक्ष्यते" सबही ब्रह्ममय लक्ष्य होनेसे, अपुनरावृत्ति गति रूप ब्रह्मनिर्वाणप्राप्ति होती है ॥ ७२ ।। "शोकपंकनिमप्र यः सांख्ययोगोपदेशत । उज्जहारार्जुनं भक्तं स कृष्णः शरणं मम ॥" सदशत। इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्र श्रीकृष्णार्जुनसम्बादे सांख्ययोगो नाम 'द्वितीयोऽध्यायः॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽध्यायः अर्जुन उवाच। ज्यायसी चेत् कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनाईन । तत् किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥१॥ अन्वयः। हे जनाईन ! हे केशव ! चेत् ( यदि ) कर्मणः ( सकाशात् ) बुद्धिः ज्यायसी ( अधिकतरा श्रेष्ठा ) ते मता, तत् ( तहि ) किं ( किमर्थ ) मा घोरे कर्मणि नियोजयसि (प्रवर्तयसि ) ? ॥१॥ अनुवाद। हे जनाईन ! हे केशव ! यदि तुम्हारी मतमें कमसे बुद्धि श्रेष्ठा है, तो घोर कर्ममें मुझको क्यों नियुक्त करते हो ? ॥१॥ व्याख्या। श्री गुरुदेव शिष्यके संसार मोह निवारण करनेके लिये पूर्व अध्यायमें आत्माका अज-नित्यत्व देखलायके, शारीरिक, जन्म-मृत्यु प्रवाह-वन्धन छेदन करनेका एक मात्र उपाय "उत्तिष्ठ" रूप प्रकरणमें ( उपदेश करके ) साधनमार्ग लक्ष्य करा दिये हैं; देखलाते हैं, इस मार्गमें दो काण्ड हैं,-प्रथम कर्म, दूसरा ज्ञान । मूलाधारसे आज्ञा पर्यन्त प्रति चक्रमें गुरुपदेशक्रमके अनुसार प्राणचालन करना ही साधनका कर्मकाण्ड है, और कूटस्थके ऊपर लक्ष्य स्थिर करके सर्व इन्द्रिय वृत्तिके साथ मनको आज्ञाके ऊपर उठाला के सहस्रार-स्थिति पदमें स्थिरभाव लेके "श्रवण-मनन-निदिध्यासन" अर्थात् प्रणव-नाद श्रवण, नादके अर्न्तगत ज्योति मनन (गुरुके दिखाये हुए मानस दृष्टिसे ध्यान ) करना, तथा देखना सुनना प्रभृति समुदय वृत्ति एकतान करके, तम्मय करना, यही सब बुद्धिकी क्रिया-ज्ञानकाण्ड है। बुद्धिकी क्रिया तथा अवस्था भेद करके दो अंशमें विभक्त है। प्रथम विभाग-उपासना; यह बुद्धियुक्त अवस्था (रय अः ५० श्लोक,) तथा शुत-श्रोतव्यको निर्वेद अवस्था २य ५२ श्लोक) इन दो भागों करके अन्तर्विभक्त है। २य विभाग-ज्ञान Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · · तृतीय अध्याय १२५ है; यह भी फिर योगप्राप्त अवस्था ( २य अः ५३ श्लोक) तथा योगसिद्धअवस्था (२य अः ७१ श्लोक ) इन दो अंशोंमें अन्तविभक्त है । इस कर्म-उपासना-ज्ञानके शेषमें ही शरीरत्याग करनेसे ब्रह्म निर्वाणकी प्राप्ति होती है ( २य अः ७२ श्लोक)। ये समस्त ही साधन-मार्गके क्रम विभाग हैं, इसलिये परस्पर सम्वद्ध हैं। किन्तु जब जिस क्रमको क्रिया होती है, तब वही प्रधान है, अतएव जब कर्म होता रहता है, तब कर्म ही प्रधान है ; फिर जब कर्मको अतिक्रम करके बुद्धियोगमें निश्चयात्मिका वृत्तिकी स्फुरण करके योग प्राप्ति होती है, तब कर्म "दूरेण अवरं"। असल बात यह है कि, कमसे ही बुद्धिका स्फुरण होता है, इस करके कर्म श्रेष्ठ है, तथा बुद्धि वा झानसे ही "अनामय पद” (“शान्ति” वा “ब्राहीस्थिति") प्राप्ति होती है, इस करके बुद्धि "ज्यायसी"-अधिकतर श्रेष्ठा है। सर्वज्ञ श्री गुरुदेव ये विषय समूह कहनेके पश्चात् स्वल्पज्ञ शिष्यने (साधक ) धारणा करली कि जब बुद्धिही श्रेष्ठतरा है तब कर्मसे प्रयोजन क्या ! अच्छा तो है चुपचाप कूटस्थ लक्ष्य करके बैठके स्थितिपदमें "श्रवणमनन-निदिध्यासन" करना, प्राणचालनसे एतना कष्ट उठानेका और क्या प्रयोजन है !! बुद्धिका जो स्फुरण है वह कर्म बिना होता ही नहीं तथा कर्म न रहनेसे बुद्धिकी क्रिया भी धीरे-धीरे छूट जाती है, फिर बाहर के विषयमें भी लपट जाना पड़ता है, वह समझे नहीं ; इसलिये कर्मको घोर विपाक * कह करके सिद्धान्त कर लिया। इसीलिये जगद्गरुको कहते हैं-आपही तो "जनाईन" (जन= उत्पत्ति, अईन = नाश ) पुनर्जन्म नाशके कर्ता तथा "केशव" ( क सृष्टिकर्ता, ईश = * साधक मात्रको हा आसन-प्राणायामादि के कष्ट मालूम , वैसे क्रियाके परावस्थामें कूटस्थ लक्ष्य करके चुपचाप रह करके अन्तर्जगत्के समस्त विषय प्रत्यक्ष होते रहनेसे जो आनन्द-आवेश होना है, वह भी मालूम है; वह अपस्या मनमें याद होनेसे कर्मको घोर विपाक फरके ही मन मान लेता है ।। १॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ श्रीमद्भगवद्गीता संहा, व-शून्य ) सृष्टिसंहारशून्य कैवल्य पद हैं, तब क्यों फिर मुझको घोर (भयंकर) कर्म में नियुक्त करते हैं ॥१॥ व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धि मोहयसीव मे। तदेकं वद निश्चत्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥ २॥ . अन्वयः। व्यामिश्रेण (क्वचित् कर्मप्रशंसा क्वचित् ज्ञानप्रशंसा इत्येवं सन्देहोत्पादकेन ) एव वाक्येन मे बुद्धि मोहयसि इच, येन ( अनुष्ठितेन ) अहं श्रेयः (मोक्ष) आप्नुयाम् ( प्राप्स्यामि ) तत् एकं निश्चित्य वद ॥ २॥ अनुवाद। विमिश्र वाक्यसे मेरी बुद्धिको जैसे मोहित कर देते हो; जिसमें मैं श्रेय लाभ करने सकू ऐसा एक निश्चय करके कहिये ॥ २॥ व्याख्या। साधक (अर्जुन) पूर्व अध्यायमें सांख्यबुद्धि (ज्ञानयोग) तथा योग-बुद्धि ( कर्मयोग ) इन दोनोंकी पृथकता जान करके सांख्य उपदेश मतमें ब्राह्मीस्थिति समझ कर उसको प्राप्तहोनेके लिये आग्रहा'न्वित हुये, तथा उस ब्राह्योस्थितिकी तुलनामें धर्म को घोर विपाक कह करके मनमें स्थिर मान लिया परन्तु भगवान "धाद्धि युद्धाच्छ्योक्षत्रियस्य न विद्यते" ( २ य अः ३१ श्लोक ) इस वाक्यसे समझा दिया है कि क्षत्रियोंके धर्म युद्ध (कर्म) बिना “दूसरा श्रेया कुछ है ही नहीं प्रशसा विद्यमान है। फिर "दूरेण झावरं कर्म बुद्धियोगा-द्धनंजय" (२ य अ. ४६ श्लोक) इस वाक्य द्वारा बुद्धि (ज्ञान) कर्मसे जो श्रेष्ठा है वह भी कहे हैं ; इसमें बुद्धिकी ही प्रशंसा विद्यमान है। इसलिये बुद्धिकी क्रिया में ब्राह्मीस्थिति प्राप्त होनेके लिये लालायित होने से भी, भगवानकी एकदफे कर्म प्रशंसा और एक दफे बुद्धि प्रशंसाकी बातें सुन करके, उनके मनमें सन्देह उपस्थित हो गया, बुद्धि भो मोहप्राप्त हो गई ; कौन श्रेय है-योगबुद्धिका आश्रम करना अच्छा, कि सांख्यबुद्धिका श्राश्रय लेना अच्छा, इसे और वह निश्चयकर नहीं सके। इस करके साधक आत्मजिज्ञासामें कूटस्थ गुरु-ब्रह्मके निकट कर्म Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय १२७ और बुद्धिक (ज्ञान) भीतर कीन श्रेयस्कर ( मुक्ति देनेवाला) है, संसीको निश्चय कर लेते हैं ॥२॥ . - श्री भगवानुवाच । लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ । ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥३॥ अन्वयः। श्री भगवान् उवाच । हे अनघ ! अस्मिन् लोके निष्ठा द्विविधा मया पुरा प्रोक्ता-ज्ञानयोगेन सांख्यानां (निष्ठा ), कर्मयोगेन योगिना (निष्ठा) ॥३॥ अनुवाद। श्री भगवान कहते हैं, हे अनघ ! पहले ही मैं कह चुका, इस लोकमें निष्ठा दो प्रकार की है, ज्ञान योगसे सांख्य मतवाले लोगोंकी निष्ठा और कर्म योगसे योगिगण की निष्ठा है ।३॥ व्याख्या। भक्ति श्रद्धा पूर्वक जो निश्चय स्थिति, अर्थात् जिस प्रकार स्थिर भाव आनेसे शरीर बेखबर हो जा करके अन्तःकरण अन्तर्मुख करके "विन्दुनादकलातोत" होता है उसका नाम निष्ठा (नि: =. निःशेष, ष्ठा= स्थिति अर्थात् जिस स्थितिकी अवधि नहीं.) है। इस • शरीर रूप जगतमें वही निष्ठा दो प्रकारके हैं, पहला जो मनुष्य सांख्य अर्थात् ज्ञानी है ; वह सब ज्ञान योग से और दूसरा, जो सब योगी हैं अर्थात् कम्मी वह लोग कर्म योगसे वो निष्ठा लाम करते हैं। इस शरीर में प्राणही चालक-शक्ति और मन चैतन्य शक्ति है उसी प्राणमें मन देनेका नाम कर्मयोग है, और मनमें मन देनेका नाम है ज्ञानयोग । सद् रुके उपदेशसे सुषुम्ना मार्गके छः चक्रमें श्रात्ममन्त्र विन्यास करनेसे ही प्राणमें मन देना होता है, और आज्ञा चक्रके ऊपरमें सहस्रार स्थितिपद लक्ष्य करके "श्रवण-मनननिदिष्हासन" से तत्त्व निर्णय करते रहनेसे ही मनमें मन देना होता है मम्त्रविन्यासका फल है निरालम्व हो करके ब्रह्मावकाशमें मिल Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ श्रीमद्भगवद्गीता जाना, और तत्त्वनिर्णय-शेषका फल है मन-विलयसे विष्णुपदमें स्थिर हो जाना। ये दोनों ही एक है, केवल प्रकार भेद मात्र है। श्य अः २० श्लोकसे ३८ श्लोक पर्यन्त ज्ञाननिष्ठा, और ४० श श्लोकसे ५३ श्लोक पर्यन्त कर्मनिष्ठा व्यक्त किया हुआ है ; इसलिये भगवान कहते हैं "पुराप्रोक्ता" । साधक सांख्यउपदेश प्राप्त होकरके और बाहर वाले विषय की चंचलता में पड़ते नहीं, इस करके वह ब्रह्मविद्माके अधिकारी हुये हैं, इसलिये उनको, इस श्लोक में "अन" अर्थात् निष्पाप कह करके सम्बोधन किया गया है ॥३॥ न कम्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्य पुरुषोऽश्नुते । न च संन्यसनादेव सिद्धिं समाधिगच्छति ॥४॥ अन्वयः। पुरुषः कर्मणां अनारम्भात् नैष्कर्म्यन अश्रु ते; संन्यसनात् एष व सिद्धिं न समधिगच्छति ॥४॥ अनुवाद। पुरुष कर्म न करके नैष्कर्मको प्राप्त नहीं होता; केवल मात्र पन्याससे भी सिद्धि लाभ नहीं होती ॥ ४ ॥ व्याख्या। ज्ञाननिष्ठा, नैष्कर्म्यसिद्धि वा ब्राहीस्थितिमें कर्ममात्रकाही अभाव है, अतएव चंचलता कुछ नहीं है ; केवल ही निस्तरंग समत्व है। और कर्ममें विषमताके उत्ताल तरंग करके केवल चंचलता ही चंचतला है। इन दोनोंको सामने सामने बैठाके देखने से परस्पर विरोधी कह' करके समझमें आता है। परन्तु योगी लोग कहते हैं, कि ऐसा नहीं (विरोधी नहीं है); ब्राह्मीस्थितिके लिये मुख्य अवलम्बन ही है “कर्मयोग” जिसके अनुष्ठान बिना अन्तःकरण की वृत्ति समूह का (जिसमें कर्म का प्रारम्भ होता है ) सम्यक प्रकार करके नाश किया नहीं जाता, अर्थात् वृत्तिविस्मरण अवस्था आतीही नहीं। वो सबको नाश कर न सकने से, वो जो नेष्कर्म सिद्धि का विश्राम है,-बुद्धि उसका ग्रहण कर नहीं सकती। क्योंकि, ब्राह्मीस्थिति वा नैष्कम्र्य सिद्धि का पूर्वानुष्ठेय करण ही वो Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय - १२६ कर्म है। इस कर्म के शेष ही में नैष्कर्म्य प्राप्ति है, और क्रमशेष के मिलन का नामही "कर्मयोग” है। साधक ! तुम देखो, मूलाधार के भीतर ब्रह्मनाड़ीमें जब तुमने भूतशुद्धि करना प्रारम्भ किया है, तष संवात विलयमें (क्रिया गुरूपदेश करके बोधगम्य) तुमको कितनी चंचलता भोग करना पड़ी। जब तुमने आज्ञाचक्र भेद करके निष्क्रिय गुरूपदको लक्ष्य किया, तब ही तुम्हारी निष्कामता का प्रारम्भ हुआ। क्रम करके जितना तुम गुरुपदमें प्रवेश करने चले, उतनाही तुम्हारा चंचलता नीचेके उस श्राज्ञा-चक्रमें दूरसे दूरान्तरमें पड़ते रह गये; और तुम्हारी निष्कामता बढ़ती चली। जब तुम गुरुपदमें, मिल गये, तुम्हारा वो जो प्राण-चालन रूप कर्म था जो तुम पहले से करते चले आते थे, सो एकवारगी तुमसे छूट गया; तुम भी वो नैष्कर्मय सिद्धि पा गये । यदि तुम चित्तपथमें (ब्रह्माकाशमें) पहलेसे प्राणचालन . का अनुष्ठान न करते, तो तुमको बाहर के पांच विषयोंमें लिपट कर डूबना तरना पड़ता; कभी इस स्थिर शान्तिका सुख भोग करने नहीं पाते। और भी देखो, सुषुम्ना मार्गमें प्राणचालन शिक्षाके पहले तुमने स्वभावज निश्वास प्रश्वाससे बहिविषय त्याग ग्रहणमें जो समस्त वासना-राशिकी छापा चित्त पटमें लगाये थे, उन समस्त छापाके (पूर्वसंचित कर्म ) रहने से भी, कर्म शेष न करके यदि तुम कर्म त्याग करते (संन्यासी साज लेते) तो सिद्धि रूप ज्ञाननिष्ठाकी अवस्था ' ( ब्राह्मी विश्राम ) तुम न पाते। इसलिये श्री भगवान कहते हैं किपुरुष यदि कर्म का अनुष्ठान न करे, तो वह नष्कमय-अवस्था पाता नहीं, अथवा कर्मत्याग करके हेतुशून्य संन्यासी होने से भी सिद्धि लाभ करने नहीं सकते ॥ ४॥ .. न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते हबशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणै : ॥५॥ अन्वयः। अकर्मकृत् कश्चित् न जातु ( कदाचित् ) क्षणमपि तिष्ठति; हि (यतः) प्रकृतिजैः गुणैः सर्वः अवशः ( सन् ) कर्म कार्य्यते ॥५॥ -8 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० श्रीमद्भगवद्गीता - अनुवाद। कर्म न करके कदापि कोई क्षणमात्र भी स्थिर रह नहीं सकता, क्योंकि प्राकृतिक गुणत्रय सभीको अवश करके कर्म करा देते हैं ॥ ५॥ -- व्याख्या। प्राणकी क्रिया ही कर्म है; ज्ञानी, अज्ञानी सबही इस प्राण-चालन में बंधे हुए हैं। प्राणक्रियाको "अजपाजपको" न करके क्षणमात्रभी कोई रह नहीं सकता। निद्रा तथा सुषुप्तिमें भी इस क्रिया का निरोध नहीं होता, अथवा नहीं करूंगा कह करके इस क्रियासे कोई अलग रह नहीं सकता। क्योंकि सत्त्व रजः तथा तमः इन तीन गुणोंके फांसमें पड़ करके सबहीको अवश हो कर कर्म 'करना पड़ता है। सत्त्वगुणमें सुषुम्नाके भीतर श्वास चलता है; और रजस्तमो गुणमें इड़ा तथा पिंगलामें चलता है। जबतक तीन गुणोंका कार्य होवेगा, तबतक इस प्रकार श्वास भी चलता फिरता रहेगा। ब्रह्ममन्त्र सम्पूट करके गुरूपदेश-मतासे प्राणक्रिया करके इन गुणत्रयका अतीत न होने से, कर्मत्याग नहीं होता; सुतरी प्रकृत संन्यास भी नहीं होता ॥५॥ कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य प्रास्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्थान् विमूढ़ात्मा मिथ्याचार स उच्यते ॥ ६॥ अन्वयः। यः कम्र्मेन्द्रियाणि संयम्य मनसा इन्द्रियार्थान् स्मरन् भास्ते, सः विभूढात्मा मिथ्याचारः उच्यते ॥ ६ ॥ ___ अनुवाद। जो कर्मेन्द्रिय समूहको संयत करके मन ही मनमें विषयका स्मरण करते रहते हैं, सो मूढात्मा तथा कपटाचारी कह करके अभिहित होते है ॥६॥ ब्याख्या । कर्मा द्वारा कर्मभूमि अतिक्रम न करके जो त्यागी साज लेते हैं, कर्मेन्द्रिय संयत करने से भी वह प्राकृतिक गुण में आबद्ध रहते हैं इसलिये उनको विषयमें मन देनाही पड़ता है, तब केवल अपना त्यागीत्व, लोक जगतको देखलानेके लिये कर्मेन्द्रियों को कार्यसे विरत कर रखते हैं। इस प्रकार इन्द्रियजयका ढंगमें लोकानन्द बिना Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय १३१ ब्राह्मानन्द नहीं मिलता। मूढता हेतु मनके विषयावेगके रहनेसे भी केवल मात्र मान प्रतिपत्ति बजा (दृढ़ ) रखनेके लिये उनका इन्द्रियसंयम है, इसलिये वह मिथ्याचारी हैं* ॥६॥ - यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥७॥ अन्वयः। हे अर्जुन। यः तु इन्द्रियाणि मनसा नियम्य कर्मेन्द्रियः कर्मयोगं आरभते, स: असक्तः विशिष्यते ॥ ७ ॥ अनुवाद । हे अर्जुन ! किन्तु जो मनके साथ इन्द्रिय सकलको संयत करके कर्मेन्द्रियोंसे कर्मयोग आरम्भ करते हैं, वही असत ( आसक्तिशून्य ) पुरुष ही विशिष्ट अर्थात् युक्त होते हैं ।। ७॥ व्याख्या। पांव मारके बैठके एक पावके गुल्फसे गुह्य देशपर आक्रमण करके, दूसरे पांवके गुल्फसे लिंग-मूल दावके * आसन संलग्र दोनों जानुके ऊपर हाथ सीधा करके मणिबन्ध दोनों रखकेमेरुदण्ड घाड़ (घेठ) और मस्तक बराबर सीधा कर लेकरके, कूटस्थ लक्ष्य करके वहां जो जो होता रहेगा, उस तरफ झानेन्द्रिय समूहको * साधकमात्र ही जानते हैं कि, क्रियाकाल में ठीक ठीक आसन करके बैठा हुआ है, क्रिया होता है, होते होते मनमें ऐसे एक विषय को चिन्ता उठ आई जिससे उस दिन उसी चिन्तामें क्रियाका शेष हो गया; असल काम कुछ न हुआ। इसको भी मिथ्याचार अवस्था जानिये। इस अवस्थामें “ततस्ततो नियम्यैतत् आत्मन्येष वशंनयेत्” इस उपदेश अनुसार दृढ़ उद्यममें क्रिया करनेसे तब इससे निष्कृति पाया जाता है ॥ ६ ॥ * स्वस्तिकासन ही सुखसाध्य है। पग मारके बैठके जानु दोनों और उस दोनोंके भीतर जो दाड़ पड़ता है, दोनों पगके पाति ( पाणी ) उन दाड़के भीतर रखकर त्रिकोणाकार आसनबद्ध करके, सरल भाव में काय-शिर-ग्रीवा सीधा-समान'बराबर रख करके बैठनेसे ही स्वस्तिकासन होता है ॥७॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ . श्रीमद्भगवद्गीता मन ही मनमें स्थिर रख करके गुरूपदिष्ट प्रकरण से प्राणचालन द्वारा कर्म करने से थोड़ासा बादही युक्त होना पड़ता है। पश्चात् उसी भावसे बैठ रह करके दोनों हाथ की अंगुलियोंसे गुरूपदिष्ट नियम मता चक्षु, कर्ण, नासिका, और मुखद्वार रोध करनेसे "परमं पुरुषं दिव्यं याति” अर्थात् परम पुरुषका दर्शन होता है, जिनको हिरण्मय पुरुष कह करके उपनिषत् में * वर्णना किया है वही पुरुष परागति हैं। जो प्राणायाम द्वारा चित्तशुद्धि कर लेकरके अनासक्त हो के कर्मदिन्योंके सहारेसे नवद्वार रोध करके इस परम-पुरुषार्थसाधनमें यत्न करते हैं ( कर्म योगका अनुष्ठान करते हैं ) वही पुरुष युक्त है, वही पुरुष विशिष्ट है ॥७॥ नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायोमकर्मणः । शरीरयात्रापि च ते न प्रसिध्येदकर्मण : ॥८॥ अन्वयः। त्वं नियतं कर्म कु, हि ( यतः ) कर्म अकर्मणः ( अपेक्षायाः) ज्यायः (श्रेष्ठः); च ( अधिक किम् ) अकर्मणः ( कर्महीनस्य ) ते शरीरयात्रा अपि न प्रसिध्येत् ( न भवेत् ) ॥ ८॥. अनुवाद। तुम नियत कर्म करो, क्योंकि कर्म अकम्मंकी अपेक्षा श्रेष्ठ है, अधिक क्या, कर्म न करनेसे तुम्हारा शरीर-यात्रा भी निर्वाह न होवेगा ॥८॥ व्याख्या। कम्मी (योगी) न हो करके त्यागी साज लेनेसे जो अकर्म होता है, उसमें रहनेसे, इन्द्रिय सकल पूर्वसंचित कर्मफलके अनुसार विषयमें आबद्ध रहता है कह करके परमपद-प्राप्ति नहीं होतीः किन्तु गुरूपदिष्ट मतामें कर्म करनेसे, उसके अवश्यम्भावी * छान्दोग्य उपनिषद प्रथम प्रपाठकके षष्ठ खण्डमें षष्ठ श्लोक देखो-"अय यदेवं तदादित्यस्य शुक्लं भाः संव साथन्नीलं परः कृष्णं तदमस्तत् सामाथ यः एषोऽन्तरादित्य हिरण्मयः पुरुषो दृश्यते, हिरण्यश्मश्रु हिरण्यकेशः आप्रणखात् सर्व एव सुवर्णः” । .॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय १३३ .फलसे कर्मक्षय हो जाय करके जो अकर्म होता है, उसीमें परमपद प्राप्ति कराता है। इसीलिये उस त्यागी साज लेना अकर्मसे श्रेष्ठ है। कर्म-भीतर बाहर में प्राणवायुके गमनागमन प्रति शरीरमें होता ही है; उसको त्याग करके कोई शरीर रक्षाकर नहीं सकता। स्वभावके वशसे प्रत्येकको ही ऐसा करना होता है। इस स्वभावसिद्ध कर्ममें कौशल प्रयुक्त होनेसे ही एक अलौकिक नित्य आनन्द-वैभवका उत्पत्ति होती है। इसलिये श्री गुरुदेवने उपदेश दिया है कि, नियत हो के कर्म करना होता है दृढ़ताके साथ यथाकालमें नियम युक्त होकरके आत्मलक्ष्य करके प्राणचालन अर्थात् स्वाभाविक कर्ममें कोशलका प्रयोग करने का नाम ही "नियतं” कर्म है ॥ ८ ॥ यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः । तदर्थ कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ।। ६ ॥ अन्वयः। यज्ञार्थात् कर्मण: अन्यत्र ( यज्ञार्थव्यतीरिक्त कर्मेण इत्यर्थः ) अयं लोकः कर्मबन्धनः ( कामभिः आवद्धः भवति)। (अतः ) हे कौन्तेय ! (त्वं ) मुक्तसंगः ( सन् ) तदर्थ ( यज्ञनिमित्त ) कर्म समाचर ।। ९॥ अनुवाद। यज्ञार्थ बिना अन्य कम करनेसे इस लोक में कर्मबन्धन करके आबद्ध होना पड़ता है। अतएव हे कौन्तेय ! तुम अनासक्त होकरके यज्ञके लिये कम किया करो ।। ९॥ व्याख्या। यज्ञ अर्थे होम (हवन) अर्थात् देवोद्देश करके मन्त्रोच्चारण पूर्वक अग्निमें घृतादि क्षेपण काना। विष्णुही देवता हैं। भगवान स्वयं ही कहते हैं "अहम् श्रादिहि देवानां” इनहीसे "प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी” ; यही कूटस्थ पुरुष हैं। उत्-ऊद्धदेश अर्थात् कूटस्थ-लक्ष्य करनेका नाम उद्देश है। कूटके भीतर लक्ष्य स्थिर रख करके गुरुपदिष्ट विधानसे प्रतिचक्रमें आत्ममन्त्रके साथ प्राणाहुति देते देते ( जिसको प्राणयज्ञ कहते हैं, अन्तर्याग भी कहते हैं ) जब Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ श्रीमद्भगवद्गीता अन्तरोस्थित भ्रमरगुंजन-रव करके मन मोहित हो जाय, तब सहस्त्रारसे सुधा ( अमृत ) का क्षरण होता रहता है; उस सुधाको गुरूपदिष्टप्रकरणसे तब ऊंचे में उठाये हुए जिह्वाग्रसे धारण करके वैश्वानरमें क्षेपण करना होता है, इसीका नाम यज्ञ है। यह यज्ञ, देव-उद्देश न करनेसे नहीं होता, फिर इसीसेही यश्वर विष्णु प्रसन्न होते हैं। जिस प्रकार कर्ममें-प्राणके जिस प्रकार चालन से (जो कर्मसीखनेके लिये ही गुरुकरण प्रयोजन है ) यज्ञश्वर प्रसन्न होते हैं, बही ही-“तदर्थ कर्म" है। उस “तदर्थ" कर्म छोड़ करके दूसरे प्रकारके कर्म करनेसे, (कूटस्थमें मनस्थिर तथा प्रतिकमलमें प्राणविन्यास न करनेसे, अर्थात् मन-प्राणमें मन न मिलानेसे ) प्राकृतिक जगत में कर्म डोर करके बंधा पड़नाही पड़ता है * इसीलिये आसक्ति त्याग करके (क्योंकि आसक्तिही कर्मबन्धन का हेतु) "तदर्थ" कर्म करना होता है, यह उपदेश किया गया ।।६॥ ___* जो साधक उस सुधाको घेश्वानर नामक जठराग्निमें आहुति दे सकते हैं, वह आहुति सर्व नाड़ियों में व्याप्त हो करके सर्व शक्तिको ( जो जो शक्ति षट् पद्मके प्रति पत्रमें है ) पुष्ट तथा प्रबुद्ध करनेसे साधकका शरीर लावण्यमय हो करके-खिलती हुई ज्योति निकल बाहर आती है। इस शरीरको ही विष्णु-मन्दिर कहते हैं, जहां ब्रह्मण्यदेव हरि विराजते हैं ॥९॥ * बन्धन । -जिस कम्मका फल भोग करना होता है वही बन्धन है। वह बन्धन ही प्राकृतिक आवरण है, वह आवरण स्थूल-सूक्ष्म भेद करके नाना प्रकारका है। स्थूल शरीर एक बन्धन है, इसको लेके आश्रय छोड़ करके शून्यमें रहा जा नहीं सकता, माध्याकर्षण-शक्ति करके पृथिवो में गिर पड़ना होता है। सूक्ष्म शरीर और एक बन्धन, इसके फिर भिन्न-कर्मसंस्कार-हेतु करके लघुगुरु-पृथकता है। इसको लेकरके भूमि छोड़ करके वायु मार्ग में जाया जा सकता है, किन्तु वायु मण्डलके पर पारमें जाया जा नहीं सकता,-तहां संस्कारानुयायी स्तरमें वा लोकमें बिचरण करना होता है, उससे उच्चतर स्तर विशुद्ध आकाश-मण्डलमें जाया जा नहीं सकता। साधारण मृत्युके पश्चात् प्रेतात्मा वायुभूत अवस्थामै नाना प्रकार करके इस वायु Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय १३५ सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ष्ट्रा पुरोवाच प्रजापतिः। . अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥ १० ॥ अन्वयः। पुरा ( सृष्ट्यादौ ) प्रजापतिः सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा उवाच-अनेन ( यज्ञेन ) प्रसविष्यध्वम् ( आत्मोन्नतिं लभध्वम् ), एपः वः (युष्माकम् ) इष्ठकामधुक ( अभीष्टभोगप्रदः) अस्तु ॥१॥ अनुवाद। सृष्टिके प्रथम प्रजापतिने सहयज्ञ प्रजा सृष्टि करके कहा था-इस यज्ञ द्वारा तुम सब उत्तरोत्तर आत्मोन्नति लाभ करो, यह तुम सबका इष्टफलप्रद हो ॥१०॥ व्याख्या। पितृ-शरीरसे मात्र गर्भ में जानेके समय में ही सन्तानमें पितृप्राण संचारित होता है ; उसी प्राणमें मातृप्राण मिल करके प्राण प्रवाह प्रारम्भ होता है। इस समय शरीर रूप ब्रह्माण्डके (केवलमात्र) भणुसे भी अणुके आकार करके सप्तस्वर्गकी सृष्टि होती है ; उसी सप्त स्थानमें प्राणरूपी महामाया (जगद्धात्री) क्रीड़ा करके सप्तस्थान-निहित देवी शाक्तियोंको सचष्ट करती हैं, इस करके सप्तधातु वृद्धि प्राप्त होकर शरीरकोष बड़ा होता रहता है। इसलिये प्रजा सह यक्ष है। मनुष्य-सम्बन्धमें प्रजापति दो हैं ;-एक हैं प्रथम जन्मदाता, और एक हैं दूसरा जन्मदाता। प्रथम जन्मदाताजनक, द्वितीय जन्मदातागुरु। ये दोनों ही कहते हैं, "अनेन प्रसविष्यध्वम्" इत्यादि । जनकका कहना "आदि इच्छाशक्ति अन्तर्गत कह करके अप्रकाश है ; गुरुका कहना उपदेशके अन्तर्गत कह करके प्रकाश है। श्रीगुरुदेव शिष्यको बाहरसे अन्तर्जगतमें प्रवेशका अधिकार देकरके द्वितीय जन्म मण्डलमें ही रहते हैं, तन् पश्चात् कालवश में कर्मफलके अनुसार पुनः संसारमें प्रवेश करते हैं। जब तक कर्म क्षय न हो तब तक ये आना-जाना रूप बन्धन-क्लेश भोगने ही पड़ता है। साधनासे सत्-संस्कारको वृद्धि हो करके कर्मक्षय होना पश्चात् बन्धन हीन हुआ. जाता है, मुक्ति होता है-"यदि देहं पृथक् कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि । अधुनेव सुखो शान्तः बन्धमुको भविष्यसि"-अष्टावक्र: ) ॥९॥ - Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ श्रीमद्भगवद्गीता देते हैं; उस समय वह सहज प्राण-यज्ञ लक्ष्य करा देकर कौशलप्रयोग-प्रकरण सिखलायके कहते हैं "इसीसे ही उन्नति, इसीसे ही इष्टफलकी प्राप्ति है" ॥ १०॥ देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥ ११॥ अन्वयः। अनेन ( यज्ञेन यूयं) देदान् मावयत ( संवर्द्ध यत); ते देवाः वः (युष्मान् ) भावयन्तु ( संवर्द्ध यन्तु ); ( एवं ) परस्परं ( अन्योन्यं ) भावयन्तः ( देवाश्च यूयं च) परं श्रेयः अवाप्स्यथ ॥ ११॥ अनुवाद। इस यज्ञसे तुम सब देवतनको भावना करो, वह देवतागण तुम सबकी भावना करें। इस प्रकार परस्पर भावनासे तुम लोग परम इष्टलाभ करोगे ॥११॥ व्याख्या। साधनमार्गमें-शिव, शक्ति, विष्णु, सूर्य, तथा गणपति-ये पांच देवता उपास्य हैं। ये पांच ही सब देव-गंधर्व-किन्नरादिके आश्रय हैं। साधकमात्र ही इन पांच देवतन्का उपासक है, क्योंकि, एक ब्रह्म ही भूलोक मूलाधारमें गणपति, भूवलोकस्वाधिष्ठानमें शक्ति, स्वलोक-मणिपुरमें सूर्य, महर्लोक,-अनदाहतमें विष्णु, जनलोक-विशुद्धाख्यमें शिव, ये पंच रूपसे आविर्भूत होकरके साधकों के हित साधन करते हैं। ये पांच-क्षर ब्रह्म है। इस क्षरउपासनासे भूतशुद्धि होने के पश्चात् तपलोक-आज्ञामें अक्षर ब्रह्म कूटस्थ-पुरुषकी उपासना होती है ; पश्चात् सत्यलोक-सरस्रीरमें उत्तम पुरुषको समझ लेकरके सर्वविद होकरके, सत्-असत्के पर जो, है, वही होना होता है। इस यज्ञ द्वारा उन देवतनको भावाना होता है अर्थात् अभिषेक द्वारा उन देवतनको जगाना होता है ; देवगण जाग करके पश्चात् जीवको भावाते हैं, अर्थात् तत्त्वज्ञान करके आभूषित करते हैं। इस प्रकार परस्परोंकी भावनासे परंश्रेय जो परमागति अर्थात् आत्मगति वा मुक्ति है, वह प्राप्त होती है। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ तृतीय अध्याय ब्रह्मनाड़ीका अवलम्बन करके दृष्टि कूटस्थमें श्राबद्ध रख करके, मन ही मनमें उच्चारित आत्ममंत्र-मिश्रित प्राण द्वारा प्रतिकमलमें धक्का मारते मारते पूरक रेचक करना होता है; एक स्थानमें धक्का मारना पश्चात् स्वभावके वशमें रह करके, प्राण-प्रवाह में किसी प्रकार कत्तत्त्व न रखके, वहांसे स्थानान्तर जाना पड़ता है, किसी स्थानमें विन्दु मात्र भी इच्छाका प्रयोग * करना उचित नहीं। इस प्रकारसे पूरक रेचक करते जैसे नाना नाड़ियों के भीतर वायु प्रविष्ट होकरके उन सबको क्रियामुखी करती है ; वैसे सहस्रार विगलित सुधा वैश्वानर कर्तृक ऊर्द्धमुखी हो करके मेरुदण्डगत स्नायुमण्डलीको परिपुष्ट तथा सतेज करते हैं, और प्रति पद्ममें उस धक्काके लगते रहनेसे, उसी स्थानके आकाशस्थ वायु पालोड़ित तथा कम्पित होकरके (ठीक जैसे रासायनिक क्रियासे ) उसी उसी स्थानकी शक्तिमें चेतनाका संचार करता है, और देश (अधिष्ठात्री देवीके साथ वो वो कमल) अपूर्व ज्योति करके आप्लुप्त हो जाता है। इसीका नाम देवतनको भावाना है। उस ज्योति से हृदय का अधियारा दूर हो जानेसे, साधकके तब भूत ( जो होय चुका ) भविष्यत (जो होनेवाला) दृष्टि-गोचर होते रहते हैं, एवं पृथिवी जलादिका तत्त्वज्ञान उत्पन्न होता है। इसीको देवगणसे प्रजा वा जीवको भावाना कहते हैं। इस प्रकार भावानाक्रिया होते रहनेसे, परिपुष्ट और प्रबुद्ध शक्तिकी चरम चैतन्य ज्योति तथा जीवके ( साधकके ) चरम तत्त्वज्ञान अन्तमें एक हो जा करके, आत्मज्ञानकी पराकाष्ठा "चिदानन्दरूपः शिवोह” हो जाता है ॥११॥ इष्टान् भोगान् हि वो देवाः दास्यन्ते यज्ञभाविताः । तैर्दत्तानप्रदायभ्यो यो भुक्त स्तेन एव सः॥ १२ ॥ अन्वयः हि ( यतः ) देवाः यज्ञभाविताः ( सन्तः ) वः ( युष्मभ्यम् ) इष्टान् भोगान् दास्यन्ते, तः दत्तान् एभ्यः अग्रदाय यः भुंक्त सः एव स्तेनः (चोरः) ॥१२॥ * इच्छाका विकाश होनेसेही उसके बन्धनमें पड़के पतन होता है नहीं तो उसी स्थान में ही अटक रहना पड़ता है, उन्नति नहीं होती ॥ ११॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ श्रीमद्भगद्गीता अनुवाद। देवगण यज्ञसे भावित होनेसे तुम सबको इप्टभोग देवेगे, देवतनका दिया हुआ भोग्य, देवतनको न देकरके जो स्वयं भोग करता है, वह निश्चय चोर है॥ १२॥ . व्याख्या। भावाना दो प्रकारकी हैं,-पहले वाली स्वभाविक है, जो असाधन अवस्थामें सर्वशरीरमें भीतर बाहर आपही आप होता है ; और दूसरी कौशलिक, जो साधनामें होती है। पूर्व श्लोककी व्याख्यामें यही कौशलिक "भावाना" की बात कही गई है। प्रत्येक जीवही कर्मफल भोग करते हैं; हृदय-देशमें अधिष्ठित देवगण ही जीवोंके उस कर्मफलके देनेवाले विधाता हैं। स्वाभाविक निश्वास-प्रश्वासादिकी जो क्रियायें शरीर में चल रही हैं, वह सब उन देवगणसे ही चालित एक अलौकिक नियम करके श्राबद्ध हैं ; इसलिये जीव चाहे कौशल अबलम्बन करे चाहे म्वभावके वशमें रहें, इच्छामें हो चाहे अनिच्छामें हो शरीर-क्रिया सम्पन्न करनेके हेतु अज्ञात रूपमें देवतनकी "भावाना" हो जाती ही है। किन्तु जीव-स्वभाव-वश करके अनिच्छामें जो होता है, उसमें विशुद्ध इष्ट भोग * लाभ नहीं होता, क्योंकि, अभावके लिये अशान्ति रह जाती है। इस अभावकी अशान्ति दूर करने के लिये ही इच्छा पूर्वक कौशलका अवलम्बन करना पड़ता है। कौशलका अवलम्बन करनेसे मन प्राण तथा शरीर-सार (सुधा) प्रति कमलमें प्राण विन्यासके साथही साथ देवतनको अर्पण हो जाता है, उस करके विशुद्ध इष्ट भोग जो ब्रह्मानन्द है, वही लाभ होता है। जो कौशलका अवलम्बन नहीं करते हैं, उसके मन, प्राण तथा शरीरज सुधा जीव-स्वभाव-वशसे विषयाभिमुखमें प्रवाहित हो ___ * साधन फल करके जो सब विभूतियां लाम हाती हैं, वह सढ विशुद्ध इष्ट भोग नहीं हैं, क्योंकि उसके भोगनेसे संसारमें आबद्ध होना पड़ता है। उन सब विभूतियोंको ग्रहण न करके, विषयाधिकार पार हो जा करके जो वस्तु लाभ होती, है, वही विशुद्ध इष्ट भोग है, उससे कभी विच्युत होना नहीं पड़ता।। १२॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय १३६ करके प्रतिक्षणमें ही शरीर-सुखमें क्षय पाता है, देवगणका पोषण नहीं करता। वस्तुतः शरीर-क्रिया वैश्वानरादि देवगणसेही चालित, तथा प्राण-प्रवाह और सुधा उन सबसे ही प्रदत्त हैं ; जिसलिये वो सब उनही देवतनके द्रव्य हैं। अतएव कौशलसे वह सब चीज उन सब देवतनको अर्पण न करके शरीर-सुखमें विषय भोगके लिये खरचा करनेसे सचमुचही चोर होना पड़ता है। इसमें इष्टसाधन नहीं होता (१०म श्लोकके शेषार्द्धसे १२ श श्लोक तक प्रजापतिवाक्य ) है ॥ १२॥ यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः । भंजते तेत्वधं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥ १३॥ अन्वयः। यज्ञशिष्टाशिनः ( यज्ञशेषभोजिन । ) सन्तः ( साधवः) सर्व किलिवर्षे ( सर्वपापैः ) मुच्यन्ते। ये तु आत्मकारणात् पचन्ति ते पापाः ( पापचारिण ) अघं ( पापं ) मुंजते ।। १३ ॥ ___ अनुवाद। यज्ञशेष भांजी साधुगण सर्व पापसे मुक्त होते है। परन्तु जो लोग अपने लिये पाक करते है, वो पापाचारी लोग पापही को भोजन करते हैं ।। १३॥.. __व्याख्या। प्राणायाम ही यज्ञ है प्राणस्थिर हो जाना ही यज्ञ शेष है। उसी शेषभागको जो भोजन करते हैं अर्थात् जो प्राणवायुको स्थिर करके शरीरके भीतर धारण (कुम्भक ) करते हैं, वही पुरुष यज्ञशेष भोजी हैं। जो सब साधक उस प्रकार कुम्भकसे प्राणरोध करके यज्ञशेषभोजी एवं सन्त ( सत्सत्वामें एकाग्र मनसे प्रवेश हेतु. तन्मय ) होते हैं, वही सब साधक * प्राकृतिक चंचलताके अतीत हो करके मुक्त होते हैं। किन्तु जो लोग "प्रात्म-कारणमें" अर्थात् भोग ___ * द्वितीय अध्याय ४४ श्लाका व्याख्या देखो। साधु न हो करके केवल ( वाजिगर योगी ) यज्ञशेष भोजीके भाष दिखलानेसे व्यवसायत्मिका बुद्धि पाती नहीं, इसलिये मूति भी नहीं होती ॥ १३ ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० श्रीमद्भगवद्गीता सुखके लिये कामना परायण हो करके अन्न, जल, वायु आदि पेटके भीतर प्रवेरा (आहार ) कराते हैं, वह लोग पापाचारी हैं, उन सबके शरीरमें अघ (मनकी चंचलता ही) रहती है, स्थिरता नहीं "आती॥ १३॥ अम्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः । यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥ १४ ॥ कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् । तस्मात् सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञ प्रतिष्ठितम् ॥ १५ ॥ अन्वयः। भूतानि अन्नद्भवन्ति, अन्नसम्भषः पर्जन्यात् ( भवति ) पजन्यः यज्ञात् भवति, वज्ञः कन्मसमुद्भवः, कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि, ब्रह्म अक्षर समुद्भवं ; तस्मात् सर्षगतं ब्रह्म यज्ञ नित्यं प्रतिष्ठितं ॥१४॥१५॥ अनुवाद। भूत समस्त अन्नसे उत्पन्न होते हैं, अन्नसम्भव ( अन्नको उत्पत्ति) पर्जन्य ( वृष्टि ) से होता है, यज्ञ से पर्जन्यको उत्पत्ति है, यज्ञ कर्मसे उत्पन्न, होता है, और ब्रह्मको अक्षरसे उत्पन्न जानना। इसलिये ब्रह्म सर्वगत तथा यज्ञमें नित्य प्रतिष्ठित है ।। १४ ॥ १५ ॥ व्याख्या। क्षरके ऊपर जो है, वही अक्षर अर्थात् कूटस्थअव्यक्त है, जिनमें तथा जिनसे विश्वप्रपंच व्यक्त है; इनका दर्शनस्थान अज्ञान चक्र * है इस अक्षरसे ही ब्रह्म उत्पन्न है, जिनको शब्दब्रह्म वा प्रणव कहते हैं अर्थात् आकाशतत्त्व वा व्योम; इनका स्थान विशुद्धचक्र है। शब्दब्रह्मसे ही कार्यब्रह्मकी (प्राण अर्थात् वायुतत्त्वकी) उत्पत्ति है, प्राण ही कर्म है, जिनको कर्मरूपा महामाया कहते हैं, जिनके अस्तित्त्यसेहो विश्व संसारमें कर्तृत्वका विकाश है ; इनका स्थान * इस अज्ञान चक्र में ही-"एकस्थं सचराचरं कृत्स्नं जगत्" प्रत्यक्ष होता है ; इसलिये श्रीगुरुदेव यहां ही लक्ष्यस्थिर करनेकी आज्ञा करते हैं। इसीलिये अज्ञानचक्रको आज्ञाचक भी कहते हैं ॥ १४ ॥ १५ ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय . १४१ अनाहत चक्र है। उस प्राण रूप कमसे ही यज्ञ अर्थात् "त्याग-ग्रहण क्रियाकी उत्पत्ति है, एक मात्र तेजके सहारासे ही संसारका ग्रहणत्याग, आकर्षण विकर्षण इत्यादि क्रियायें सम्पन्न होती हैं, इसी लिये तेज ही यज्ञ है, इनका स्थान मणिपुर चक्र है। तेजके क्रिया रूप यज्ञसे रसतत्त्व उत्पन्न, जो सतत निमग्र कह करके पर्जन्य नाम पाये हैं , इनका स्थान स्वाधिष्ठान चक्र है। रसतत्त्वसे पृथ्वीतत्त्वकी सृष्टि है ; यह पृथ्वी ही अन्न है, क्योंकि यही आधार है इसीलिये च्नका नाम भी मूलाधार, स्थान भी मूलाधार चक्र है। इस अन्नरूप मूलाधारसे ही भूत (जो जाता है ) अर्थात प्राणी उत्पन्न है ; मृदंशके. आवरणमें प्राण प्रवेश करनेसे ही प्राणी मृष्ट होता है, इसीलिये कहा हुआ है कि अन्न सेही भूत होता है। यह जो अक्षरसे भूत पर्यन्त सृष्टि-प्रकरण * व्यक्त हुआ, ये सब एकसे उत्पन्न होनेसे भी विकारज कह करके परस्पर पृथक हैं ; किन्तु इन सबके भीतर एक साधारण सम्पत्ति है, वह शब्दब्रह्म वा प्रणव है । आकाशका शब्द-वायु, तेज, जल, मिट्टी सबमें ही है, किन्तु वायुके स्पर्श, तेजका रूप, जल का रस तथा मिट्टीका गन्ध व्योभमें व्यक्त नहीं है। पुनश्च व्योमका शब्द वा शब्द ब्रह्मके सहारासे "अक्षर" तथा "उत्तम" गतिकी प्राप्ति होती है, "बनेरन्तर्गतं ज्योतिः ज्योतिः ज्योतेरन्तर्गतं मनः । तन्मनो विलयं याति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥" इसीलिये यह शब्दरूप ब्रह्म सर्वगत है। यह फिर यज्ञमें नित्य प्रतिष्ठित है ; कारण यह है कि मणिपुरस्थ तेजके प्रभाव करके जो . * मूलं श्लोकमें, साधनमार्गमें निवृत्तिकम देखलानेके लिये, कार्यसे आरम्भ करके शेष कारण दिखलाये गये ; किन्तु व्याख्याने समझानेकी सुषिस्ता के लिये, कारणसे आरम्भ करके सृष्टि प्रकरणके अनुसार कार्य विस्तार देखाया. गया ॥ १४ ॥ १५॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ श्रीमद्भगवद्गीता वायु-प्रवाह चल रहा है, उसके आघात् करके सर्वस्थानसे ही सर्वदा, एक मुख बन्ध भंलेके भीतर वायु प्रवेशके शब्द उठता है, विराम नहीं। मन बाहरमें रहता है, इस करके वह शब्द सुननेमें नहीं आता। किन्तु मन को भीतर ले जानेसे, जितनो जितनी एकाग्रता भाती रहती है, उतना उतना वह सब शब्द भी स्पष्टसे स्पष्टतर होता रहता है, अच्छी तरह सुननेमें आता है। साधारणतः. कानको दाबनेसे भीतरसे जो एक तुमुल शब्द सुनने में आता है वही प्राण-निर्धोष शब्द है। उसीकी व्यंजन त्याग अवस्था ही प्रणव है। इस प्रणवका विराम नहीं कह करके प्रणव नित्य है। __ इन दो श्लोकोंमें "अन्नाद्भवन्ति” से “समुद्भवम्" पर्य्यन्त इन छ चरणों की रचना-कौशलके प्रति लक्ष्य करनेसे देखने में आता है कि प्रथम तीन चरणके लक्ष्य कारणसे काय्यमें, पश्चात् तीन चरणके लक्ष्य कार्यसे कारणमें रहा है, यज्ञ वा मणिपुरस्थ तेजस्तत्व ही इस मित्र कम्मका संयोगस्थल है। इस प्रकार रचनाका उद्देश्य यह है कि, साधक जबतक मणिपुर चक पार न होवेंगे, तबतक उनको विषयवाले समोकी खिंचाईसे नोचेकी तरफ कार्य्यमुखमें पड़ना ही होता है ; मणिपुर पार होते मात्र, तत्क्षणात् अवैषयिक तमोकी खिचाईसे ऊंचे तरफ कारण मुखमें उठते रहते हैं ; इसका कारण यह है कि, मणिपुर चकके नीचे पीठ, रजो अधिक कह करके, चंचलतामें कार्यविस्तार होता रहता है ; और ऊपर पीठमें सत्त्व अधिक कह करके चंचलताके अभावके लिये कार्यालय हो करके मूलकारणका विकाश होता रहता है। सत्त्वकी तुलनामें रजोके अल्पाधिक तार-तम्य करके शरीर रून क्षेत्रका द्वितीय विभाग धर्मक्षेत्र कुरु क्षेत्रको भी अर्थात् साधनमार्ग-षट्चकको भी दो अंश करके विभाग किया जा सकता है ; क्योंकि मूलाधार से मणिपुर पर्यन्त रजो अर्थात् चंचलता (कर्म) अधिक कह करके इसको 'कुरुक्षेत्र Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय १४३ (कर्मक्षेत्र), और मणिपुरसे आज्ञापर्यन्त सत्व अर्थात् स्थिर प्रकाश (धर्म) अधिक कह करके इसको 'धर्मक्षेत्र' कहा जा सकता है। इसलिये मणिपुरके नीचे कमकी प्रधानता हेतु कार्यविस्तार, और ऊपरमें धमकी प्रधानता हेतु मूलकारणमें कार्यका लय लक्ष्य करा दिया गया है ॥ १४ ॥ १५॥ एवं प्रवर्तितं चकं नानुवर्त्तयतीह यः। अधायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥ १६ ॥ अन्वयः। हे पार्थ ! यः इह एवं प्रवत्तितं चक्रं न अनुवर्त यति (न अनुतिष्ठति) सः अघायुः ( पापजीवनः ) इन्द्रियारामः ( इन्द्रियपरायणः ) मोघं (व्यर्थ ) जीवति ॥ १६ ॥ अनुवाद। हे पार्थ! जो यहां इस प्रकार प्रवत्तित चक्रका अनुवर्तन नहीं करता है, वह अधायु, इन्द्रियाराम-तथा वृथाजीवनधारी होता है ॥ १६ ॥ व्याख्या। यह जो चक्र प्रवर्तित हुआ है-प्रथम आज्ञा, द्वितीय विशुद्ध, तृतीय अनाहत, चतुर्थ मणिपुर, पञ्चम स्वाधिष्ठान, तथा षष्ठ मूलाधार-इन सबके पिछाड़ीवाला पहलेसे उत्पन्न है । चैतन्य भी वैसे पहलेसे दूसरे में उतर आते आते सर्बशेष मूलाधार से निकल बाहर अाके भूत सज लिये हैं । उसको सत् सत्त्वामें पुनश्च पहुँचाना हो तो जिस रास्ताको धर कर उतर आकरके भूत साज लिये थे, . उसी रास्ता धर करकेही (उल्टी गतिमें) फिरना पड़ेगा, अर्थात् उनको पहले मूलाधारमें प्रवेश करके वहांसे स्वाधिष्ठान, पश्चात् स्वाधिष्ठानसे मणिपुर में, ऐसे करते करते आज्ञामें आना पड़ेगा। इस उल्टा गतिका नाम अनुवर्तन है । यह अनुवर्तन जो न करेगा, वह "अघायु" है अर्थात् उसको विषयके भीतर रह करके चंचलताके पालोड़नमें * सहस्त्रार रजोविहीन क्षेत्र है, वही क्रियाविहान कवल स्थिर प्रकाश वर्तमान है। सृष्टि-मखमें आज्ञासे ही प्रथम रजोका विकाश होता है, इसालये आज्ञा प्रथम है।॥ १६ ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..१४४ श्रीमद्भगवद्गीता आयुक्षय करना पड़ता है, विश्राम-शान्ति वह नहीं पाता ;-वह "इन्द्रियाराम” अर्थात् इन्द्रियोंसे उत्पन्न जो अनित्य आराम (रमणासक्ति), उसको ही भोग करता है, आत्माका विमल आनन्द प्राप्त हो करके आत्माराम हो नहीं सकता ;-और वह "मोघ जीवति" अर्थात् व्यर्थ जीवन धारण करता है, क्योंकि विषय अनित्य है, इस हेतु करके वह जिसको अवलम्बन करता रहता है, वही क्षयको प्राप्त होता है; जिस लिये एकके क्षयमें और एक, उसके क्षयमें और एक, इस प्रकार करके उसको विषयसे विषयान्तरमें दौड़ना पड़ता है; जिसके लिये दौड़ता है, उस अक्षय आनन्द पाता नहीं, अतएव धिक्कार-जीवन वहन करते हुये काल कटाते रहता है ॥ १६ ॥ यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते ॥ १७॥ अन्वयः। तु ( किन्तु ) यः मानवः आत्मरति एव, मात्भतृप्तः च, श्रात्मनि एव सन्तुष्टः च स्यात् , तस्य कायें न विद्यते ॥ १७ ॥ - अनुबाद। किन्तु जो मानव मात्मामें ही रत हैं तथा आत्मामें ही तृप्त है और आत्मामें ही सन्तुष्ट रहते हैं, उनका कार्य नहीं रहता ॥ १७ ॥ व्याख्या। कार्य्य किसको कहते हैं ? मन जब इन्द्रियोंके साथ विषयमें जाता है, तब जिस प्रकार प्राण-प्रवाह बहता है, वही कार्य है; और मन जब विषय छोड़ करके आत्माकी तरफ जाता है, तब जिस प्रकार प्राणकी गति होती है, वही कर्म है। जो आत्माराम है अर्थात् जो आत्मज्ञानमें मतवाला हो करके जगत्को आत्ममय देखते हैं, उनका विषयज्ञान न रहनेसे, कार्य भी रहता नहीं। फिर "तु" शब्दसे समझा देता है कि उनके भेदज्ञान न रहनेसे, चक्र अनुवर्तन करनेका भी प्रयोजन नहीं होता * ॥ १७ ॥ द्वितीय अध्याय श्लोक ४६ देखो। विजानत. ब्राह्मण हो "मात्मरतिः", "आमतृप्तः" तथा "आमनि सन्तुष्ट:" हैं ॥ १७ ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बतीय अध्याय नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन । न चास्य सर्वभूतेष कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥ १८ ॥ अन्वयः। इह कृतेन ( कर्मणा ) तस्य अर्थः (प्रयोजनं ) न एष ( अस्ति ), अकृतेन ( कर्मणा ) कश्वन ( प्रयोजनं ) न (अस्ति); सर्वभूतेषु अस्य कचित् अर्थव्यपाश्रयः (पापपुण्यरूपफलभोगः ) न च ( अस्ति ) ॥ १८॥ अनुवाद। इहलोकमें उनको कर्म करनेका कोई प्रयोजन नहीं, कर्म न करनेका भी कुछ प्रयोजन नहीं; शब्दस्पर्शादि पाथिष विषय में (विचरण करके भी) उनको किसी प्रकार पाप पुण्यका फल भोगना नहीं पड़ता ॥ १८॥ व्याख्या। जो आत्माराम हैं इस जगत्में उनको कर्म तथा अकर्मका और प्रयोजन नहीं। साधक नेष्कर्म्य-अवस्था की प्राप्तिके लिये कर्म करते हैं, फिर आत्मगति पानेके लिये नैष्कर्म्य अवस्थाका प्रयोजन है; परन्तु आत्माराम पुरुषके लिये जगत आत्ममय है; अतएव उनके कर्म-अकर्म दोनों ही नहीं, सब एक है; परि-पूर्णत्व हेतु उनमें अभाव न रहनेसे प्रयोजन भी नहीं है। पांचो भूतमें विचरण करनेसे भी भला बुरा फल में उनको लिप्त होना नहीं पड़ता क्योंकि, आत्मज्योति करके उनके चित्तके विशुद्ध होकर आत्ममय हो जानेसे, जलमें फेंका हुआ ( दधि मथन किया हुआ ) नवनीत सरिस, विषयोंके भीतर रहनेसे भी, कोई विषयके साथ मिस खाता नहीं, विशुद्ध ही रहता है ॥ १८॥ तस्मादसक्तः सततं कायं कर्म समाचर। असक्तो ह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पूरषः ॥ १६ ॥ अन्वयः। तस्मात् ( हेतोः, आत्मारामत्व लाभार्थ ) असक्तः ( सन् ) सततं काय्यं कर्म (च) समाचर ; हि ( यतः ) पुरुष असक्तः ( सन् ) कर्म आचरन् परं ( परमं पदं ) आप्नोति ॥ १९ ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद। उसी हेतु ( आत्माराम होनेके लिये ) सतत अनासक्त हो करके कार्य्य तथा कर्मका आचरण करों । कारण असक्त ( अनासक्त ) हो करके कर्म करनेसे पुरुष परमपदको प्राप्त होते हैं ॥ १९ ॥ व्याख्या। आत्माराम होना ही परम पुरुषार्थ है। आत्माराम होनेके लिये, साधकको कार्य तथा कर्मको * अनासक्त हो करके करना होता है; क्योंकि, निष्कृति पानेके लिये अनासक्ति ही एकमात्र उपाय है। अनासक्त कर्मसे ही मुक्ति प्राप्ति होती है ** ॥ १६ ॥ कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः। लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन् कर्तुमर्हसि ॥२०॥ अन्वयः। जनकादयः कर्मणा एव हि संसिद्धिं आस्थिताः। लोकसंग्रहं एव अपि संपश्यन् कत्तु अर्हसि ॥ २०॥ अनुवाद । जनकादि कम्मी-गणने कर्मसे ही संसिद्धि लाभ किया था; एक मात्र लोक-संग्रहकी तरफ दृष्टि रखके ही तुम्हारा कर्म करना उचित है ।। २० ॥ : : १७ श्लोकमें काय्य एवं कर्म कहा हुआ है। कार्य्य बाहरके, कर्म भीतरके; कार्य स्थूल, कर्म सूक्ष्म कायंके लक्ष्य विषय, कर्मके लक्ष्य आत्मा;-यही पृथकता है। कार्य द्वारा साधकका शरीर-संस्कार होता है, जैसे सात्विकी आहार, व्यवहार शौचाचारादि; कर्मद्वारा चित्तका संस्कार होता है। जैसे, विषयमें वैराग्य, आत्मामें प्रोति इत्यादि ॥ १९ ॥ ** साधकके मनमें धारणा हो सकती है कि, जब आसक्ति त्याग ही उपदेश है, तब आत्माराम होनेके लिये फिर इच्छा क्यों करना? वह भी तो आसक्ति है। इसके उत्तरमै श्रीगुरुदेव अष्टाषक ऋषिके मुखसे कहते हैं-"मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषपत त्यज। क्षमाजबदयातोषसत्यं पीयूषवत् भज ॥" प्रवृत्तिकी आसक्ति त्याग करके निवृत्तिमें आसक्त होनेसे, परिशेषमें समस्त आसक्ति मिट जा करके, मुक्तिलाभ होती है; किन्तु प्रवृत्तिमें आसक्त रहनेसे आसक्ति क्षय नहीं होती, बढ़ती जाती है। साधना भी "कण्टकेनैव कण्टक" इस नीतिके अन्तर्गत है, कर्मसे कर्म क्षय करना ॥ १९॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय १४७ व्याख्या। जन्म देनेवाला ही जनक है। जो प्राणायामादि रूप हल चलाके शरीर रूप क्षेत्रको कर्षण करके सीतारूपा शुद्धमति लाभ करते हैं, वह भी जनक, अर्थात् युजन योगी है। "जनकादयः" अर्थमें समझा देता है कि, पूर्व पूर्व साधकगण, जो लोग शुद्धमति लाभ किये थे ; उन सबने कर्मसे ही संसिद्धि अर्थात् ब्राह्मी-स्थिति लाभ की थी; उसी कर्मको कैसे करना चाहिये, वही बात श्रीगुरुदेव कहते हैं कि, लोक अर्थात् भूलोकसे सत्य-लोक पर्य्यन्त सप्तलोक जिसमें संग्रह हो, अर्थात् जिसमें मूलाधारस्थ भूलोक लय होके समेट श्राय करके स्वाधिष्ठानमें-भूवर्लोकमें मिल करके, पश्चात् भूवः समेट श्रा करके मणिपुर-स्वलॊकमें, स्वः अनाहत-महर्लोक में, महः विशुद्ध-जनलोकमें, जन आज्ञा-तपोलोक में, तथा तपः सहस्रारसत्यलोकमें, इस प्रकार लय योग करके मिलते मिलते एकमात्र सत्य ब्रह्ममें शेष होता है। उसी ओर दृष्टि रख करके अति सावधानीके साथ कर्म करना होता है* ।। २० ॥ यद् यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत् प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥२१॥ अन्वयः। श्रेष्ठ यद् यद् आचरति इतरः जनः तत् तत् एष ( आचरति ); सः ( श्रेष्ठः ) यत् प्रमाणं कुरुते लोकः तत् अनुवर्तते ॥ २१ ॥ अनुवाद। श्रेष्ठ पुरुष जिस जिस प्रकारका आचरण करते रहते है, इतर लोग भी उसीका अनुसरण करते रहते हैं। वो पुरुष जो प्रमाण करते हैं; लोक भी उसीको आदर्श करके मान लेते हैं ॥ २१ ॥ * एकमात्र प्राणायामसे ही उस लोक समूह संग्रह करनेके लायक दृष्टि स्थिर होती है। ( पश्चात् २५ श्लोक देखिये )। जिस प्रकार दृष्टि रख करके क्रिया करना होता है, उसके प्रथम प्रकरण श्री गुरुदेवके पास निर्णय कर लेना होता है, पश्चात् क्रिया योगमें निजबोधसे क्रमशः सब मालूम हो जाता है ॥२०॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। (इच्छाका लेशमात्र भी मनके भीतर रखनेसे चलेगा नहीं, एकबारगी अनासक्त होना पड़ेगा ; इस प्रकार हो तो, लक्ष्य स्थिर रख करके कर्म करनेसे इच्छाके प्रयोग बिना कैसे करके लोक संग्रह होवेगा ? वैसे अनुमान किये हुए प्रश्नके उत्तर स्वरूप यह श्लोक कहा गया है। ) जो कुछ उत्पन्न हो जनशब्दके अर्थमें वही आवेगा, अतएव इन्द्रिय तथा इन्द्रियवृत्ति समूहको बिलकुल उसीके अन्तर्गत जानना। “जन" समूहके भीतर श्रेष्ठ है मन। मन जो सिद्धान्त करता है, अथवा जिस दिशामें जाता है, इन्द्रिय-वृत्ति समूह वही करती है तथा उसी दिशा में जाती है *। अतएव यदि उस मनको क्रम अनुसार मूलाधारसे सहस्रारमें उठा लाकर आत्मामें मिला दिया जावे, तो नीचे वाली वृत्ति समूह भी तत्त्वोंके साथ समेट आकरके अात्ममिलनके साथ ही साथ आत्म सत्त्वामें पड़ करके सब ही आत्ममय वा ब्रह्म हो जाता है। यह स्वाभाविक नियम है, यह आपही आप होता है, इसके लिये कोई चष्टा करनी नहीं पड़ती; चेष्टाके भीतर केवल आसक्ति विहीन हो करके प्राण क्रिया करना पड़ता है, यही मात्र है ।। २१) * सब कोई जानते हैं, मन जब जिस विषयमें जाता है उसी विषयको भोग करने लायक इन्द्रियां तत्क्षणात् उत्तेजित हो उठती हैं; मनमें यदि कोई भय दुःखादिका प्रकाश आवे, दूसरी दूसरी इन्द्रिय तब निस्तेज हो पड़ता है; मन यदि सत् चिन्तामें निमग्न रहे, तो इन्द्रिय समूह भी निविकार अवस्थामें रहती है। और प्रतिदिन मनको अवस्था भी समान एक रस रहती नहीं; देखनेमें आता है कि, आज जिसको अति प्रीतिकर अति तृप्तिकर बोध करके भोग करने वाली इन्द्रियोंसे भोग किया जाता है, कल उसोको ही, मनके परिवर्तन हेतु उन इन्द्रियोंके लिये और रुचिकर नहीं होता। इससे यह समझा जाता है कि सब इन्द्रिय वृत्ति ही मनकी अनुगामी है ॥२१॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय १४६ न मे पार्थास्ति कर्त्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन । नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त्त एव च कर्मणि ॥ २२ ॥ अन्वयः हे पार्थ ! त्रिषु ले केषु ( भूर्भुवः स्वः इति त्रिजगतेषु ) मे किंचन (किञ्चदपि ) कतव्यं न अस्ति, अनवासं अवाप्तव्यं न ( अस्ति), कर्मणि एव च वत्त ॥ २२ ॥ अनुवाद। हे पाथ ! तीन लोकके भीतर हमारा कुछ भी कर्तव्य नहीं है, अप्राप्त तथा प्राप्तव्य भी कुछ नहीं; मात्र कर्ममें बर्तमान हूँ॥ २२ ॥ व्याख्या। भूः भूवः स्वः इस तीन शब्दमें ही समग्र विश्वको समझाय देता है। यह प्राकृतिक जगत एक अात्मासे ही उद्भूत हुआ है इस करके यह समस्तही आत्मामय- एक है; इस कारण करके यहां आत्माके कत्तव्य, प्राप्तव्य तथा अप्राप्त कुछ है नहीं। ___ जो न करनेसे अपना अनिष्ट होता है, ऐसे कि, अपनेका अस्तित्व पर्यन्त रहता नहीं, उसोको हो कर्त्तव्य कहके जामना; -जैसे वैश्वानरमें ( पेटके भीतर ) प्रतिदिन आहुति न देनेसे जीवन रहता नहीं, इसलिये वो काम भनुष्यके कर्तव्य है ; इसी प्रकार मानवोंके लिये प्राकृतिक तथा आध्यात्मिक बहुत कर्त्तव्य हैं, जो न करनेसे रहा जाता ही नहीं। परन्तु परमात्मा सम्बन्धमें इस प्रकारका कर्त्तव्य कुछ नहीं है, रह सकता भी नहीं; क्योंकि जो विश्व "अात्मविनिर्गत", आत्माके अस्तित्वमें जिसके अस्तित्व, जिसके अस्तित्वमें आत्माका अस्तित्व नहीं है, इस प्रकार विश्वमें आत्माका कर्त्तव्य कैसे करके रहेगा ? अन्नही जीवका आश्रय है, जीव अन्नका आश्रय नहीं है। आश्रय-आश्रित भाव विचार करनेसे देखा जाता है कि, शरीरका आश्रय प्राण, प्राणका आश्रम मन, मनका आश्रय जीवात्मा, जीवात्माका आश्रय परमात्मा, -इनहीको उत्तम पुरुष ब्रह्मचैतन्य अन्न कह के जानना। यही परमात्मा रूप जो ' मैं"- जो सकलके श्राश्रय, जिनका आश्रय "कुछ" भी नहीं-उसी “मैं” का कर्त्तव्य नहीं है,-पदार्थके पृथक् सत्त्वा न Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० श्रीमद्भगवद्गीता रहनेसे, अप्राप्त तथा प्राप्तव्य विषय रूप भूत भविष्यत् काल-विभाग नहीं रहता,-कर्म-रूपसे ही वह सर्वथा वर्तमान है। कर्मप्रवाहमें जीवोंके लिये भूत भविष्यतू काल विभाग है, परमात्मामें नहीं; कारण यह है कि, जीव स्वल्पज्ञ कह करके एककालदर्शी, आत्मा सर्वज्ञ तथा सर्वव्यापी बोल करके सर्वत्र वर्तमान * है। साधक समाधिसाम्यमें उपस्थित हो करके विश्वकोषके ऊपर विशुद्ध "मैं" में परिणत होनेसे प्रत्यक्ष करते हैं कि, वह जो विश्वकोषके भीतर अविशुद्ध अवस्थामें कर्तव्य-प्राप्तव्य-अप्राप्त प्रभृति अभाव-ज्ञान करके दौड़ा दौड़ी करते थे, वह केवल भ्रममात्र है; वह साक्षी स्वरूप कर्ममें वर्तमान रहते हैं, * इसको एक उदाहरणसे थोड़ासा समझनेकी चेष्ठा की जाती है; यथा;-मट्टी, जल, वायु, मेघ-इन सबके भीतर बाहर सवत्र आकाश विद्यमान है। इस आकाशमें विभिन्न रूप धरके जल चक्राकार प्रवाहमें सर्वदा वर्तमान है; क्योंकि सागर, नदी और दूसरे दूसरे जलाशयका जल- निम्नगामी हो के पृथिवोके अन्तरतम स्थान भिङ्गायके फवारा रूप धरके पुनश्च ऊपर उठ आता है, फिर वाष्प होकर वायुमंडलका आश्रय करके ऊपर मेवाकारसे परिणत हो करके वृष्टि रूपसे गलके पृथिवी, नदी, सागर प्रभृतिमें फिर चला आती है; इस प्रकार अनन्त प्रवाह चलताही रहता है, विराम नहीं। एकठो जलकणाके अनुसरण करनेसे देखा जाता है कि, वह जलकणा स्थिर नहीं, चंचल है। जलकणा जब नदीसे आय करके सागरमें वर्तमान होता है, तब नदीमें वह अतीत हो जाता है; जब सागरसे वाष्परूप धरके उठके वायुमें वर्तमान होता है, तब सागरमें उसका अस्तित्त्व रहता नहीं, अतीत होय जाता है; शेष में जब वृष्टिधारा रूपसे पड़ता है, तब पृथिवीमें वर्तमान होता है, और वायुमण्डलमें तब वह अतीत है। उसके इस अनन्त तथा अवश्यम्भावी उत्थान पतन रूप प्रवाहके सन्मुखमें भविष्यत् , और पश्चात् दिशामें अतीत वा भूत, वो जलकणा सागरमें वर्तमान होनेसे पृथिवी नदी-पर्वतादियोंके पास अतीत, वायुमार्गमें भविष्यत् ; किन्तु आकाशमें वह नित्य वर्तमान है। अनन्त आकाशके पास जलकणाके अस्तित्व सम्बन्धमें जैसे काल विभाग नहीं है, उसका अप्राप्ति तथा प्राप्तव्य भाव नहीं है, परमात्मामें तैसे कर्तव्य और काल विभाग है नहीं ॥ २२ ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय . १५१ इस करके विश्वकर्मा सम्पन्न होता है, परन्तु अपने कुछ नहीं करते ; अज्ञानताके वेश करके मायाके प्रेममें मतवाला हो करके अपनेमें (पराया दिया हुआ ) कृतित्व ले करके आबद्ध मात्र थे ॥ २२ ॥ यदि ह्यहं न क्र्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः । मम वानुवर्त्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥ २३॥ अन्वयः। हे पार्थ । यदि हि अहं जातु ( एकवारमेष ) अतन्द्रितः ( सन् ) कमणि न वर्त य, ( तहिं ) मनुष्याः ( मनोवृत्तयः ) सर्वशः मम वर्त्म अनुवतन्ते ( आत्मभावं प्राप्नुवन्ति ) ॥ २३ ।। __ अनुवाद। हे पार्थ ! कदाचित् एक दफे मैं अतन्द्रित हो करके कर्म में न रहूँ, तो ऐसा होनेसे मनुष्य सकल सर्व-प्रकारसे हमारे ही पन्थाका अनुवर्तन करेगा॥ २३ ॥ व्याख्या। अब श्रीगुरूदेव साधकको दिखलाते हैं कि, अतन्द्रित* हो करके, अर्थात् विषय-संस्रव परित्याग का के व्यवसायात्मिका बुद्धियुक्त हो करके, कमसे पृथक् होनेसे, मनप्रसूत समुदय वृत्ति की पृथक् सत्त्वा एकबारगी उड़ जाके, आत्मा की जो अनन्त विस्तृत निश्चल अवस्था है, उसी अवस्थाकी प्राप्ति होती है, तब-मैं ही सब, मैं-- नहीं बोलनेके लिये कुछ नहीं है-इस प्रकारका ज्ञान होता है ** ॥ २३ ॥ ____ * क्रिया करते करते समाधि लाभ होनेके समय मन यदि विषय का अवलम्बन करके निष्क्रिय हो जाय, तो “अतन्द्रित" होना नहीं होता, क्योंकि विषयमें मन रखना ही तन्द्रा, आत्मामें मन रखना ही जागरण है। मन लय होने के समय "चित्त" का अबलम्बन रहनेसे ही अतन्द्रित निष्क्रिय अवस्था होता है ।। २३ ॥ ___** इस प्रकार होने का कारण यह है कि, अहंवृत्ति रहनेसे, चुम्बक बर्तमान लोहके चंचलता सदृश, भिन्न भिन्न कोषके अवरणमें निज निज पृथक सत्त्वाको स्थिर रखके क्रियाशील होता है; अहं वृत्ति मिट जानेके बाद समुदय क्रिया शेष हो जाती है। ( कल्पना करके समझना तथा भाषामें व्यक्त करना ठीक नहीं होता । उस अवस्थाकी प्राप्ति न होनेसे, यथार्थ भाव हृदयंगम नहीं होतां ) ॥ २३ ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ श्रीमद्भगवद्गीता उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्य्या कर्म चेदहम् । संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः॥२४॥ अन्वयः। चेत् ( यदि ) अहं कर्म न कुया , ( तहिं ) इमे लोकाः (भूरादयः) उत्सीदेयुः ( उत्सन्नाः भवेयुः ), अहं च संकरस्य ( सर्व भिलनस्य ) कर्ता स्याम् (भवेयम् ), इमाः प्रजाः ( प्रकृष्टं जायन्ते इति विभिन्नान्तःकरणवृत्तयः उपहन्याम् (नश्येयम् ) ॥ २४ ॥ अनुवाद। यदि मैं कर्म न करूं, तो ये सबलोग उत्सन्न होवेगा तथा मैं संकरका कर्ता होऊंगा, और ये सब प्रजा नष्ट हो जावेगी ॥ २४ ॥ व्याख्या। अतन्द्रित हो करके कर्मके अधिकार पार होनेसे"पृथ्वी शीर्णा जले मग्ना जलं मग्नं च तेजसि । तेजः वायौ वायुः व्योमिन *** ॥” इत्यादि लययोगमें तत्त्व समूह शीर्ण होके, एक और एकमें मिल जाते जाते उर्द्धस्तरमें उपनीत होता है, तब प्राकृतिक तत्व और आत्मतत्त्वका एकत्र मिलन रूप संकर उत्पन्न होता है;परस्पर विरुद्ध पदार्थों के एकत्रावस्थानको ही संकर कहते हैं। इस प्रकार संकर होनेसे प्रकृतिकी सृष्टिमुखी वृत्ति मिट जाके, ब्रह्म-मुखी वृत्ति होनेसे, प्रजा ( जो जन्म ले चुकी ) अर्थात् जिन समस्त वृत्तिसे सृष्टि-विस्तार होता है, वह सब नष्ट हो जाता है। (इस अवस्था लाभ होनेसे साधक प्रकृतिके ऊपर कत्त कर रहे हैं, सो अच्छी तरह अपने समझ सकते हैं, तब उनकी स्वामि उपाधि होती है। ॥२४॥ ... सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत । कुर्य्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षर्लोकसंग्रहम ॥ २५।। अन्वयः। हे भारत ! कर्मणि सक्ताः अधिद्वांसः ( अज्ञाः ) यथा कुर्वन्ति, लोकसंग्रहं चिकीषु: विद्वान् असक्तः ( सन् ) तथा कुर्य्यात् ॥ २५ ।। - अनुवाद । हे भारत ! अविद्वान लोग कर्ममें आसक्त होके जैसे कर्म करता रहता है, लोक संग्रह करणेच्छु विद्वान जन भी अनासक्त हो करके वैसेही करेंगे ॥२५॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय व्याख्या। जो लोग जीव-बुद्धिसे चालित होकर केवल अपने इन्द्रिय-सुखको ढूढ़ते हैं, किन्तु विचार-बुद्धिका आश्रय न लेनेसे उस सुम्बके स्वरूपको जान नहीं सकते, वही सब अविद्वान हैं; और जो सब लोग विचार बुद्धिका अवलम्बन करके वैराग्यसे विषयानन्दको त्याग करके आत्मानन्द लाभमें यत्न करते हैं, वह सब विद्वान हैं। अविद्वान लोग “धनं देहि, पुत्रं देहि, यशो देहि” इत्यादि वासनामें आसक्त हो करके जिस प्रकार घोर उद्यमके साथ कर्म करते हैं, विद्वान जनका भी ठीक उसी प्रकारके उद्यमसे-किन्तु आसक्ति एकबारगी त्याग करके-कर्म करना होगा, तब वह लोकसंग्रह कर सकेंगे, अर्थात् मूलाधारादि समुदय स्थानसे वृत्ति समूहको आकर्षण कर लाके लययोगसे सत्यब्रह्ममें स्थिति लाभ कर सकेंगे ।। २५॥ न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम् ।। योजयेत् सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन् ॥ २६ ॥ अन्वयः। अज्ञानां कर्मसंगिनाम् बुद्धिभेदं न जनयेत् , ( अतः ) विद्वान् युक्तः ( योगयुक्तः सन् ) सर्वकम्माणि समाचरन् योजयेत् ॥ २६ ॥ अनुवाद । विद्वान पुरुष अज्ञ कासक्त लोगोंकी बुद्धिभेद उत्पन्न नहीं करेंगे, परन्तु युक्त होकरके ( अपने ) सर्व कर्म सम्यक् प्रकार आचरण करके ( उन लोगोंको कम्म में ) नियुक्त करेंगे ** ॥ २६॥ . * विचार-बुद्धिका अभाव करके सुखके प्रकृतभाव ज्ञात न होने से अविद्वान जिस प्रकार आसक्त हो करके कभ करते हैं, उसमें उनको ईश्वरके नामसे विषयोंकी हो आराधना करनी होती है, वह सब कर्म फल करके भोगके देवता आकृष्ट होनेसे भोग में आवद्ध होना पड़ता है, प्रकृत आत्मसुखकी प्राप्ति नहीं होती ।। २५॥ **इस इलोकका यही साधारण अनुवाद है परन्तु इस श्लोकमें साधक किस प्रकार कर्मानुष्ठान करके बुद्धिभेद करेंगे, इसका उपदेश रहनेसे, केवलमात्र कर्मासक्त होनेसे क्या होता है तथा युक्त ( अनासक्त ) होनेसे भी क्या होता है, वही यहां दिखाया Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। कूटस्थके ठीक केन्द्रमें (बीचमें ) दृष्टिपात करनेसे एक छिद्र लक्ष्य होता है, उसको भ्रामरी गुहा कहा जाता है। उस गुहाका मुख उज्वल कृष्णवर्ण है, परन्तु उसके चारो ओर उज्वल छटा विशिष्ट ज्योतिसे आवृत्त और पावरण तथा विक्षेप रूपा दो महाशक्तिसे रक्षित है। वहां दृष्टि देनेसे ही छिटकाय फेंक देता है, नहीं तो परदासे झांपना सरिस झांप देता है। ब्रह्मचर्य सात्त्विक आहार व्यवहार विषय-भोगाकांक्षा त्याग, दृढ़ सहिष्णुता, एवं प्राणक्रिया--- इन सकलका अभ्याससे शरोरमें शान्त तेजका वृद्धि होनेसे भ्रमध्यमें आकाशभेदी एक दृक्शक्ति उत्पन्न होता है, वह शक्ति आवरण तथा विक्षेप शक्तिसे आवृत विक्षिप्त होतो नहीं। तब गुहामुखमें दृष्टिपात करनेसे ही गुहा के मुख सुविस्तृत हो करके अभ्यन्तर दृष्टि गोचर होता है,-धर्मका तत्व भी जाना जाता है। इसलिये शास्त्र-वचन है कि "धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायो"। अब वो आवरण विक्षेप भेद होना ही है "बुद्धिभेद" * कारण यह है कि, बुद्धिक्षेत्रके ऊपर उठके बुद्धिके ऊचेमें स्थिर हो जानेसे ही ऐसा होता है। यह बुद्धि भेद अज्ञ तथा कम्मोसक्तोंको नहीं होती, क्योंकि, प्रथमतः अज्ञ ( मूर्ख) उसपर फिर आसक्ति रहनेसे विषयकी खिंचाई इतनी अधिक होती है कि, उस गुहाके निकट पहुँचना भी नहीं होता, विक्षेपको जय करना तो बहुत दूरकी बात है। इस कारण करके विद्वान मनुष्य युक्त हो गया है। साधक किस रीतिसे अपने चलेंगे, उसीका उपदेश प्रयोजन, वैसे करके दूसरेको चलायेंगे उसका उपदेश प्रयोजन हैं नहीं; इसलिये क्रियाके प्रति लक्ष्य रख करके इस श्लोकका-अज्ञ फर्मासक्त पुरुषोंके बुद्धि भेद जन्मता नहीं, इस कारण विद्वान युक्त ( अनासक्त ) होकरके सर्वकर्म समूह समाचरण पूर्वक योजना करेंगे इस प्रकार अर्थ धर लेकरके व्याख्या किया गया ।। २६ ।। * २य अः ५० श्लोकके 'बुद्धियुक्त' और इस श्लोकके 'बुद्धिभेद' कार्य्यतः एक ही है ॥ २६ ॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय १५५ के अर्थात् आसक्ति त्याग पूर्वक कूटस्थमें लक्ष्य स्थिर करके, सर्वकर्मा समाचरणसे योजना करेंगे, तो बुद्धिभेद हो जावेगा। क्षिति, अप तेज, मरुत् , व्योम -इन सकलका नाम सर्व है। रेचक-पूरक करने में उन सकलमें जो एक एक प्राणका टक्कर मारना पड़ता है, वही एक एक कर्म है। वह कर्म ब्रह्मनाड़ीका अवलम्बन कर रहके करना होता है, चक्रके संस्पर्शके भीतर जाना न चाहिये, इस प्रकार करनेसे ही समाचरण करना होता है। जब प्राणविन्याससे प्रति चक्रकी शक्ति प्रबुद्ध हो उठती है तथा भीतरमें अपूर्व ज्योति-विकाश होता है, तब प्रति चक्रसे प्राणक्रियाको उठालाके एकट्ठा करके मू में "भूवोर्मध्ये" स्थापन करके * शाम्भवीका प्रयोग करने होता है। इसीका नाम सर्व कर्म समाचरणसे योजना करना है। इस प्रकारसे प्राणवर्मको उठालाके आज्ञामें धारण करनेसे मन प्राण एक होता है, अतएव मन और नीचे उतरता नहीं, लक्ष्य कूटस्थमें लग करके अटक रहता है, तब अन्तराकाश सहस्रगुण करके ज्योतिर्मय होता है, * सुवर्णाच्छादित भ्रामरी दृष्टि गोचर होता है, उसके प्रावरण-विक्षेपरूपा दोनों शक्ति भी पापही आप निस्तेज हो जाती है; और उस आवरण-विक्षेपके नाशसे ही धर्मके तत्त्व प्रत्यक्ष हो पड़ते हैं ॥ २६॥ प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणः कर्माणि सर्वशः। अहंकारविमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥ २७ ॥ अन्वयः। प्रकृतेः गुणः ( इन्द्रियादिभिः ) कर्माणि सर्वशः क्रियमाणानि, (किन्तु ) अहंकारविमूढ़ात्मा ( जनाः ) “अहं कर्ता" इति मन्यते ॥ २७ ॥ अनुवाद। प्रकृतिके गुणसे सर्वतोभावमें कर्म सकल सम्पन्न हो रहा है, किन्तु जिन लोगोंका चित्त अहंकारसे विमूढ़ हुआ है, वह सब लोग मनमें समझते हैं कि "मैं कर्ता” हूँ ॥ २७ ॥ * योनिमुद्रासे भी इसी प्रकार होता है, किन्तु वह अचिरस्थायी है। परन्तु पहले पहले योनिमुद्राके अभ्याससे हो उस पथमें लक्ष्य सुगम होता है ॥ २६॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। शरीरके भीतर एक एक वृत्ति-साधक एक एक पृथक यन्त्र है। जैसे चक्षु, कर्ण, नासिका, प्रभृति बाहरके वृत्ति-साधनका यन्त्र, वैसेही मस्तिष्क अन्तरके वृत्ति-साधनका यन्त्र है। अन्तर्वृत्तिके भीतर मनोज वृत्ति एकशत, तथा बुद्धिज वृत्ति छ प्रकार का है। इन सब वृत्तियों के भीतर किसी किसीका नाम है,-राग, द्वष, हिंसा; ईर्षा, घृणा, शंका; काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सरता; हर्ष, लज्जा, भय; दम्भ, दर्प, अभिमान; दया, माया, ममता; चिन्ता, शोक, परिताप; शम, दम. तप, क्षमा, तितिक्षा, उपरति; दान, ध्यान, जप; स्मृति, मेधा, धृति; तुष्टि, पुष्टि, स्वस्ति; विवेक, वैराग्य, ज्ञान; सुख, दुःख; इच्छा, आशा; वासना, विलास; अहंकार, अमायिकता; विनय, सौजन्य; गाम्भीर्य, औदार्य; साहस, पराक्रम; स्नेह, भक्ति इत्यादि। . मस्तिष्क वा मगज एक विचित्र पदार्थ है। सृष्टिकर्ताकी ऐसेही कृतित्व है कि, एकही उपादानसे गठित होनेसे भी इसके आकार आयतन और अशके तारतम्य भेद करके तथा कुचन और सीधा टेढ़ीके अल्पाधिक अनुसार करके यह भिन्न भिन्न वृत्तिकी क्रियाओंका आधार वा यन्त्र है। इस मगजके गठन भेदसे ही मनुष्य भला और बुरा होता है। जिसके मस्तक में जितना अधिक यन्त्र है, उसमें उतने प्रकारकी क्रिया-शक्ति है; फिर प्रति यन्त्रके अंगके सौष्ठव वा असौष्ठव हेतु करके शक्तिकी भी तीक्ष्णता वा क्षीणता होती है। उन सब यन्त्रके सहारासे ही "मैं"-वाचक पदार्थ वा श्रात्मा क्रिया करते हैं; इसलिये यन्त्र न रहनेसे आत्मा कोई काम काज कर नहीं सकता । जैसे अांख, कान प्रभृति बिकल होनेसे वा न रहनेसे, देखने सुनने पाया जाता नहीं; वेसेही मस्तिष्कमें स्नायु मण्डलीके कोई अंश विकृत होनेसे किम्बा न रहनेसे, उन उन स्नायु वा यन्त्र-साधन वृत्तियों का भी स्फुरण नहीं होता। यथार्थतः जो कुछ क्रिया है, वह समस्त Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय शारीरिक यन्त्र का प्राकृतिक मुणके सहारेसे ही होता है, आत्मा नहीं करता। परन्तु आत्माके अस्तित्व हेतु ही ये ब कार्यकरी होती है। और भी शरीरमें जब जिस गुणकी अधिकता होती है, इन्द्रिय सब भी उसी गुणके वश हो कर के क्रिया करती हैं; उस समय किसी प्रकारसे दूसरे गुणकी क्रिया की नहीं जाती। साधक असाधक सब कोई जानते हैं, कि मनमें यदि कोई शोक दुःख उपस्थित हो, तो उस समय कोई काम काज तथा कर्त्तव्याकर्त्तव्याका निष्पत्ति नहीं होता; शरीर मन अवश अभिभूत हो जाता है। जिस समय उत्साहके साथ शौर्य वीर्य्य अवलम्बित होता है, तब शोक दुःखके बात वा कारण तथा कत्तव्याकर्त्तव्य-विचार मनमें जगह नहीं पाता,-युद्ध कालमें योद्धाकी अवस्था ठीक इसी प्रकारकी है। फिर जब सत्चिन्तामें मन निविष्ट होता है, तब पार्थिव शोक, दुःख, माया, ममता, उन्नतिकी आशा तथा चेष्टा प्रभृति अति हेय करके ज्ञान होता है। असल बात यह है कि, जब तक कोई एक भाव करके मन अभिभूत रहता है, तब तक स्वतः चेष्टा करके भी उसको दूसरी ओर फिराया नहीं जाता। फिर देखा जाता है कि, मनके इच्छाके आपूरण करना, कितने समय शरीर के सामर्थ्य चेष्टामें भी अटता नहीं, और किये हुये कामसे मन माफिक फल भी नहीं मिलता। ये सब देखके अच्छी तरह समझमें आता है कि, क्रिया-थिषयमें प्रकृतिका ही प्राधान्य है, 'मैं' का प्राधान्य नहीं है। तिसपर भी अहंकारकी इतनी शक्ति है कि, "मैं कर्ता" इस प्रकार भाव मनमें पापही आप उठ आता है ॥२७॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्ववित्त महाबाहो गुणकर्मविभागयोः। गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥ २८॥ अन्वयः। तु ( किन्तु ) हे महाबाहो! गुणकर्म विभागयोः ( गुणेभ्यः आत्मनः विभागः कर्मभ्यश्च आत्मनः विभाग: एतयोः) तत्त्वचित् ( स्वरूपवेत्ता) गुणाः ( इन्द्रियाणि ) गुणेषु ( विषयेषु ) वर्तन्ते ( न तु अहं) इति मत्वा न सज्जते ( कत्त त्वाभिनिवेश न करोति ) ॥ २८॥ ___ अनुवाद। हे महाबाहो! गुणसे आत्माका विभाग तथा कर्मसे आत्माका विभाग इन दोनोंके तत्वको जो जानते हैं, वह "इन्द्रियां विषयमें प्रवृत्त होतो है ( मैं नहीं होता )" इस प्रकार ज्ञानसे कत्त त्वाभिमान नहीं करते ॥ २८ ॥ व्याख्या। साधनामें आत्मक्रियाकी उन्नति होनेसे, गुण कम और आत्मा, इन सबकी पृथक् पृथक् सत्त तथा क्रियाकी उपलब्धि होती है, तथा बुद्धिभेद करके विशुद्ध अहंवृत्ति खिल उठती है; तब केवल विषयेन्द्रिय-संयोगके फल करके शरीरके क्रिया आपही आप सम्पन्न होती रहती है, "मैं करता हूँ" ऐसा भाव आता ही नहीं ॥२८॥ प्रकृतेगुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु । तानकृत्स्नविदो मन्दान् कृत्स्नविन्न विचालयेत् ॥ २६ ॥ अन्वयः। ( ये जनाः ) प्रकृतेः गुणसंमूढाः ( सत्त्वादिभिः विभ्रान्ताः, देहादिषु अभिमानविशिष्टाः इत्यर्थः) गुणकर्मसु (शब्दस्पर्शादिव्यापारेषु) सज्जन्ते ( कत्त त्वाभिमानं कुर्वन्ति ), अकृत्स्नविदः तान् मन्दान् कृत्स्नषित् न विचालयेत् ।। २९ ॥ अनुवाद। देहादिमें अभिमान विशिष्ट जो सब लोग शब्द स्पर्शादिकी क्रियामें कत्त त्वाभिमान करते हैं, वह सब अकृत्स्नवित् तथा मन्द हैं। कृत्स्नवित् (सर्ववेत्ता) उन सबकी विचालना करती नहीं ॥ २९ ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय १५६ . व्याख्या। जो कृत्स्न ( ब्रह्माण्ड ) को जानते हैं, वह कृत्स्नवित्ईश्वर ( कूटस्थ चैतन्य ) हैं, और अकृत्स्नवित्-जीव * हैं। जो जीव मन्द अर्थात् अलस-उद्यम विहीन है, वह अगर देहाभिमानी हो करके शब्दस्पर्शादि विषय-भोगमें रत हो, तो ईश्वर उसकी विचालना नहीं करता, अर्थात् "मृत्युसंसारसागरात् समुद्धर्ता" ईश्वर-कूटस्थपुरुष-उसे टालता नहीं, चिज्योतिके विकाशसे भीतरका अधियारा दूर कराके पथ देखा नहीं देते; वह अपनेको चालना करके चलते चलते विषय के भीतर चक्कर खाता रहता है ** ॥ २६ ॥ मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा । निराशीनिर्ममोभूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥३०॥ अन्वयः। मयि सर्वाणि कम्माणि संन्यस्य अध्यात्मचेतसा निराशी निर्ममः भूत्वा विगतज्वरः ( सन् ) युद्धस्थ ॥ ३० ॥ अनुवाद। मेरे ऊपर सर्व कर्भ अर्पण करके, आत्मामें मन रखके आशाममता शून्य होके शोक त्याग पूर्वक युद्ध करो ॥ ३० ॥ * अविद्याके वश करके जो आत्मविस्मृत है, जो इस शरीरके अध्यक्ष है, जो प्राणसमूहके धारयिता हैं, जो चेतन नाम पा करके भी स्वल्पज्ञ हैं वही पुरुष जीव हैं ॥ २९ ॥ ** जब तक कत्त त्व रहता है, ईश्वरमें आत्मसमर्पण न हो, तब तक ईश्वर बोम ठाते नहीं; जब आत्मसमर्पण हो गये, तत्क्षणात् प्रभु भार ले लेते हैं। दृष्टान्त है कि कुरुसभा स्थलमें वस्त्र हरण समयमें द्रौपदी जबतक बस्त्र पकड़ रख करके श्रीकृष्ण महाराज को बोलाती थी, तबतक कृष्णजी उपस्थित नहीं हुथे; जिस वक्त उसने वस्त्र छोड़ देकरके ऊद्ध बाहु हो करके श्रीकृष्णमें सम्पूर्ण आत्मसमर्पण कर दिया, उसी वक्त श्रीकृष्णने अन्तरीक्षमें दर्शन दे के बस्त्ररूपी हो करके उसकी ( द्रौपदीर्की ) रक्षा की थी॥ २९॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। जब चित्त एकमात्र श्रात्मा छोड़ करके और किसीकी चिन्ता न करेगा, तब ही अध्यात्मचित्त होवेगा। मनहीं मनमें * स्वरमें आत्म-मन्त्र उच्चारण करनेसे, तथा कर्णको उसी मन ही मनमें उच्चारित शब्दमें एकाग्र करके अर्पण करनेसे, आत्मचिन्ता करनो होती है, तब और कोई विषय मनमें स्थान नहीं पाता। साधन-समर-क्षेत्रमें ममताके वश विषादग्रस्त शिष्यको आत्मस्वरूप, सांख्ययोग, वेद, ज्ञान, तथा ब्राह्मी स्थिति-इस सबको एक एक करके समझाय देके कर्म करनेका प्रयोजन दिखलाके उसी कर्म करनेके उपाय समूहको शिष्यके मनमें बद्धमूल कर देनेके लिये, इस एकमात्र श्लोकमें संबद्ध किया है। सो उपाय समूह ये हैं (१) “मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य'-कर्म "हम" हीमें अर्पण करना पड़ता है। "हे नाथ ! यह मैं क्रियामें प्रवृत्त हुआ हूं, परन्तु किस प्रकारसे प्राणचालन और मन्त्र उच्चारण करना होता है, इसका रहस्य कुछ समझता नहीं, जानता भी नहीं; तुम दया करके जो करनेको है, वह मुझसे करालो"। इसी प्रकारसे मनका अभिमान त्याग करके, मनमें कत्र्तृत्व न रखके प्राण की स्वाभाविक गतिका आश्रय करके, गुरूपदेश जैसे समझा हुआ है, उसी तरहसे सुषुम्नाभार्गमें प्राणन्यास करना चाहिये ऐसा होनेसे ही "हममें कर्म सन्यास होता है।" (२) "निराशीः”।-साधारणतः मनुष्य दिनकी श्रान्ति दूर करने के लिये जैसे सब चिन्ता छोड़ करके रात्रिमें निद्राके लिये तैयार होते हैं,-मनमें सचेष्ट चिन्ता कुछ भी रहती नहीं, रखते भी नहीं; क्रियाके पूर्व में ठीक उसी प्रकार मनको विषय-चिन्तासे रहित करके क्रियामें प्रवृत्त होनेसे ही "निराशी" हुआ जाता है। • एक, दो, तीन, चार, पाँच, गिननेमें जितना समय लगता है, एक अकम्पन. आत्ममन्त्र उतना समय लेके उच्चारण करनेसे आयत स्वरमें उच्चारण होता है ॥३०॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय १६१ (३) "निर्ममः"-"मेरे” कहनेको कुछ नहों, "मैं" ही "मैं"इस प्रकार दृढ़ धारणासे निम्ममत्व आता है। (४) "विगतज्वरः।-क्रियाकालमें "और नहीं सकता हूँ. अब थोडासा दम ले लू; फलाना चीज वा फलाना काम थोड़ा करलू, पश्चात् क्रिया करेंगे"-इत्यादि प्रकार अलसता तथा कातरताका त्याग करके अर्थात् किसी प्रकारका सन्ताप अन्त:करणमें न ले करके जो अवस्थान है -- उसीको विगतज्वर कहते हैं। (५) "अध्यात्मचेता”- मनको कूटस्थमें बद्ध करके तत्पदका भावना और अर्थके साथ आत्ममन्त्रका उच्चारण करनेसे ही अध्यात्मचेता हुआ जाता है। उस प्रकार अवस्थापन्न होके अर्थात् उन सब अस्रोंसे सज्जित होके साधन-समरमें युद्ध करना होता है (प्रवृत्त होना पड़ता है)॥३०॥ ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः। श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥ ३१ ॥ अन्वयः। ये मानवाः श्रद्धावन्तः अनसूयन्तः ( सन्तः ) मे इदं मतं नित्यं अनुतिष्ठन्ति ( अनुवत्तन्ते ) ते अपि कर्मभिः मुच्यन्ते ।। ३१ ॥ अनुवाद। जो सब मनुष्य श्रद्धावान् तथा अस्याविहीन हो करके हमारे इस मतका नित्य अतुष्ठान करते हैं, वही सब मानव सकल कर्मसे मुक्त होते हैं ॥३१॥ व्याख्या। गुरु वेदान्त-वाक्यमें विश्वास और बाधाशून्य होकरके उसके अनुष्ठानमें रत रहनेका नाम श्रद्धा, और परगुणमें दोष न देखनेका नाम असूया-विहीनता है। जो पुरुषः गुरूपदिष्ट क्रियामें किसी प्रकारका दोष नहीं देखते हैं, अर्थात् "गुरुदेव मुझको यह कैसे काम काजमें लगाते हैं, यह कुछ नहीं है। इस प्रकारको चिन्ता नहीं Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ श्रीमद्भगवद्गीता रखते हैं, परन्तु गुरुवाक्यमें अटल विश्वास स्थापन करके क्रियामें प्रवृत्त होते हैं, और दिन पर दिन यथा नियम क्रम अनुसार क्रिया करते जाते हैं, दूसरे किसी कार्यको उपलक्ष्य करके वा आलस्य करके किसी दिन क्रिया समयमें आगा पीछा नहीं करते अथवा विरत नहीं होते, वही सब साधक कर्म द्वारा कर्मबन्धनसे मुक्ति पाते हैं, दूसरे नहीं पाते ( नीचेका श्लोक देखो ) ॥ ३१ ॥ ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् । सर्वज्ञानविमूढ़ांस्तान् विद्धि नष्टानचेतसः ॥ ३२ ॥ अन्वयः। ये तु मे एतत् मतम् अभ्यसूयन्तः ( निन्दन्तः सन्तः ) न अनुतिष्ठन्ति, अचतसः ( विवेकशून्यान् ) तान् सर्वज्ञानविमूढ़ान् नष्टान् विद्धि ।। ३२ ॥ अनुवाद। किन्तु जो सब मनुष्य असूयायुक्त होकरके मेरे इस मतका अनुष्ठान नहीं करते हैं, उन सबको विवेक शून्य सर्वज्ञानविमूढ़ तथा नष्ट ( विनाश प्राप्त ) कह करके जानना ॥ ३२ ॥ व्याख्या। जो सब मनुष्य पूर्व श्लोकके मतानुसार श्रद्धावान, असूयाविहीन तथा नित्य क्रियाशील नहीं हैं, (जो मनुष्य यथानियमसे प्रतिदिन क्रिया नहीं करते, पराये गुणमें दोष देते हैं, अपनी बड़ाई करते हैं, गुरूपदेशके अनुष्ठानमें उत्साह नहीं करते ), वह सब “अचेतस"-विवेकशून्य, अर्थात् वह सब मूढजना तत्व समूहका ज्ञानलाम नहीं कर सकते; अतएव मुक्ति तो दूर की बात है, वह सब "सर्वज्ञानविमूढ़" अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध-इन सब विषयोंके ज्ञानमें विमूढ़ (बात्मज्ञानहारा विषयमतवाले ) हो करके नष्ट होते हैं, अर्थात् संसारावर्त्तमें पड़ करके अचेतन सरिस चक्कर खाते रहते हैं, जानना। (श्रतएव साधक ! तुम अति सावधानीके .. साप तथा यतनके साथ आत्मक्रियामें रत होना ) ॥३२॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि । . प्रकृति यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥ ३३ ॥ अन्वयः। ज्ञानवान् अपि स्वस्याः प्रकृतेः सदृशं चेष्टते, भूतानि प्रकृति यान्ति, निग्रहः किं करिष्यति। ( प्रकृतिः यथा चेष्टते ज्ञानवान् तथा एव चेष्टते इति अपिशब्दार्थः) ।। ३३ ॥ अनुवाद। ज्ञानवान भी अपनी प्रकृतिके अनुरूप चेष्टा करते हैं। भूत सकल प्रकृतिमें जाते हैं, निग्रह करेगा क्या? ॥ ३३ ॥ व्याख्या। “सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः"-सत्त्व,रजः, तमः इन तीन गुणोंके साम्यावस्थाका नाम प्रकृति है। इस साम्यावस्थाके भंग हो जानेसे प्रकृति “परा” तथा “अपरा” इन दो अशमें विभक्ता हो करके क्रियाशीला होती है। "अपरा" भूमि, आप, अनल, वायु, खं, मन, बुद्धि और अहंकार-इन आठ प्रकारके हैं; "परा"-जीवभूता प्राणरूपा जगद्धात्री हैं। इनको अक्षर पुरुष कह करके भी किसी-किसी जगहमें सम्बोधन किया गया। ये सब ही यन्त्र स्वरूप, चैतन्य सहयोगसे ही क्रियायुक्त होती है। इन सबको प्राप्त हो करके ही "ममैवांशः” जीव बनते हैं। ., यह जीव जब परिपूर्ण होने के लिये व्रती होते हैं, तब वह ज्ञान... वान संज्ञा ले करके अपनी प्रकृतिके सदृश ही चेष्टा करते हैं, अर्थात् . क्रियाशीला प्रकृति जीवको अपनी अधीनतामें रखनेके लिये सतत . जिस प्रकारकी चेष्टा करती है, ज्ञानवान भी प्रकृतिको वश करनेके लिये ठीक उसी प्रकार चेष्टा करते हैं, अर्थात् "यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरं। ततस्ततो नियम्यैतत् आत्मन्येव वशं नयेत् " इस नियमके अनुसार आत्मक्रियामें रत रहते हैं। वैसी चेष्टा करनेसे, भूत सकल प्रकृतिमें जाता है, अर्थात् इन्द्रिय सकल साम्यावस्थाको प्राप्त होती है। यह आपही श्राप होता है, निग्रह करना नहीं होता Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ श्रीमद्भगवद्गीता (फिर निग्रह करनेसे भी नहीं होता) जीवके परम शिवमें अटक रहने से, चेतना भी उसी स्थानमें सिमट आती है, शरीरमें नहीं रहती; इस करके इन्द्रिय सकल निष्क्रिय होती हैं ॥ ३३ ॥ इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वषो व्यवस्थितौ। तयोर्न वशमागच्छेत् तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥ ३४ ॥ अन्वयः । इन्द्रियस्य इन्द्रियस्य अर्थ रागद्वषो व्यवस्थिते; तयोः (रागद्वेषयोः ) वर्श न आगच्छेत् , हि ( यतः ) तौ अस्य ( मुमुक्षौ परिपन्थिनौ ( विघ्नौ ) ॥३४॥ अनुवाद। शब्दस्पर्शादि अर्थ में प्रत्येक इन्द्रियोंका राग (अनुराग) तथा द्वेष है; यह राग द्वषके वशमें नहीं आता, क्योंकि राग द्वष मुमुक्षुके प्रतिरोधक अर्थात् विघ्न स्वरूप हैं ।। ३४ ॥ व्याख्या। प्रथम प्रथम प्रतिदिन क्रियामें समान सुविस्ता नहीं होता। कोई कोई दिन हो तो “श्रवण, मनन, कीर्तन, दर्शन" आदि होता ही नहीं। कोई कोई दिन एक हुआ, और एक नहीं हुआ। इस प्रकार होनेसे राग द्वष प्रकाश पाता है, अर्थात् क्रिया भलीभांती होनेसे क्रियाके प्रति अनुराग, न होनेसे क्रियाके प्रति विद्वष होता है; किन्तु उस प्रकार राग द्वषके वशमें आनेसे प्रकृति वश नहीं होता, ऐसा न होनेसे मुक्ति भी नहीं होता। उस सुविधा तथा असुविधामें अनुरक्त वा विरक्त न होके कर्त्तव्य पालन करनेसे जो आत्मप्रीति होती है वही मात्र लेके श्रीगुरुदेवके ऊपर निर्भर करनेसे, कमी प्राकृतिक चंचलता तथा वातपित्त कफादियोंके प्रकोप करके कोई विघ्न भी विनकर नहीं होता ॥ ३४ ॥ श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥ ३५॥ अन्वयः। स्वनुष्ठितात् ( साद्गुण्येन सम्पादितात् परधात् सकाशात् ) विगुणः स्वधर्मः श्रेयान् । स्वधर्मे निधनं श्रेयः पर धर्मः भयावहः ।। ३५ ।। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ तृतीय अध्याय अनुवाद। सु-अनुष्ठित पर धर्मसे विगुण स्वधर्म श्रेयस्कर है। स्वधर्ममें निधन ( मरना ) श्रेयः, परधम्मको भयावह जानो ॥ ३५ ।। ब्याख्या । शरीरमें "मैं”-वाचक पदार्थ जो है, वही "स्वं", और 'मेरा'-वाचक जो है वही “पर” है । 'मैं' कहनेसे श्रात्माको समझा जाता है, इसलिये आत्मा "स्व" । मेरा कहनेसे त्रिगुणमय चतुर्विंशति तत्त्वको समझा जाता है, इस कारण करके वह सबही “पर” है। आत्मा किस प्रकार ? *-'सच्चिदानन्दस्वरूपः" है। तीन कालमें जो समान रहते हैं, वही 'सत्', ज्ञान स्वरूप 'चित्' और सुखस्वरूप 'आनन्द' हैं। चौबीस तत्त्व किस प्रकार है ?--अर्थात् "असन्मयः, तामसः नित्यं विकारवान्” अर्थात् असत्य, परिणामी, अज्ञानतामय, और सतत विकारशील है। जो जैसा है, उसीकी वह अवस्था ही उसका धर्म है। अतएव स्वधर्म कहनेसे समझाता है कि-नित्यस्थायी ज्ञानमय सुखावस्था। परधर्म कहनेसे समझाता है कि-परिवर्तनशील अज्ञान अवस्था। ___ तीन गुणके साम्यावस्थामें निष्क्रियताके लिये आत्मधर्म, विगुण (वि= विगत, गुण ) है; और तीन गुणकी विषमतामें सर्वकर्म सम्पन्न होते रहनेसे परधर्म सु-अनुष्ठित है। साम्यही संसारमोचन है, वैषम्यही संसार-बन्धन है; इसीलिये विगुण स्वधर्म सुअनुष्ठित पर धर्मसे श्रेयः है। (निरन्तर निस्त्रैगुण्य अवस्थामें रह सकते नहीं इस करके, निस्वैगुण्य अवस्थामें रहनेके लिये साधना अभ्यासका कष्ट सहना भी अच्छा है, तथापि प्राकृतिक धर्म प्रवाहमें शरीर डाल करके अज्ञानताको सुख मानके मुर्दा सरिस बहते चला जाना अच्छा नहीं)। शरीर धारण करनेसे ही शरीर त्याग वा निधन (मृत्यु) अनिवार्य है। वह निधन प्रात्मधर्ममें रह करके होनेसे सच्चिदानन्द अवस्था ___* “आत्मा शुद्ध स्वयंज्योतिरविकारी निराकृतिः ॥ ३५ ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ श्रीमद्भगवद्गीता को प्राप्ति होती है, इसलिये वह श्रेयः है, और यदि परधर्ममें रह करके मृत्यु हो तो, लक्ष्य भ्रष्ट हो करके संसार वाले अज्ञानान्धकार में जन्म मृत्युके प्रवाहमें पड़ करके चक्कर खाना पड़ता है, इसलिये उसे भयावह जानो ॥ ३५॥ अर्जुन उवाच अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः । अनिच्छन्नपि वा य बलादिव नियोजितः ॥ ३६॥ अन्वयः। अर्जुन: उवाच । हे वार्ष्णेय ! अय पुरुषः ( देही ) अनिच्छन् अपि केन प्रयुक्तः ( सन् ) बलात् नियोजितः इव पापं चरति ? ॥ ३ ॥ अनुवाद। अर्जुन कहते हैं। हे वार्ष्णेय ! इच्छा न करनेसे भी बल पूर्वक नियोजित जसे, यह पुरुष किसके द्वारा प्रयुक्त होके पापाचरण करते रहते हैं ॥३६।। व्याख्या। क्रियावान साधक अच्छी तरह समझते हैं कि ३० तथा ३३ श्लोकके उपदेश अनुसार क्रिया करनेसे ही स्थिर भाव आता है, जगत्को भूल जाया जा सकता है, आत्मगतिकी प्राप्ति होती है, किन्तु क्रियाकालमें देखते हैं कि-क्रिया होती है, अच्छी तरह होती है, लक्ष्य कूटस्थमें अच्छा रहा है, उसे छोड़ करके दूसरी तरफ लक्ष्ये देनेमें जरासी भी इच्छा नहीं; इच्छा न रहनेसे भी क्या जाने किस अनजान शक्तिसे जबरदस्ती मनको दूसरी तरफ ले जाके लक्ष्यभ्रष्ट कराके नाना प्रकार चंचलतामें फेंकती है। इसलिये आत्म-जिज्ञासामें अनुसन्धान करते हैं कि, ऐसा क्यों होता है, इसका कारण क्या है ? (वार्ष्णेय शब्दके अर्थ १० म अः ३७ वा श्लोकमें देखो ) ॥ ३६ ।। श्रीभगवानुवाच। काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः । महाशनो महापाप्मा विद्वयेनमिह वैरिणम् ॥ ३७॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच । एषः रजोगुणसमुद्भवः महाशनः ( दुष्पूरः ) महापाष्मा ( अत्युग्रः ) कामः, एष क्रोधः ; एनं ( कामं ) इह ( अत्र योगमार्गे ) वैरिणं विद्धि ॥ ३७॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय १६७ अनुवाद। श्राभगवान कहते हैं। यह रजोगुणसे उत्पन्न हुआ दुष्पूरणीय अत्युग्र काम-यह क्रोध है, यहां (मोक्षमार्गमें ) इसको बरी ( शत्रु ) कहके जानो ॥ ३७॥ व्याख्या। साधक आत्मानुसन्धानमें जानते हैं कि काम ही इसका कारण है। कुछ किसीको लेने पानेकी इच्छा जैसे काम है, तैसे ही न लेनेकी तथा त्याग करनेकी इच्छा भी काम है। यह काम आज्ञा-मूलाधार-विस्तृत रजोगुणसे प्रकाशित होता है, क्योंकि आकांक्षा ही रजोगुणकी क्रिया * है। प्राणायाम करते करते जबतक मन ब्रह्मनाड़ी होकर आज्ञामें प्रवेश नहीं करता है, तबतक उस आकांक्षा और विषयका आकर्षण रहता है, मनको खोंच लेनेकी चेष्टा करते हैं, ऐसे कि अनजान भावसे ले भी लेते हैं। यदि वो खींचाई इच्छाके अनुकूल हो, तो काम आनन्दमें परिणत होता है; और यदि प्रतिकूल हो तो, आक्रोश रूपसे दिखाई देता है। वस्तुतः आनन्द और आक्रोश काम ही के दो प्रकारके परिणाम-फल हैं। यह दोनों प्रकारके फल कार्य्यतः एकही हैं, क्योंकि दोनों ही मनको विषयमें श्राबद्ध करते हैं। परन्तु आक्रोशकी अनिष्टकरी शक्ति अधिक कह करके उसके ऊपर जोर लगाके, कोधनामसे कहा हुआ है। यह काम मनको मोहित करके आत्महारा, दिशाहारा करके, उसकी ऊर्द्धगति का रोध करता है। इसलिये काम बरी है। फिर अनन्त काल भोगविलासमें डूबे रहनेसे भी काम पूर्ण नहीं होता, इसलिये काम महाशन है, और किसी एक चीजको प्राप्त होकरके स्थिर भी नहीं होता, इससे काम महापाप्मा है। (इच्छा अनिच्छा कुछ न रखके कर्म फलका भी लक्ष्य न करके कर्त्तव्य बोधसे क्रियाका आश्रय करनेसे और चंचलतामें पड़ने नहीं होता)॥३७ ॥ * सत्वको क्रिया-सुप्ति (प्रकाश), समीकी क्रिया-सिाति..३७ ।।. . Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ श्रीमद्भगवद्गीता धूमेनानियते वह्निर्यथा दर्शो मलेन च । यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥ ३८ ॥ अन्वयः। यथा वह्निः धूमेन दर्शः च (दर्पणः च) मलेन आत्रिवते (आच्छाद्यते), यथा गर्भः (भ्रणः ) उल्बेन ( गर्भवेष्टनचर्मणा ) आवृतः, तथा ( प्रकारत्रयेणापि ) तेन ( कामेन ) इदं ( आत्मज्ञानं ) आवृतम् ॥ ३८॥ अनुघाद। अग्नि जसे धूमसे आवृत रहती है, मयलेसे दर्पण जैसे मंपा रहता है, और उल्ब (गर्भवेष्टन चमड़ाकी थेली ) से जैसे गर्भ झपा रहता है, तद्र प कामसे आत्मज्ञान मंपा रहता है ।। ३८ । व्याख्या। अपना रूप और कर्तृत्व फल देखना ही मनुष्यकी आकांक्षा तथा कामना है। यह आकांक्षा-निष्काम सकाम सकल कार्यकी जड़में है, न रहनेसे कार्यका प्रारम्भ होता ही नहीं। किन्तु इस आकांक्षा अर्थात् कामको ही फिर योगमार्गमें आकांक्षा पूरणके अन्तराय तथा प्रावरण स्वरूप जानना। कर्म उपासना और ज्ञानसाधनाकी ये जो तीन अवस्थायें हैं, उन तीन अवस्थाओंमें काम कैसे तीन प्रकारका आवरण स्वरूप होता है, उसे समझानेकी सुविस्ताके लिये तीन दृष्टान्तसे प्रकाश किया गया है। प्रथम उपमा। अग्निमें धूआँका आवरण है। दो लकड़ीको परस्पर घिसनेसे, जो तापकी वृद्धि होती है, वह ताप क्रम अनुसार अग्निमें परिणत होता है। जैसे अग्नि निकल आवे, साथ ही साथ धूआँका भी प्रकाश होता है। साधन में भी ठीक वैसे ही है। प्रथम कर्भावस्थामें प्राणका आलोड़न करके सुषम्नामें धक्का लगते रहनेसे, उससे एक तेज निकल कर व्याप्त होके भीतर भीतर सर्व शरीरको उत्तेजित करता है। उसी तेजसे बुद्धि भी अन्तमुखी होती है। तब अन्तरमें कैसी एक ज्योति खिल उठती है। वह ज्योति हो ज्ञानज्योति है। उस ज्योतिके तेज करके, लकड़ी प्रभृतिसे धूआँ सदृश, Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय १६६ सर्व-शरीरसे एक भाप तथा मनमें पूर्व पूर्वकृत कर्म सकलकी स्मृति उठके अन्तराकाशको छा डालता है, ज्ञानरूप अग्निकी ज्योति भी ढक पड़ती है। किन्तु काष्ठके धूआँ ढका अग्निमें वायुका धक्का लगनेसे जैसे धूआँ हट जाके अग्निका जोर होता है, ज्योति खिल बाहर आती है; साधनामें भी वैसे, धीरज धरके स्थिरासनमें लगा रहके आवेगके साथ आत्ममन्त्रसे प्राणचालना करनेसे वो सकल पूर्व स्मृति तथा शरीरको ज्वाला यन्त्रणा सब मिट जाती है; ज्ञानका तेज प्रबलतर होता है; और ज्योति खिल उठ करके अन्तराकाशको ज्ञानालोकसे आलोकित कर देती है । द्वितीय उपमा -आईनामें मलका आवरण है। आईनाके ऊपर मुख लगायके जम्हाई (जम्भन ) लेनेसे जैसे एक भाप सरिस मयला पड़ता है, यदि आईनाके ऊपर उसी प्रकारका या दूसरा किसी प्रकार का गाढ़ा मैला रहे तो उस आईनामें कोई किसीका विम्ब प्रतिफलित नहीं होता, किन्तु यदि वो भयला छटा दिया जाय, झाड़ पॉछके साफ किया जाय तो आईनेकी स्वच्छता प्रकाश पावे, और उसीमें प्रतिफलन क्रिया भी होती रहे। साधनाके प्रथम अवस्थामें कर्म द्वारा अन्तराकाशके आलोकित होनेके बाद, उपासनामय द्वितीय अवस्था आती है। तब कूठस्थमें लक्ष्यस्थिर करनेसे ही, क्रम अनुसार श्वेत स्निग्धोज्वल एक ज्योतिमण्डल दर्शनमें आता है, वोही चिदाकाश है। वो मण्डल आईना सरिस स्वच्छ कह करके, जो कुछ है वह समस्त ही उसीमें प्रतिफलित सदृश प्रत्यक्ष होता है; किन्तु प्रथमावस्थामें वह कश्मलसे ढका रहता है। वह कश्मल नाना प्रकारके होनेसे भी, उसको अतीव सूक्ष्मावस्थामें वह बहुत धुना हुआ रुई अथवा बहुत पतला दुधिया मेघ सरिस सफेद दिखाता है । बाफसे मयले ढके आईनेमें अच्छी चमचमाहट रहनेसे भी उसमें जैसे प्रतिविम्बपात नहीं होता, वैसे दुधिया मेघ सदृश आवरण रहने Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० श्रीमद्भगवद्गीता से भी उस मण्डलमें कुछ भी प्रतिविम्बित होता नहीं। सुषम्ना मार्ग में श्लेष्मा सूख जाके प्राणवायु सूक्ष्म अथच तेजीसे प्रवाहित होके सर्व शरीर में वधु तिक तेजकी वृद्धि होनेसे, उसी तेज करके मनके विषयसंस्रव नष्ट हो आनेसे, कश्मल राशि सब उड़ जाता है; तब वह मंडल अति परिष्कोर स्वच्छ भाव धारण करता है। उस समय उस मण्डलके भीतर अंडाकार एक विम्ब देख पड़ता है। वह अण्डाकार विम्ब कपोतके गण्ड सरिस चमकीला गाढ़ा काला रंगके, किन्तु कभी कभी गला हुआ सोनेके पत्तरसे घेरा हुआ तथा कभी एकदम सुवर्ण वर्णका भी दिखाता है। वह सफेद काला मिला हुआ क्षेत्र देखनेमें ठीक जैसे एक चक्षु है ; उसको ही तत्पद कहते हैं- "दिवीव चक्षुराततम्"। तृतीय उपमा-गर्भमें उल्बका आवरण है। गर्भमें जरायुके भीतर जीव एक जल भरे हुये महीन चमड़ेकी थेलीके भीतर रहता है। उसी चमड़े वाली थलीका नाम उल्ब वा जीवकोष है। जब जीव उसके भीतर रहता है, तब उस उल्बका, आकार ठीक एक अण्डके सदृश होता है। उल्ब जबतक फट न जाय, तबतक जीव प्रसूत नहीं होता, टूट जानेके बाद और जरायुमें रहता भी नहीं, बाहर निकल आ पड़ता है। साधनाके समय ज्ञानज्योति करके अन्तराकाशके "चित्" आईनामें जो अण्डाकार विम्ब देख पड़ता है, वही विश्वकोष वा ब्रह्माण्ड * है। उस कोषके भीतर परम पुरुष "वेदान्तकृत” अवस्थित हैं। इसलिये वह उल्ब स्वरूप है। इस तृतीय अवस्थामें काम उस कोषरूप धरके ज्ञानमयको ढक रखता है। जबतक वह उल्बरूप कोष भेद न हो, तबतक वह पुरुष इसमें आवृत ही रहते हैं। एक मात्र अन्तर शाम्भवोसे वो कोष भेद होय जाता है ।** * मनुके सष्टि प्रकरणमें यही "सहस्रांशुसमप्रभ हैमं अण्डं' है ।। ३८ ॥ ** कूटस्थ भेद करमका उपाय ३य अः २६ श्लोककी व्याख्या है ॥ ३८ ॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१५ तृतीय अध्याय असल बात यह है कि, साधनाके समय काम प्रथम धूनांका आकार धारण करके अन्तर्योतिको ढंक रखता है। पश्चात् ज्योति खिल श्रानेसे चित्-सदृश आकार धरके चित् शरीरमें लिपटा रहके चित्-क्षेत्रको ढंक रखता है; परिशेषमें चित्तके प्रकाशित होनेके बाद अण्डाकार आवरण रूपसे परागति परम पुरुषको ढंक रखता है। एक कामहो इन तीन रूपसे प्रकाश होता है। इन तीन अवस्थामें इन तीन आवरण के क्षय कर सकनेसे ही परम पुरुषार्थ-लाभ होता है ॥ ३८॥ श्रावृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा । कामरूपेण कौन्तेय दुष्पुरेणानलेन च ॥ ३६ ।। अन्वयः। हे कौन्तेय ! ज्ञानिनः नित्यवेरिणा ( चिरशत्रणा ) एतेन कामरूपेण दुष्पूरेण अनलेन च ज्ञानं आवृतं ।। ३९ ।। अनुवाद। हे कौन्तेय ! ज्ञानियों का नित्य बैरी इस कामरूप दुष्पूरणीय अनलके द्वारा ज्ञान आवृत ( झपा ) रहता है ॥ ३९ ॥ व्याख्या। ज्ञान, ज्ञेय, तथा ज्ञाता-इन तीनका मिलके एक होना ही परम पुरुषार्थ है। इसके भीतर ज्ञाता-जीव है, ईय-- शिव वा परमब्रह्म है तथा ज्ञान-शक्ति एवं अवस्था विशेष है। ज्ञानसे ही ज्ञेयको जाना जाता है। जब विचार और अनुमानसे समझ में आता है कि, सबही ब्रह्म तथा ब्रह्म ही सब हैं, तब ज्ञान शक्ति है; और जब लययोगके अनुष्ठान-फल करके : योगमें लय प्राप्त होनेके बाद) समाहित होके पुनः खंखार-मार्गमें उतर आ करके देखा जाता है कि, मैं ही मैं वा ब्रह्म हूँ, तब ज्ञान अवस्था * है। इस ज्ञानके भिन्न भिन्न स्तर और परिमाण हैं, उसीके अनुसार ज्ञानियोंके भी _* इस ज्ञानका प्रथम परोक्ष ज्ञान और दूसरा अपरोक्ष ज्ञान है। “अस्ति ब्रह्मति चेत् वेद परोक्षज्ञानमेव तत् । अहं ब्रह्मति चेत् वेद साक्षात्कारः स उच्यते।" इति पंचदशी।। ३९॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ श्रीमद्भगवद्गीता भिन्न भिन्न क्रम है। इसलिये जो अन्तर्मुखी वृत्ति लेके आत्मानुसन्धानमें यत्नशील हैं, वह भी ज्ञानी हैं; और जो ज्ञानकी ऊर्द्ध सीमा में उठ जाके ज्ञानकी स्वरूप-अवस्था पा चुके, वह भी ज्ञानी हैं। पृथकता यह है कि, प्रथम सोपानके निम्नतमस्तरमें, और द्वितीय ऊर्द्धतम स्तरमें अवस्थित है। जो आज्ञा पार होके ऊर्द्धतम स्तर में स्थिति लाभ किये हैं, वह पुरुष जीवन्मुक्त है-उनके सकल श्रावरण क्षय हो गये। परन्तु जो आज्ञाके नीचे हैं, उनका मन अकांक्षाकी खिंचाई में रहनेसे, अन्तःकरणमें नये-नये (पुरानेको नवीन बनाय करके ) भोगकी इच्छायें उठती रहती हैं, यह इच्छा पर्दाराशि सदृश सन्मुखमें खड़ी रहके जिस ज्ञान-ज्योतिसे अन्तर्जगत् लक्ष्य होते आवें, वही ज्योतिको झाप देवे; जिसे करके अन्तष्टि खुलती नहीं । मनको अभ्यास और वैराग्यसे इच्छारहित करनेसे भी प्रकृतिका ऐसा ही प्रभाव है कि, अनजान भाव करके भी मन इच्छाके वशमें आ पड़ता है। इसीलिये काम ज्ञानियोंका नित्यबैरी है *। और भी यह अनलके स्वरूप है । अनल पर प्रकाशके होनेसे भी अपने, काष्ठ सरिस किसी आश्रय बिना प्रकाशको नहीं पाता; फिर वह आश्रयको ही सन्तप्त, दग्ध और नष्ट करता है। आश्रय जबतक रहता है, तबतक ही अनलका प्रकाश है, आश्रय क्षय हो जानेसे ही अनल भी विलुप्त होता है। पर्वत प्रमाण जलनेवाले द्रव्यका संयोगसे भी अनलका परिपूरण नहीं होता, वरंच वे अनल क्रमशः अधिकसे अधिकतर शिखा विस्तार करके ग्रास करता रहता ही है। तद्वत् काम भी अपने आश्रय मनको ___* अज्ञानियों के लिये बिषय-भोग-समयमें काम सुखके हैं, किन्तु उसके परिणाम फल करके सो दुःखके हैं। ज्ञानीको तदर्थीय कर्म बिना दूसरे विषयभोग मात्र ही दुःखके जानों; क्योंकि, मनमें कामनाका संचार होनेसे ही अन्तराकाशमें कमल आवे, आत्मज्योति भी झप जावे । काम मनको जवही आकर्षण करे, तबही साधकको दुः-ख विना सु-ख नहीं होता। इसलिये काम ज्ञानीका नित्यवैरी है ॥ ३९ ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय १७३ सन्तप्त करता है, तथा विषय-संसर्ग करके धीरे धीरे बढ़ता है । आश्रयविहीन होनेसे अनल जैसे बुत जाता है, विषय त्याग होनेसे काम भी तैसे ही नाशको पाता है ॥ ३६ ॥ . इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते । एतेर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥ ४०॥ अन्वयः। इन्द्रियाणि मनः बुद्धिः अस्य ( कामस्य ) अधिष्ठानं ( आश्रयः) उच्यते । एषः ( कामः ) एतः ( इन्द्रियादिभिः ) ज्ञानं ( विवेकज्ञानं ) आवृत्य देहिनं विमोहयति । ४०॥ अनुवाद। इन्द्रिय सकल, मन और बुद्धि--इन सबको कामके आश्रय कहते हैं। यह काम इनहो सबसे विवेक ज्ञानको ढक रखके देहीको विमोहित करता है ॥४०॥ ' व्याख्या। त्याग-ग्रहणादि क्रिया कम्र्मेन्द्रियोंसे, दर्शन-श्रवणादि क्रिया ज्ञानेन्द्रियोंसे, और ध्यान-धारणा वा संकल्प-अध्यवसायादि क्रिया मन-बुद्धिसे होता है। इसलिये इन्द्रिय सकल, मन और बुद्धि, काम वा इच्छा का आधार है। ज्ञान भी इन्द्रिय-मन-- बुद्धिमें ही प्रकाश पाता है। इसलिये ज्ञान और काम परस्पर विरोधी है, एकके प्रबल होनेसे ही दूसरेका लोप होता है। तब काम और ज्ञानके भीतर विशेषता यही है कि, काम वा विषयेच्छा उर्द्धदिशामें आज्ञास्थित बुद्धि-क्षेत्र पर्यन्त ही आश्रय पाता है, इसके ऊर्द्धमें और जा नहीं सकता; किन्तु ज्ञान जा सकता है। ज्ञान प्रबल होनेसे समूची इन्द्रिय-मन-बुद्धिके पथ आलोकित करके खिले हुए आत्माको खिलाय देती है, देहीको सर्वदी करती है, और आप भी माया-ब्रह्म की सन्धि पर्य्यन्त विस्तृत होती है। किन्तु काम वा प्राप्ति की इच्छा जो जीव मात्रको हो प्रबल है इसमें और सन्देह नहीं, क्योंकि, मनमें कामना रहनेके लिये यह जीवदेह है, नहीं तो और जनम लेना होता ही नहीं। इसलिये गीले काष्ठमें जैसे आग नहीं लगती, तैसेही मनमें Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ श्रीमद्भमवद्गीता कामनाके वर्तमान समयमें ज्ञानको ज्योति नहीं खिलती इसलिये हृदयाकाश विषयान्धकारसे ढका रहता है, देहीकी दृष्टि ऊंचे दिशामें विषय बिना श्रात्मपथको देखने नहीं पाता। तब काम मन-बुद्धिइन्द्रियोंमें विषयवाले मोहिनी रूपकी तरंगको उठाके, देहीको मोहित करके आत्महारा कराके-विषयमें नित्य सत्य ज्ञानका भ्रम लगा करके भ्रममें फेंकता है ॥४०॥ तस्मात् त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ। पाप्मानं प्रजहि ह्यनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥४१॥ अन्वयः। हे भरतर्षभ ! तस्मात् ( हेतोः ) त्वम् आदौ इन्द्रियाणि नियम्य ज्ञानीवज्ञाननाशन पाप्मान ( पापरूपं ) एनं ( कामं ) हि ( स्फुट ) प्रजहि ( न शय, परेत्यज वा ) ॥ ४१॥ अनुवाद। हे भरतश्रेष्ठ ! इसीलिये तुभ पहले ही इन्द्रिय सकलको संयत करके ज्ञान-विज्ञान-नाशक ( नाश करनेवाले ) पापमय इस कामको सम्पूर्ण रूपसे विनष्ट करो ( परित्याग करो ) ।। ४१ ।। व्याख्या : प्रदीपकी ज्योति जैसे वत्ती न रहनेसे तेलको जलाय नहीं सकती, वैसेही काम भी इन्द्रियादिके सहारा न पानेसे विषय भोग कर नहीं सकता। फिर वत्ती संयत (दृढ़ कठिन ) होनेसे उसके भीतरसे तेलको सोखनेको न पाके जैसे शिखा बुत जातो है, वैसेही इन्द्रिय सकलको संयत ( बाहरके विषयमें जाने न देके अन्तरके अविषयमें * अटक ) करनेसे, उन सबसे और विषय भोग होता नहीं, *जाग्रत अवस्थामें जो दर्शन श्रवण होता है, वह सब बाहरके हैं, स्थूल शरीरमें ही उनका भोग होता है; उन सबको बहिविषय कहते हैं। किन्तु योगावलम्बनमें सकल इन्द्रियों को निरोध करके जो देखा सुना जाता है, वह बाहरका नहीं भीतरका है; अतीव सूक्ष्म कह करके वह सूक्ष्म शरीरमें भोग होता है; उन सबको अन्तविषय कहते हैं। यह अन्तविषय ही अविषय है। अन्तविषय गुण वा शक्ति स्वरूप है, बहिविषय उसके कार्य है ॥ ४१॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय इस करके काम आपही आप नाश पाता है त्याग हो जाता है; इसीलिये इस श्लोकका उपदेश यह है कि, पहले इन्द्रिय सकल संयत करना * पड़ता है। ऐसा होनेसे ही कामको नाश वा त्याग किया जा सकता है। कामको नाश अथवा त्याग न करनेसे ज्ञान विज्ञानकी स्फूर्ति नाश होती है और विषय-चांचल्य रूप पापकी वृद्धि होती है । ___ ज्ञान-जजायमान, बगन्धानु अर्थात् विषय, श्रा=आसक्ति, नम्नास्ति; उत्पत्ति-स्थिति-नाशशील पार्थिव विषयमें आसक्ति न रहना ही ज्ञानका अक्षरगत अर्थ है। विज्ञान ( वि-विशेष )-विशेष ज्ञान । समष्टि चैतन्यका स्वरूप-बोध ज्ञान है व्यष्टि चैतन्यका स्वरूप-बोध विज्ञान । अर्थात् आत्मामें लोन होनेके बाद जो आत्मज्ञान होता है, वही ज्ञान है; और पृथिवीसे आदि लेके तत्त्व-समूहका जो ज्ञान है उसीको विज्ञान कहते हैं। और भी थोड़ा-सा स्पष्ट करके,-आत्मा हो सब इस इंढ़ धारणामें जो चैतन्य लाभ होता है, उसीको ज्ञान कहते हैं; ज्ञानका सहायता करके पुखानुपुख रूप आलोचनासे तत्त्व समूहके पृथक रूपमें विशेष प्रकारके जो पूर्ण स्वरूपबोध होते हैं, वही विज्ञान है । सीधी बातमें, “सोऽहं"-यह ज्ञानही ज्ञान है, इस ज्ञानको छोड़ करके और जितना है वह सब विज्ञान है । ज्ञान और विज्ञान परस्पर सापेक्ष है। ज्ञानके परिपाक भोगके बाद निम्न दृष्टि होनेसे ही विज्ञान लाभ होता है, और विज्ञानका परिपाकके बाद ऊद्धमें स्थिर दृष्टिके अटक रहनेसे ही ज्ञान लाभ होता है।। ४१ ॥ * साधनामे पहले पहले अन्तरके अविषयको धारणा ही नहीं होती। तब केवल गुरु-दशित पथमें सतत लक्ष्य तथा गुरुवाक्यमें अटल विश्वास रखके, मूढ़ सरिस यथा विधि क्रिया करनेसे ही, अन्तरके भीतर प्रवेश करनेको शक्ति आती है; पश्चात् संयम अभ्याससे किसी प्रकारको आयास पाने नहीं होता। अभ्यासके मियम षष्ठ अः में देखो॥४१॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ श्रीमद्भगवद्गीता इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतन्तु सः ॥ ४२ ॥ अन्वयः। इन्द्रियाणि पराणि आहुः, इन्द्रियेभ्यः मनः परं, मनसः तु बुद्धिः परा, तु ( किन्तु ) बुद्ध : परतः यः ( तत्क्षाक्षित्वेनावस्थितः ) सः ( एव देहीशब्दोक्त आत्मा ) ॥ ४२ ॥ अनुवाद। इन्द्रिय सकल को श्रेष्ठ कहते हैं। मन इन्द्रियांसे श्रेष्ठ है। मनसे श्रेष्ठ बुद्धि है। किन्तु बुद्धि से जो श्रेष्ठ है वही देही है ।। ४२ ॥ व्याख्या। इन्द्रिय दश हैं, पांच ज्ञानसाधन और पांच कम्मसाधन हैं, इन दश इन्द्रियोंसे ही बहिविषयका भोग होता है। स्थूल पदार्थ मात्र ही बहिविषय है, पंच सूक्ष्म भूतोंके पंचीकरणसे ही उत्पन्न होता है। यह स्थूल बहिर्नोग्य पदार्थसमूह शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध रूपसे भोग होता है, भोग करने का कारण होता है इन्द्रिय इसलिये इन स्थूल देहादि बहिर्नोग्य पदार्थसे इन्द्रिय सकल श्रेष्ठ है। किन्तु इन्द्रिय सकल शब्दादिका गुणवाचक पदार्थ वा शक्तिसे आबद्ध एवं चालित है। यही गुणवाचक पदार्थ ही अन्तर्विषय वा तन्मात्रा,जो योगावलम्बनसे सकल इन्द्रिय रोध करके सूक्ष्म रूपमें शरोरके भीतर भोग किया जाता है, जो कारण स्वरूप, और इन्द्रिय सकल जिसके करण तथा बहिविषय जिसके कार्य हैं। अतएव यह अन्तविषय इन्द्रियकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। उपनिषत्में इस अन्तविषयको "अर्थ' कहके उल्लेख किया हुआ है * और इन्द्रियसे श्रेष्ठ कहा हुआ है। परन्तु गीतामें इसका उल्लेख नहीं; इसका कारण, कायके कारण • "इन्द्रियेभ्यः पराः पर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः । मनसन्तु पराबुद्धिः बुद्धरात्मा महान् परः॥ महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषो परः। पुरुषाम्न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परा गतिः"-कठोपनिषत् ।। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय १७७ और करण विचारत भिन्न होनेसे भी क्रियामें एकही दिखाते हैं। इस अन्तविषयकी अपेक्षा मन श्रेष्ठ है। कारण, मन पंच महाभूतोंके समष्टि सात्विकांशसे उत्पन्न हुआ है, और दश इन्द्रिय पंच महाभूतों के पृथक सात्तिकांश और पृथक् राजसांशसे उत्पन्न, मनके संकल्पविकल्पसे ही चालित है। मनकी अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ है; कारण मन अन्धा है, बुद्धि प्रज्ञावती है; मनकी क्रिया विचार विहीन त्याग-प्रहण, और विचारसे सत् असत् निश्चित करनेकी क्रिया बुद्धिकी है। इस बुद्धिके भी ऊपर जो है, वही आत्मा है। यह आत्मा सकलके साक्षी स्वरूप हो करके सकलके अन्तरमें अवस्थित है; यही देही है; इसको काम विमोहित करता है, किन्तु स्पर्श कर नहीं सकता। (यही देही जीव वा आत्मतत्त्व है, आत्मतत्त्वसे महत्तत्त्व श्रेष्ठ है; महत्से अव्यक्त और अव्यक्तसे पुरुष श्रेष्ठ है, पुरुषके ऊपर और कुछ नहीं; वह पुरुष ही परागति है ) ॥४२॥ एवं बुद्धः परं बुद्ध, संस्तभ्यात्मानमात्मना। जहि शत्रं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥ ४३ ॥ अन्वयः। हे महाबाहो। एवं बुद्धः परं ( आत्मानं ) बुद्धा ( ज्ञात्वा ), आत्मना ( आत्मबुद्धया) आत्मानं (कामस्य अधिष्ठानं इन्द्रियादीनी ) संस्तभ्य ( संयम्य, निश्चलं कृत्वा ) कामरूपं दुरासदं ( दुद्धर्ष) शत्रुजहि ( मारय ) ॥४३॥ अनुवाद। हे महाबाहो ! आत्माको इस प्रकार बुद्धिसे श्रेष्ठ जानके, आत्मासे मन बुद्धि इन्द्रिय सकलको निश्चल करके दुर्द्धर्ष कामरूप शत्रुका विनाश करो ॥४३॥ व्याख्या। बुद्धि कामके आश्रय कह करके, विषय और इन्द्रियोंके संस्रवमें विकार प्राप्त होती है; किन्तु अात्मा निर्विकार है, इन सबका साक्षी स्वरूप है; अतएव आत्मा बुद्धिसे भी श्रेष्ठ है। हे साधक ! यही आत्मा तुम हो अर्थात् तुम्हारी प्रकृत स्वरूप है। तुम अपनेको इस प्रकार बुद्धितत्वसे भी श्रेष्ठ जान करके, निश्चयात्मिका बुद्धि वा -१२ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ श्रीमद्भगद्गीता आत्मबुद्धि द्वारा अर्थात् “मैं सबसे श्रेष्ठ तथा निर्विकार हूँ, काम मुझको स्पर्श कर नहीं सकता, तिसपर भी जो मैं विमोहित होता हूँ, वह मेरा भ्रममात्र है-जैसे लड़के लोग चक्करवाले खेलमें घूमते घूमते आंख मूंदकर गिर पड़ते पश्चात् पृथिवीको घूमते देखते हैं, वैसी दशा मुझे भी है, मैं लगा लेता हूँ मात्र" इस प्रकार दृढ़ विश्वासके साथ मनको स्थिर निश्चल करो, ऐसा होनेसे ही मन “मैं-मय” हो जावेगा। मन कामके सचारक होनेसे भी, काम और उसमें सश्चरण कर नहीं सकेगा इसलिये कब्जेमें ( वशमें ) आवेगा, तब उसका विनाश भी किया जावेगा। कामको जय तथा नष्ट करनेके लिये यही एक मात्र उपाय है, इसीलिये कामको "दुरासद” ( अतिकष्ट करके वायत्त किया जा सकता है ) कहा गया॥ ४३ ॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसम्वादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोऽध्यायः श्रीभगवानुवाच । इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् । विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥१॥.. एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥२॥ अन्वयः। श्रीभगवानुवाच । इमं अव्ययं ( अक्षयं ) योग अहं विवस्वते ( सवितारं ) प्रोक्तवान् , विवस्वान् मनवे प्राह, मनुः इक्ष्वाकवे अब्रवीत्। एवं परम्पराप्राप्त इमं ( योगं ) राजर्षयः विदुः ; हे परन्तप ! सः योगः महता कालेन ( कालवशात् ) इह ( लोके ) नष्टः (विच्छिन्नः ) ॥ १॥२॥ - अनुवाद। श्री भगवान कहते हैं। इस अव्यय योग मैंने विवस्वानसे कहा था विवस्वानने मनुसे तथा मनुने इक्ष्वाकु को कहा था। इस प्रकार परम्पराप्राप्त उस योगको राजऋषिगणने जान लिया था। हे परन्तप ! वह योग पश्चात् महत् कालके वशमें इस लोकसे नष्ट हो गया ॥ १॥२॥ व्याख्या। द्वितीय तृतीय अध्यायमें सांख्ययोग और कर्मयोग की वर्गना किया गया उसी दोनोंको निर्देश करके इस श्लोकमें "इमं योग" कहके व्यक्त किया गया। सांख्ययोग है अनुमानसिद्ध ज्ञान, और कर्मयोग है अनुष्ठानसिद्ध ज्ञान। केवल अनुमान (ज्ञान ) से कार्य नहीं होता, केवल अनुष्ठान (कर्म) से भी काम नहीं होता, इन दोनोंका (ज्ञान-कर्मका) समावेश (योग) चाहिये; इसलिये अनुमान और अनुष्ठान एक होनेसे जो ज्ञान होता है, वही यह ज्ञानयोग - द्वितीय तृतीय अध्यायका (सांख्य-कर्मका) समष्टि ज्ञान है। इस श्लोकका योग शब्दके अर्थ में ज्ञान वा ज्ञानयोग समझना Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० श्रीमद्भगवद्गीता होगा। यह ज्ञान इस चतुर्थ अध्यायमें वर्णना किया हुआ है इससे इस अध्यायका नाम है ज्ञानयोग। ज्ञानयोग जो सनातन-अव्यय, वही समझानेके लिये इस श्लोकमें ज्ञानयोगका विस्तारक्रम देखा देके, ज्ञानयोग कैसे अब लोपको पा गया, उसका कारण निर्देश किया गया है। योग-क्रिया द्वारा जो "कोटीसूय्यप्रतीकाशं चन्द्रकोटो सुशतिलं" ज्योतिर्मण्डल देखनेमें आता है, वही विवस्वान् वा सविता है, वह स्वप्रकाश है, उसीके ज्योति करके विश्व प्रकाशित है। उस सविताके उदय होनेके बाद, उसमें चित्त स्थिर रखनेसे हो, “सवितृ-मण्डलमध्यवत्तीर्नारायणः" गोलोकनाथ प्रत्यक्ष होते हैं; वही अहं-कूटस्थचैतन्य श्रीकृष्ण है। उस विवस्वानसे ज्ञानस्रोत ( चिज्ज्योति-प्रवाह ) नीचे मुखमें प्रवाहित हो करके अन्तःकरणमें आती है। अन्तःकरण चित्त-अहंकार-बुद्धि-मन इन चार अंशमें विभक्त होनेसे भी सृष्टि मुखमें मन प्रधान होके रहनेसे एक बातमें इसको मन कहा गया है; फिर ब्रह्ममुखमें चित्त प्रधानरूप करके सबके अगाडी रहनेसे, इसको चित्त नाम करके व्यक्त किया गया है। अन्तःकरण की सृष्टिमुखी वृत्ति वा मन ही मनु है। ज्ञानस्रोतके अन्तःकरणमें आनेके बाद, निश्चयात्मिका वृत्ति-समुद्भत अन्तर्दृष्टि वा मानस-नेत्र ( प्रज्ञाचक्षु ) प्रकाशित होती है; अन्तर्जगतको ईक्षण करने वाले यही मानस नेत्र वा प्रज्ञाचक्षु ही इक्ष्वाकु है। अन्तरमें ज्ञान वा चैतन्यके उदय होने के बाद, बाहरमें ज्ञानेन्द्रिय सकल द्वारा उसका बोध उत्पन्न होता है; ये ज्ञानेन्द्रिय सकल ही राजऋषिगण हैं। (पंचमहाभूतोंके व्यष्टि सात्विकांशसे ज्ञानेन्द्रिय सकल उत्पन्न होनेसे भी, इन सबकी क्रिया समूह रजोगुणका है। इसोलिये ये सब राजऋषि) है। ज्ञान वा ज्ञानयोगका विकाश, इस रूप करके एकसे अपर क्षेत्रमें प्रकाशित होता है। इससे ज्ञान वा योग परम्परा प्राप्त है, और इसके फलका शेष नहीं। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय १८१ क्षय नहीं, क्रमशः अनन्त ब्रह्ममें मिलके अनन्त होता है, इसलिये यह अव्यय है। प्रवृत्ति-निवृत्ति, वासना-विराग भेद करके काल दो अंशमें विभक्त है। ब्रह्ममुखी निवृत्तिमार्गमें कालखोत क्रमशः क्षीणसे क्षीणतम हो आनेसे, कालका महत्त्व रहता नहों, सूक्ष्मत्व अम्ता है; संसारमुखी प्रवृत्तिमार्गमें ही काल महत् है, क्योंकि प्रवृत्तिसे ही कालस्रोत अधिकतर प्रबल होता है । इसलिये संसारको भी महत् कहा है। इसी अर्थसे ही द्वितीय अध्याय ४० श्लोकमें "महतो भयात्” कहा गया है। और भी, वैराग्य करके मनका मयला दूर होनेसे आत्मचैतन्य वा ज्ञानका विकाश होता है, और वासनासे मनमें विषयका मयला पड़ने से ज्ञानका विनाश होता है। लोक-जगतमें यह योग रूप आत्मज्ञान सृष्टिमुखी वासना वृत्तिसे ही नष्ट हुआ है अर्थात् ढका पड़ा है * इसलिये यह बात सब कोई जान नहीं सकते ॥ १॥२॥ स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः। भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्य तदुत्तमम् ॥३॥ अन्वयः। ( ) मे ( मम ) भक्तः सखा च असि, इति ( हेतोः ) अयं सः पुरातनः योग: ते ( तुभ्यं ) एव अद्य ( कुरुक्षेत्रयुद्धस्य प्रथमदिवसे ) मया प्रोक्तः, हि ( यतः ) एतत् उत्तमं रहस्यं ॥ ३ ॥ अनुवाद। तुम मेरे भक्त तथा सखा हो; इसलिये पुराना योग आज तुमसे मैंने कहा, क्योंकि यह उत्तम रहस्य हैं ॥ ३ ॥ व्याख्या। आज साधक कर्मयोग अवलम्बनसे सविचार-समाधि लाभ करके उसी योगरूप आत्मज्ञानको प्रत्यक्ष और श्रतिगोचर करते * व्याधि, आघात, और मानसिक आवेग करके मस्तिष्क विकृत होनेसे जसे स्मृति लोप पाता है, वैसे ही विषय-वासना तथा असंयम (वा सम्भोग ) से बुद्धिवृत्ति बिकृत होनेसे आत्मज्ञान लोप पाता है ॥१॥२॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ श्रीमद्भगवद्गीता हैं। देखते हैं; तीन अवस्थाओं का एक साथ योगायोग है, इस करकेही यह गीता रूप आत्मज्ञानका फौवारा उठा है। वह तीन अवस्था-देश, काल तथा पात्रका समावेश है (१) देश है --धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र में दो पक्षके मध्य-स्थान । साधक कर्मका श्राश्रय करके सुषुम्नाके भीतर प्रवेश करने पाये हैं, इसलिये इस देशका समावेश हुआ है। __ (२) काल है-- "अद्य" अर्थात् युद्धका प्रथम दिन युद्ध प्रारम्भ होनेके ठीक पूर्व समयमें, जब साधक कूटस्थ-चैतन्यके सामनेमें स्थिर धीर भावमें रह करके प्रत्यक्ष करते हैं, और उसी चैतन्य-ज्योतिके प्रवाह सम्पूर्ण रूप करके साधकमें ही आ पड़ा है। (३) पात्र है-साधकका भक्त तथा सखा भाव । ईश्वरके प्रति एकानुरक्तिका नाम भक्ति और समप्राणत्वका नाम सखा है। आज साधक "शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्" कहके सकल अभिमान दूर करके गुरुपदमें सम्पूर्ण रूपसे आत्मसमर्पण कर चुके, इसलिये आत्मचैतन्यमें उनके परानुराग प्रकाश पाये हैं, अतएव वह भक्त हैं; तथा क्रियायोगमें निश्वास-प्रश्वास सूक्ष्म सीधे और अभ्यन्तरचारी हो के समान परिमित होनेसे अर्थात् प्राणमें समता * आनेसे, वह सखा हैं। साधकका आज इस तीन अवस्थाका समावेश हुआ है, कह करके ही साधक इस ज्ञानको जान सकते हैं। यह अवस्था न होने से कदापि कोई इसको जान नहीं सकता। इसलिये इसको ___* जब निश्वास-प्रश्वासकी गति और परिमाण बहुत कमसे भी कम और सूक्ष्म हो जाय छोटी बड़ी न रहे; मन बिना आयास करके मकड़ीके सूती सदृश वारिक सुषुम्ना नाड़ीको धरके धीरे धीरे उठना उतरना कर सके, शरीर तथा मनमें किसी प्रकारका उद्वेग वा यातना न रहे, वरंच एक अव्यक्त आनन्दका संचार होता है, वही प्राणकी समता अवस्था है। यह अवस्था क्रिया करके प्राप्त होके आपसे आप समझना पड़ता है, यह समझाया नहीं जाता ॥ ३ ।। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ चतुर्थ अध्याय रहस्य कहा गया है अर्थात् यह गुप्त-साधारणके बोधसे मंपा है। जिन पुरुषके मनके आवरण खुले हैं, वही भाग्यवान इसको जान लिये-जान लिये कि, यही पुरातन-यही उत्तम है, क्योंकि इसीसे ऊंचे वाले तमः अर्थात् ब्रह्मरन्ध्रमें केवल्य-स्थिति की प्राप्ति होती है॥३॥ अजुन उवाच। अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः। कथमेतद् विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥ ४॥ अन्धयः। अर्जुन: उवाच । भवतः जन्म अपरं ( परवत्ति इत्यर्थः । विवस्वतः जन्म परं ( प्राककालीनं ), ( तस्मात् ) त्वं आदौ ( योगं) प्रोक्तवान् इति एतत् कथं ( अहं) विजानीयाम् ? ॥ ४॥ अनुवाद । अर्जुनने कहा। सूर्य का जन्म पूर्व में और तुम्हारा जन्म उसके पश्चात् हुमा है; यह योग तुमने पहले सूर्यसे कहा था, उसे मैं कसे जानू? ॥४॥ व्याख्या। क्रियाकालमें साधक देखने पाते हैं कि, चिदाकाशमें प्रथम एक अनुपम ज्योतिर्मण्डल खिल उठता है, पश्चात् उस मण्डलके भीतरसे कल्पनातीत एक सुन्दर मनोहर बिन्दु क्रमविकाशसे भूवनमोहन इष्टमूर्ति धारण करते हैं। वह ज्योतिर्मण्डल ही विवस्वान् है, और वह इष्ट मूर्ति ही कूटस्थब्रह्म श्रीगुरुदेव हैं। अतएव देखते हैं, विवस्वानका आविर्भाव पहले और कूटस्थ चैतन्यका आविर्भाव पश्चात् होता है। इसलिये शुद्ध चतन्यका ज्योति ( ज्ञानस्रोत ) पहले ही विवस्वान्में आ पड़ता है, पश्चात् उससे कूटस्थ-चैतन्यमें संचारित होता है। साधक इस प्रकार प्रत्यक्ष करते हैं, किन्तु श्रुतिसे जानते हैं दूसरे प्रकार; इसलिये सन्देह उपस्थित होनेसे, आत्मजिज्ञासामें अनु सन्धान करते हैं कि कूटस्थसे विवस्वान्में आत्मज्योतिका संचार होता -- है, वह कैसे? ॥४॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता श्रीभगवानुवाच । बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन । तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥ ५॥ अन्वयः। श्रीभगवानुवाच । हे परन्तप अर्जुन ! मे ( मम ) तव च बहूनि जन्मानि व्यतीतानि ( गतानि ); अहं तानि सर्वाणि वेद ( वेद्मि ), त्वं न वेत्थ (जानासि ) ॥५॥ अनुवाद। श्रीभगवान कहते हैं। हे परन्तप अर्जुन ! हमारा और तुम्हारा बहुत जन्म बीत गया है; सो सब मैं जानता हूँ, किन्तु तुम नहीं जानते ॥ ५॥ व्याख्या। नामरूपात्मक आवरणके भीतर चैतन्यका प्रवेशका नाम जन्म है। प्रावरण जो कुछ, सबही प्रकृतिके हैं। प्रकृत्ति (अव्यक्त)~महत्, आत्मा (अहंकार ), बुद्धि, मन, तन्मात्रा, इन्द्रिय, इत्यादि रूप २४ तत्व करके विभक्त । इसके प्रत्येक ठो ही एक एक आवरण है। __ प्रकृति-पुरुष के विच्छेदका अवकाश ही है अव्यक्त। यह अव्यक्त ही है चिदाकाशे। यही प्राकृतिक स्फुरणका बीज स्वरूप है अर्थात् प्राकृतिक पदार्थोंके सृष्टि-स्थिति-नाशका मूल उपादान है; इसलिये इसको मूला प्रकृति कहते हैं । इस चिदाकाशमें महत् वा चित्त-संक्रम स्थलमें चैतन्यका ज्योति प्रतिफलित होता है; यह प्रतिफलित ज्योति ही चिज्ज्योति वा विवस्वान है। यह प्रथम माया-विकाश कह करके, इसको आदित्य कहते हैं। पश्चात् विकार मिश्रण होयके विक्स्वान से महत् तत्त्व अर्थात् चित्त उत्पन्न होता है, महत् ही मनु वा मन * है। विवस्वामसे उत्पन्न हुआ कह करके वैवस्वत। चित्तके बाहरी तरफ जिस स्थानमें चैतन्य-ज्योति प्रतिफलित होयके विवस्वान् हुआ, उसी स्थानके सम सूत्रपातमें अव्यक्त और चित्तके संयोग-स्थलको कूट * सष्टिमुखी अन्तःकरण ॥५॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय १८५ कहते हैं। कूट एकठो अन्तर्वाही मायिक प्रवाह चक्र स्वरूप हैं * । उसी कूटमें चैतन्य प्रतिफलित होयके नानाविध रूप धारण करते हैं । यह कूटस्थ-चैतन्य ही ईश्वर-साधकके इष्टदेव हैं; यह साधकके मन लायक हरएक रूपमें आविर्भूत होयके हितसाधन करते हैं; जिसलिये शास्त्रोक्ति-“साधकानां हितार्थाय ब्रह्मणो रूप कल्पना"। इसी ईश्वर तक ही आत्मा वा चैतन्य "अहं" नाम करके अभिहित होते हैं । महत्तत्त्व वा चित्तसे आत्मा वा अहंकारकी उत्पत्ति, अहंकारमें बुद्धि, बुद्धिसे मन-इत्यादि प्रकारसे वैकारिक क्रियासे प्राकृतिक विलासकी वृद्धि होती है। इन सकलके भीतर ही चैतन्यसत्त्वा प्रवेश करके सबको चेतनामय करते हैं। यह मन-बुद्धि-अहंकारके मध्यस्थ चैतन्य मनबुद्धि-अहंकार भेद करके विविध भावापन्न होनेसे भी, इसके समष्टि का नाम "जीव" है * *। यह जीव ही "त्वं" नामसे अभिहित है; * इस कूटका क्रिया अति विचित्र है। यह एकठो अच्छे तपायमान् कांचका तावा सरिस है। अग्निकी ज्योति जसे कांचके भीतर देके बाहर भाके कांचका रंग धर लेता है, तब उस कांचमें धान, यव, गेहूँ स्पर्श करनेसे उसके रसका बन्धन खुल जायके रसांश वाष्प होकरके उड़ जाय,-भूषि अलग होय, और चावल खिलके लाजा बन जाय, ठीक उसी प्रकार कूटमें चैतन्यसत्त्वा आय पड़नेसे कूटके उस समयके अवस्था सदृश आकार धारण करता है, और साधकके मन उस कूटमें आके स्पर्श करनेसे मनके कर्म-बन्धन खुल जाके कर्म उड़ जाय-विषयके आवरण अलग हो जाय-और मन स्वयं रूपान्तरित होयके शुद्ध चैतन्यसत्त्वाका रूप धारण करता * * जीवजगतमें जीवको चेतना शक्तिके अल्पाधिक परिमाणानुसार चार अंशमें विभाग किया जा सकता है यथा-(१) संकुचित चेतन = स्थावर; (२) मुकुलित चेतन= उद्भिद, वृक्षादि; (३) विकशित चेतन =स्वेदज, अंडज, एवं जरायुज ( मनुष्य व्यतीत ); और (४) पूर्ण विकशित चेतन-मनुष्य । अन्तःकरणके मन, बुद्धि, अहंकार तथा चित्त इन चार क्षेत्रमें चेतना शक्तिके विभिन्न प्रकार विकाश अनुसार मनुष्यके भी चार विभाग किये हैं; यथा-(१) ब्राह्मण-जिसके चेतनाशक्ति मन-बुद्धि-अहंकार Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ श्रीमद्भगवद्गीता इन्होंने अहंकार-सम्पन्न कह करके असर्वज्ञ ( स्वल्पज्ञ ); ईश्वर अहंकार विहीन कहके सर्वज्ञ हैं। इन जीव और ईश्वरके ठीक बीचमें (चित्त के बाहर तरफ जिस प्रकार स्थानमें विवस्वान है, भीतर तरफ ठीक उसी प्रकार स्थानमें ) एकठो अनति-उज्ज्वल मण्डल प्रकाश पाता है; इसीको चन्द्र-मण्डल कहा जाता है। उस चन्द्र-मण्डल भेद करनेके बाद कूट प्रकाश पाता है, कूट भेद करनेसे ईश्वर, ईश्वरके लय होनेके पश्चात् विवस्वान् , पश्वात् अव्यक्तके बार पुरुष; इस प्रकार ही साधना के क्रम जानो)। (४र्थ और ५म चित्र देखो)। पूर्वोक्त प्रकार विविध प्रावरण भेदसे ही "अहं' अर्थात् शिवचैतन्य तथा "त्व" अर्थात् जीव चैतन्यका बहुजन्म कल्पना हुआ है। चैतन्यसत्त्वा जो विविध आवरण करके विविध भावमें प्रकाशित है, सो शिव-भावके निकट ही प्रत्यक्ष होता है, जीव-भावके निकट होता नहीं; क्योंकि साधक जबतक जीव-चैतन्यमें रहते हैं, तबतक उनका विषय-विकृत मैं-भाव रहता है, पश्चात् जब शिव-चैतन्यमें उठ जाते हैं, तब उनका मैं-भाव विशुद्ध होता है, विकृत मैं-भावमें होता नहीं। इसलिये कहा हुआ है, "अहं वेद त्व न वेत्थ” । श्रीगुरुदेव इस श्लोकमें साधकको दोठो शब्दमें सम्बोधन करके सुन्दर रूपसे साधकका इस समयका अवस्था लक्ष्य कराय दिये हैं, एकठो शब्द अर्जुन, दूसरा शब्द परन्तप है। चित्तके सर्वत्र विकशित; (२) क्षत्रिय-जिसके चेतनाशक्ति मन, बुद्धि और अहंकार इन तीन क्षेत्रमें विकशित; (३) वैश्य-जिसके चेतनाशक्ति मन और बुद्धि इन दो क्षेत्र में विकशित है; और (४) शूद्र-- जिसके चेतनाशक्ति केवल मात्र मनमें विकशित। अन्तःकरणके इन चार क्षेत्रके गठन के सौष्ठव तथा प्रतिफलन-शक्तिके उत्कर्षक तारतम्य अनुसार करके इन चार श्रेणोके मनुष्य, फिर उत्तम, मध्यम और अधम तीन प्रकारके है॥५॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ चतुर्थ अध्याय अर्जुन-अ+रज्जु+न, अर्थात् जो बन्धन मुक्त नहीं है। संसार में कर्म ही एक मात्र बन्धन है। सोई कर्म फिर दो प्रकारका,सुकर्म और कुकर्म। आत्मा ही सु अर्थात् सुन्दर, और अनात्म पदार्थ ही-कु अर्थात् मन्द वा बुरा। महाभारतमें है. पृथिवीमें केवल सुकर्म किये थे, इसलिये अर्जुनका नाम अर्जुन हुआ था। 'तदर्थीय' कर्म ही साधकके सुकर्म है। वृत्ति आत्ममुखी होनेसे भी कम्मै जीव और ईश्वरके बीचमें आवरण स्वरूप रहनेसे उस कर्मका शेष न होने पर्य्यन्त जीव अल्पज्ञ रहते हैं, सर्वज्ञ हो सकते नहीं। उस सुकर्म रूप आवरणशक्ति-विशिष्ट जीव ही अर्जुन है । परन्तप-पर अर्थात् प्रकृति जिनसे तापित होती है, वही परन्तप । साधकके मनमें पहले "आत्मा ही मैं, प्रकृति मैं नहीं” इस प्रकारका ज्ञान रहनेसे, द्वत भाव प्रबल रहता है। इसलिये प्रकृतित्व त्याग करने की इच्छा रहती है। उस त्यागेच्छा रूप विक्षेषशक्ति-सम्पन्न जीव ही परन्तप है * ॥५॥ अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। प्रकृति स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥ ६ ॥ अन्धयः। अजः ( जन्मरहितः ) अपि सन् अव्ययात्मा ( अनश्वरस्वभावोऽपि सन् ), तथा भूतानां ईश्वरः अपि सन् ( अहं ) स्वां प्रकृति अठिष्ठाय ( स्वीकृत्य ) आत्ममायया ( स्वेच्छया ) सम्भवामि ॥ ६ ॥ अनुवाद । जन्म रहित मैं, अनश्वर-स्वभाव तथा सर्वभूतोंके ईश्वर हो करके भी अपने प्रकृतिको अधिकार करके आत्ममायासे सम्भूत होता रहता हूँ ॥ ६॥ व्याख्या। क्रियायोगसे साधक समाधि-साम्यद्वारा शुद्ध चैतन्यमें लीन होयके, पश्चात् विकर्मसे फिर मनोधर्मशील होनेके बाद, * द्वितीय अध्याय ९म श्लोकमें "परन्तप" का व्याख्या देखो ॥५॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ श्रीमद्भगवद्गीता मानस-नेत्र उन्मीलन करके देखते हैं -एक "मैं" ही सर्वत्र वर्तमान“मैं” के और आने जानेके जगह नहीं, इसीलिये “मैं” के जनम नहीं; जनम न रहनेसे, “मैं” के मरण भी नहीं, इसीलिये “मैं” अव्ययात्मा अर्थात् अक्षयस्वभाव,-क्षयोदय जो सो चित्तादि चौबीस तत्त्व वा भूत सकलके लिये; ये चित्तादि भूत सकल “मैं” में ही अवस्थितमें ही इन सबके अस्तित्व, अतएव “मैं” ही इन सबके ईश्वर अर्थात् अस्तित्व-प्रतिपादक हूं, तब जो “मैं” भिन्न भिन्न रूपसे प्रकाशित होते हैं, आत्म-माया ही उसके कारण, और स्व प्रकृति ही इसके उपकरण हैं; चतन्यसत्वा चित् , चित्त, अहंकार, बुद्धि, मन प्रभृति नाना क्षेत्रमें सवतोव्यापी रहनेसे जिस क्षेत्रमें जैसे रहते हैं, माया सहयोगसे उस क्षेत्रमें वैसे ही मूर्ति धर लेते हैं, इसीलिये उनके मनोमय चित्तमय, चिन्मय नाना प्रकार रूपके आविर्भाव होती है; ये सब ही स्व प्रकृति है। योगवाशिष्ठमें है-"जिनके प्रभावसे निश्चेष्ट ब्रह्मकी चेष्टा सम्पन्न तथा जीवका चैतन्य समुत्पादित होवे, उसका नाम चित् है । चित् अव्यक्त है”। यह अव्यक्त चित् ही माया है। माया पहले अलीनावस्थासे विकाश प्राप्त होयके पश्चात् विकार द्वारा जड़त्व ग्रहण करके चतुर्विंशति तत्त्वामिका प्रकृतिमें परिणता होती है । इस प्रकृतिमें चैतन्य-ज्योति पड़नेसे, माया द्वारा क्षेत्र भेद करके वह नाना रूपसे प्रतिफलित होती है। सृष्टिमुखमें आवरणके क्रमिक विकाशसे एक चैतन्य ही जैसे बहुत्वमें परिणत होता है, लयमुसमें भी वैसे विपरीत क्रममें आवरणके क्षय होनेसे उनका बहुत्व नष्ट होता है; उसी समय साधक विभिन्न प्रावरणमें भिन्न भिन्न अवतार-मूर्ति देखते देखते. अनन्तमें मिलके ब्रह्मत्व लाभ करते हैं ॥६॥ . Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय १८६ यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥७॥ - "अन्वयः। हे भारत ! यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिः अधर्मस्य (च) अभ्युत्थानं भवति, तदा अहं आत्मानं सृजामि ॥ ॥ __ अनुवाद। हे भारत ! जब जब धर्ममें ग्लानि तथा अधर्मका अभ्युत्थान होता है, तब ही मैं आत्माको सृजन करता है ॥ ७॥ व्याख्या। जिसे पकड़के वा जिसको अवलम्बन करके रहना पड़ता है, वही धर्म है। अन्तःकरणकी वृत्तिको धारण करके ही जीवका जीवत्व है; अतएव अन्त:करण-वृत्ति ही जीवके धर्म है । अन्तःकरण-मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त-इन चार अशमें विभक्त तथा चिन्तादि चार प्रकारकी वृत्ति वा धर्मसम्पन्न है । अन्तःकरणके यह एक एक अश एक एक युग और एक एक वृत्ति धमके एक एक पाद है। सृष्टिमुखमें चित्त ही प्रथम है; इसके क्रिया अथवा वृत्तिका नाम चिन्तन है। चित्त विकार-प्राप्त होनेसे, इसमें और एक वृत्ति बढ़ती है, उस वृत्तिका नाम अहं-वृत्ति है; तब इसका नाम पड़ता है अहंकार; जिसलिये अहंकारकी वृत्ति दो हैं-चिन्तन और अहंकत्तत्व। अहंकारके विकार प्राप्त होनेस और एक वृत्ति बढ़ती है, वह वृत्ति निश्चयकरण है, तब इसका नाम होता है बुद्धि; जिसलिये बुद्धिके तीन वृत्ति वा धर्म है-चिन्तन, अहंकत्व, निश्चयकरण। तत् पश्चात बुद्धि विकार प्राप्त होनेसे, उसका नाम होता है मन, उस मनमें अलग और एक वृत्ति बढ़ती है, उस वृत्तिका नाम संकल्प-विकल्प है, इसलिये मनकी वृत्ति अथवा धर्म चार हैं-चिन्तन, अहंकत्तृत्व, निश्चयकरण, और सकल्प-विकल्प। ये चार वृ िही धम्मके चार पाद हैं, इनही से अन्तःकरणकी जो कुछ क्रिया सम्पन्न होती है, निवृत्तिमार्गमें Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० श्रीमद्भगवद्गीता योगानुष्ठान द्वारा अन्तर्मुख-वृत्ति लेके खडा होनेसे, इस धर्ममें ग्लानि अर्थात् अवसन्नता वा हानि उपस्थित होता है, और अधर्मके अर्थात् अवलम्बन-विहीनताके अभ्युत्थान (अभि = निकट + उत् = ऊर्द्ध+स्था = स्थिति ) अर्थात् निकट ऊर्द्ध में वा ठीक ऊपर में स्थिति होती है। देखा जाता है-पहले ही मनः क्षेत्र वा मनोमय कोष हैं; यहां चिन्तनादि चार वृत्ति अर्थात् धर्मके चार पाद पूर्णमात्रामें क्रियाशील हैं, इसलिये मन ही सत्य वा सत्ययुग ( सत्य - सत् = जो है+य= सम्पूर्ण अस्तित्व जिसमें ) है। बहिविषयसे विहीन होके मन इस मनःक्षेत्रमें प्रवेश करनेसे, साधक देखने पाते हैं कि--उनके इष्टदेव नरसिंह रूप धरके, उनके हिरण्यकशिपु रूप* वैरीभावको नष्ट करते हैं । तत् पश्चात् मनःक्षेत्र पार होनेसे ही बुद्धिक्षेत्रमें वा विज्ञानमय कोषमें आना पड़ता है, तब मनोवृत्ति ग्लानियुक्त वा म्लान हो जाता है; जिसलिये मनोवृत्ति न रहनेसे बुद्धि क्षेत्रमें उतना परिमाण निरालम्बन वा अधर्मका उत्थान होता है, तीनही मात्र वृत्ति वा धम्मपाद रह जाता है; अर्थात् तीन पाद धर्म और एक पाद अधर्म होता है ; इसलिये बुद्धि ही त्रेता वा त्रेतायुग है। इस विज्ञानमय त्रेतामें साधक दर्शन करते हैं कि इष्टदेव राम रूपसे साधकके रावण रूप चांचल्यभाव ( काम-भोगेच्छा ) को नष्ट करते हैं। उसके बाद बुद्धिक्षेत्र अतिक्रम होनेसे ही अहंक्षेत्र वा आनन्दमय कोष है; यहां बुद्धिवृत्ति न रहनेसे फिर उतना परिमाण निरालम्बन वा अधर्मका उत्थान होता है, तब केवल मात्र अहंकत्तत्व और चिन्तन ये दो वृत्ति वा धर्मपाद वर्तमान रहता है, अर्थात् दो पाद धर्म और दो पाद अधर्म होता है; इसलिये अहंकारक्षेत्र ही द्वापर युग है । इस आनन्दमय द्वापरमें अभीष्टदेव श्रीकृष्ण रूपसे आविर्भूत हो के साधकके दन्तबक्र-शिशुपाल रूप आत्मीय भाव अर्थात् अहंत्व नष्ट करते हैं। * १०म अः ३० श्लोककी व्याख्या देखो ॥ ७॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय १६१ परिशेषमें अहंकार अतिक्रम करके चित्तक्षेत्र है। यह भी आनन्दमय कोष है; क्योंकि आनन्दमय कोषका अहंत्वमय निम्नतर स्तर अहंकार, और अहंत्वविहीन ऊर्द्धतर स्तर चित्त है। इस चित्तक्षेत्रमें एकमात्र चिन्तन-वृत्ति अवशिष्ट रहता है, अपर तीन वृत्तिका कोई भी रहता नहीं, अर्थात् यहाँ एक पाद धर्म और तीन पाद अधर्म होता है; इसलिये यह कलि * वा कलियुग है। इस अहंत्व-विहीन महत् अवस्थामें इष्टदेव कल्कि रूपसे दर्शन देके साधकके पुनः संसार-स्फुरण के बीज स्वरूप म्लेच्छाभावको नष्ट करते हैं; वहीं चित्तवृत्तिका निरोध है। इस चित्तवृत्तिका निरोध करनेसे और कोई वृत्ति ही रहती नहीं-अवलम्बन करके रहनेका कुछ भी नहीं रहता है, तब सर्ववृत्तिविहीन हो जाता है; वही विशुद्ध अधर्म * * वा निरालम्बनावस्था है । इस अवस्थामें प्रकृति साम्यावस्थाको प्राप्त होके ब्रह्माश्रया त्रिगुणात्मिका माया नामसे विभुमात्र हो जाते हैं, तत् पश्चात् द्वैतभावके नष्ट हो जानेसे, माया भी रहती नहीं, एकमात्र ब्रह्म ही रहते हैं । वह कैसा है सो "अवाङ मनसोगोचरः” वाणी-मनके अतीत ( अविषय ) *** ॥ ७॥ * सृष्टिमुखमें तत्व गणनाके समय यह चित् वा महत् ही प्रथम है, फिर अन्त:करणके भी प्रथम है; यहांसे भी गणनाके ( कल-गणना ) प्रारम्भ होती है। इसलिये इसको कलि कहा जाता है ॥ ७॥ ** अ- नास्ति+धर्म, जिस अवस्थामें कोई धर्म ही नहीं रहता ॥७॥ *** प्रवृत्ति निवृत्ति भेद करके जोवके कालस्रोत दो अंशमें विभक्त है; प्रति अंश फिर चार चार अंशमें विभक्त है; उस एक एक ठो विभागका नाम युग है । बहिर्जगत में ( संसार मार्गमें ) जैसे प्रवृत्ति-स्रोत सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि-इन चार क्रमसे प्रवाहित है, अन्तर्जगतमें भी ( साधन मार्गमें भी ) तसे निवृत्ति-स्रोत सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि-इस प्रकार युगक्रममें ही काल कटायके लययोगमें उठ जायके “अन्तिमे कलौ" मुक्ति अर्थात् कालातीत निवृत्ति पदको प्राप्त होते हैं। वृहत् ब्रह्माण्डके (सौरजगत्की ) स्वाभाविक गति तथा क्रियाके अनुवर्तन ही संसार-मार्ग, और उस अनु Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ श्रीमद्भगवद्गीता परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ८ ॥ अन्वयः। साधूनां परित्राणाय, दुष्कृतां विनाशाय, धर्मसंस्थापनार्थाय च युगे युगे सम्भवामि ॥८॥ अनुवाद। साधुओंकी रक्षा, दुष्कृतोंका विनाश और धर्मसंस्थापन करनेके लिये युग युग में मैं अवतीर्ण होता रहता हूँ ।। ८॥ व्याव्या। पूर्व श्लोकमें श्रीगुरुदेव अपने आविर्भावकी काल निर्णय करके इस श्लोकमें आविर्भावके कारण निर्देश करते हैं। साधु-स= सूक्ष्मश्वास + आ = आसक्ति+ध्=धृति + उ = स्थिति -सूक्ष्मश्वासमें आसक्ति देके जो लोग धैर्यमें स्थिति लाभ करते हैं अर्थात् निवृत्ति मार्गमें जो लोग धैर्यशील हैं, वे सबही साधु है। साधु होनेके लिये जो जो वृत्तिके दरकार है वह सबही साधु है, और जो जो वृत्ति अनिष्टकर है वह सब दुष्कृत (दुः+कृत् = असत् वृत्ति) है। विवेक, वैराग्य, शम, दम, तितिक्षा प्रभृति साधनानुकूल वृत्ति ही वत्त न करनेसे निष्कृति पानेके लिये क्षुद्र ब्रह्माण्डमें (मानव शरीर में ) जिस प्रकार क्रियाका प्रयोजन है वही साधन-मार्ग है। मानव इच्छा करनेसे ही अपसे के भीतर कालप्रवाहके परिवर्तन कर सकते हैं, जगतके स्वाभाविक परिवर्तनके लिये उनका अपेक्षा करना नहीं पड़ता। संसार-मार्गमैं तथा साधन मार्गमें कालस्रोतका क्रम एक प्रकार होनेसे भी, संसारमें उस क्रमसे विकारकी वृद्धि होती है-प्रवृत्तिका प्रसार बढ़ जाता है; माधना मार्ग में उस क्रम में विकार बीत जाके निविकार अवस्था आती है। अतएव संसार-मार्ग में और साधन-मार्गमें काल विभागसे युगधर्मके विभिन्न प्रकारको क्रिया प्रकाश पाता है। मनमें याद रखना कि, संसार और साधना एक नहीं है। संसार-प्रवृत्ति, साधना-निवृत्ति है, संसार में जो सुख है, साधनामें सो दुःख, संसारमैं जो दुःख, साधनामें वही सुखका कारण है। क्योंकि, विषय भोगसे जो सुख, उसमें ज्ञान लोप पावें; और विषय-विच्छेदसे जो दुःख, उसमें ही मनुष्यको आत्मानुसन्धानमें प्रवृत्त करता है ॥ ७॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ चतुर्थ अध्याय साधु है; और काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, ईर्षा, घृणा प्रभृति साधन-प्रतिकूल वृत्ति ही दुष्कृत है। पूर्व श्लोककी व्याख्यामें इष्टदेवके जैस नाना प्रकारके रूपसे आविर्भावकी बात कही गई है, उनको उसी उसी प्रकार विविध मूर्तिमें आविर्भूत होनेसे, वो सवृत्ति समूह प्रबल होती है, संसारके खिंचाईसे किसी प्रकारसे नष्ट नहीं होता; और वह दुष्कृत वा असत् वृत्ति समूह विनष्ट हो जाता है,-मनमें उदय होके और विषयमें विमोहित कर नहीं सकता। इस प्रकारसे सवृत्तिके परित्राण, और असत् वृत्तिके नाश होनेसे ही धर्म-संस्थापन होता है। संस्थापन-सम् =समान + स्थापि = स्थापन करना+अन् । -साम्यभावमें स्थापन करना ही संस्थापन है । धर्म-चौबीस तत्वके समष्टि वृत्ति वा क्रिया है, अतएव विषमता-समन्वित। यह धर्म लययोगसे समेट आके चिन्मय चैतन्यमें अटक पड़नेसे ही, स्थिर समान होके मिल जाता है; वही धर्मके संस्थान है । अर्थात् धर्मको कोई काम काज करने न देके चुपचाप बैठायके रखनेका नाम “धर्मसंस्थापन" है। ___ साधनाकी उन्नत्तिके साथ गुरुकृपासे आवरण भेद होके कूटस्थमें जैसे जैसे सच्चिदानन्द-ज्योतिर्मयका प्रकाश होता है, उसी उसी समय साधक आनन्दमें विभोर हो जाते हैं। संसारका अनित्यत्व तथा ब्रह्मका नित्यत्व हृदयंगम करके वैराग्यादिके साथ अधिकतर उद्यमसे प्रयत्न करते हैं, साधन-क्लेश करके भीत वा संकुचित नहीं होते; जिसलिये उनको और संसारमें मोहित होना नहीं होता वह परित्राण पाते हैं ॥८॥ जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।। त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥६॥ अन्वयः। हे अर्जुन ! मे ( मम ) एवं ( स्वेच्छया कृतं ) दिव्यं ( अलौकिकं) जन्म कर्म च यः तत्त्वतः ( स्वरूपतः ) वेत्ति, सः देहं (देहाभिमानं ) त्यक्त्वा पुनर्जन्म ( संसारं ) न एति (न प्राप्नोति), (किन्तु ) मा एति ॥९॥ -१३ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ श्रीमद्भगवद्गीता - अनुवाद। हे अर्जुन ! जो हमारा इस प्रकार दिव्य जन्म और कर्मको स्वरूपतः जान लेते है, वह देह पातके अनन्तर और पुनरावृत्ति लेते नहीं, मुझको ही प्राप्त होते हैं ॥ ९॥ व्याख्या। वो जो युग युगमें ईष्टदेव चिन्मय, चित्तमय, विज्ञानमय, मनोमय प्रभृति विविध रूपसे आविर्भूत होके, साधुरक्षण, दुष्कृत-नाशन तथा धर्म-संस्थापन रूप क्रिया करते हैं, वही है उनके आत्म-माया कृत वा निज इच्छा कृत जन्म-कर्म; वह समस्त ही दिव्य (दिव्=अन्तराकाश+ य=स्थिति ) है क्योंकि वह सब अन्तर में ही प्रकाश पाता है, बाहरमें नहीं पाता। क्रियाके अनुष्ठानसे साधनक्रममें अन्तरके भीतर उठते उठते जो उस जन्म-कर्मको जानते रहते हैं, वही तत्त्वतः ( यथार्थ रूपसे) जान सकते हैं, वाणीके उपदेश से वा पुस्तकादि पठन करके जाननेसे जानना नहीं होता। इष्टदेवके सस दिव्य जन्म-कर्मको तत्वतः जाननेसे देहत्यागके ( मृत्युके ) समय मानस-नेत्र विषयावरण करके ढंका न पड़नेसे शुद्ध चैतन्य-ज्योतिमें लगा रहता है, जिसलिये और जनम लेनेका अवसर नहीं आता, परमागति ( आत्म स्थिति) लाभ होती है ॥ ६ ॥ वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः । बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः॥ १०॥ अन्वयः। ज्ञानतपसा पूताः (श्रु द्वाः ) बहवः (अनेकाः ) वीतरागभयकोधाः मन्मयाः ( मदेकचित्ताः) मा उपाश्रिताः ( मां एव आश्रिताः सन्तः ) मद्भावं आगताः (प्राप्ताः)॥१०॥ अनुवाद। ज्ञान और तपस्यासे पवित्र अनेक साधक अनुराग-विहीन, मयविहीन, क्रोध-विहीन और मदेकचित्त होके मुझको भाश्रय करके मेरे भावको ही प्राप्त हुये हैं ॥ १० ॥ - व्याख्या। मैं ही ब्रह्म हूँ; ब्रह्म ही सब है-यह दृढ़ धारणा ही (विशुद्ध लौकिक ) ज्ञान है। और "समंकाय-शिरोमीवं” होके, Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय १६५ जिह्वाको उलट करके, दांतमें दांत दबा रखके, भूमध्यमें प्राणको प्रवेश करानेके पश्चात् जो अवस्थान है, वही तप है। इस ज्ञान और तपासे ही चित्तशुद्धि होता है। इस प्रकारसे शुद्धचित्त हुये हैं ऐसे लोग, एक जन नहीं, दो जन नहीं, बहुत ही जना 'मैं' के दिव्य जन्म कर्म को जानके अनुराग विहीन, भयविहीन, क्रोधविहीन 'मैं' मय होकरके एकमात्र 'मैं' कोही अर्थात् कूटस्थचैतन्य अभीष्ट देव परमात्माको आश्रय स्वरूप पाके अपनेमें अपने विलयसे, चिरस्थिर हो गये। साधक ! आज जो तुमही केवल इस रास्ताके राही हो, ऐसा नहों; बहुत ही हो चुके, होके परागति पा चुके, भय क्या ? ॥ १०॥ ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम आनुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥ ११ ॥ अन्वयः। हे पार्थ । ये ( जनाः) मां यथा ( येन भावेन निष्कामतया सकाम-) तया वा ) प्रपद्यन्ते ( भजन्ति ), अहं तान् (जनान् ) तथा एव (तेन भावेन एव भजामि, यतः मनुष्याः सर्वशः ( सर्वप्रकारैः ) मम वर्त्म (मार्गे ) अनुवर्तन्ते ॥११॥ अनुवाद। हे पार्थ । मुझको जो जो जिस जिस भाव में भजना करता है, मैं उन सबको उसी उसी भावसे ही भजना करता रहता हूँ। क्योंकि, मनुष्य लोग सर्व प्रकारसे हमारे ही पथका अनुर्वत्तन करते है ॥ ११॥ व्याख्या। बहुत लोग मद्भाव प्राप्त हुये हैं सही, किन्तु उन सबका ही मूल है विश्वास, क्योंकि,-"यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति ताशी"-अर्थात् जिसके मनके भाव जैसे हैं, उसको उसी प्रकारकी सिद्धिलाभ होती है। साधक साधनामें अपनेको मुक्त बन्ध लिप्तनिलिप्त, सकाम-निष्काम, एक-बहु प्रभृति जिस भावमें सजावेंगे, साधन फल करके उनकी आत्मा भी उसी भावसे सज करके उनको ग्रहण करेंगे, अर्थात् वह उसी प्रकार अवस्थाको पावेंगे। इसका कारण Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ श्रीमद्भगवद्गीता यह है कि मनुष्य * सर्व प्रकारसे आत्ममताका ही* * अनुवर्तन करता है, अर्थात् अपने विश्वासके अनुरूप गति पाता है। जल मथन करनेसे उसमें जैसे बहुतता तरंग बुद्बुद् और फेन उत्पन्न होता है, उसी प्रकार भगवान अपनी इच्छा शक्तिसे ही अपने को मथन करके आपही आप इस विश्वजगतको साज लिये हैं। तरंग, बुबुद् और फेन जैसे जल बिना और कुछ नहीं है, केवल नाम और रूप करके अलग है; यह विश्वजगत् भी वैसे आत्मा बिना और कुछ नहीं। तब भी मनुष्य जो अपनेको आत्मासे अलग मनमें मान लेते हैं, उसका कारण है भ्रम; वह भ्रम ही है माया। जिसलिये मनुष्योंके मनमें जो कुछ भाव-सकाम हो, निष्काम हो, सु हो, कु हो, जैसे हो हो-सब एक आत्माके ही भाव हैं। जैसे एकही ज्योति लाल, नील, श्वेत, हरा प्रभृति कांचके भीतर होके बाहर आके भिन्न भिन्न रूपसे प्रकाश पाता है, वैसे एक आत्मा अपनी ही इच्छा शक्ति वा माया-शक्तिके विकार करके अपना हुआ चौबीस प्रकार तत्वके संयोगसे नाना प्रकार भावमें प्रकाश पाते हैं। ये चौबीस तत्व ही आत्माके वर्त्म वा पथ हैं, अर्थात् आत्मा इन सब तत्व क्रमसे ही मायाका विस्तार करके स्वयं विश्व-साजसे सजे हुये हैं, ये सब ही आत्मा हैं। इसलिये उनके जीव होनेका भाव, अपना ही इच्छाभ्रममें अपनेको आत्मासे भिन्न ज्ञान करके विविध-तत्वमयी मूर्ति करके पृथक ज्ञानमें मोहित होनेसे भी, उनके एक “मैं” को ही ग्रहण करना होता है; किन्तु उनके मनमें एक ज्ञान न होके बहुज्ञान रहनेसे, उनको अपना उस बहु-विश्वासके अनुरूप बहुत्त्वमें रहना पड़ता है, वह एकत्वमें * सुसम्पन्न मनोवृत्तिशोल जीव ही मनुष्य है ।। ११ ॥ ** जिस जिस विषयमें जिसके मतसे जो है, उस उस विषय में यह उसी उसी मतामें चलता है, दूसरे मतामें चलता नहीं, जिस लिये उसी उसो विषयमें उसके ..पने मता ही उसके अन्तःकरणके ( मनके ) वर्त्म अर्थात् पथ हैं ॥११॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय १६७ मिलने नहीं सकते। लाल, नील, कांचका आवरण हटा देनेसे ज्योतिके जैसे विविध रंग मिट जाके एक मात्र स्वरूप ज्योति खिल आती है, तैसे स्थिर विश्वास करके अर्थात् व्यवसायात्मिका बुद्धिसे अपनेको "मैं" ज्ञान करके लययोगका अवलम्बन करनेसे ही सब आवरण आपही आप क्षय होता है, तब मैंही "मैं" यह ज्ञान आ करके "मद्भावमागतः" होता है ॥ ११॥ कांक्षन्तः कर्मणां सिद्धि यजन्त इह देवताः। क्षिप्र हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥ १२॥ . अन्वयः। कर्मणां सिद्धि कांक्षन्तः इह देवताः यजन्ते, (किन्तु) कर्मजा सिद्धि मानुषे लोके क्षिप्र भवति हि ( इति निश्चयः ) ॥ १२ ॥ अनुवाद। जिस सबको बहु कर्मसिद्धिकी आकांक्षा रहती है, सो सब इह लोकमें देवताओं का यजन करते हैं; किन्तु मानुष-लोकमें कर्मज सिद्धि शीघ्रही होती है ॥ १२॥ व्याख्या । प्राप्तिकी प्राप्ति अर्थात् कैवल्यशान्ति वा सुख दुःखादिद्वन्द्व-विमुक्ति ही सिद्धि है। शब्दादि विषयको अतिक्रम करके अविषय-क्षेत्र चिदाकाशमें प्राणको फेंकनेसे जो स्थिर भाव आता है, उसीका नाम सिद्धि है। साधनाकी सुविस्ताके लिये प्रथमक्रिया, द्वितीयक्रिया, तृतीयक्रिया प्रभृति गुरुदत्त विविध कर्मका जो अनुष्ठान करना पड़ता है, उसके पृथक् पृथक् फल हैं, वही सब विभूति हैं। वह सब विविध कर्म कर्त्तव्य बोध करके, आदेश पालनके अनुरोधसे, अपने स्वार्थ सिद्धिकी इच्छा न रखके आचरण करना ही विधि है; ऐसा होनेसे ही सिद्धि लाभ होती है। किन्तु साधक यदि हृदयकी दुर्बलताके लिये क्रियाकालमें उसी उसी कर्मके फलके प्रति आसक्ति रखके कर्म करते रहें-मन ही मनमें कैवल्य-शान्तिकी आकांक्षा करे, ऐसा होनेसे उसके "इह" अर्थात् धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र रूप Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ श्रीमद्भगवद्गीता योगमार्गमें देवताओं की आराधना करनी होती है; अर्थात् मनके भीतर आकांक्षा वा कामना रहनेसे, प्रति चक्रमें कर्म करते करते एक एक कर्मके परिपाक होनेसे ही उसी उसी कर्मके अधिष्ठात्री देव देवी साधकके लक्ष्यस्थलमें आविर्भूत होके काम्यफल देते हैं; मनके भीतर कामना हेतु बहुभावके वर्तमान रहनेसे, देवदर्शन होनेसे भी, बहुभावके बन्धनमें पड़के उसी उसी कर्मफलका भोग करना ही पड़ता है, कम्मक्षय होता नहीं;-सुकृति लाभ होता है सही, किन्तु शान्ति लाभ होता नहीं- "मैं” होने सकते नहीं। किन्तु मानुष-लोकमें कर्म अनुष्ठित होनेसे, सिद्धि अर्थात् प्राप्तिकी प्राप्ति जो कैवल्यशान्ति, सो शीघ्रही मिलता है। मन् = वेद अर्थात् ज्ञान, उ= स्थिति; ज्ञान जिसमें स्थित होवे सोही मनु वा मन है। इसी मनु वा मनसे जो सब वृत्ति उत्पन्न होता है, वही मनुष्य वा मानुष। इन मनोवृत्तिकी उत्पत्ति स्थान ही मानुष-लोक। भ्र मध्यस्थ आज्ञा ही मनके स्थान है। मन विशुद्ध अवस्थामें शुद्ध सत्वमय है। इस अवस्था में यह मन सुषुम्नाके अन्तर्गत ब्रह्मनाड़ीके भीतरमें जो शुद्ध सत्त्वमय ब्रह्माकाश है, उसको आश्रय करके नीचे भूलाधार पर्यन्त व्याप्त हो के प्रकाश पाता है; पश्चात् रजोमय प्राणके साथ मिलनेसे ही मन क्रियाशील होता है, तब उससे नाना वृत्तिका उदय हो के भूर्भुव आदि लोक समूहका प्रतिपालन होता रहता है, इस शुद्ध सत्व मय मनके आश्रय स्थान ब्रह्माकाश ही मानुष-लोक है। इस मानुष-लोक में कर्मज सिद्धि क्षिप्र ( शीघ्र ) होता है, अर्थात् क्रिया-कालमें, किसी चक्रके प्रति वा अगल बगलका किसी चीजको लक्ष्य न करके, एकमात्र अतीव सूक्ष्म ब्रह्मनाड़ीके आकाशको अवलम्बन करके गुरूपदेश अनुसार प्राण-चालन करने से ही उसके ऐसे ही प्रभाव है कि, मनके आकांक्षा मिट जायके विषय-संग कट जाता है, और लक्ष्य एकमात्र तारकब्रह्म नादविन्दुमें अटक जाता है । इसलिये इस समय मन निरा Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय १६६ लम्ब-भावसे व्योमचारी होनेसे तथा और कोई प्रतिबन्धक न रहनेसे, शान्ति वा कैवल्यस्थिति शीघ्र आता. है। यह एकवारगी स्थिर निश्चय है॥१२॥ चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः । तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम् ॥ १३ ॥ अन्वयः। गुणकर्मविभागशः ( गुणानां कर्मणां च विभागैः) मया चातुर्वर्ण्य ( चत्वार एव वर्णाः ) सृष्टं, तस्य कतारं अपि मां अकर्तारं अव्ययं विद्धि ॥ १३ ॥ अनुवाद। गुण और कर्म विभागसे मैं चारो वर्णों का सृजन किया हूँ, उसके कर्ता होनेसे भी मुझको अकर्ता तथा अव्यय जानना ॥ १३ ॥ ... व्याख्या। मानुष-लोकमें सिद्धि वा नैष्कर्म्यावस्थाकी प्राप्ति शीघ्र होता है सही, किन्तु शक्तिलाभ होता नहीं; क्योंकि, वर्णमेद करके अधिकारी भेद है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र के चार वर्ण; ये सब सत्त्व, रज, तमः इन तीन गुणोंके कर्म विभागके अनुसार अलग अलग किया हुआ है। सत्त्वका कम्म प्रकाश करना, रजोका कर्म क्रिया करना और तमोका क्रिया स्थिर करना है। शरीरमें तीन गुण सब समयमें समान नहीं रहते; विषय-संसर्ग भेद करके मनमें जो भावान्तर होता है, उसमें गुणका भी तारतम्य होता है। शरीरका सत्वप्रधान अवस्थामें अन्तराकाश शुभ्र ज्योतिसे परिपूर्ण होता है, उसमें विश्वके जो कुछ सब स्थिर भावसे प्रकाश पाता है। यह विश्वप्रकाशक वर्ण ही ब्राह्मणवर्ण है, शरीर में सत्त्वरजके प्रधान होनेसे अन्तराकाश फीका लाल रंगसे रंजित होता है; तब जो कुछ प्रतिफलित होता है, वह सब चंचलतामय तथा तेज करके परिपूर्ण है; यह तेज और चंचलतामय वर्ण ही क्षत्रियवर्ण है। शरीरके रजस्तम प्रधान अवस्थामें अन्तराकाश जरा हुआ ( काला मिला हुआ) लाल रंग करके रंजित होता है; इस समयमें कोई विम्व ही लक्ष्य होता नहीं; जो Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० श्रीमद्भगवद्गीता कुछ हो वह आवछाया आवछाया, फिर चंचलतामय; यही वैश्यवर्ण है। और तम प्रधान अवस्थामें अन्तराकाश गाढ़ा अन्धकार करके ढका रहता है, तब न चंचलता, न प्रकाश कुछ भी लक्ष्य नहीं होता, धारणा भी नहीं होती; यही शूद्रवर्ण है। साधनाका पूर्वावस्था ही साधकका शूद्रवर्ण है। जबतक यह अवस्था रहे, तवतक अन्धवत् शरीरकी परिचा वा सेवामात्र ही होता है, बहिर्विषय छोड़ करके अन्तरका कोई किसीका अधिकार नहीं होता। पश्चात् साधनामें प्रवृत्त होके जब वायुको आकर्षण करके एक स्थानसे दूसरे स्थानमें आदान प्रदान कर सकें, तब मेरुदण्डके शिरा प्रशिराकी जड़ता धीरे धीरे नष्ट हो जाके एक स्वच्छन्दता आती रहती है, और अन्तरमें एक शक्तिकी वृद्धि होती है, उसमें क्रम अनुसार अंधियारा दूर होता रहता है, भीतरमें क्या जाने क्या है, कह करके एक बोध होता है, और शरीरके भीतर बाहरमें चंचलता की वृद्धि होती है; साधनामें यह अवस्था जबतक रहे तबतक साधकका वश्यवर्ण है। पश्चात् जब श्वास सूक्ष्म हो आके श्वेतरक्तिमोज्ज्वल ज्योति करके अन्तर आलोकित होता है, तब शरीर और मनमें एक तेजका संचार होता है, उसी तेजसे साधनक्लेश तुच्छ हो जाता है; इच्छानुरूप प्राणका उत्थान पतन होनेसे, उसके सहारेसे चक्र समूहके विविध स्थान प्रस्फुरित तथा दृष्टिगोचर होता है, और उसी उसी स्थानकी विभूति वा शक्तिविशेष अपना आयत्तम आता है; यह अवस्था ही साधकका क्षत्रियवर्ण है। अन्तमें इस अवस्थाके परिपाक काल करके जब रजोगुणकी चंचलता और तेज घट जाता है, और अन्तरकी लालिमा कट जाके उज्ज्वल श्वेतवर्गका विकाश होता है, तब शरीर और मन शान्त, उद्वगरहित तथा प्रसन्न होता है; यह अवस्था ही साधकका ब्राह्मणवर्ण है। प्रणवमूल वेदमें अधिकार पाके, ब्रह्मविद्याको पूर्ण रूपसे प्रबोधित करके ब्रह्मवल लाभ करना हो तो, साधकको Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय २०१ सद्गुरूपदिष्ट क्रियाके अनुष्ठान करके द्विज होके वैश्य-क्षत्रिय-ब्राह्मणवर्ण-क्रमसे साधन-मार्गकी चरम सीमामें आना पड़ता है, नहीं तो किसीमें कुछ होता नहीं। इसलिये शास्त्रमें वर्ण भेद करके अधिकारी भेदका विधान है। ब्रह्मवल एक विभूति अर्थात् श्रेष्ठतम शक्तिविशेष है; इसलिये ब्राह्मण न होनेसे किसीसे ही सो शक्ति लाभ होती नहीं। किन्तु परागति वा मुक्ति शक्ति नहीं है, अवस्थाविशेष है; इसीलिये इसमें अधिकारी भेद नहीं। भक्तिपूर्वक इष्ट मन्त्रका अवलम्बन करके जो कोई आत्मानुसन्धानकी चेष्टा करेगा वही, ब्राह्मण-क्षत्रियकी बात क्या "स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रा:"-स्त्री, वैश्य और शूद्र जो वर्ण और जो जाति हो, कोई चिन्ता नहीं, परित्राण अर्थात् कैवल्य-शान्ति पावेगा। साधन मार्गमें गुरूपदिष्ट विधान क्रमसे एकमात्र मानुषलोक ही उन सबका आश्रयस्थल है । वो जो तीन गुणके कर्मविभागके अनुसार चार वर्ण हुआ है, वह "मैं' की ही क्रिया है। क्योंकि “मैं” और “मैत्व" ये दो पृथक भावापन्न ( धोखा ) होनेसे भी जैसे पृथकता नहीं, विशुद्ध चैतन्य और अविशुद्ध चैतन्य भी तैसे दृश्यतः पृथक् होनेसे भी वस्तुतः पृथक नहीं है। चैतन्य नित्य, शुद्ध, बुद्ध तथा अकर्ता होनेसे भी उनका जो 'तत्-त्व' अर्थात् माया हैं, उनसे ही उन्होंने अविशुद्ध होके क्रम अनुसार स्थूलसे स्थूलतम विश्व-साज सजके प्रकटित हुये हैं, और मिश्र तीन गुणके चार वर्ग बनाये हैं ॥ १३ ॥ न मा कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा । इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥ १४ ॥ अन्वयः। कर्माणि मां न लिम्पन्ति, ( यतः ) कर्मफले मे स्पृहा न (अस्ति); इति ( एवं ) मा यो जानाति सः कर्मभिः न बध्यते ॥ १४ ॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ श्रीमद्भगवद्गीता - अनुवाद। कर्मसमूह मुझको लिप्त कर नहीं सकते, कर्मफलमें मेरा स्पृहा नहीं। जो मुझको इस प्रकार जानते हैं, वह कर्म समूह से आबद्ध नहीं होते ॥ १४ ॥ व्याख्या। जिन्होंने क्रियायोगसे मनको विषयविहीन करके पंचतत्त्वके ऊपर उठ करके अपना स्वरूप देखे हैं, वह अच्छी तरह समझे हैं कि, कर्ममें निर्लिप्त होना तथा कर्मफलमें स्पृहाशून्य होनेका स्वरूप कैसा है। साधक योगानुष्ठानसे अपना उस प्रकार आत्मभावको जान लेके नित्यसत्त्वस्थ होते हैं इस करके देह त्यागके समय वह जिस अवस्थामें रहें, तब उनका "अग्निज्योतिरहः शुक्ल.” उत्तरायण काल उपस्थित होता है, जिसलिये अपुनरावृत्ति गति लाभ होती है; और उनको पुनः देह धारण रूप कर्मबन्धनमें फंसना नहीं पड़ता ॥ १४ ॥ एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः । कुरु कम्मैव तस्मात् त्वं पूर्वः पूर्वतरं कृतम् ।। १५ ।। अन्वयः। एवं ज्ञात्वा पूर्वैः मुमुक्षुभिः ( जनकादिभिः ) अपि कर्म कृतम् । तस्मात् त्वं पूर्वः (मुमुक्षुभिः) कृतं (अनुष्ठितं ) पूर्वतरं ( प्रथम ) कर्म एव कुरु ।। १५ ॥ __ अनुवाद। पूर्व पूर्व मुमुक्षुगण भी इसी प्रकार जानके कम्म कर गये हैं; अतएव तुम पूर्व पूर्व मुमुक्षुगणके आचरित पूर्वतर ( प्रथम ) कर्म ही किया करो ॥ १५ ॥ व्याख्या। सच है कि, आत्माको निर्लिप्त और स्पृहाशून्य भाव करके जाननेसे और कर्मबन्धनमें पड़ना नहीं होता, किन्तु वैसा कह करके कर्मत्याग किया जा नहीं सकता; क्योंकि, कर्मत्यागी सिद्ध के भी पतन की सम्भावना है, किन्तु कमीके किसी प्रकारसे पतन की सम्भावना नहीं है। इसीलिये "कर्म ज्यायोह्यकर्मणः" है । पूर्व मुगणमुक्षु जो लोग सब आत्मभावको अच्छी तरह जान लिये थे Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ चतुथ अध्याय कि, कर्ममें और फंसना न पड़ेगा, वह लोग भी कर्मको त्याग नहीं किये थे, वह यथारीति कर्मका आचरण करते ही चले गये । इसीलिये भीगुरुदेव कहते हैं-अर्जुन ! तुम कर्म करो, पूर्व पूर्व मुमुक्षुगणने जिस प्रकारसे कर्म किया था, तुम भी उसी प्रकारसे प्राणायाम रूप प्रथम कर्म किया करो ॥ १५ ॥ किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः। तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥ १६ ॥ अन्वयः। कर्म किं अकर्म ( तुष्णीमासनं ) किं इति अत्र ( अस्मिन् विषये) कवयः ( मेधाविनः, विवेकिनः ) अपि मोहिताः ( मोहं गताः ), ( अतः ) ते ( तुभ्यं) अहं तत् कर्म (कम्माकम्मं च ) प्रवक्ष्यामि, यत् ज्ञात्वा अशुभात् (संसारांत् ) मोक्ष्यसे ।। १६ । अनुवाद। कर्म क्या ? अकर्म भी क्या ?-इस विषयमै कवि लोग भी मोहित होते हैं; अतएव मैं तुमको उसी कर्मका विषय कहता हूँ जिसे जाननेसे अशुभसे मुक्ति लाभ कर सकोगे ॥ १६ ॥ व्याख्या। जो प्रतिकथामें नवीन ( नये नये ) भाव प्रकाश करते हैं, उनकी कवि कहते हैं। जो भावावस्थाके शुरूसे प्रारम्भ करके, प्रतिदिनके अभ्याससे थोड़ा थोड़ा अग्रसर होते होते,भावातीत होने जाते हैं, उनमें प्रति क्रमसे नये नये अलौकिक घटनावलीका प्रकाश तथा विवेक-ज्ञानका उदय होता है, इस करके वह भी कवि; फिर जो क्रियाकांडके प्रथमसे आरम्भ करके नित्य अभ्याससे ज्ञानावस्थामें पहुंचनेके लिये अग्रसर होते हैं, उनके अन्तरावरणके दिन पर दिन क्षय होते रहनेसे, क्रम अनुसार तत्त्व समूह कारणके साथ नूतन प्रकारसे उनके दृष्टिगोचर होते रहते हैं,-जाग्रत अवस्था में पुनरावृत्ति होनेसे भी, उसी दृष्ट तत्त्व समूहका स्मरण रहता है, इस करके, पुनराय क्रियाकालमें उनका पथ सुगम होता है, यह मेधा शक्ति तथा तत्वज्ञान Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ श्रीमद्भगवद्गीता सम्पन्न साधक भी कवि हैं। इस प्रकारसे क्रियामार्गमें प्रत्यह उन्नतिशील विवेकी मेधावी तत्वज्ञ साधकके भी, जाग्रत अवस्थामें शरीरधर्मा प्रतिपालनके लिये शब्दस्पर्शादि विषय भोग करनेसे, चित्तमें संगदोष-स्पर्श होता है। इसलिये फिर दूसरे रोज क्रियाके समय सुषम्नामार्ग में आत्ममन्त्रका स्मरण करते करते उठ जानेसे भी, समाहित होनेके पहिले विषय-संस्पर्शके लिये वृत्तिनिचय मनमें उदय होते हैं; किन्तु तब मन क्षीण होके अवश हो पानेसे, विषय-स्मृतिकी खिचाईमें पड़के चैतन्यसे विच्युत हो जाता है; इसलिये चैतन्यमें समाहित न होके विषयमें समाहित होने पड़ता है। समाधिके ठीक पूर्व क्षणमें वो जो क्षीण स्मृति-सम्पन्न अवश अवस्था आती है, उस समय कम-वेग चैतन्यमुखमें रहता है, कि विषयमुखमें रहता है, उसका ज्ञान रहता नहीं; जिसलिये समाधिमें जो तुष्णीम्भाव होता है, वह ठीक अकर्म है कि नहीं अर्थात् वह स्थिरभाव चैतन्यमें या जड़ विषयमें, वह भी समझनेकी शक्ति नहीं रहती; इस समयमें मोहित होयके रहना पड़ता है, “कर्म अकर्म" का बोध रहता नहीं। समाधि भंग होनेके पश्चात् जब मन अच्छी तरह जाग उठता है, तब वो स्थिरभाव योगनिद्रा वा समाधि है, या विषयनिद्रा वा निद्रा है, वह समझमें आता है। क्रिया करके भी जो विषय-निद्रामें अभिभूत होना पड़ता है, यही अशुभ है, क्योंकि यही संसार-बन्धन है, कौन कर्म करनेसे इस अशुभसे मुक्ति मिलती है, वही उपदेश श्रीगुरुदेव पश्चात्के श्लोकोंमें प्रकाश करते हैं ॥ १६ ॥ कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यच विकर्मणः। अकर्मणश्च बोद्वव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥ १७ ॥ अन्वयः। “हि ( यस्मात् ) कर्मणः ( शास्त्रविहितस्य ) अपि बोद्धव्यं (अस्ति), विकर्मणः (प्रतिषिद्धस्य ) च बोद्धव्यं ( अस्ति एव ), ( तथा ) अकर्मणः (तुष्णोम्भावस्य ) च बोदव्यं (अस्ति); ( यस्मात् ) कर्मणः (कम्माकर्मविकामणां ) गतिः (याथात्भ्यं तत्त्वं ) गहना (विषमा दुज्ञेया)।"-इति शंकरः ॥ १७ ॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुथ अध्याय २०५ अनुवाद। कर्म समझना होवेगा, विकम्म भी समझना होवेगा तथा प्रकम्म भी समझना होवेगा, क्योंकि कर्मकी गति गहना ( अतीव दुर्जेया ) है ॥ १७ ॥ ब्याख्या। कर्म ही जगत , कर्म ही संसार है। कर्मकी गति गहना है। जो परमेश्वरी, माहेश्वरी शक्ति * वा माया है वही गहना है। वही दुज्ञेया दुरत्यया माया ही कमकी गति अर्थात् आश्रय वा परिणाम है, जिसलिये माया ही कर्मरूपिणी जगद्धात्री है। माया जैसे एक ही पदार्थमें अनन्त भाव विकाश करके जीवको वही सब भाव करके नवीन ज्ञानमें मोहित करती है, कर्म भी वैसे अनुष्ठित होनेसे विविध आकारसे विविध फल प्रसव करता है। गुरुब्रह्म श्रीभगवानने उसी विशाल कर्मके स्वरूप ज्ञानको समझा देनेके लिये, गति भेदसे कर्मको तीन अंशमें विभाग किये हैं,-(१) कर्म, (२) विकर्म, और (३) अकर्म। (१) कर्म। “भूतभावोद्भवकरः विसर्गः कर्मसंज्ञितः।” –'भूत' अर्थमें जीव, 'भाव' अर्थ में अवस्था; अतएव 'भूतभाव' अर्थमें चैतन्यका जीवावस्था वा जीव भाव है। और 'उत्' अर्थं करके ऊर्द्ध में अर्थात् पंचतत्वके ऊपर वा आज्ञाचक्रमें, तथा 'भव' अर्थमें स्थितिः इसलिये . ऊर्द्ध में स्थिति का नाम 'उद्भव' हुआ। 'विसर्ग' अर्थमें त्याग, निश्वास त्याग वा प्राणत्याग। जो विसर्ग जीव भावके उद्भवकारी, अर्थात् जिस प्रकारसे निश्वास त्याग करनेसे जीवभावका उद्भव हो, और जीवभावको शिवभावमें स्थापन करे, उसीका नाम कम है; अर्थात् जिस प्रकार प्राणचालनसे जीवात्मा परमात्मामें मिलते हैं, उसीको ही कर्म कहते हैं। (२) विकर्म। वि= विपरीत+कम। जिस कम के लिये जीव को संसारमें आना अर्थात् शरीर धारण करना और विषयमें उतरना * "या सा माहेश्वरी शक्तिज्ञानरूपातिलालसा। व्योमसंज्ञा पराकाष्ठा सैषा हैमवती सतो" ॥ १७ ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ श्रीमद्भगवद्गीता पड़ता है, वही विकर्म है। यह विकर्म पूर्वकृत कम के संस्कार, संचित और प्रारब्ध कमरूपसे जीवको फलभोग कराता है। (३) अकम। कम जब प्राण और अपान मिलकर स्थिर हो जायके वृत्ति-विस्मरण होवे-तुष्णीम्भाव आवे, वही अकम (जो कम नहीं ) है। [अवतरणिका (४) परिच्छेद देखो। "मैं-मेरे" वा "आत्मा-विषय” इन दोनोंकी मिश-अवस्था ब्रह्म, मिल-अवस्था शिव (दृष्टि), और छाड़ (अलग )-अवस्था जीव (सृष्टि ) है * । जिस क्रियासे विषयका विकाश हो, वह विकम, और जिससे आत्माका विकाश हो, वह कम है; मुख्य बात यह है कि विषयमुखी वृत्ति विकम, आत्ममुखी वृत्ति कम है। आत्ममुखी वृत्तिमें जब "मेरे" आयके “मैं” में मिले, तब आत्मचैतन्यमें जो वृत्तिविहीन स्थिरभाव पाता है वही योगशास्त्रका अकम है । ( पर श्लोक देखो ) ॥ १७ ॥ कर्मण्यकर्म यः पश्येदकमणि च कर्म यः। . स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकम्म कृत् ॥ १८ ॥ अन्वयः। यः कर्मणि अकर्म, यः च अकर्माणि कर्म पश्येत् मनुष्येषु सः बुद्धिमान् सः युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ( च ) ॥ १८ ॥ अनुबाद। जो कर्म में अकर्म तथा अकर्म में कम्मं देखते हैं, मनुष्यके भीतर वही पुरुष बुद्धिमान वही पुरुष युक्त, और वही पुरुष कृत्स्नकर्मकृत् है ॥ १८॥ * इन तीन अवस्थाओंका एक उदाहरण दिया जा सकता है। एक टुकड़ा मिश्री को जलमें मिझोय देनेसे, जब तक मिश्रीका कठिन अवस्था रहता है, तब तक जल और मिश्री के छोड़ ( अलग ) अवस्था। मिश्री गल गया, लेकिन वो गला हुआ अवस्थामें एक जगहमें स्थिर हुआ है; व्याप्त होके सब जलको मौठा किया नहीं, तब जल-मिश्रीके मिल अवस्था; और मिश्री जब व्याप्त होके सब जलको मीठा कर चुके, जल-मिश्री एकरस होय गये, तब जल-मिश्रीके मिश अवस्था जानो ॥ १७ ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ ___ चतुर्थ अध्याय व्याख्या। साधन-समयमें साधकके ऊपर दो महाशक्ति कामकाज करती है, एक विकर्म शक्ति ( यह अपान वायुकी क्रिया है) और एक कर्म शक्ति। कम साधकको आत्मामें स्थिर करके गहनापार अर्थात् मायातीत करनेकी चेष्टा करता है, और विकम्म उनको खींचके विषयमें रखनेकी चेष्टा करता है। शरीर ही समष्टि-विकम क्रिया है। यह विकर्म एतना ही प्रबल है कि, कर्मयोगसे आत्मचैतन्यमें स्थिति लाभ करनेके ठीक पूर्वक्षणमें ही यह (विकम) शब्दस्पर्शादि कोई एक विषयको मनके भीतर जगाय देके चैतन्यको ढांक देता है, तब, कत्त्व मिट जाके निश्चेष्ट क्रिया होते रहनेसे, अवश मन चैतन्यमें स्थिर न होके उसी विषय लेके स्थिर हो जाता है। इसलिये वह स्थिति अकम न होयके विकम-भोग हो जाता है ( १६ श्लोक देखो)। फिर ऐसा भी होता है, साधक जब अकममें ही स्थिति पाके कत्र्तृत्वहीन स्वाभाविक निश्चेष्ट क्रियासे ( जलमें गली हुई मिश्रीके सदृश ) क्रम अनुसार व्याप्त होके परमात्मा-ब्रह्ममें घुल जायके मिलकर एक रस होने जाते हैं, तब शारीरिक प्रवल विकर्म की ताड़नासे वो स्थिर अवस्था, निद्रा टूटके चमक आनेके सरिस टूट जाता है, इस करके फिर शब्दस्पर्शादि-संकुल विकर्म में आना पड़ता है। इस प्रकारसे प्रतिदिन नियमित क्रियामें अभ्यास दृढ़ होनेके पश्चात् विकम का वेग क्रम अनुसार क्षीण, और कर्मका वेग प्रवल होता है; तब क्षणस्थायी अकम स्थिति धीरे धीरे बहुक्षणस्थायी होता है। बहुक्षणस्थायी अकम स्थिति भोग करते करते जब जब मन मैं-मय हो जाता है, तब विकम में उतर आनेसे भी* और विकर्म भोगसे अभिभूत होने नहीं पड़ता, कारण यह है कि चैतन्य * निद्राका परिपाक करके शारीरिक ग्लानि नष्ट होक निद्रा जैसे आप हो आप भंग हो जाती है, अकर्म स्थिति वा समाधि भोग भी वसे परिपाक पाके मनमें शान्ति सञ्चार करके आपही आप भंग हो जाता है ।। १८ ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ श्रीमद्भगवद्गीता में स्थितिलाभ करके जो आत्मानन्दास्वाद् मिलता है, मन उसमें विभोर रहनेसे, लक्ष्य उसी तरफ ही रहता है, इसलिये तब भी तत्साधनोपयोगी प्राणकम होता ही रहता है। इस अवस्थामें साधक कम करनेसे भी उसी आत्मानन्दमें लक्ष्य रहनेसे उनको अकम भोग भी होता रहता है; फिर अकमसम्भूत आत्मानन्दमें लक्ष्य रहनेसे भी, कर्म करनेके लिये कमज्ञान भी रहता है। इस करके उनका एकाधारमें कम अकर्म दोनों ही होता रहता है। अतएव उनके कम में अकम्मका और अकम में कमका दर्शन होता है। इस प्रकार साधक ही बुद्धिमान है; कारण उनका बुद्धि विषय-विमुख होनेसे आत्मामें लगकर स्थिर होकर रहता है, विक्षिप्त (खरचा नहीं होता। इस वास्ते वह युक्त है। और भी वह कृत्स्नकम्मकृत् है, अर्थात् विकम-विक्षेप विहीन सम्पूर्ण कर्म के अनुष्ठान करके “मैं” और "मेरे' मिल जाके, मिशके एक हो जानेके ठीक पूर्व पर्यन्त जो सूक्ष्मातिसूक्ष्मतम वृत्ति रहती है, उसमें, प्रवृत्ति-निवृत्ति भेदसे जितने प्रकार का कर्म है, उन सबका तत्त्व वह जानते हैं; इस करके वह सर्वज्ञ है। (जीवन्मुक्तावस्था यही है; इसके बादही शरीर त्यागसे विदेह ब्रह्मस्व है ) ॥ १८ ॥ यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः। ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥ १६ ॥ अन्वयः। यस्य सर्वे समारम्भाः (कर्माणि) कामसंकल्पवजिताः (कामैस्तत्कारगैश्च संकल्पैर्वजिताः) बुधाः (ब्रह्मविदः ) ज्ञानाग्निदग्धकाणं तं पण्डितं माहुः॥ १९॥ अनुवाद। जिनके कर्म सकल कामसंकल्पवजित हैं, ज्ञानाग्निमें उनके समुदाय फर्मके दग्ध हो जानेसे, बुधगण उनको पण्डित कहते है ।। १९ ।। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय २०६ व्याख्या। विषय-वासनाका नाम काम है; आकांक्षा वा इच्छा मात्रका नाम ही संकल्प है। संकल्पसे हो कामको उत्पत्ति है। मुक्तिकी इच्छाके लिये जो संकल्प किया जाय, कामना होनेसे भी वह कर्मबन्धनमें लाय नहीं फंसाता, इस करके उसको काम नहीं कहा जाता। पंचतत्वका नाम हो सर्व है; गुरूपदेशके अनुसारसे चित्त शुद्धि के लिये पंचतत्त्वमें जितने प्रकारकी प्राणक्रिया की जाती है, वह समम्त ही सर्व-समारम्भ है। जिनका समारम्भ समूह अर्थात् ये समस्त प्राणक्रिया काम और संकल्पविहीन है, अर्थात् क्रियासे जिनकी विभूति लाभकी तथा मुक्ति लाभकी भी इच्छा न रहे, जो अबाधतः केवल गुरुवाक्य पालन करते हैं, उनके कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कमका दर्शन होता है; इसलिये उस अवस्था में उनको आत्मज्ञान उत्पन्न होता है, उसमें उनका सकल कर्म ही दग्ध हो जाता है; लोकसंग्रहार्थ वा शरीर यात्रा निर्वाहार्थ (लोक चक्षुमें ) कर्म अनुष्ठित सेनेसे भी, वह कर्म और अंकुरित नहीं होता, अर्थात् उस कमसे फलोत्पन्न होके उनको और कम्ममें लिप कर सकता नहीं। इस प्रकार साधक ही पण्डित अर्थात् ज्ञानी है। (२०-२२ श्लोकमें इस पण्डितकी अवस्थाकी बर्णना की गई है ) ॥ १६ ॥ .. : त्यक्त्वा कर्मफलासंग नित्यतृप्तो निराश्रयः । कमण्यभिप्रवृत्तोऽपि नेव किञ्चित् करोति सः ॥ २० ॥ अन्वयः। सः (पण्डितः ) कर्मफलासंगं ( कर्मफले आसक्ति ) त्यक्त्वा नित्यतृप्तः (आत्मानन्दे तृप्तः, निराकांक्षः इत्यर्थः ) ( अतएव ) निराश्रयः (आश्रयनीय-.. रहितः सन् , आत्मना एव प्रात्मनि स्थितः इत्यर्थः) कर्मणि अभिप्रवृत्तः अपि न एवं करोति (निष्क्रियात्मदर्शन सम्पन्नत्वात् ) ॥ २० ॥ अनुवाद। वह कम्मफल के ऊपर आसक्ति त्याग करके नित्यानन्दमें परितृप्त तथा निरालम्ब होनेसे, कर्ममें प्रवृत्त रहनेसे भी कुछ भी नहीं करते ॥ २० ॥ -१४ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० श्रीमद्भगवद्रीता ... व्याख्या। जो पण्डित हैं, उनका कर्मफल में आसक्ति त्याग हो जानेसे वह नित्यानन्दमें परितृप्त रहते हैं, उनका और दूसरा कुछ ही आश्रय रहता नहीं। इसलिये इस असंग अवस्थामें "शरीरयात्रार्थ" वा "लोकसंग्रहार्थ" कम में प्रवृत्त रहनेसे भी, “यत्र यत्र मनो याति तत्रैव ब्रह्म लक्ष्यते" होनेसे, उनकी एक आत्मामें ही स्थिति होती है; इसलिये कम में रहनेसे भी उनकी अकर्म भोग होता है ॥ २० ॥ . निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः । शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥ २१ ॥ अन्वयः। (स.) निराशो ( निष्कामः ) यतचित्तात्मा (शमदमसम्पन्नः) त्यक्तसर्वपरिग्रहः ( सर्वत्यागी सन् ) शारीरं केवलं कर्म कुर्वन् किल्विषं (संसारबन्धं) न प्राप्नोति ॥ २१॥ अनुवाद । वह निष्काम, संयमी और सर्वत्यागी होके केवल मात्र शरीरयात्रा निर्वाहोपयोगी कभ करके पापमें लिप्त नहीं होते ॥२१॥ व्याख्या । जब मनमें काम और संकल्प नहीं रहता, तब शरीर में आपही आप जिस प्रकार क्रिया होती रहती है, वही "शारीर केवलं कर्म" है। केवलकर्ममें मात्र शरीर निर्वाह ही होता है, कोई उद्देश्य नहीं रहता। मन निष्काम संयत और त्यागी होनेसे कत्तृत्वाभिमान नहीं रहता, इसलिये शरीरादिसे चेष्टा करनेसे भी पाप (चंचलता) में अर्थात् संसार-बन्धनमें पड़ना नहीं होता। साधक ! अपने क्रियाकी परावस्थाकी परावस्थामें विषय-मिलनके ठीक पूर्वकाल पर्यन्त समयको स्मरण करो॥२१॥ यहच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः । समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥ २२ ॥ अन्धयः। (सः) यहच्छालाभसन्तुष्टः द्वन्द्वातीतः (आत्मपर-शोतोष्ण-सुखदुःखेत्यादि-भेदज्ञानरहितः समदर्शीत्यर्थः ) विमत्सर ( निवरबुद्धिः) सिद्धौ असिद्धो च समः ( हर्षविषादरहितः) (कर्म ) कृत्वा अपि न निबध्यते ॥ २२ ।। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय २११ अनुवाद। जो यदृच्छा लाभसे ही सन्तुष्ट हैं, द्वन्द्वातीत, बैरीभाव रहित तथा सिद्धि और असिद्धिमें समान ज्ञान सम्पन्न है, वह कम्मं करनेसे भी कर्ममें प्राबद्ध नहीं होता ॥ २२ ॥ व्याख्या। पण्डित व्यक्ति सबमें ही ब्रह्मदर्शन करते हैं। उनकी कामना और संकल्प न रहनेसे, शरीर निर्वाहके लिये जो आपसे आप आता है, वह उसी में ही सन्तुष्ट है, उसमें भला बुराका विचार नहीं-अपना पाया भेद नहों,- शत्र-भाव भी नहीं,-उनके लिये सबही ब्रह्म है, इस करके सिद्धि अर्थात् प्राप्तिकी पति-कैवल्यस्थिति, और असिद्धि अर्थात् तदभाव, सब एक ही एक है द्वतज्ञान न रहनेसे, कममें लिप्त रह करके भी वह लिप्त नहीं होते ॥ २२॥ गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः। यज्ञायाचरतः कर्म समग्र प्रविलीयते ॥ २३ ॥ अन्वयः। गतसंगस्य (निष्कामस्य ) मुक्तस्य (द्वन्द्वातीतस्य ) ज्ञानावस्थितचेतसः (आत्मज्ञाननिष्ठस्य ) यज्ञाय ( परमेश्वराराधनार्थ) आचरता (अनुष्ठियतः पुरुषस्य ) कर्म समग्र ( कर्मफलेन सह ) प्रविलीयते ( विनश्यति ) ॥ २३ ॥ अनुवाद । (कारण यह है कि ) निष्काम, सुखदुःखादि द्वन्द्वविमुक्त, आत्मज्ञाननिष्ठ और विष्णुप्रीतिके लिये कर्म आचरण करनेवाला पुरुषका कम्मं राशि फलके साथ लय प्राप्त होता है ॥ २३ ॥ .. व्याख्या। पूर्व श्लोकमें जो "कृत्वापि न निबध्यते” कहा हुआ है, इस श्लोकमें उसीका कारण निर्देश किया जाता है। यज्ञका अर्थ ३ य श्रः ६ वा श्लोककी व्याख्यामें देखो। विश्वव्यापी चैतन्य-पुरुष विष्णु ही यज्ञेश्वर ( आत्मा ) है; उस विष्णुकी प्रीति साधन अर्थात् उनमें मिलके विष्णु हो जाना ही प्रात्मप्रसन्नता है। आज्ञाचक्र पार हो उठ आके आत्मचैतन्यमें स्थिर धीर प्रकाशमय जो अवस्थाकी प्राप्ति होती है, वही आत्मप्रसन्नता है, इस आत्मप्रसन्नताके लिये अनुष्ठित Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ श्रीमद्भगवद्गीता कर्म ही यह हैं। गुरूपदेश अनुसार करके यज्ञार्थ कर्म अनुष्ठित होनेसे, रजो गुणके आधार स्वरूप पंचतत्व अतिक्रम हो जानेसे ही, कामना मिट जाती है, अतएव द्वन्द्वविमुक्त होके आज्ञामें स्थिर भी हुआ जाता है; इसलिये सर्व कर्म प्रकृष्ट रूप करके विलय पाता है, कोई बन्धन भी नहीं रहता ॥ २३ ॥ ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्बह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् । ब्रह्मव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकमसमाधिना ॥ २४ ॥ अन्वयः। अर्पणं (येन करणेन ब्रह्मविद् अग्नौ हविः अर्पयति तद्) ब्रह्म, ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतं हविः ब्रह्म; ब्रह्मकर्मसमाधिना ( ब्रह्म एव कर्म; तस्मिन् समाधिर्यस्य तेन) तेन ( यज्ञका ) ब्रह्म एव गन्तव्यं (प्राप्यं, न तु फलान्तर मित्यर्थः ) ॥ २४ ॥ अनुवाद। अर्पण ब्रह्म, ब्रह्माग्निमें ब्रह्म कत्त क हुत वि ब्रह्म, ब्रह्मकर्ममें समाधियुक्त कर्ताको गति भी ब्रह्म ( सब ही ब्रह्म ) है । २४ ॥ व्याख्या। कर्म यज्ञके लिये आचरित होनेसे वह कर्म प्रकृष्ट रूप करके क्यों विलयको पाता है; उसका कारण यह है कि, मन ब्रह्मनाड़ीके भीतर प्रवेश करनेसे ज्ञान-ज्योतिके विकाशमें देखने और समझनेमें आता है कि, 'सर्व ब्रह्ममयं जगत्" इसलिये तब सर्वत्र ब्रह्मबुद्धि आती है। इसलिये साधकके पास तब अर्पण अर्थात् शारीरिक करण समूह जिससे यज्ञकर्म सम्पन्न होता है, वह सब ब्रह्ममय है; सर्व शरीर व्यापी तेजोरूप जो वैश्वानर अग्नि है, वह भी ब्रह्ममय है; वह (आप) भी ब्रह्ममय है; उनका हवि अर्थात् प्राण और सहस्रारविगलित सुधा प्रभृति हवनीय पदार्थ भी ब्रह्ममय है; और उनकी आहुतिदान रूप हवन क्रिया भी ब्रह्ममय है। इस प्रकारसे ब्रह्ममें अर्थात् ब्रह्मनाड़ीके ब्रह्माकाशमें मन-प्राण क्रियाको स्थापन करके उनको ब्रह्म ही की प्राप्ति होती है। जब सबही एक हो गये, तब और बन्धन कहां? ॥२४॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ चतुर्थ अध्याय देवमेवापरे यज्ञं योगिनः पय्युपासते। ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥ २५॥ अन्वयः। अपरे योगिनः दैवं एव यज्ञं पर्युपासते ( श्रद्धया अनुतिष्ठन्ति ); अपरे ( तु ) ब्रह्माग्नौ यज्ञेन ( ब्रह्मार्पणभित्याद्य क्त प्रकारेण तपायेन ) यज्ञं ( आत्मानं ) उपजुह्वति ( प्रतिक्षिप्यन्ति; सर्वकमणि प्रविक्षप्यन्तीत्यर्थः ) ॥ २५ ॥ अनुवाद। योगियोंके भीतर कोई कोई दैव-यज्ञका अनुष्ठान करते हैं; फिर कोई कोई ब्रह्माग्निमें यज्ञसे यज्ञको प्राकृति प्रदान करते हैं ॥ २५ ॥ व्याख्या। ब्रह्मार्पण रूप यज्ञ, सर्व प्रकार यज्ञसे श्रेष्ठ है; किन्तु साधक के अधिकारित्व भेद करके ज्ञानके उपायभूत नाना प्रकार यज्ञका अनुष्ठान करना पड़ता है; वह समस्त ही अंगाङ्गीभाव करके परस्पर सम्बद्ध है। २५-२६ श्लोकमें वही सब यज्ञ उल्लेख किया हुआ है। साधक योगी होकर विश्वभ्रमको ब्रह्माग्निमें आहुति देके कसे करके ब्राह्मीस्थिति लाभ करते हैं, और उस स्थिति के पूर्वापर साधकको कौन कौन अवस्था भोग करनी पड़ती है, वही बातें उन सब यज्ञ वर्णनसे उपदेश की गई हैं। साधक मात्र ही इन सबको अपनी क्रिया के साथ अच्छी तरह मिलाय लेकर अपनी कर्त्तव्य अषधारण करेंगे। साधक जब विश्वका स्थूलत्व छोड़के गंगा-यमुनाके भीतर सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्वरस्वतीमें कूदते हैं ( स्वरस्वती स्वरके आदि ', तब उनकी अपानकी खिंचाई घट जानेसे सहस्रार पर्यन्त समस्त कमल ऊर्द्धमुखी होता है। उस समय व्यञ्जनविहीन ब्रह्ममन्त्रके आश्रयसे मूलाधारग्रन्थि भेद करके भी, अभ्यासके दोष करके चार पन्नेके चार शक्तिको धोखा देनेकी युक्ति न पाके, ब्रह्ममन्त्रमें व्यजन दे डालते हैं; इसलिये उन चार शक्तिको प्रबोध देना ही पड़ता है। यहां से नवीन बीज लेके स्वाधिष्ठानमें वज्राके भीतर उ आकरके भी फिर असावधानताके लिये छः महा शक्तिके स्पर्शदोष में पड़के, उन सबको Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ श्रीमद्भगवद्गीता भी प्रबोध देना पड़ता है। पुनराय नवीन बीज लेके मणिपुरमें चित्रा के भीतर उठ आके भी दश-शक्तिको प्रबोधित करना पड़ता है। इस प्रकारसे अनाहतमें बारह, विशुद्ध में सोलह और श्राज्ञामें उठके दो शक्तिके साथ मिलके सामान्य विश्राम लेते हैं। छायाविहीन तेजस मूर्तिसे ही ये सब शक्ति प्रत्यक्ष होती है, इसलिये ये सब देवता हैं । इन सबके प्रबोधके समय, इच्छा न रहनेसे भी, साधकको ठोकर दे पाना पड़ता है। यह जो देवतनका ग्रहण और त्याग अर्थात् पूजन और विसर्जन है इसीको हो देवयज्ञ कहते हैं। पश्चात् जब कूटस्थ लक्ष्य होता है, तब साधकके त्वं” और कूटस्थक “तत्” इन दोनोंके संयोग होता है ; इन दोनोंके मिलनेका नाम योग है। इस कार्यको जो लोग करते हैं वह सबही योगी है। जब साधक अपने "भ्रम. मैं” को छोड़ देके "तत्" के "विशुद्ध मैं" में आ पड़ते हैं, तब तत्क्षणात् उनको स्व स्वरूप की प्राप्ति होती है। यह जो अपनेमें अपने पड़के अपने नशामें अपने रहना, इसीको ही यज्ञसे यज्ञ करना कहते हैं। साधकका यह जो ब्रह्ममें मिलकर ब्रह्मभावमें ब्रह्मत्व भोग है इस समय उनमें कोई उपाधि नहीं रहती; इसलिये “उप" उपसगसे ब्रह्मयज्ञकी ब्रह्माग्निमें उनके अहंत्व के "उपवन" की कल्पना की गई है ॥२५॥ श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति । शब्दादीन् विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥ २६ ॥ अन्वयः। अन्ये श्रोत्रादोनि इन्द्रियाणि संयमाग्निषु जुह्वति; अन्ये शव्दादीन् विषयान् इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥ २६ ॥ अनुवाद। कोई कोई श्रोत्रादि इन्द्रिय सकलको संयम रूप अग्निमें आहुति प्रदान करते हैं; कोई कोई शब्दादि विषय सकलसो इन्द्रियरूप अग्निमें आहुति प्रदान करते हैं ॥ २६ ॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ चतुर्थ अध्याय व्याख्या। साधक आत्माको ब्रह्माग्निमें आहुति देनेके पूर्व में आत्म-ज्योतिके सहारासे अतीव सूक्ष्मदर्शी होते हैं ; तब अन्तरमें इन्द्रियवृत्ति समूह की उत्पत्ति, स्थिति और परिवर्तनके अतीव सूक्ष्म कारण समूहको प्रत्यक्ष करते हैं। उसी समय यदि आत्माको ब्रह्माग्नि में आहुति न देकर, अर्थात् अपनेमें आप मिल न जायके उन कारण सबको अपने वशमें लावें और आप स्थिति पदमें अटक रहें, ऐसा होनेसे, उनकी संयम अवस्था होती है । तब वह उन सबके द्रष्टा स्वरूप में अवस्थान करते हैं। तब वह देखते हैं कि, उनके मायिक शरीरके कर्णादि इन्द्रिय सकल पूर्ववत् और उनसे क्रियाशक्ति न पाके क्रियाशून्य अवस्थामें उस संयम रूप अग्निमें पड़के संयत होके अग्निरूप धारण किये हैं, ( इसीको ही संयमाग्निमें इन्द्रियों की आहुति कहते हैं ; और श्रोत्रादि इन्द्रियग्राह्य शब्दादि विषय समूह उस संयत अग्निरूप इन्द्रियोंमें आ पड़के आपही आप विलय प्राप्त होता है, इन्द्रियगणको और क्रियामुख कर नहीं सकता, (इसीको ही इन्द्रियाग्निमें विषयकी आहुति कहते हैं ) और भी देखते हैं कि, उनके संब ही अन्तःकरण विद्यमान हैं, लेकिन कोई और क्रिया करते नहीं, समस्त ही क्रियाशून्य अवस्थामें बैठे हैं। इस अवस्थामें आसक्तिका लेश मात्र न रहनेसे गुणमयी माया साधकके पास हार जाती है। समस्त गुणकी क्रिया भी विश्राम लेती है ॥ २६ ॥ सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे। आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥ २७ ॥ अन्वयः। अपरे च सर्वाणि इन्द्रियकम्माणि प्राणकम्माणि ( च ) ज्ञानदीपिते आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ॥ २७ ॥ अनुवाद। अपर योगीगण सर्व इन्द्रियकर्म और प्राणकर्मको ज्ञानदीपित आत्मसंयम रूप अग्निमें आहुति दिया करते हैं ॥ २७॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ . श्रीमद्भगवद्गीता ___ व्याख्या। मैं ही “मैं” वा ब्रह्म हूँ, यह दृढ़ धारणा ही ज्ञान है। एक मात्र कर्मयोगसे ही यह ज्ञान लाभ होता है। कोई कोई योगी इस ज्ञानमें दृढ़बद्ध होके कूटस्थ लक्ष्य करके चुपचाप बैठ रहके (प्राणक्रियामें लक्ष्य न देके) आत्माको ध्यान करते करते आत्मस्वरूपमें निष्ठा लाभ करते हैं अर्थात् मनको तन्मय करके स्थिर हो जाते हैं । इसीका नाम ज्ञानदापित अात्मसंयम है। ध्यानयोगमें इस प्रकार आत्मसंयम होनेसे दर्शन-श्रवणादि इन्द्रिय-कम्म, और श्वास-प्रश्वासउन्मेष-निमेषादि प्रा कर्म सब आप ही आप स्थिर हो जाता द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे। स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥ २८ ॥ अन्वयः। अपर सशितव्रताः ( सम्यक् शितानि तीक्ष्णोकृतामि व्रतानि येषां ते ) यतयः (यतनशीला8 ) द्रव्ययज्ञाः तपोयज्ञाः योगयज्ञाः तथा स्वाध्यायज्ञानयज्ञाः च (भवन्ति इत्यर्थः ) ॥ २८ ॥ अनुषाद। अपर दृढ़व्रत यतिगण द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ और स्वाध्यायज्ञानयज्ञका अनुष्ठान करते हैं ॥२८॥ * अत्यन्त सुखसंवाद अथवा अत्यन्त शोकसम्बादसे मनुष्य जैसे मोहको प्राप्त होता है, वैसे योग द्वारा जो सब योगी चित्तको वश कर चुके वह सब योगी आत्मध्यान करते मात्र ब्रह्मानन्द वेगसे अभिभूत होके तत्क्षणात् भाषावस्थामें उपनीत होते हैं। कर्मयोगसे भी यह अवस्था होती है, एकासनमें १७२८ बार चातुर्थिक प्राणायाम करनेसे ध्यानावस्था होती है, और २०७३६ दफे प्राणायाम करनेसे जो अवस्था होती है उसीको ही समाधि धा आत्मसंयम कहते हैं। इस समाधिसे ही "सोऽहं" ज्ञान आता है। संसाराभिमानी कल्पितात्माके एक दफे इस अवस्थाका भोग होनेसे ही, और उनको मायाको डोरी छू नहीं सकती। इसलिये आत्मसंयम रूप योगाग्निमें अज्ञानताकी आहुति देके ज्ञानके महाप्रकाशकी प्राप्तिका इशारा किया हुआ है ।। २७।। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . चतुर्थ अध्याय २१७ व्याख्या। जो सब साधक गुरूपदिष्ट क्रिया कलापको यतनसे साधन करते हैं, वही सब लोग यति कहाते हैं। जिन सब यतिको देश काल पात्रसे अथवा दूसरे किसी कारण करके नित्य नैमित्तक उपासना प्रायश्चित्तादि कर्मानुष्ठानके विघ्नोत्पन्न न हो, तथा जो सब यति यथा समयमें यथाकर्म नियमित रूप करके सम्पादन करना बिना दूसरा कोई कर्म नहीं करते, वही सब संशितव्रत यति हैं। वो लोग क्रियाकालमें यथाक्रम अनुसार द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ और स्वाध्याय-ज्ञानयज्ञके अनुष्ठान करते हैं। पूण्यस्थानमें द्रव्य विनियोग करनेका नाम द्रव्ययज्ञ है। पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, दिक् , आत्मा, काल, और मन-ये नौ प्रकार के द्रव्य है। मूलाधारादि छः स्थान ही पूण्यस्थान हैं। प्रथमतः जो कूटस्थको लक्ष्य करके कालके क्शमें रह करके वायुको आकर्षण कर लेके मनही मनमें मन्त्र संयोग पूर्वक प्रतिचक्रमें नियोग किया जाता है, तत् पश्चात् सर्वद्रव्यका सारभूत सहस्रारक्षरित अमृतको वैश्वानरमें अर्पण किया जाता है, उसीका नाम द्रव्ययज्ञ है। द्रव्ययज्ञ सम्पन्न होनेके बाद, साधक भूतप्रपञ्चके ऊपर तपोलोक प्राज्ञा चक्रमें उठ जाके मायिक आकर्षणको दमन करके चित्तकी चंचलताको नष्ट करते हैं; इसीका नाम तपोयज्ञ हैं । पश्चात् तपोयज्ञसे चित्तके विक्षेप भाव नष्ट होनेके बाद, साधक स्थिर धीर शान्त भावसे एकमात्र स्वस्वरूपको लक्ष्य करते हैं, तब केवल दृश्य और द्रष्टाका द्वन्द्व होता है, दूसरा सब पिछाड़ी पड़ा रहता है; इसीका नाम योगयज्ञ हैं। इस अवस्थामें जब प्रथम प्रथम वेदादि प्रणव, पश्चात् उससे वेदमाता गायत्री, परिशेषमें ऋगादि वेद अशरीरि वाणी करके आपही आप उच्चारित होता रहता है, उसको स्वाध्याय-यज्ञ कहते हैं ( स्वाध्यायसु-सुन्दर अर्थात् स्व स्वरूप +श्रा=प्रकृति अर्थात साधक + अध्याय - आलोचना), कारण यह कि त्वंरूपी साधक तथा तत् रूपी ईश्वरके Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ श्रीमद्भगवद्गीता ( स्व स्वरूपके) साम्ना सामनी देखा देखी अवस्थासे ही इसका उत्थान होता है। उस स्वाध्यायके अन्तस्थित तैलधारा सदृश अच्छिन्न प्रणव-निनाद सुनते सुनते समय तन्मय होकर मायिक आत्महारा होके ( खोके ) असम्प्रज्ञात अवस्था आनेसे, स्वाध्याययज्ञका शेष होता है। इस शेषके भी शेषमें समाहित अवस्था भंग होनेके पश्चात् निरीक्षण करनेसे आब्रह्मस्तम्ब पर्य्यन्त त्रिकालके जो कुछ जाननेके विषय सब जाना जाता है, सर्वत्र ब्रह्म दृष्टि स्थापित होता है; इसीको ही ज्ञानयज्ञ कहते हैं ॥ २८ ॥ अपाने जुह्वति प्राण प्राणेऽपानं तथापरे । प्राणापानगती रुद्ध, प्राणायामपरायणाः ॥ अपरे नियताहाराः प्राणान् प्राणेषु जुह्वति ॥ २६ ॥ अन्वयः। अपरे अपाने ( अपानस्थाने ) प्राणं तथा प्राणे (प्राणस्थान) अपानम् जुह्वतिः ( इत्यादि प्रकारेण ) प्राणापानगती रुद्या प्राणायामपरायणाः ( मवन्ति )। अपरे नियताहाराः ( सन्तः ) प्राणान् ( वायुभेदान् ) प्राणेषु (प्राणभेदेषु एव ) जुह्वति ॥ २९ ॥ अनुवाद। कोई कोई अपानमें प्राण और प्राणमें अपान प्रक्षेप द्वारा प्राणापान की गतिको रोध पूर्वक प्राणायामपरायण होते हैं। और कोई कोई नियताहार हो के प्राणमें ह। प्राणको हवन करते हैं ।। २९॥ व्याख्या। मूलाधारमें अपान और आज्ञामें प्राण अवस्थित (बैठे ) हैं। अपान अधोवृत्तिवायु, प्राण ऊर्द्ध-वृत्तिवायु है, अपान चंचल, प्राणस्थिर है, ये दोनों वायु मेरुके दोनों प्रान्तमें रह करके विपरीत आकर्षणमें परस्परको खींच लेनेके लिये चेष्टा कर रहे हैं । लेकिन कोई किसीको एकबारगी आयत्त कर नहीं सकते इस करके उन दोनोंमें कभी एकका कभी दूसरेका जय पराजयसे निश्वास-प्रश्वास की क्रिया चल रही है। जिस क्षणमें अपानकी खिंचाईसे प्राण निश्चय Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय २१६ ( शेष ) पराजित होता है, उसी क्षणमें जीवका देहत्याग होता है । जिस कौशल करके उस ऊर्द्धवायुको नीचे और अधोवायुको ऊर्द्ध में रखके दोनोंकी गतिरोधकी जाय, उसीको प्राणायाम * कहते हैं (गुरुमुखी विद्या)। वह प्राणायाम जिन लोगोंके प्रायत्त हुआ है, वही सब लोग प्राणायाम-परायण हैं। प्राणायाम द्वारा जब प्राण और अपानकी गतिरोध हो जाता है, तब और निश्वास-प्रश्वास नहीं रहता, इसलिये आहार अर्थात् वायुभोजन "नियत" अर्थात् संयत वा रुद्ध होता है। इस अवस्थामें साधक लोग, कूटरूपा प्रकृतिके गर्भमें रह करके भी उनमें से कोई किसीके साथ संस्पर्शदोष नहीं लेते; उन सबके समस्त व्यापार ही तब स्थिर वायु द्वारा स्थिरवायुमें सम्पादित होता है, इसीलिये "प्राणान् प्राणेषु जुह्वति" कहा गया है। यह अवस्था भाषामें व्यक्त नहीं होता। इङ्गित (इसारा ) से भुक्तभोगी समझ लेवेंगे ॥ २६ ॥ सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षयित कल्मषाः । यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सतातनम् ॥ ३०॥ अन्वयः। एते यज्ञविदः सर्वे अपि यज्ञक्षायतकल्मषाः (यज्ञानुष्ठानेन निष्पापा:) यज्ञशिष्टाभृतभुजः ( भूत्वा ) सनातनं ब्रह्म यान्ति ॥ ३० ॥ अनुवाद। ये समस्त यज्ञषिद्-लोग यज्ञानुष्ठानमें निष्पाप तथा यज्ञशेषरूप अमृत भोजी होके अनन्त ब्रह्मत्वको प्राप्त होते हैं ॥ ३०॥ व्याख्या। यज्ञक्रियाके जितने प्रकारकी प्रणाली कही हुई है, उन सबकीहो चरम वानी है । उन सबके भीतर प्रभेद केवल विभूति प्राप्ति वा शक्तिलाभ विषयमें है। यज्ञके यथाविधि अनुष्ठान करनेसे चित्तका * "रुद्ध'शक्तिनिपातेन अधोशक्त निकुञ्चनात् । मध्यशक्तिप्रबोधेन जायते परमं पदम्" ।। २९ ।। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० श्रीमद्भगवद्गीता कल्मष वा चंचलता रूप मैला सब दूर होता है, चित्त विशुद्ध होता है, और उसमें विषयका छाप नहीं पड़ता। तत्पश्चात् यज्ञ पूर्ण होके समाधिमें परिसमाप्त होनेसे, ज्ञानरूप जो अमृतका उदय होता है, उससे हृदयको परिपूर्ण करनेसे और मृत्यु होती नहीं; सबही "मैं" मय हो जानेसे अनन्त ब्रह्मत्वकी प्राप्ति होती है * ॥३०॥ नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥ ३१ ॥ अन्वयः। हे कुरुसत्तम! अयज्ञस्य ( यज्ञानुष्ठानरहितस्य ) अयं लोकः न अस्ति, ( विशिष्टसाधनसाध्यः ) अन्यः कुतः ? ।। ३१ ।। अनुवाद । हे कुरुसत्तम ! यज्ञहीन लोगों के लिये इहलोक ही नहीं है, दूसरे । लोक केसे रहेगा? ॥ ३१ ॥ व्याख्या। जो सब लोग भक्ति श्रद्धाके साथ इष्ट-देवताओंकी अाराधना द्वारा आत्मानुसन्धान नहीं करते, उनका अन्तर दुःख करके परिपूर्ण अर्थात् उनके अन्तराकाश अंधियारासे ढका रहता है, इसलिये उन सबको आत्मज्योतिका दर्शन नहीं होता; चित्तका मैला भी नष्ट नहीं होता; इस कारण करके वह लोग संसारके स्वरूप न जान करके अनित्य-असत्यको नित्य-सत्य बोध करके मोहित होके रहते हैं; आत्मज्योतिके सहारासे सत्य ज्ञान लाभ करके, संसारके शोक-मोहके भीतर रह करके भी जो शान्ति मिलती है, वह उन * साधक लोग नित्य क्रियायोग करके समाधिसे जो ब्रह्मत्व भोग करते हैं अथवा एकासन में बैठके २०७३६ दफे चातुर्थिक प्राणायाम करने से जो कुम्भक होता है, उसमें भी ब्रह्मत्वलाभ होता है, परन्तु वह सनातन नहीं, उसका भंग है और क्रमान्वयसे बसे भंग-समाधिके अभ्याससे सिद्ध होनेके पश्चात् जीवन्मुक्तावस्था प्राप्त होनेसे सनातन ब्रह्मत्वलाभ होता है। फिर प्राण-प्रयाण कालमें शुक्लागति ( देवयान ) प्राप्ति होनेसे भी, सनातन ब्रह्मत्व लाभ होता है ॥ ३० ॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय २२१ सबको नहीं मिलता। इसलिये उन सबका इह लोक * भी नहीं है। इहलोक न रहनेसे साधनसापेक्ष दूसरा लोक कैसे रहेगा ? शरीर त्यागके पश्चात् सत्कम्मके फलसे स्वर्गादि के जिस जिस लोककी प्राप्ति होती है वह सब ही दूसरे लोक हैं। वह खब लोक क्रमोन्नत हैं । उसी क्रमके चरम ऊर्द्ध में जो लोक है, वह लोक ही गोलोक-चैकुण्ठ वा अपुनरावृत्तिगति है। यज्ञानुष्ठान न करनेसे आत्मदर्शन नहीं होता, इसलिये इहलोक अशान्तिमय रहता है, श्रात्मदर्शन न होनेसे भी परागतिकी प्राप्ति नहीं होती, इस करके जन्म मृत्युके बालोड़नमें रहना पड़ता है। अतएव, साधक ! यज्ञानुष्ठान करो। यज्ञानुष्ठान करनेमें तुम्हारी शक्ति है, क्योंकि तुम कुरुसत्तम अर्थात् समर्थवान (कृति ) हो ॥ ३१ ॥ एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे । कर्मजान् विद्धि तान् सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ।। ३२ ॥ अन्वयः। एवं ( यथोक्ताः) बहुविधा: यज्ञाः ब्रह्मणः मुखे, ( सृष्टिकारिणः मुखे, वेदे इत्यर्थः) वितताः ( उच्यन्ते ), तान् सर्वान् , कर्मजान् (कायिकवाचिकमानसकम्मोद्भवान् ) विद्धिः एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे (संसारबन्धनात् विमुक्तो भविष्यसि ) ॥ ३२ ॥ अनुवाद। इस प्रकार बहुविध यज्ञ ब्रह्ममुख करके ( वेदमें ) कथित है; वह समस्त ही कर्मज, जानों; इस प्रकार जाननेसे हो मुक्तिलाभ कर सकोगे ) ॥ ३२ ॥ व्याख्या। मूलाधारमें पृथिवीबीजके भीतर सृष्टिकारि वेदवाहु (चतुर्भुज) ब्रह्मा बेठे हैं; इनहींके मुख पद्मसे वेद उच्चारण हो रहे * इ = ह्रस्वशक्ति, ह= त्याग करना, लोक = दर्शनीय जो कुछ; अर्थात् अर्द्धमुखी साधन क्रममें ह्रस्वशक्तिकी त्याग और दीर्घशक्तिको प्रारम्भसे जो जो दर्शनमें आता है, उसीकोहो इहलोक कहते हैं। नवौन साधकों भी ये सब प्रत्यक्ष करते रहते हैं ॥ ३१॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ __श्रीमद्भगवद्गीता हैं-"मुखाम्भोजलक्ष्मीश्चतुर्भागवेदः”। जिसलिये वेदको भी ब्रह्माजी का मुख कहते हैं। चतुष्कोणाकार पृथ्वी स्थानके भीतर त्रिकोणाकार जो योनिस्थान है, उस योनीके ऐन मध्य भागमें सुषुम्नाका मुख है, वही मुखड़ी ब्रह्माजीका मुख है, वहीं ही वेदमाता गायत्री हैं, ऐसा दर्शनमें आता है । वह सब ही कायिक वाचिक मानसिक कर्मसे “उत्पन्न हैं अर्थात् क्रियपदके भीतर शरीर मन-वाक्य द्वारा क्रिया जिस जिस प्रकारसे अनुष्ठान किया जाय, उन सबसे ही वो सब नाना प्रकारके यज्ञ उत्पन्न होते हैं;-कर्मातीत निष्क्रिय-पद, जहां आत्मा का स्वरूप प्रकाश है, उस स्थानमें इन सबका प्रकाश नहीं। क्रियाके अनुष्ठानसे स्थिर धारणामें इस तत्त्वको जान लेनेसे ही मुक्तिलाभ होता और संसारबन्धनमें पड़ने नहीं होता ॥ ३२ ॥ श्रेयान् द्रव्यमयाद् यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप । सवं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥ ३३ ॥ अन्वयः। हे परन्तप ! द्रव्यमयात् यज्ञात् ज्ञानयज्ञः श्रेयान् ; ( यतः ) पार्थ ! सर्व अखिलं कर्म ज्ञाने परिसमाप्यते ॥ ३३ ॥ अनुवाद। परन्तप ! द्रव्यमय यज्ञसे ज्ञानयज्ञ श्रेयः है; क्योंकि हे पार्थ! सर्व प्रकार कर्मही ज्ञानमें परिसमाप्त होता है ।। ३३ ।।। व्याख्या। द्रव्ययज्ञ और ज्ञानयज्ञका अर्थ पहिले २८ श्लोककी व्याख्यामें देखो। उससे देखा जाता है कि सर्व प्रकार कर्म ही क्रम अनुसार क्षीणसे क्षीणतम होते हुये अन्तमें आकरके ज्ञानमें परिणत होता है। ज्ञान ही कर्मों की परिसमाप्ति है । ज्ञानका उदय होनेसे सर्व-कम-विमुक्ति होती है। इसी कारणसे द्रव्ययज्ञकी अपेक्षा ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है ॥ ३३ ॥ ___ * दर्शन श्रवण जो कुछ जहाँके सब भ्र मध्य कूठस्थमें लक्ष्य स्थिर होनेसेही होता है। इस कारणसे ही भ्रमध्यमें प्राण स्थिर करनेके लिये गुरु महाराज आज्ञा करते है। इस आज्ञाके लिये ही भ्र मध्यके चकका नाम आज्ञाचक्र है ।। ३२ ॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय २२३ तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥ ३४॥ . अन्वयः। तत् ( ज्ञानं ) प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया च विद्धि; तत्त्वदशिनः ज्ञानिनः ते ( तुभ्यं ) ज्ञानं उपदेक्ष्यन्ति ॥ ३४ ।। अनुवाद। प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा द्वारा उस ज्ञानको जाननेके लिये यतन करो ; ( ऐसा करनेसे हो) तत्त्वदर्शी आचार्यगण तुमको ज्ञान उपदेश करेंगे ॥ ३४ ॥ व्याख्या। ज्ञान क्या है, उसको जाननेके उपाय तीन हैंप्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा। यह तीनों स्थूलसूक्ष्म भेदसे दो प्रकारके हैं। तत्त्वदर्शी गुरुदेवको भक्ति सहकार दंडवत प्रणाम “मोक्ष क्या है, विद्या क्या है, अविद्या क्या है" इत्यादि प्रश्न और परिचर्याशुश्रुषादिरूप सेवा करना पड़ता है। इस प्रकारसे प्रकृत भक्तिके उदय होनेसे ही गुरु प्रसन्न होकरके ज्ञानका उपदेश करते हैं । ज्ञान जानने का स्थूल-उपाय यह है। और कूटस्थ में गुरुपदको लक्ष्य करके प्राणवायुको एक जगहसे दूसरी जगहमें यथारीति (गुरुमुखी प्राणायाम ) फेंकना, इसके साथ ही साथ मनही मनमें आयत स्वरमें प्रणव उच्चारणरूप सेवा करना, और मनही मनमें जाननेका विषय प्रश्न करनायह सब सूक्ष्म उपाय है। इस प्रकार सूक्ष्म क्रियासे मन विषय संश्रवरहित हो आनेसे ही गुरु लोग दर्शन दे करके तत्त्वोंके स्वरूप प्रकाश द्वारा साधकके मनको आकृष्ट करके अन्तहित होते हैं। उस समय साधक या तो कोई अशरीरी वाणी श्रवण करके, नहीं तो कूटस्थमें उज्ज्वल अक्षरमें लिखी हुई भाषा पढ़ करके जाननेका विषय-समूह जान सकते हैं। अथवा तब अन्तःकरणमें ऐसा ही कोई भावान्तर मा पहुँचता है कि, जिसमें ज्ञातव्य विषय आपही आप आय करके मन में उदय होता है। इस प्रकारसे श्रवण, दर्शन, बोधन द्वारा संशय समूह दूर हो जाके ( निजबोधरूप) पूर्ण ज्ञानावस्थामें उपनीत होते हैं। (३६ श्लोक देखो ) ॥ ३४ ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ श्रीमद्भगवद्गीता यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव । येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥ ३५ ।। अन्वयः। हे पाण्डव ! यत् ( ज्ञान ) ज्ञात्वा त्वं एवं ( एवम्प्रकारेण ) पुनः मोहं न यास्यसि, ( किञ्च ) येन ( ज्ञानेन ) भूतानि ( ब्रह्मादीनी स्तम्बपर्यन्तानि ) अशेषेण आत्मनि अथ आत्मानं भयि द्रक्ष्यसि ।। ३५ ॥ अनुवाद। हे पाण्डव ! जिस ज्ञानको जाननेसे फिर और इस प्रकारका मोह प्राप्त न होवोगे; ऐसा कि जिससे ब्रह्मादि स्तम्ब पर्यन्तं भूत समूहको अंशेषरूप करके आत्मामें, तत् पश्चात् मैं में देख सकोगे ॥ ३५ ॥ व्याख्या। उन तीन उपायोंसे ज्ञानको जाना = मालूम होनेके बाद प्रत्यक्ष देखने में आता है कि. सूत्र में जैसे मणि गण रहते हैं श्रात्मा में बसे भूतोंका अवस्थिति है, कुछ भी नहीं छुटा है। इस कारण करके "मैं और मेरा" रूप संसार-मोहमें (धोकेमें ) पड़ना नहीं होता। तब "भूतानि" (विश्वप्रपन्च, जगत में जो कुछ है) "आत्मा" (क्षरचैतन्य, साधक ), और "अहं" ( अक्षरब्रह्म) - यह समस्त ही स्वरूप-दृष्टिसे एक हो जाता है। अतएव तब जो कुछ लक्ष्य में आता है, सबमें ही “तत्त्वमसि' ज्ञानको उपलब्धि होती है ।। ३५ ॥ अपि चेदसि पापिभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः । सव्व ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥३६॥ अन्वयः। अपि चेत् ( यद्यपि ) सर्वेभ्यः पापिभ्यः पापकृत्तमा ( अतिशयेन पापकृत् ) असि, (तथापि ) ज्ञानप्लवेन (ज्ञानपोतेन ) एव सर्व वृजिनं ( पापसमुद्र) सन्तरिष्यसि ॥ ३६॥ अनुवाद। सकल पापियोंसे तुम अतिशय पापकारी भो हो, ऐसा होनेसे भी ज्ञानरूप पोत द्वारा पापरूप समुद्र श्रम विना पार उतर जा सकोगे ॥ ३६ ॥ व्याख्या। मुमुक्षत्रोंके लिये सत्कर्म करना भी पाप है; कारण यह है कि, चाहे सत् हो चाहे असत् हो, कर्म रहनेसे मुक्ति होती Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ चतुर्थ अध्याय नहीं, क्योंकि, कर्मक्षय न होनेसे खत्-असत् फल करके आबद्ध होना ही पड़ता है। वही बन्धन ही पाप है। ज्ञानका स्वरूप मालूम होनेसे, अन्तकरण-वृत्ति अशेष करके अन्तर्मुखी हो जानेसे, कर्मसमूहसंख्यामें जितनी अधिक हो, असंख्य होनेसे भी-आपही आप त्याग हो जाता है, अर्थात् ज्ञानविद् अज्ञानचक्रके ऊपर कर्मका अतीत स्थान में चित्त निवेश करके रहते हैं, इससे कर्म उनको स्पर्श कर नहीं सकता ॥३६॥ यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा ॥३७॥ अन्वयः। हे अर्जुन ! यथा समिद्धः ( प्रदीप्तः ) अग्निः एधासि (काष्ठानि ) भस्मसात् कुरुते तथा ज्ञानाग्निः सर्वकम्माणि भस्मसात् कुरुते ॥ ३ ॥ ___ अनुवाद। हे अर्जुन । प्रदीप्त अग्नि जिस प्रकार काष्ठ सकलको भस्मसात् करती है, ज्ञानाग्नि उसी प्रकार समुदाय कर्मको भस्मसात् करती है ।। ३७ ॥ - व्याख्या। ज्ञानी सहस्रारमें उठकर बैठ रहनेसे, कर्मके अतीत होते हैं, कह करके, कर्म ज्ञानीको स्पर्श नहीं कर सकता; परन्तु फिर जब उतरके विषयके भीतर आते हैं, तब उनकी जिस प्रकार अवस्था होती है, वही इस श्लोकमें कही जाती है। कर्म तीन प्रकारके हैं। प्रथम, प्रारब्ध कर्म,-जिसने फल देना आरम्भ किया है, अर्थात जिसका फल यह शरीर है। द्वितीय, सञ्चित कर्म,-जिसका फल सञ्चय होता है, फल देना आरम्भ नहीं हुआ, पश्चात् फल देवेगा। तृतीय, भावी कर्म-जो कर्म अब तक अनुष्ठित हुआ नहीं, भविष्यत्में होवेगा। अग्निके सहारेसे काष्ठका जल-वायु अंश जैसे उड़ जाता है, केवल पृथ्वी अंश भस्म रूपसे पड़ा रहता है, वह भी बहुत ही हलका और सूक्ष्म, ठीक वैसे Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीमद्भगवद्गीता ज्ञानोदय होने के बाद सञ्चित कर्म कम्र्मीको छोड़ करके महाकाशमें मिल जाता है; भावी कर्म अनुष्ठित होनेसे कमलपत्रके ऊपर वाला जलवत् कम्मीको लिप्त कर नहीं सकता; और प्रारब्ध कर्म यह जो शरीर है, वह रहता है सही, परन्तु भस्मवत् हो जाता है --सर्व सिद्धी को द्वारा वह इस प्रकार प्रायत्ताधीन होता है कि, वह और कर्मीको अभिभूत नहीं कर सकता। कर्मभोग-जीवन-मरण, ज्ञानीका इच्छाधीन होता है ॥ ३७॥ नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । तत् स्वयं योगसंसिद्धः कालेलात्मनि विन्दति ॥ ३८ ॥ अन्वयः। इह ( तपोयोगादिषु मध्ये ) ज्ञानेन सदृशं पवित्रं न हि विद्यते। ..योगसंसिद्धः ( योगानुष्ठाने संसिद्धः योग्यतामापन्नः मुमुक्षुः ) तत् (ज्ञानं ) कालेन स्वयं आत्मनि विन्दति ( लभते ) ॥ ३८ ॥ अनुवाद। तपोयोगादिके भीतर ज्ञानके सदृश पवित्र करने वाला और कुछ भी नहीं है। योगानुष्ठान में योग्यता प्राप्त होनेसे, साधक काल प्रभाव करके अपने में आपही आप उस ज्ञानको लाभ करते हैं ॥ ३८॥ व्याख्या। ज्ञान ही मूल चैतन्याप्रकृति है, इसलिये यही ब्रह्मका स्वरूप विकाश है। विकाशमें विकार आते मात्र हो ज्ञानसे चौबीस तत्त्वोंकी उत्पत्ति होती है। इसलिये विश्वकी तुलनामें ज्ञान ही एक मात्र पवित्र है। तपोयज्ञ प्रभृतिसे चित्त शुद्ध होता है सही परन्तु ज्ञानयज्ञ न होनेसे ब्रह्मविद् नहीं हुआ जाता-मुक्तात्मा नहीं हुआ जाता; इस कारण करके ज्ञान पवित्र है। यह कह करके ज्ञान कर्मनिरपेक्ष नहीं है। कर्मयोगमें सिद्धि लाभ न कर सकनेसे ज्ञानयोग का अधिकारी नहीं हुआ जाता। कर्मयोग द्वारा विषय-विक्षेप-विहीन स्थिर धीर अवस्थामें कूटस्थमें अवस्थित होनेसे, तव ऐसा ही समय Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय २२७ भाता है * ( काल प्रभाव ऐसा ही होता है ) कि, और कोई प्रायास रहता नहीं,-चेष्टा नहीं करनी पड़ती, मन आपही आप ज्ञानके खिंचाईमें पड़ता है, उसका संकल्प बीज भी नष्ट हो जाता है, और पूर्ण ज्ञानका उदय होता है ॥ ३८॥ श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। ज्ञानं लब्ध्वा परी शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥ ३६॥ अन्वयः। श्रद्धावान् ( भक्तिपूर्वककर्मानुष्टानकारी ) तत्परः ( तत्पदे मतिमान् ) संयतेन्द्रियः ज्ञानं लभते ; ज्ञानं लब्ध्वा अचिरेण परी शान्ति अधिगच्छति (प्राप्तोति) ॥ ३९ ॥ अनुवाद। जो साधक श्रद्धावान् तत्पर और संयतेन्द्रिय, है वह ज्ञान लाभ करते हैं ; ज्ञान लाभ करके शीघ्र परम शान्तिको प्राप्त होते हैं ॥ ३९॥ व्याख्या। साधकको ३४ श्लोकके प्रकरणके अनुसार प्रणिपात परिप्रश्न और सेवा द्वारा ज्ञानको जानना पड़ता है। उन तीन प्रकरणके परिपाकमें ( संसिद्धिमें ) ज्ञानको जाननेके बाद, अन्नमय कोष अतिक्रम करके सहस्रारकी क्रिया द्वारा सहस्रारमें उठके बैठनेसे, उन तीन प्रकरणके प्रत्येकका अनुरूप तीन प्रकारकी मनोमय अवस्था आती है, यथा-(१) श्रद्धावान् , (२) तत्पर, (३) संयतेन्द्रिय । श्रद्धा-श्रत्-विश्वास (विगत श्वास ) + धा धारण करना; श्वासका क्रियासे मनको उठा लाकर भीतर धारण करनेका नाम * मन जब तक पञ्चतत्त्वोंके भीतरमें रहता है तबतक काल प्रतिवादी, ज्ञानको ढांक देते हैं नहीं तो देनेकी चेष्टा करते हैं; तब वह काल महत् है। मन जैसे पञ्चतत्त्वोंके उपर उठा, तब काल और प्रतिवादी नहीं, तब काल सूक्ष्म है तब और साधने नहीं पड़ता, काल आपही आप ज्ञानको प्रकाश कर देते हैं। यह दोनों अवस्थाको लक्ष्य करके ही "समयका चक्कर" और "समय का गुण" यह दोनों बातें प्रथम प्रचलित हुई थी ।। ३८॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ श्रीमद्भगद्गीता श्रद्धा * है; इस अवस्थामें जब आ पहुँचते हैं, तब ही साधक श्रद्धावान् होते हैं। श्रद्धावान् होनेके बाद जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म दर्शन श्रवण मननादि क्रिया होती रहती है, उन सबको एकाग्र करके तत्ब्रह्ममें अर्थात् बिन्दुनादमें रत करना पड़ता है। यही है तत्पर अवस्था। इस प्रकार करनेसे दर्शन श्रवण मननादि वृत्ति “एकमें" आकृष्ट हो जाती है कह करके, अपना अपना पृथक् कर्म परित्याग करके संयत हो जाती है अर्थात् परस्पर मिलकरके एक हो जाती है। यही है संयतेन्द्रिय अवस्था। यह अवस्था आनेसे ही साधक ज्ञानको लाभ करते हैं; अर्थात् इतने काल पर्यन्त भीतरमें दर्शन, श्रवण मननादि द्वारा जिसका स्वरूप जानते थे, अब वही दर्शन, श्रवण मननादि गल जा करके एकरस हो करके, आ करके उसीमें पड़ता है, चित्त वृत्ति सब उड़ जाती है, सावकका "अहं" ज्ञान-मय हो जाता है; यही है ज्ञानलाभ । यह ज्ञान लाभ होनेसे ही ततक्षणात् पराशान्ति अर्थात् कैवल्य वा ब्राह्मीस्थितिकी प्राप्ति होती है ** ।। ३६ ।। अज्ञश्वाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति । नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥ ४० ॥ अन्वयः अज्ञः अश्रद्दधानः ( अद्वाहीनः ) संशयात्या ( सन्दिग्धचित्तः ) च विनश्यति (स्वार्थात् भ्रश्यति )। संशयात्मनः अयं लोकः न अस्ति, परः (परलोकः ) न ( अस्ति ), सुखं न ( अस्ति ) ॥ ४० ॥ * इसीका नाम मनमें मन देना है ॥ ३९ ॥ ** यह श्रद्धावान आदि अवस्थात्रय प्रणिपात, परिप्रश्न, और सेवा का फल है; सुतरी सूक्ष्म प्रणिपातादिके पहिले भी साधकको स्थल भाषसे श्रद्धावान् , तत्पर और संयतेन्द्रिय होना पड़ता है-न होनेसे प्रणिपातादिमें अधिकार नहीं होता। स्थूलभावका श्रद्धावान् =गुरु-वेदान्त वाक्यमें विश्वासी, तत्पर = उस विश्वासके साथ क्रियानुष्ठानकारी, और संयतेन्द्रिय-ब्रह्मचर्यपरायण ॥ ३९ ॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ चतुर्थ अध्याय अनुवाद। अज्ञ श्रद्धाहीन और संशययुक्त मनुष्य विनष्ट होता है। संशयात्माका इह लोक भी नहीं, परलोक भी नहीं, सुख भी नहीं ॥ ४०॥ व्याख्या। प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा द्वारा जो जाननेके विषयको नहीं जानते अर्थात् जो पुरुष क्रियावान नहीं, वह अज्ञ हैं। जो साधक प्रणिपातादि द्वारा जान करके भी पूर्व श्लोकके अनुसार श्रद्धावान नहीं होता, अर्थात् जो मनमें मन देकरके अन्तर्निविष्ट नहीं होता, वह अश्रद्दधान है। गुरुवेदान्त वाक्यमें जिसका स्थिर विश्वास नहीं है, अर्थात् संशयके लिये जो प्रणिपातादि प्रकरणके साथ क्रियानुष्ठानमें अग्रसर नहीं होता, सुतरां श्रद्धावानादि अवस्था विषयमें अनभिज्ञ है, वही संशयात्मा है। यह तीन ही आत्मगतिसे भ्रष्ट होकरके संसार गतिको प्राप्त होते हैं। इसके भीतर पहिला दोनों कुछ अच्छा है, क्योंकि वो दोनों थोडासा योगभ्रष्टके सदृश गति पाता है, परन्तु संयशात्माका इहकाल परकालमें शान्ति तो है ही नहीं, सुख भी नहीं; अर्थात् अन्तराकाश अज्ञानान्धकारसे ढका रहनेसे वह प्रकृत रास्ता भी नहीं पाता है केवल ज्वाला यन्त्रणामय संसारावर्त्तमें फेरा मारता रहता है॥४०॥ योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम् । आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनब्जय ॥४१॥ अन्वयः हे धनञ्जय ! योगसंन्यस्तकम्मणिं ( कर्मयोगेन संन्यस्तानि कर्माणि येन तं ) ज्ञानसंछिन्नसंशयम् ( ज्ञानयोगेन संछिन्नः संशयः यस्य तं ) आत्मवन्तं कर्माणि न निबन्धन्ति ।। ४१॥ अनुवाद। हे धनब्जय ! जो पुरुप कर्मयोग द्वारा कर्मसमूहको सम्यक् । प्रकारसे नाश करके ज्ञानयोग द्वारा सकल संशय छिन्न करते हैं, उस आत्मज्ञानसम्पन्न साधकको कर्मराशि आबद्ध नहीं कर सकते ॥४१॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। (श्रीभगवान् कर्म और ज्ञानमयी योगके जो दो प्रकारकी ब्रह्मनिष्ठा कह आये हैं, इस श्लोकमें और पर श्लोकमें उसी का उपसंहार करते हैं । ) प्राणमें मन देना रूप कर्मयोगका आश्रय करके प्राण और अपान को समायुक्त करके, पश्चात् मनमें मन देना रूप ज्ञानयोग द्वारा भ्रम मैं ( जीवात्मा ) और विशुद्ध मैं (परमात्मा ) का योग साधनसे द्विधाभावको नष्ट करके आत्मभावमें अवस्तिति करनेसे, प्रारब्ध भोग के लिये विषय-संस्पर्शमें आनेसे भी, कर्म बन्धनमें फंसना नहीं पड़ता ॥४१॥ तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः । छित्त्वेनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥४२॥ . अन्वयः। हे भारत । तस्मात् ( हेतोः ) अज्ञानसम्भूतम् ( अधिवेकात् जातं) हृत्स्थं ( बुद्धौ स्थितं ) एनं (स्वविनाशहेतुभूतं ) संशयं आत्मनः ज्ञानासिना (ज्ञानखड्गेन ) छित्वा योगं (सम्यक् दर्शनोपायं कर्मानुष्टानं ) आतिष्ठ (कुर्व ), उत्तिष्ठच ॥ ४२ ॥ अनुवाद। अतएव, हे भारत ! अविवेकसे उत्पन्न हृदयस्थ आत्मबिनाशके हेतुभूत इस संशयको अपने ज्ञानरूप खड्गसे छेदन करके योगावलम्बन पूर्वक उत्पित होओ ॥ ४२ ॥ व्याख्या। साधक ! "कथं भीष्ममहं संख्ये” इत्यादि प्रकारके आत्मविषयमें तुम्हारा यह जो संशय, यह तुम्हारे मनका भ्रम हैं; तुम विहित रूपसे कर्मका अनुष्ठान नहीं किया था, इस करके अबतक ज्ञान क्या है उसे नहीं जाननेसे, अज्ञानताके लिये तुम्हारा Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय - २३१ स्वस्वरूप और सामर्थ्य सम्बन्धमें संशय हुआ था; परन्तु अब तो सब समझ लिये, और क्यों ? संशयको त्याग कर दो। इस संशयको त्याग करना तुम्हारा अपने हाथमें हैं; अपना संशय अपने आप समझके अपने आप त्याग न करनेसे, दूसरा कोई त्याग करा नहीं सकता; यहां पर ही पुरुषकार है, यहां पर ही कृतित्व है। गुरु केवल स्थानको प्रत्यक्ष करा देते हैं, इसके बिना और कुछ नहीं, उसको भेद करना तुम्हारा अपनी शक्तिका काम है। लो अब उठ करके ऊपर योगस्थानमें बैठो ; बैठ करके यथाविधि योगका अनुष्ठान करो॥४२॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्र .. श्रीकृष्णार्जुन संघादे ज्ञानयोगो नाम चतुर्थोऽध्यायः -:.: Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोऽध्यायः -:: अर्जुन उवाच । संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगच शंससि । यच्छ्रय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥ १॥ . अन्वयः। अजुनः उवाच । हे कृष्ण ! कर्मणां संन्यासं पुनः योगं च शंससि ( वदसि ) एतयोः ( मध्ये ) यत् श्रेयः (श्रेयस्करं ) मे ( मह्म) तत् एकं सुनिश्चितं व हि ॥१॥ अनुवाद। अर्जुन कहते हैं-हे कृष्ण ! कर्मसन्यास करनेका कथा कह करके फिर कर्म-योग करने की कथा कहते हो ; इन दोनोंके भीतर जो श्रेयस्कर हो मुमको निश्चय करके कहो ॥ १॥ व्याख्या। चतुर्थ अध्याय १८ श्लोकसे ४१ श्लोक पर्यन्त सर्व कर्म-संन्यासकी कथा कही हुई है, फिर ४२ वें श्लोकमें कर्मानुष्ठानलक्षण योगाश्रय करने की बात भी कही हुई है । परन्तु एकही समयमें इन दोनोंका अनुष्ठान होना असम्भव है। अब कौनसा अवलम्बन करना उचित है;-सबही ब्रह्म है, इस ज्ञानको धारणा करके कुछ भी न करके निष्का होना उचित है या कर्मका अनुष्ठान करना उचित है ? मनमें इस प्रकार भावना उदय होनेसे, कौन श्रेयस्कर है सोई जानने के लिये, साधक यह प्रश्न उठाया करते हैं ॥१॥ श्रीभगवानुवाच । संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ । तयोस्तु कर्मसंन्यासात् कम्मयोगो विशिष्यते ॥२॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच । संन्यासं ( कम्मणां परित्यागः ) कर्मयोगः च (कर्मणां अनुष्ठानं च) उभौ निःश्रेयसकरौ ( मोक्ष कुर्वाते ) तु ( तथापि ) तयोः ( मध्ये ) कर्मसंन्यासात् कर्मयोगः विशिष्यते ( विशिष्टः भवति ) ॥२॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्याय २३३ अनुवाद। श्रीभगवान् कहते हैं। संन्यास और कर्मयोग दोनों ही मोक्ष देने वाले हैं, तथापि इनके भीतर कर्मसंन्याससे कर्मयोग श्रेष्ठ है ॥२॥ व्याख्या। ४ र्थ अः ४१ श्लोकमें ज्ञान और कर्म-संन्यासको जो श्रेष्ठ कहा गया था पुनश्च इस श्लोकमें कर्मयोगको जो श्रेष्ठ कहा जाता है, अधिकारी भेद प्रदर्शन करना ही इसका कारण है। कर्म और संन्यास, साधन-सोपानके दो प्रान्त हैं; कम्मे नीचेके, संन्यास उपर वाले के। जो साधक नीचे हैं, उनको उठना हो तो प्रथम कर्म को आश्रय करना ही होवेगा, तब संन्यासको पावेंगे; कर्म बिना संन्यास पाया नहीं जाता; इसलिये उनके पक्षमें ( लिये ) कर्म ही श्रेष्ठ है। फिर जो पुरुष ऊपर उठ गये-सन्यास ले चुके, उनको कर्ममें प्रयोजन न रहनेसे, उनके पास सन्यास ही श्रेष्ठ है। मुख्य बात यह है कि, कर्म अवलम्बित होनेसे ही सन्यास और सन्यास होनेसे ही मोक्ष होती है; इसलिये कहा हुआ है कि, दोनों ही निःश्रेयसकर अर्थात् मोक्षप्रद हैं ॥२॥ ज्ञवः स नित्यसंन्यासी यो न द्वष्टि न कांक्षति । निद्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात् प्रमुच्यते ॥ ३ ॥ अन्वयः। हे महाबाहो। सः नित्यसंन्यासी शेषः, या न द्वष्टि न काँक्षति ; हि ( यतः) निर्द्वन्द्वः ( रागद्वेषादिद्वन्द्ववजितः) (अनायासेन ) बन्धात् ( संसारात् ) प्रमुच्यते ॥ ३ ॥ अनुवाद। हे महाबाहो। जो पुरुष द्वष नहीं करते, आकांक्षा भी नहीं करते उनको नित्यसंन्यासी कहके जानना, क्योंकि, निद्वन्द्व पुरुष ही अनायास करके संसार . बन्धनसे मुक्ति लाम करते हैं ॥३॥ व्याख्या। क्रियामें सिद्धि प्राप्तिकी इच्छा-आकांक्षा और प्राकृतिक भाव त्याग करनेकी इच्छा-द्वेष है। जो मनुष्य द्वष और आकांक्षासे वर्जित होकर केवल मात्र गुरुवाक्यके अनुसार क्रिया करते Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ श्रीमद्भगवद्गीता हैं, और सावधानीसे देखते हैं कि ठीक ठोक उस वाक्यके अनुसार क्रिया होती है या नहीं ( इसको छोड़ मनके भीतर और कोई किसी दूसरे भावको नहीं रखते ) वही साधक निष्काम हैं, सुख-दुःख, रागद्वष प्रभृति द्वन्द्वभाव उनमें नहीं रहता। इस प्रकार साधकके सन्मुख किसी प्रकारका कश्मल पा नहीं सकता, आत्मपथ उनके लिये खुलासा रहता है। इसलिये मुक्ति अर्थात् विष्णुपदमें लीन होना उनके पक्षमें अनायास-साध्य है, इस वास्ते वह नित्यसंन्यासी हैं ॥ ३ ॥ सांख्ययोगौ पृथगबालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः। एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोविन्दते फलम् ॥ ४ ॥ अन्वयः। सांख्ययोगौ पृथक् (इति) बालाः (अज्ञाः) प्रवदन्ति, न (d) पण्डिताः ; ( अनयोः) एकं अपि सम्यक् आस्थितः ( अनुष्ठितवान् ) उभयो फलं विन्दते ( आप्नोति ) ॥४॥ अनुवाद। अज्ञ मनुष्यगण ही सांख्य एवं योगको पृथक् कहते हैं, लेकिन पण्डित लोग कहते नहीं ; जो इन दोनोंके भीतर, एकको भी सम्यक प्रकारसे अनुष्ठान करते है, वह दोनोंके ही फल प्राप्त करते हैं ॥ ४॥ व्याख्या। जो लोग कानुष्ठान नहीं करते वा कम में प्रवेशाधिकार नहीं पाये हैं, वह लोग बहुशास्त्रविद् होनेसे भी बालक अर्थात् अज्ञ वा कर्मशून्य ज्ञानी हैं। क्योंकि वह लोग तत्त्वको प्रत्यक्ष कर नहीं सकते। वैसे जो लोग कम्मी हैं, उन सबको शास्त्रज्ञान न रहने से भी, वह लोग तत्व तत्व में विचरते विचरते विश्वप्रपंचका आदि कारणको प्रत्यक्ष करते हैं, इस करके पण्डित हैं। वो (कर्मशून्य ज्ञानी) अज्ञजना केवल अनुमानके ऊपर निर्भर करके केवल भाषाके मार पेंच से, इससे उसको, उससे और एकको अलग करता है मात्र, सत्य निर्देश करने वाला दर्शनशक्ति उन सबको नहीं है। परन्तु जो लोग पण्डित हैं वह देखे हैं कि त्रिवेणीकी युक्त-वेणीमें जो जल है मुक्त वेणी Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्याय २३५ में भी वही जल है,-धारा एक है दो नहीं; युक्तवेणीमें स्नान-पानमें जो फल, मुक्त-वेणीमें भी वही है, इसलिये जो हो एकको ही सम्यक् आश्रय करते हैं, अर्थात् मनः प्राण समर्पणसे अन्तर्बहिः ( भीतरबाहर ) शुचि करते हैं। यह योगमार्ग भी वही है। प्राणमें मन देकर सम्यक् प्रकारसे "ब्रह्मण्याधाय कर्माणि, मामनुस्मरन्" करते करते तन्मय हो जानेसे भी जो फल है, कूटस्थ पार होकर सहस्रारमें उठके मनमें मन देके नादके साथ मिलके लय हो जानेसे भी वही फल है। दोनोंमें ही मोक्ष हैं। जिस तरहसे ही हो चित्तलय होना ही मोक्ष है, सो कम्मसे ही होय, वा सांख्यसे ही हो। इसलिये कहा हुआ है कि "एकमप्यास्थितः सम्यक" इत्यादि ॥४॥ यत् सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद् योगैरपि गम्यते । एकं सांख्यच योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥५॥ अन्वयः। सांख्यैः ( ज्ञाननिष्ठः संन्यासिभिः ) यत् स्थानं ( मोक्षाख्यं ) प्राप्यते ; योगः अपि ( कर्मयोगिभिरपि परमार्थज्ञानसंन्यासप्राप्तिद्वारारेण ) तत् (स्थानं) गम्यते। (अतः) यः सांख्यं च योगं च एकं पश्यति सः पश्यति (स एव सम्यकदर्शी) ॥ ५॥ ____ अनुवाद । ज्ञाननिष्ठ संन्यासी लोग जो स्थान लाभ करते हैं, कर्मयोगीगण भी सोई स्थान लाभ करते हैं ; अतएव सांख्य और योगको जो पुरुष एक देखे हैं, वह पुरुषही यथार्थदर्शी ।। ५॥ व्याख्या। षट्चक्रका क्रिया-योग, और सहस्रार का क्रियासांख्य है। इन दोनोंकी हो परिसमाप्ति एक है। (पूर्व श्लोक देखो)। मूलाधारसे सहस्रारके ब्रह्मरन्ध्र पय्यन्त सुषुम्नान्तर्गत एक ब्रह्मनाड़ी हौ विस्तृत है। इस ब्रह्मनाड़ीमें सम्यक् प्रकार करके प्रवेश करनेसे और चक्रभेद रहता नहीं, क्रियपद निष्क्रियपद भेद रहता नहीं, सब एक होय जाता है। जो इस एक भावको देखे हैं (प्रत्यक्ष Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ श्रीमद्भगवद्गीता किये हैं ) वही यथार्थ देखनाको देखे हैं; वही पुरुष साक्षी स्वरूपसे द्रष्टा अर्थात् वही पुरुष ब्रह्मविद् है ॥ ५ ॥ संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमा'तुमयोगतः। योगयुक्तो मुनिब्रह्म न चिरेणाधिगच्छति ॥ ६ ॥ : अन्वयः। हे महाबाही! तु (किन्तु) अयोगतः ( कर्मयोगं विना) संन्यासः दुःखं आप्तु ( दुःखहेतुः, अशक्यइत्यर्थः ) योगयुक्तः मुनिः ( ईश्वररूपमननात् मुनिः संन्यासी भूत्वा ) न चिरेण (क्षिप्रमेव) ब्रह्म (परमार्थसंन्यास) अधिगच्छति ( प्राप्नोति ) । ६॥ ___ अनुवाद। हे महाबाहो ! योग बिना संन्यास किन्तु दुःख प्राप्तिके हेतु होता है। जो कम्मयोगमें युक्त हुये हैं, वह मुनि होयके शीघ्रही ब्रह्मसाक्षात्कार ( परमार्थ संन्यास ) लाभ करते हैं ॥ ६॥ . व्याख्या। संन्यास और योग दोनोंका ही फल एक है सच, परन्तु योगानुष्ठान बिना संन्यास नहीं होता; क्योंकि योगही चित्तशुद्धिका एकमात्र उपाय है। अगरचे कोई योगानुष्ठान न करके संन्यास ग्रहण करे तो अवश होके उनको विषयकी खिंचाईमें पड़ा रहना पड़ता है, तब इन्द्रियवृत्ति सब प्रबल रहती है, इस सबबसे कुछ भी त्याग नहीं होता। किन्तु योगके द्वारा युक्त होनेसे, मन कूटस्थ पुरुषके दर्शन मनन द्वारा तद्गत हो जानेसे शीघ्र ही सब नाश हो जायके ब्रह्ममें स्थिति लाभ होता है। यह ब्रह्मस्थावस्था ही संन्यास है । (जबतक चित्तशुद्ध न होय, तबतक ही कर्मयोग संन्याससे पृथक् , पश्चात् दोनों ही एक है ) ॥ ६ ॥ योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः । सर्वभूतात्मभूतात्मा कुवन्नपि न लिप्यते ॥ ७ ॥ अन्वयः। योगयुक्तः विशुद्वात्मा (विशुद्धचित्तः ) विजितात्गा ( विजितदेह ) जितेन्द्रियः ( तथा ) सर्वभूतात्मभूतात्मा ( सर्वेषां ब्रह्मादीनां स्तम्बपर्यन्तानो भुताना Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्याय २३७ आत्मभूतः आत्मा प्रत्यक्चेतन यस्य सः, सम्यग्दशत्यिर्थः ( सन् ) कुर्वन् अपि न लिप्पते ( न बद्धो भवति ) ॥ ७ ॥ असुवाद। योगयुक्त पुरुष विशुद्धचित्त विजितदेह, जितेन्द्रिय और सम्यग्दर्शी होनेसे कर्म करके भी ( कर्ममें ) लिप्त नहीं होते ॥ ७॥ व्याख्या। योगयुक्त साधक पूर्व श्लोकके क्रियानुसार ब्रह्ममें स्थिति लाभ करके उतर आयके फिर उठकर योगयुक्त होनेके पश्चात् विशुद्धात्मा होते हैं। अर्थात् विशुद्ध “मैं”—भावमें ही रहते हैं,ज्ञानाग्निसे उनके सब कर्म भस्मसात् होनेसे विजितदेह होते हैं, (४र्थ अः ३७ श्लोक देखो),-४र्थ अः ३६ श्लोक अनुसार संयतेन्द्रिय अवस्था प्राप्त होनेसे जितेन्द्रिय होते हैं, अर्थात् विषय-संस्पर्शमें श्रानेसे उनकी कोई इन्द्रिय भी विषयमें आसक्त नहीं होती, तथा ब्रह्मादि स्तम्ब पर्यन्त समुदाय भूतोंके आत्माभूत होयके सर्वदर्शी होते हैं। इस कारण करके उनसे प्रारब्ध सहयोगमें कर्म अनुष्ठित होनेसे भी उनको लिप्त होना नहीं पड़ता। चित्त चिज्ज्योति करके विशुद्ध होनेके. पश्चात् , उसमें और विषयका छापा नहीं पड़ता ॥७॥ नैव किञ्चित् करोमीति युक्तौ मन्येत तत्त्ववित् । पश्यन् शृन्वन् स्पृशन् जिघ्रन्नश्नन् गच्छन् स्वपन् श्वसन् ॥ ८॥ प्रलपन् विसृजन् गृहन्नुन्मिपन्निमिषन्नपि । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥६॥ अन्वयः। तत्त्ववित् युक्तः इन्द्रियानि इन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते इति धारयन् ( सन् ) पश्यन् , भृन्वन, स्पृशन, जिघ्रन् , अश्रन्, गच्छन् , स्वपन्, श्वसन, प्रलपन्, विसृजन्, गृह्णन्, उन्मिषन् निमिषन्, अपि “किंचित् करोमि" इति न एव मन्येत ॥ ८॥९॥ अनुवाद। तत्त्वविद् योगी, इन्द्रियगण ही स्व स्व विषयमें प्रवृत्त होता है, इस प्रकार धारण करके दर्शन, श्रवण, स्पर्शन, आघ्राण, आहार, गमन, शयन Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ श्रीमद्भगवद्गीता (निद्रा), निश्वास त्याग, प्रश्वास ग्रहण, वाक्य कथन, त्याग, ग्रहण, चक्षुरुन्मलिन तथा निमोलन प्रभृति कार्य करके भी 'मैं कुछ करता हूँ' इस प्रकार मनमें नहीं करते ॥ ८॥ ९॥ ___ व्याख्या। जो साधक तत्त्वको जान चके और सतत आत्मभाव में युक्त हैं, उनके चित्त विशुद्ध रहनेसे उनको मायिक जगतके, “मैंमेरे" भावमें मोहित होना नहीं पड़ता, इसलिये प्रारब्धभोगके लिये देखना, सुनना प्रभृति जो कुछ इन्द्रिय व्यापार होय, उसमें उनको कत्तत्वाभिमान नहीं रहता। प्रारब्ध वश करके कृत कम्मका भला बुरा फल शरीरके उपर ही कार्यकरी होता है, उनके प्रशान्त भावको विचलित कर नहीं सकता। देखना, सुनना, छूना, सूचना, खानापंच ज्ञानेन्द्रियके क्रिया है। बात बतियाना, ग्रहण-करना, गमन करना, मलमूत्र त्याग करना,-पंच कम्र्मेन्द्रियोंके क्रिया है। निश्वास फेंकना, प्रश्वास लेना, ताकना, आंख-मुदना,-पंच प्राणके क्रिया है। सोना (निद्रा लेना ) अन्तरिन्द्रिय बुद्धि की क्रिया है ।। ८ ॥६॥ ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति यः। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ १० ॥ अन्वयः। यः कर्मणि ब्रह्मणि आधाय ( निक्षिप्य ) संगं त्यकत्वा ( फलासक्तिरहितः सन् ) करोति, सः अम्भसा ( जलेन ) पद्मपत्रं इव पापेन न लिप्तते (न संवध्यते ) ॥ १०॥ अनुवाद। जो पुरुष समुदय कर्म ब्रह्ममें अर्पण करके संगत्याग पूर्वक अनुष्ठान करते हैं, वह पुरुष, कमल पत्रके ऊपरवाला जल सदृश, पापमें लिप्त नहीं होते ॥ १० ॥ व्याख्या। ६।७।८। श्लोकमें योगयुक्त, मुनि, ब्रह्मसंन्यास, पश्चात् फिर योगयुक्त होके तत्त्ववित् होना–साधनाके यह जो ऊर्द्धक्रम कहा गया, उस क्रम अनुसार अबतक भी जो तत्त्ववित नहीं हुये, Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्याय २३६ वह साधक जिस प्रणालीमें क्रिया करेंगे, इस श्लोकमें वही उपदेश कहा हुआ; अर्थात् उनको संगत्याग पूर्वक ब्रह्ममें कर्म समर्पण करके साधन करना होवेगा ॥ ___ मूलाधारसे प्रारम्भ करके सुषम्ना वना चित्राके भीतरे भीतर सहस्रार पर्य्यन्त जो आकाशमय छिद्र विस्तृत है, उसीका नाम ब्रह्मनाड़ी है *। इडा पिङ्गलाके भीतर वाले श्राकाशमय छिद्रको भी ब्रह्मनाड़ी कहते हैं। उस ब्रह्मनाडीका आश्रय करके प्राण और अपान प्रति कमलमें खेलता फिरता है। चित्तशुद्धिके लिये श्रीगुरुदेव शिष्य को ( जिसको जैसे ) जितने प्रकारकी क्रिया देते हैं, वह सब उस ब्रह्माझाशको अवलम्बन करके प्राणचालनके द्वारा अनुष्ठान करना पड़ता है। इसीका नाम है ब्रह्म में कर्म समर्पण करना। उस प्रकार उसी उपायसे उर्द्ध में जाते जाते इन तीनों नाडीके भीतर, विशेषतः सुषुम्नाके भीतरमें चित्र विचित्र रूप दर्शन होता है, और विविध स्थानमें विविध शक्ति प्रबुद्ध होके साधकको भोग दानसे आबद्ध करने के लिये आश्रय करने आती है; उन सब रूपमें मोहित होना वा उन सब शक्तिके किसीको श्राश्रय देना दूरकी बात, उन सबकी ही उपेक्षा करके केवल मात्र कूटस्य लक्ष्य करके "मामनुस्मरन्” करते करते सीधा * ब्रह्मनाड़ी सुषुम्नाके वज्रा चित्राके भीतर देकर उठके समुदय कमलको भेद किया है। इसके भीतर मनको प्रवेश करानेका नाम ही कुल कुण्डलिनी शक्तिको जगाना है। इसके भीतर मन प्रवेश करनेसे शुद्धबुद्धिका विकाश होता है, जाननेका जो कुछ है सब जाना भी जाता है; इसलिये इसको ज्ञाननाड़ी भी कहते हैं । इस ब्रह्मनाडीका एक मुख मूलाधारमैं, और एक मुख दोनों तरफसे सहस्रारकी ब्रह्मरन्ध्र में है (द्वितीय चित्र देखो); मूलाधारका मुख हुआ है, सहस्रारके मुख बन्द है। सिद्ध पुरुषोंके देहत्यागके समय सहस्रारका मुख खुल जाता है, उसीको कहते हैं ब्रह्मरन्ध्र फट जाना। ब्रह्मरन्ध्र फटनेसे ही विदेह मुक्ति होती है। इड़ा, पिङ्गला, सुषुम्नाकी तीन मुख ही मूलाधरमें एक है ॥ १० ॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० . श्रीमद्भगवद्गीता उठ जाना पड़ता है, कुछ किसीको स्पर्श करना न चाहिये, इसीका नाम संगत्याग करना है। इस रीतिसे क्रिया करनेसे पापमें लिप्त होना नहीं पड़ता, अर्थात् चांचल्य जनित कर्म बन्धनमें पड़ना नहीं होता। कमल पत्र जैसी जलमें जन्म लेकर जलमें ही बढ़ता हुआ तथा जल में ही रहके जलमें लिप्त नहीं होता-जलका छापा उसमें नहीं पड़ता, ब्रह्मार्पित-कर्म संग-त्यागी साधक भी वैसे कर्मका आश्रय करके ही उर्द्ध क्षेत्रमें उठते हैं, कर्मको आश्रय करके ही प्रारब्ध अनुसार विषय भोग करते हैं, करके भी कर्ममें आबद्ध नहीं होते ॥१०॥ कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि । योगिनः कर्म कुर्वन्ति संगं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥ ११ ॥ अन्वयः। योगिनः आत्मशुद्वये (शरीरं चित्रं च परिशुद्धयर्थे ) संगं त्यक्त्वा (फलाकांक्षारहितः सन् ) मनसा बुद्धया केवलैः ( ममत्वबुद्धिशून्यः ) इन्द्रियैः अपि कर्म कुर्वन्ति ॥ १० ॥ अनुवाद। योगीगण आत्मशुद्धिके लिये, फल, कलाकांक्षा त्याग करके शरीर, मन, बुद्धि तथा केवल इन्द्रिय सकलसे ही कर्म करते हैं ॥ ११ ॥ व्याख्या। [ दशम श्लोकके प्रणालीसे योगीगण कितने प्रकारके क्रिया करते हैं, वह इस श्लोकमें कहा हुआ है ।। _ वायु-पित्त-कफके क्रियासे शरीरकी नाड़ी-पथ सब बंद रहता है। उस अवस्थामें उस पथमें प्राण चालन करके उठा जा नहीं सकता; वह समस्त ही शारीरिक मल है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस प्रभृति विषयके प्रति परम रमणीय बोध करके आसक्त होयके वासना पर होना ही चित्तका मल है। चित्तका मल रहते आत्मामें निष्ठा नहीं होता। इसलिये शरीर और चित्तका मल दूर करना आवश्यक है, और इसके फलका नाम आत्मशुद्धि है। इस आत्मशुद्धिके लिये योगीगण गुरु Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ पंचम अध्याय उपदेश अनुसार नानाविध आसन-मुद्रादि रूप शारीरिक क्रियाका अनुष्ठान करते हैं;-प्राण क्रियाके साथ आत्ममन्त्र, इडाषिङ्गला-शोधन मन्त्र, प्रन्थिभेद मन्त्र प्रभृति विविध प्रकार जप और कीर्तनादि रूप मानसिक क्रियाका अनुष्ठान करते हैं;-बुद्धिसे सत् और असत् निश्चय करके "हृदि सन्निविष्टः" होते हैं, और अन्तरतम प्रदेशमें प्रवेश करके "केवल इन्द्रिय” द्वारा तत्-पद्, नाद, बिन्दु प्रभृति परमार्थ तत्त्वोंके दर्शन, श्रवण, बोधनादि क्रिया करते हैं। बहिर्विष्यसे प्रतिनिवृत्त ममत्वबुद्धि-शून्य अन्तमुखी इन्द्रिय ही "केवल इन्द्रिय" है। योगीगण यह सब जो जो क्रिया करते हैं, उसमें फल प्राप्तिकी आशा नहीं रखते, केवल गुरु वाक्यके पालन करते रहते हैं। संग वा आसक्ति रहनेसे आत्मशुद्धि नहीं होती ॥ ११॥ . युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् । अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥१२॥ ..... अन्वयः। युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा (नष्ठिासम्भूतां ) शान्ति आप्नोति ; अयुक्तः कामकारेण ( कामतः प्रवृत्या ) फले सक्तः ( सन् ) निबध्यते (नितरां ) बन्धं आप्नोति ) ॥ १२॥ : अनुवाद। युक्त पुरुष कर्मफलको त्याग करके नैष्ठिकी शान्ति प्राप्त होते हैं, और अयुक्त व्यक्ति, कामना वशसे आसक्त होयके कर्म में आवद्ध होय पड़ता है ॥ १२॥ व्याख्या। (दशम श्लोकके प्रणालीसे, और ११ श्लोकके प्रकार अनुसार क्रिया करके साधक जो जो अवस्था प्राप्त करते हैं, वही बात १२ से १५ श्लोक पर्यन्त चार श्लोकमें कहा हुआ है, अर्थात् साधक प्रथमतः युक्त पश्चात् नैष्ठिकी-शान्ति-प्राप्त, उसके बाद वशी, उसके -१६ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ श्रीमद्भगवद्गीता बाद प्रभु, उसके बाद विभु होयके अज्ञान (परिपूर्णत्व हेतु सर्वसम्बन्ध रहित ) होते हैं। ब्रह्ममें कर्म समर्पण करके काय, मन, बुद्धि और "केवल इन्द्रिय” द्वारा योगानुष्ठान करनेसे कर्मफल पर्यन्त ईश्वरार्पित (ब्रह्मार्पण) हो जाता है, तब साधक युक्त होते हैं, अर्थात् उनके अन्तःकरणके चारो वृत्ति सम्पूर्ण रूपसे अन्तमुखी होयके कूटस्थमें युक्त होता है । ( यही है साधकके मनःक्षेत्रकी क्रिया,-४र्थ अध्याय ७म श्लोकके व्याख्या देखो)। इस समय साधक एकदम कूटस्थमें उठ जाते हैं, नीचेके साथ उनका कोई सम्पर्क रहता नहीं, और नीचेवाली शक्ति द्वारा किसी प्रकारसे आक्रान्त भी होते नहीं इस करके अविचलित रहते हैं। इस अविचलित अवस्थामें परमार्थदर्शन करके जो शान्तिमय आनन्द होता, उसीका नाम नैष्ठिकी शान्ति है। इस नैष्ठिकीशान्ति-अवस्थाही बुद्धि-क्षेत्रकी क्रिया है। इस अवस्थामें विशुद्धात्मा होनेसे समझने और देखनेमें आता है कि, युक्त न होनेसे, अर्थात् आज्ञाचक्रमें आके स्थिर न होना पर्यन्त, उस शान्तिमय अवस्था पाया जाता नहीं; क्योंकि अयुक्त अवस्थामें (आज्ञाके नीचे जबतक रहना होय, तब तक ) रजोगुण-समुद्भव कामके द्वारा आक्रान्त होनेसे कर्मफलमें आसक्त होयके बन्धनमें पड़ने होता है-पथहारा होने पड़ता है-उचेमें उठ जाने सकते नहीं ॥ १२ ॥ सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी। नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन् न कारयन् ॥ १३ ॥ अन्वयः। देही मनसा (विवेकबुद्वया) सर्वकर्माणि संन्यस्य ( कर्मादौ अकर्म-सन्दर्शनेन संत्यज्य ) नवद्वारे पुरे ( देहे ) वशी ( जितेन्द्रियः भूत्वा ) न एव कुर्वन् न एष कारयन् सुख ( यथास्यात् तथा ) आस्ते ( तिष्ठति ) ॥ १३ ॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ पंचम अध्याय अनुबाद। देहो विवेक बुद्धिद्वारा सर्वकर्म त्याग करके वशी होयके नवद्वारयुक्त पुरमें ( देह में ) कुछ न करके ओर कुछ न करायके सुख से अवस्थिति करते हैं ।। १३॥ व्याख्या। साधक बुद्धिक्षेत्रमें नैष्ठिकी शान्तिके अवस्था प्राप्त होनेके पश्चात् अतीव सूक्ष्म भावसे द्रष्टा होके (४र्थ अः २६ श्लोक देखो ) संयमी होते हैं। इस समय आत्म-बुद्धिके उदयसे सर्व-कर्मसंन्यास होता है, अर्थात् मनके संकल्प क्रियाका नाशके साथही साथ षट्चक्रमें प्राण-क्रिया भी त्याग हो जाता है, इसलिये दो आंख, दो नाक, दो कान, मुख, गुह्य, लिंग-देहके इस नवद्वारके क्रिया भी बन्द होयके बहिर्विषयसे सम्बन्ध एकवारगी मिट जाता है, तब साधक वशी होते हैं ( इसीको अहंक्षेत्रकी क्रिया कहते हैं )। इस समयमें संकल्प और निश्चय इन दोनों वृत्तिके मिट जानेसे, देहके भीतर रह करके भी, साधककी कोई क्रिया भी नहीं रहती, केवल सुखमें अर्थात सुन्दर आकाशमें प्रकाशमय ज्योतिके भीतर आत्मानन्दमें अवस्थिति होती है। (७म श्लोकके विजितात्मा अवस्था यही है)। वशीअवस्थामें क्रिया न रहनेसे भी, क्रिया-शक्ति और पूर्ण अहंत्व ज्ञान वा अहंज्ञान रहता है ॥ १३ ॥ न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। न कर्मफलसयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ १४ ॥ अन्वयः। प्रभुः (ईश्वरः सन् सः ) लोकस्य कत्त त्वं न सृजति ( उत्पादयति), कर्माणि न ( सृजति ), कर्मफलसंयोगं न ( सृजति ) ; स्वभावः तु ( प्रकृति एव ) प्रवत्तते ॥ १४ ॥ अनुवाद। प्रभु ( ईश्वर ) लोगोंके कत्त त्व सुजन नहीं करते, कर्म सृजन नही करते ; और कर्मफलके संयोग भी सृजन नहीं करते, स्वभावही प्रवत्तित होता है ॥ १४ ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। वशी होनेके पश्चात् साधक चित्त क्षेत्रमें उठ जायके । प्रभु (प्रकृष्टरूपसे स्थित ) होते हैं। तब एकमात्र चिन्तन-वृत्ति वर्तमान रहता है, और वह निरहंकारत्व हेतु सर्वज्ञ होते हैं। प्राकृतिक २४ तत्त्वके भीतर चैतन्यका सर्व प्रधान अवस्था यही है, इसलिये वह प्रभु ( ईश्वर ) हैं। इस समय साधक अपनेको देखते हैं कि, और वह प्रकृतिके अधीन नहीं हैं, प्रकृति ही उनके अधीन है, उन्हींको अवलम्बन करके प्रकृति अपना खेल खेल रही है। सत्यादि चतुर्दश * भुवनमें जो कुछ कर्तृत्व, कर्म, और कर्मफल-सयोग होता है, उसे वह कुछ नहीं करते, वह उन सबका साक्षी मात्र हैं; प्रकृति उनहीको आश्रय करके वह सब कर रही है। यही प्रकृति ही उनका स्वभाव अर्थात् अपना भाव वा अवस्था है। यह स्वभाव वा अवस्था दो प्रकारका स्वाधीन और अधीन । जब तक चैतन्यसस्वा अहंक्षेत्र पार न होके जीवभावमें रहते हैं, तब तक वह स्वभाव स्वाधीन, चैतन्य उनके गर्भ में अधीन है, इस अवस्था में ही प्रकृति जननी, जीव पुत्र है, जब चतन्यसत्वा ईश्वरभावमें रहते हैं तब वह स्वभाव अधीनचैतन्य उसके ऊपर प्रभुत्व करते हैं; इस अवस्था में ही प्रकृति रमणी, ईश्वर स्वामी है। साधन बल करके प्रभु पदमें उठ बैठनेसे ही “जननी रमणी, रमणी जननी" वाक्यके सार्थकता समझा जा सकता है। प्रभु अवस्थामें क्रियाशक्ति लीन हो जाता है, एक "मैं ही मैं" मात्र भाव व्यतीत और कुछ नहीं रहता। यही है म श्लोकके जितेन्द्रिय अवस्था ॥ १४॥ * मूलाधारादि सहस्रार पर्यन्त सात चक्र सहस्वर्ग और पगके बृद्धांगुष्टके अग्रभाग और दो गांठ पालि गांठ जंघागांठ घुटना ( उरुकटि-सन्धि ) और कटि (कमर )-सातस्थान सप्तपाताल है। इन सबको क्रिया गुरुपदिष्ट साधनामें पाया जाता है ॥ १४ ॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५ पंचम अध्याय नादत्ते कस्यचित् पापं न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ १५॥ अन्वयः। विभुः ( भूत्वा सः ) कस्यचित् पापं न आदत्त ( गृह्णाति ) न च एव सुकृतं ( आदत्तं )। ज्ञानं ( अहंवृत्तिरपि ) अज्ञानेन ( वृत्ति विस्मरणेन ) भावृतं ( भवति ); तेन ( हेतुना ) जन्तवः ( चित्तवृत्तय उत्पत्तिस्थितिनाशशीलाः ) मुह्यन्ति (निरुद्धाः भवन्ति ॥ १५ ॥ अनुवाद। विभु किसीका पाप ग्रहण करते नहीं, सुकृति भी ग्रहण करते नहीं; अज्ञानसे ज्ञान आवृत्त होता है, इसलिये जन्तु सब मोहक प्राप्त होते हैं ।। १५॥ व्याख्या। प्रभु-अवस्थाके बाद साधक विभु होते हैं, अर्थात् विश्वव्यापी होके चिन्मात्रावशिष्ट होते हैं। यही है गुणातीत अवस्था-शिवपद; ७ वा श्लोकके सर्व भूतात्म-भूतात्मा अवस्था भी यही है। यह भी एकठो अवस्था है, क्योंकि इस समय चैतन्यसत्त्वा चित्त वा महत्तत्त्वके बाहर जानेसे भी अव्यक्त और चित्तके सक्रमस्थानमें रहनेसे थोड़ासा सस्पर्श दोष रहता है। इस समय पाप और सुकृति अर्थात् प्रवृत्ति सब मिट जाता है, किसीका ग्रहण नहीं रहता; क्योंकि चैतन्य माया भुक्त अवस्थाको त्याग करके मायातीत हो जानेसे, मायिक और प्राकृतिक क्रिया समूह लीन हो जाती है । यह गुणातीत विभु-अवस्था अनतिविलम्बमें ही लयको पाता है; तब सर्व अवस्थाका ही शेष होता है,-अवस्थाविहीन अवस्था-जिसको व्यक्त किया जा नहीं सकता, समझना और समझानेके अतीत सोई अव्यक्त-अवस्था-अज्ञान-अवस्था-सब-मिट जाना अवस्था आता है। यह विभु-अवस्था पर्य्यन्त ही ज्ञान टिकता है, और उसके ऊपर जा नहीं सकता। उस सब-मिटना अवस्थामें ज्ञान भी मिट जाता है। उस अज्ञान-अवस्था . आनेसे 'जन्तवः” अर्थात् उत्पत्तिस्थिति Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ श्रीमद्भगवद्गीता नाश-शील इन्द्रिय-वृत्ति समूह मोहको प्राप्त होता है अर्थात् निष्क्रिय होयके जड़ी भूतप्राय हो जाता है * ॥ १५ ।। ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः । तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम् ॥ १६ ॥ अन्धयः । तु ( किन्तु ) येषां तत् अज्ञानं आत्मनः ज्ञानेन ( समाधिभंगेन ) पुनरहंज्ञानप्राप्तिद्वारेण ), नाशितं, तेषो तत् ज्ञानं ( आत्मज्ञानं ) आदित्यवत् ( भूत्वा) परं ( परमार्थतत्त्व ) प्रकाशयति ॥ १६ ॥ . अनुवाद। किन्तु जिन लोगोंका वह अज्ञान आत्मज्ञान द्वारा विनष्ठ होता है, उन लोगोंका वह आत्मज्ञान आदित्य सदृश (स्वप्रकाश और पर-प्रकाशक) होके परमार्थ तत्त्वको प्रकाश कर देते रहते हैं ॥ १६ ।। व्याख्या। वह सब-मिट जाना अवस्था ( समाधि) भंग होके प्रभु-अवस्थामें उतर आनेके पश्चात् जिस आत्मज्ञानका विकाश होता है, वह आत्मज्ञान आदित्यवत् प्रकाशमय है, उसमें ज्ञान, ज्ञेय और इस शरीर रूप विश्वका प्रत्येक अनु परमाणु पर्यन्त प्रत्यक्ष होता * यह जो अज्ञान अवस्था होतो है, इसमें सर्व वृत्ति जड़ीभूत प्रायः-निष्क्रिय ही रहता है, लय होता नहीं, क्योंकि देह रहता है। देह त्याग न होनेसे विश्वका अर्थात् सर्ववृत्तिका लय नहीं होता। वह अज्ञान-अवस्था साधनाका चरम फल करके तो होता ही है, मृत्यु होनेसे भी जीवमात्रके होता है। असम्प्रज्ञात-समाधि भङ्ग हो जायके विषयमें उतर आनेसे साधकका जसे सब वृत्ति क्रियामुखी होतो है, वैसे जीव मृत्युके बाद जन्म द्वारा पूनराय देह धारण करनेसे पूर्वजन्मके सब वृत्ति ही एक एक करके प्रकाश होता है। मृत्युके अज्ञानता और समाधिको अज्ञानतामें प्रभेद यह है कि,-मृत्युमें देह त्याग होता है, समाधिमें देह त्याग नहीं होता; जीव मृत्युमें प्रकृतिकी अधीन ही रहते हैं, समाधि स्वाधीन होते हैं; भृत्युमें असाधकके लिये विषय और योगभ्रष्ट साधकके लिये ज्ञान अवलम्बन रहता है, समाधिमें कुछ भी नहीं रहता निरालम्ब होके निर्वाण मुक्ति होती है ।। १५॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्याय २४७ -भूत और भविष्यत् भी बर्त्तमानके सदृश दृष्टिगोचर होता * ॥ १६ ॥ तद्वद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः । गच्छन्त्य पुनरावृत्ति ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥ १७ ॥ अन्वयः । (ते ) तबुद्धयः तदात्मानः तन्निष्ठाः तत्परायणाः ज्ञाननिर्धूतकल्मषा: ( सन्तः ) अपुनरावृत्ति गच्छन्ति ॥ १७ ॥ अनुवाद | उस आदित्यवत् ज्ञानमें जिनकी बुद्धि रहता है-चित्त रहता है, उसीमें ही जिन सबकी निष्ठा, और वही जिनकी परमगति है, ज्ञान द्वारा उन सबका कल्मष धौत होनेसे, उन सबको अपुनरावृत्तिगतिकी प्राप्ति होती है ॥ १७ ॥ - * भगवान ६ ष्ठ श्लोकमें "योग बिना संन्यास नहीं होता" यह कथा कहकर देखलाये कि, योगयुक्त होनेसे शीघ्रही तत्त्वातीत होयके ब्रह्म प्राप्ति होता है । फिर शरीर के शेष निःश्वास त्याग न होनेसे स्वभावके वश करके साधक जब तत्वमें उतर आते हैं, तब साधक तत्त्ववित् ( ८म श्लोक ) होते हैं, उनमें एकाधारमें योगयुक्त, विशुद्धात्मा, विजितात्मा, जितेन्द्रिय, सर्वभूतात्मभूतात्मा - इन पांचों अवस्थाओं का समावेश होता है । किन्तु साधनामें उठ जाने के समय ये पांच अवस्था एकके बाद एक क्रम करके पृथक् पृथक् भाषमें होता है । ६-८ श्लोकमें योगफल साधारण भावसे व्यक्त करके, सो सब अजुनको ( साधकको ) विशेष भावसे समझाने के लिये १०-११ श्लोकमें साधनाके ऊद्ध क्रमके प्रणाली और प्रकार कह दिये, तथा १२-१५ श्लोक में उन पांच अवस्था पृथक भावसे वर्णन किये। अंतएव ८म श्लोक के तत्त्ववित् अवस्था भी जो है, इस १६श श्लोकके वर्णित अवस्था भी वही है; दोनों ही एक । इस अवस्था में ही साधक ईश्वर है । परन्तु साधकके ईश्वरत्वमें और जगदीश्वर के ईश्वरत्व में प्रभेद यह है कि, साधक, साधकके क्षुद्र ब्रह्माण्डके ( शरीरके ) ईश्वर; और जगदीश्वर इस वृहत् ब्रह्माण्डके ईश्वर; साधकके लयसे बहिब्रह्माण्डके पंचभूत-निम्मित उनके देहका उपादानका लय नहीं होता, सो सब पंचभूतमें ही पड़ा रहता है, परन्तु जगदीश्वर के लय में समुदायका लय होता है ।। १६ ।। व्याख्या । ( पूर्वोक्त प्रकार से जो साधक साधना किये हैं, उनका परिणाम क्या होता है, वही इस श्लोक में कहा गया है ) । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ श्रीमद्भगवद्गीता साधन अवस्थामें असम्प्रज्ञात समाधि भक्त हो जानेके पश्चात् जो अवस्था होती है, वही जीवन्मुक्तावस्था (ज्ञानासीनावस्था ) है। उस समय किंचितमात्रभी कश्मल नहीं रहता; तब सबही ज्ञानमय वा ब्रह्ममय-बुद्धि ब्रह्म, चित्त ब्रह्म, स्थिति ब्रह्म, अयन ब्रह्म; इसलिये साधक जीवन्मुक्त हैं। इसी कारण करके शरीर त्याग होनेसे हो विदेह मुक्ति वा अपुनरावृत्ति गति प्राप्ति होती है । १७ ।। विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ १८ ॥ अन्वयः। (ते पण्डित-: (ज्ञानिनः ) विद्याविनयसम्पन्ने (बिद्या आत्मबोधः विनयश्च उपशमः ताभ्यां सम्पन्नः तस्मिन् , उत्तमसंस्कारवति) ब्राह्मणे, गषि, हस्तिनि, शुनि ( कुक्करे ), श्वपाके ( चण्डाले ) च एव समदर्शिनः ( ब्रह्मदशिनः भवन्ति ) ॥१८॥ अनुवाद। वह ज्ञानीगण विद्याविनय-सम्पन्न ब्राह्मणमें; गाभिमें, हस्तिमें, कुक्कुरमें और चाण्डाल में भी समदर्शी (समान एक ब्रह्म स्वरूपसे सबका दर्शन करते है।॥१८॥ व्याख्या। (जो सब महात्मा ज्ञानावस्था पाके अपुनरावृत्ति गति के अधिकारी हो चुके हैं, वह लोग संसारमें रह करके किस प्रकार चालसे चला फिरा करते हैं, वही इस श्लोकमें और पर श्लोकमें कहा गया है)। जिन लोगोंका आदित्यवत् ज्ञानका प्रकाश होता है, उनकी सर्वत्र ब्रह्मदृष्टि स्थापित होनेसे भेदाभेद नहीं रहता, भला बुरा बोध नहीं रहता, शुचि अशुचिकी उद्वग नहीं रहता। सब एक ब्रह्ममय होता है, ब्राह्मण भी जो ब्रह्मा-गौ, हाथी, कुत्ता, चण्डाल भी वही ब्रह्म है-उनके चक्षुमें जगत् "सर्व ब्रह्ममय" भासमान है ॥ १८ ॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्याय इहैव तेजितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः । निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्मात् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥ १६ ॥ २४६ अन्वयः । येषां मनः ( अन्तःकरणं ) साम्ये स्थितं, तैः इह एव सर्गः ( जन्म, संसारः) जि: ( वशीकृतः निरस्तः ), हि ( यस्मात् ) निर्दोषं यत् समं तत् ब्रह्म, तस्मात् ते ब्रह्मणि स्थिताः ॥ १९ ॥ अनुवाद | वहो समदर्शी पण्डितगण -- जिनका मन समतामें स्थित है, वह लोग जीवदशा हो संसारको निरस्त करते हैं। वह लोग ब्रह्ममें ही अवस्थित हैं, क्योंकि दोषशून्य समभाव जो ब्रह्म भी वही है ॥ १९ ॥ व्याख्या । जब प्राण स्थिर हो जाता है, मन भी स्थिर होता है, तब ही "सम" होता है; जब साधक उस सममें रहते हैं उस रहनेका नाम तब उनकी समाधि कहते हैं । उस खमताका निर्दोष भाव ही ब्रह्म है। शास्त्रमें राग द्वेष मोहको दोष कहते हैं; शब्द-स्पर्शादि विषय ही उस दोषका विषय है; इसलिये विषय ही दोष, - ब्रह्मसे विषयका पृथक् ज्ञान ही दोष है। साधक जब मनको लय करके समाधि लेने जाते हैं, उस समय यदि विकर्म्मसे आक्रान्त न होय तो उनका मन चैतन्यमें लय हो जाता है; यह लय होना ही - यह समता ही निर्दोष है। किन्तु उस समय यदि विकर्म कर उनको आक्रमण कर सके तो, उनके मनमें शब्द - स्पर्शादि कोई एक विषय जाग उठता है; तब उनका मन उसी विषयको लक्ष्य करके ही लय होता है, इसलिये वह समाधि ( सममें स्थिति ) निर्दोष न होयके सदोष होता है । यह सदोष समाधि ब्रह्मत्व नहीं है । जो लोग तत्वदर्शी हैं, उनका समाधि निर्दोष है; इसलिये वह लोग ब्रह्ममें स्थित अर्थात् ब्रह्मभाव प्राप्त है; वह लोग प्रारब्ध वश करके विषय में आने से भी विषयको ब्रह्मसे पृथक् भावसे देखते नहीं, उनके लिये सबही ब्रह्म है; इस करके जीवदशामें ही वह लोग सर्गजित् है । जीवका शरीर ही Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० श्रीमद्भगवद्गीता सर्ग (सृष्टि ) है। जीव जब तक जीवित रहते हैं, तबतक शरीराभिमान रहनेसे विषय और इन्द्रिय संस्पर्श करके शारीरिक सुख-दुःखमें अभिभूत होते हैं; किन्तु देहत्याग करके चले जानेके पश्चात् उस मृत देहमें आत्माभिमान करके और सुख दुःख भोग नहीं करते, तब उस देहके ऊपर उनका आत्माभिमान निरस्त हो जाता है। ठीक वैसे जो लोग ज्ञानावस्थापन्न होते हैं, उनका शरीराभिमान एकदम दूर हो जाता है, इसलिये, वो लोग ब्रह्मभावमें अवस्थित रहनेसे, विषय और इन्द्रिय संस्पर्शसे उनके मनमें सुख दुःखादि कोई विकार उपस्थित नहीं होता; जीवितावस्थामें भी वह लोग अविच्छेद (समाने समान) ब्रह्मानन्दमें रहते हैं, इसीलिये वो सब महापुरुषों स्वर्गजयी हैं ॥ १६ ॥ न प्रहृष्येत् प्रियं प्राप्य नोद्विजेत् प्राप्य चाप्रियम्। स्थिरबुद्धिरसंमूढ़ी ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥२०॥ अन्वयः। ब्रह्मवित् स्थिरबुद्धिः (निश्चलबुद्धिः ) असंमूढः ( संमोहव जितः) ब्रह्मणि एब स्थितः ; अतः प्रियं ( ईष्टं ) प्राप्य न प्रहृष्येत् ( न हर्ष कुर्यात् ) अप्रियं (अनिष्टं ) च प्राप्य न उद्विजेत् ( न विषीदति ) ॥ २० ॥ अनुवाद। ब्रह्मविद् पुरुष स्थिरबुद्धि, मोहव जित, ब्रह्ममें ही अवस्थित हैं; इसी कारणसे वह प्रियवस्तु प्राप्त होके आनन्दित वा अप्रिय प्राप्त होके उद्विग्न नहीं होते ॥२०॥ व्याख्या। ( जो साधक ब्रह्मभावमें अवस्थित हैं, उनका लक्षण क्या, इस श्लोकमें वही कहा हुआ है)। साधारण लोग और साधनामें जो लोग सिद्ध नहीं हुये हैं, वह सब जिस जिस पदार्थको इष्टकर तथा अनिष्टकर ज्ञान करते हैं, ब्रह्मवित् प्रारब्ध भोगकालमें * वही सब वस्तु पाके आनन्दित अथवा * जगतमें रहके जो कुछ करना हो, उद्देश्यशुन्य होके कर चलनेका नाम प्रारब्ध भोग है ।। २०॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ पंचम अध्याय दुःखित नहीं होते; उनकी बुद्धि अचल अटल भावसे ही ब्रह्ममें अवस्थित, इसलिये मोहवर्जित है * । वह "अगाधबुद्धिरक्षुब्धः" ॥२० ।। बाह्यस्पर्शध्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत् सुखं । स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥ २१ ॥ अन्वयः। बाह्यस्पर्शषु ( शब्दादि बहिविषयेषु ) असतात्मा (अनासक्त चित्तः) आत्मनि यत् सुखं ( तत् ) विन्दति; ( अतः ) सः ब्रह्मयोगयुक्तात्मा ( ब्रह्मयोगेन समाहितान्तःकरण: भूत्वा ) अक्षयं सुख अश्नुते ॥ २१॥ अनुवाद। बाह्यविषयमें अनासक्तचित्त पुरुष, आत्मामें जो सुख है उसीको लाभ करते हैं, तत् पश्चात् ब्रह्ममें समाहित होके वह अक्षय सुख भोग करते है ।। २१॥ व्याव्या। (ब्रह्मवित्की स्थिरबुद्धि और असमोह होनेका कारण निर्देश करने के लिये इस श्लोकमें कहा हुआ है कि, विषयासक्ति विहीन पुरुष शान्त होयके अक्षय सुख भोग करते हैं।) प्राणायामादि क्रिया द्वारा शरीर और मन शुद्ध होनेके पश्चात् । बाहरके शब्द-स्पर्श प्रभृति विषयसे मन उठ आके भीतर में प्रवेश करता है, तब और आंख खुलके ताकनेकी इच्छा करते नहीं, बाहरवाले किसीके प्रति मन जाता नहीं, आसक्ति भी रहती नहीं। यह अवस्था सोडासा साधनासे ही धारणामें आता है। इस समय कूटस्थके व्यापार प्रत्यक्ष करके मन प्राण सर्व इन्द्रिय आनन्दमें मोहित हो जाता है। इसीका नाम आत्म सुख लाभ। उस सुखको जिन्होंने जान लिये, वही समझ लिये; वह भाषामें व्यक्त होता नहीं। इस * "हन्तात्मज्ञस्य धीरस्य खेलतो भोगलीलया। न हि संसारवाहीकमूढ़: सह समानता ।। यत् पदं प्रेप्सवो दीनाः शकाद्याः सर्वदेवताः। अहो । तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति ॥" अष्टावक्रः ।। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ श्रीमद्भगवद्गीता अवस्थाके बाद ४र्थ श्रः २५ श्लोक अनुसार ब्रह्मयज्ञका प्रारम्भ होता है, अर्थात् साधक ब्रह्माग्निमें आत्माको आहुति देके ब्रह्म-समाधि लाभ करते हैं। इस समाधि भोग होनेके पश्चात् चित्तमें जो स्रोत बहती रहती है, उसीको ब्रह्मानन्द कहते हैं। यह ब्रह्मानन्द जिन्होंने एक दफे भोग किये हैं, उनका मन विषयमें और रहता नहीं, उसी आनन्दमें ही मतवारा रहता है; उसका और शेष होता नहीं, इसलिये वह अक्षय सुख भोग करते हैं। इस कारण करके ब्रह्मवित् संसारके प्रिय तथा अप्रिय विषयमें मोह प्राप्त होते नहीं। अतएव, साधक ! तुम भो बाहरके विषयसे सब इन्द्रियोंको निवृत्त करो, यह इङ्गित किया गया ॥२१॥ ये हि सस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते । श्राद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥ २२ ॥ अन्वयः। हे कौन्तेय ! हि ( यस्मात् ) ये भोगाः संस्पर्शजाः ( बिषयेन्द्रियसंस्पर्शेभ्यः उत्पन्नाः) ते एव दुःखयोनयः ( आध्यात्मिकादेः दुःखस्य कारणभूताः) आद्यन्तवन्तः ( उत्पत्तिनाशशीला: ); (अत8) बुधः ( विवेकी ) तेषु न रमते ॥ २२ ॥ अनुवाद। जो सब भोग विषय और इन्द्रिय संयोगसे उत्पन्न, सो समस्त ही दुःखके कारण और आदि-अन्त विशिष्ठ ( भनित्य ) है; हे कौन्तेय ! इसीलिये विवेकी पुरुष उन सब भोगमें आसक्त होते नहीं ।। २२ ॥ व्याख्या। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध-ये पांच विषय, कर्ण, त्वचा, चक्षु, जिह्वा, और नासिका इन पांच इन्द्रियसे ही भोग होता है। प्रत्येक इन्द्रियके विषय भोग करने की शक्ति की सीमा है; उस सीमा अतिक्रम होनेसे ही उसमें और भोग सुख मिलता नहीं, दुःख उत्पन्न होता है, जैसे मिठाई खायके तृप्त होनेके पश्चात् और खाया जाता नहीं, वमन चेष्टा, शिरमें दर्द उठ कर कष्ट होता है; तैसे। एही है जगतके नियम । इसलिये विषयभोग-सुख मात्र ही अल्पस्थायी Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम अध्याय २५३, और परिणाममें दुःख उत्पन्न करता है, कहा गया । और भी, विषय भोगमें आसक्त होनेसे मनका आध्यात्मिकी (आत्माभिमुखमें उठने की) शक्ति निस्तेज होता है, अर्थात् जिस शक्ति द्वारा परमात्माको अनुभव किया जाय, और जिसके तेज करके चित्तमें विषयके स्पर्श न होनेसे अन्तराकाश परिष्कार रहता है, वही शक्ति घट जाती है, अतएव अन्तराकाश ढका पड़ता है। किन्तु बाहर के विषय भोगसे विरत होनेके बाद अन्तरमें जिस सुखका उदय होता है, उस सुखका और शेष नहीं, अनन्तकाल भोग करनेसे भी उस सुखसे विकार उत्पन्न होता नहीं। विवेकी पुरुष इसीलिये विषय सुखमें आसक्त होते नहीं ॥२२॥ शक्नोतीहैव यः सोढु प्राक् शरीरविमोक्षणात् । कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः॥ २३॥ अन्वयः। यह नरः इह एव ( जीवन्नेव ) शरीरविमोक्षणात् प्राक् (आमरणं ) कामक्रोधोद्भवं वेगं सोलु ( सहितुम् ) शक्नोति, सः युक्तः सः सुखी ॥ २३ ॥ अनुवाद। शरीर त्यागके पूर्व समय पर्यन्त जो मनुष्य इह लोकमें काम और ... क्रोधका वेग सहन कर सकता है, वही पुरुष युक्त-वही पुरुष सुखी है ।। २३ ॥ व्याख्या। सुख ही मनुष्यका लक्ष्य है। उसके भीतर विषयसुख अनित्य और दुःखकर, किन्तु आत्मानन्द-सुख अक्षय है। अतएव आत्मानन्द-सुख ही परम पुरुषार्थ है। परन्तु काम और क्रोध इस परम पुरुषार्थ लाभके अन्तराय ( विघ्न ) है। विषयकी मोहिनीशक्ति वा आकर्षण ही काम है; यह काम प्रतिहत (बाधा प्राप्त ) होनेसे ही क्रोधमें परिणत होता है (३ य अः ३७ श्लोक देखो)। काम क्रोध साधकको भीतर बाहरमें आक्रमण करते हैं। जो मनुष्य जाग्रत अवस्थामें विषय-संश्रवमें आके मृत्युके पूर्व पर्य्यन्त शरीरके सुस्थ, असुस्थ, सब अवस्थामें ही भोगके विषयमें अनुरक्त अथवा भोगवाली.. Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ . . श्रीमद्भगवद्गीता विषयकी हानि करके विरक्त न होते हैं, वही पुरुष युक्त-वही पुरुष सुखी है। यह तो गये बाहरकी बात। वैसे भीतरमें गुरूपदिष्ट मार्गमें क्रिया करनेके समय जबतक मन "इह” अर्थात् पञ्चतत्वके भीतर रहता है, तबतक मनोवृत्ति समूह अतीव सूक्ष्म होनेके साथ ही साथ उस काम और क्रोधका वेग प्रबल होता है, और अनजान से मनको आक्रमण करता है। जो साधक इस अवस्थामें पंचतत्वके ऊपर उठकर अज्ञानचक्रको भेद करके कूटस्थमें पड़नेके पूर्व पर्य्यन्त (पाक् शरीरविमोक्षणात् ), विवेक और वैराग्यको श्राश्रय करके उस वेगको सहन कर सकते, अटल स्थिर भावसे कूटस्थको लक्ष्य कर रह सकते हैं, थोड़ा सा भी विचलित नहीं होते हैं, वही पुरुष युक्त-वही पुरुष सुखी, अर्थात् वह साधक सुन्दर चिदाकाशमें आश्रय प्राप्त होते हैं ॥ २३ ॥ योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्योतिरेव यः। स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥ २४ ।। अन्वयः। यः अन्त:मुखः ( अन्त: आत्मनि सुख यस्य सः ) अन्तरारामः ( आत्मनि आरामः क्रीड़ा यस्य सः ) तथा एव यः अन्तज्योतिः ( अन्तः आत्मा एव ज्योतिः प्रकाशः यस्य सः ), सः योगी ब्रह्मभूतः ( ब्रह्मणि भूतः स्थितः सन् ) ब्रह्मनिर्वाणं ( ब्रह्मणि लयं ) अधिगच्छति ॥ २४ ॥ अनुवाद। जिनको आत्मामें ही सुख, आत्मामें ही आराम और आत्मामें ही प्रकाश है अर्थात् जो अन्त:करणमें स्वयं आत्माके बिना और किसीको नहीं लेते, वही योगी ब्रह्ममें स्थिति लाम करके ब्रह्मनिर्वाण ( कैवल्य मुक्ति ) प्राप्त होते हैं ।। २४ ।। व्याख्या। केवल काम-क्रोधके वेग धारण करनेसे ही नहीं होता; जिन्होंने अन्तर्दृष्टि द्वारा कूटस्थके भीतर प्रवेश पूर्वक चित्-स्वरूपको दर्शन करके सुख अनुभव करते हैं, अर्थात् उत्फुल्ल होते हैं, पश्चात् चंचलता विहीन होके वही चित-स्वरूपमें आराम लाभ करते हैं, Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्याय २५५ अर्थात् स्थिर होते हैं, और वही चित-ज्योतिके सहारेसे जो कुछ लक्ष्य होता है उसीको सूक्ष्म दृष्टि द्वारा भेद करते हैं, उसकी बुद्धि सूक्ष्म, अतिसूक्ष्म, उससे भी सूक्ष्म होते होते अनन्तमें मिल जाता है. सर्ब बूत जाता है, अपने भी ब्रह्ममें मिश करके ब्रह्म हो जाते हैं । यही योगीका ब्रह्मनिर्वाण प्राप्ति है ॥ २४ ॥ लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः। छिन्नद्वधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः॥ २५ ॥ अन्वयः। क्षीणकल्मषा: ( निष्पापाः ) छिन्नद्वधा (छिन्नसंशया; ) यतात्मानः (संयतचिताः ) सर्वभूतहिते रताः ( सर्वेषां भूतानां हिते आनुकुल्ये रताः ) ऋषयः (सम्यगदर्शिनः ) ब्रह्मनिर्वाणं लभन्ते ॥ २५ ॥ अनुवाद। निष्पाप, संशय शून्य, सर्वत्यागी और सर्व भूतों के हित साधन में रत ऋषिगण ब्रह्मनिर्वाणको लाभ करते हैं ॥ २५ ॥ - - व्याख्या। पूर्व श्लोकमें जिस प्रकारसे योगी ब्रह्मनिर्वाणको लाभ करते हैं, दिखायके, भगवान इस श्लोकमें संन्यासीके ब्रह्मनिर्वाण प्राप्ति की कथा कहते हैं। जो साधक योगानुष्ठान द्वारा सर्व कर्म त्याग करके ऋषि अर्थात् सम्यकदर्शी होते हैं, वह पुरुष ही संन्यासी, आब्रह्म स्तम्बपर्यन्त सबमें ही उनकी ब्रह्मदृष्टि, इसलिये उनमें कोई कल्मष वा द्विधा नहीं रहता। फिर उनका चित्त भी सदा ही विक्षेप-विहीन अवस्थामें ब्रह्मभावमें रहता है, इससे वह सर्वत्यागी, और वह मंगलमय होके सर्व प्राणियोंका हित करते हैं, अर्थात उनके दर्शन मात्र ही से जीव जगतके प्राणमें शान्तिका संचार होता है; और उनके उपदेश से ही ज्ञान लाभ किया जाता है। इसी प्रकारसे काल कटायके सन्यासी लोग भी ब्रह्मनिर्वाणको पाते हैं ॥ २५ ॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ श्रीमद्भगवद्गीता . कामक्रोधविमुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् । अभितो ब्रह्मनिर्वाणं बर्तते विदितात्मनाम् ॥ २६ ॥ अन्वयः। कामक्रोधविमुक्तानां यतचेतसा ( संयतचित्तानां ) विदितात्मनां ( ज्ञातात्मतत्वानां ) यतीना ( संन्यासीनां ) अभितः ( उभयतः जीवा-मृतानां च ) ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते ।। २६ ।। अनुवाद। कामकोध-विमुक्त, संयतचित्त, सम्यकदर्शी संन्यासियोंके जीवित और मृत दोनों अवस्थामें ही ब्रह्मनिर्वाण विद्यमान रहता है ।। २६ ।। व्याख्या। जो सन्यासी उन सब गुण सम्पन्न है, वह जीवन्मुक्त -जीवितावस्थामें भी मुक्त (ब्रह्म स्वरूपमें सदा अवस्थित रहते हैं इस करके उनमें संगदोष नहीं होता है ) मरणमेंभी मुक्त ( मृत्यु होते मात्र ही उनको अपुनरावृत्ति वा परमागतिकी प्राप्ति होती है)। कामक्रोध-विमुक्त प्रभृति गुण कर्मयोग बिना लाभ होता ही नहीं, उसी को लक्ष्य करराय देनेके लिये श्रीभगवान सन्यासीके उन सब विशेषण दिये हैं। इसलिये पश्चातूके श्लोकमें कर्मयोग विस्तार करके कहते हैं । विदितात्मा अर्थात् आत्माको विदित होना है, जैसे दीप शिखामें दीप शिखाका मिलन ।। २६ ।। स्पर्शान् कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रवोः । प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥ २७ ॥ यतेन्द्रियमनोबुद्धिमु निर्मोक्षपरायणः। विगतेच्छाभयकोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥ २८ ॥ अन्वयः। बाह्यान् स्पर्शान् ( शब्दादि विषयान् ) बहिः कृत्वा ( तच्चिन्तात्यागेन इति भावः ) चक्षुः च एव भ्र वोः अन्तरे (भ्र मध्ये ) कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ प्राणापानौ समौ कृत्वा यः यतेन्द्रियमनोबुद्धिः विगतेच्छाभयकोधः मोक्षपरायणः ( सन् ) मुनिः ( मवति ), सः सदा (जीवन्नपि) मुक्तः एव ।। २७ ॥ २८ ॥ अनुवाद। शब्दादि विषय-समूहको अन्तरसे दूर करके, चक्षुको भ्रमध्यमें स्थापन करके, नासाभ्यन्तरचारी प्राण और अपानको समान करके जो पुरुष इन्द्रिय Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पंचम अध्याय मन-बुद्धि संयत करते हैं तथा इच्छा-भय-क्रोध-विहीन और मोक्षपरायण होके मुनि हुये हैं, वह पुरुष सदा ही मुक्त हैं ॥ २७ ॥ २८ ॥ व्याख्या। भगवान बराबर कह आये हैं कि, कर्मयोगही मोक्ष का कारण है; इसलिये योग और संन्यास दोनोंका ही ब्रह्मनिर्वाण स्वरूप एक परिणाम देखाय करके, अब फिर कर्मयोगके अन्तर्गत ध्यानयोग विशेष करके कहते हैं। विषयचिन्ता न करनेसे ही 'अन्तरसे विषयको बाहर करना' होता है; कारण कि चिन्ता करनेसे ही विषय अन्तरमें प्रवेश करता है। दोनों भ्र के अयेन बीचमें जहां तिलकका विन्दु लगाया जाता है, उसी स्थानमें-दृष्टि स्थिर रखने पड़ता है, उसीका नाम भ्रमध्यमें आंख चढ़ाना। सहज क्रिया में प्राणायाम करते करते जब निश्वास और प्रश्वास बारीकसे बारीक हो पाता है और उसकी वेग नासिका के भीतरमें ही बहती है, उस समयमें गुरूपदिष्ट उपायसे * प्राणापान को समान करना पड़ता है। प्राणापानका समान होनेसे ही 'यतेन्द्रिय मनोबुद्धि' प्रभृति अवस्था आपही आप आता है। (जो पुरुष क्रिया करेंगे, निजबोधसे वह सब अवस्था आपही आप समझेगे)। उन सब अवस्थासे जब मुनि हुआ जाता है अर्थात् तत्पदमें मन संलीन हो जाता है, तबही साधक सिद्धयोगी होते हैं। इस प्रकारसे सिद्ध होनेके पश्चात्, जाग्रत, सुषुप्ति, समाधि सकल अवस्थामें ही उनको ब्रह्म भावमें रहना होता है। इसी कारणसे वह साधक सदामुक्त हैं ॥२७ ।। २८ ॥ * अपान अर्थात् जो वायु बाहर जानेवाला गति लिया है, उसको पुरक करके आकर्षण करनेसे ही ( खिंचनेसे ही ) प्राणके स्थान संकीर्ण होनेसे, प्राण आपही आप अपानमें जाके पड़ता है और दोनों मिलकर समान होता है। इसीको ही अपानमें प्राणके हवन वा आहुति देना कहते हैं; से रेचकसे निश्वासके द्वारा प्राणमें अपानका हवन होता है। यह कार्य पुस्तक देखके करना नहीं; खुद अपने गुरु साजके भी करना नहीं चाहिये। (४ थे अः २९ वां श्लोकके व्याख्या देखो ) ॥ २७ ॥ २८॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् । सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मा शान्तिमृच्छति ॥ २६ ॥ अन्वयः। यज्ञतपसां भोक्तारं सर्वलोकमहेश्वरं ( सर्वेषां लोकानां महान्त 'ईश्वरं ) सर्वभूतानां सुहृदं (निरपेक्षोपकारिणं ) मा ( नारायणं ) ज्ञात्वा शान्ति ( सर्वसंसारोपरति ) ऋच्छति ( प्राप्नोति ) ॥ २९ ॥ अनुषाद। इस प्रकारसे मुझको यज्ञ तपस्याका मोक्का, सब लोगोंके महान् ईश्वर और सर्व भूतोंके सुहृद् जान करके शान्तिलाम करते हैं ॥ २९ ॥ ___व्याख्या। (पूर्व श्लोकके अनुसार क्रिया करनेसे ही जो मुनिकी अवस्था होती है वह नहीं; ज्ञान होना चाहिये, ज्ञान न रहनेसे उस प्राणायामका फल वाजिगिरके वाजीके कुम्भक होवेगा। इसीलिये उसी ज्ञानकी कथा इस श्लोकमें कहते हैं )। योगी समाहित होके जब देखते हैं और समझते हैं कि, जितने प्रकारका यज्ञ और तपस्या किया जाता है, ( नारायण) विष्णुही उन सबके भोक्ता हैं,-भूः भूवः आदि जिन सब लोकमें मन्त्र विन्यास करके आत्म-प्रतिष्ठा करके आना पड़ता है, भगवान विष्णु ही उन सबके नियन्ता, और वही विष्णु ही सर्व प्राणियोंके हृदयमें ( अन्तर में) आत्मा रूपसे विराजित हैं, और "मैं' ही वही विष्णु रूपसे विश्वव्यापी हूँ; तब वह योगी सर्वव्यापी होके विष्णुमें मिश जाते हैं,-शान्ति पाते हैं और मुक्त हो जाते हैं ॥ २६ ॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे - . श्रीकृष्णार्जुनसम्वादे कर्मसंन्यासयोगो नाम पंचमोऽध्यायः । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ षष्ठोऽध्यायः .. श्रीभगवानुवाच। अनाश्रितः कर्मफलं कायं कर्म करोति यः। स संन्यासी च योगी च न निरनिन चाक्रियः ॥ १॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच। यः कर्मफलं अनाश्रितः ( अनपेक्षमानः सन् ) कायं कर्म करोति, सः संन्यासी च योगी च, निरग्निः न अक्रियः च न (संन्यासी योगी ) ॥ १॥ अनुवाद। श्रीभगवान कहते हैं, जो पुरुष कर्मफलका आश्रय न करके कार्य कर्म करते हैं, वही पुरुष, संन्यासी और योगी है; (बाहरमें ) निरग्नि और अक्रिय होनेसे हो संन्यासो और योगी हुआ नहीं जाता ॥१॥ . व्याख्या। (भगवान ५म अध्यायमें कर्म-योग और संन्यासयोगके विषय कह आयके, उपसंहारके तीन श्लोकमें सूत्र सदृश अति संक्षेप वाक्यमें योगके विषय जो कुछ कहनेका था, प्रथमसे शेषपर्यन्त सब कह चुके हैं। परन्तु किस तरहसे उन सबका साधन करना पड़ता है--अभ्यासमें लाना होता है, वो सब वहां नहीं कहे हैं। अभ्यास का वही नियम समूह ६ष्ठ अध्यायमें विशद करके कहते हैं। इसीलिये इस अध्यायका नाम अभ्यास योग है *।) ... पहले ही कहा हुआ है * * कि भीतरमुखी क्रियाके अनुष्ठानमें प्राणचालनका नाम कर्म है, और बहिर्मुखमें प्रारब्ध वश करके शरीरयात्रा निर्वाह करनेका नाम कार्य है। जो साधक इस कार्य * इस अध्यायको ध्यानयोग भी कहते हैं। इसीलिये श्रीमत् श्रीधरस्वामी कहते हैं कि-"चित्त शुद्धोऽपि न ध्यानं विना संन्यास मात्रतः। मुक्तिः स्यादिति षष्ठेऽस्मिन् ध्यान योगो वितन्यते" ॥ १॥ ** तृतीय अः १७ श श्लोककी व्याख्या और १९ श्लोककी टीका देखो ॥१॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० श्रीमद्भगवद्गीता और कर्माका अनुष्ठान करते हैं, परन्तु फलकी आकांक्षा नहीं रखते, सर्व कर्मफल वासुदेवमें अर्पण करते हैं, अपनेमें थोडासा भी नहीं रखते, सम्पूर्ण अनासक्त रहते हैं, एकाधारमें वही साधक संन्यासी और योगी दोनों हो हैं। श्रुति-स्मृति-योगशास्त्रमें निरग्नि और अक्रिय होके संन्यासी और योगी होनेका व्यवस्था कहा हुआ है। साधक ! जब चित्तपथमें तुम ब्रह्मनाड़ीके ठीक मध्यभागसे परम शिव में कुल-कुण्डलिनीकी मिलन और मूलाधारमें उनकी पुनस्थापन करने का अविरोधी क्रियामें मतवारा रहते हो, उस समयमें ही केवल तुमको कर्मफल छू नहीं सकता। इसके बाद क्रियाके अन्तमें भी जब तक तुम उस नशेमें विभोर होके बाहरवाला व्यापार सम्पन्न करते हो, तब तक भी कर्म फल तुमको स्पर्श नहीं करता। तुम्हारी इस अवस्थाको ही अनाश्रित कर्म फल भोग वाला अवस्था कहते हैं । जिस भाग्यवान के निरन्तर ( अविच्छेद ) इस अवस्था चलता रहता है, बीच बीचमें भंग नहीं होता, उसीको ही संन्यासी तथा योगी कहा जाता है। नहीं तो अग्निहोत्र-सन्ध्याबन्दनादि नित्यक्रिया और पितृश्राद्धादि नैमित्तिक क्रियासे अव्याहति लेकर बिना परिश्रमसे पराया रसोईके अन्नमें ( भिक्षा निमन्त्रणमें ) पेट चलाना, और आलसी बनकर मन ही मनमें विषय भोगके खेल खेलते हुये लोक चक्षुमें धूर डारके चतुराई करना, इसमें योगी वा संन्यासी बना जा नहीं सकता। तुम निश्चय जान रक्खो कि योगी संन्यासीके लिये सूर्यका उत्ताप बोधमें भी अग्निस्पर्श दोष लगता है, और स्वाभावतः इन्द्रियग्राह्य विषयमें पुनर्लक्ष्य करनेसे ही तुम्हारा संन्यास अथवा योग बन नहीं सकता है ॥ १॥ यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव । न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥२॥ अन्वयः। हे पाण्डव ! यं संन्यासं (सर्वकर्मतत् फलपरित्याग-लक्षणं परमार्थ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय २६१ संन्यासं ) प्राहुः (श्रुतिस्मृतिविदः इति भावः ) तं योग विधि (जानीहि ), हि (यतः) असंन्यस्तसंकल्पः कश्चन ( कश्चिदपि ) योगी ( समाधानवान् ) न भवति ॥२॥ - अनुवाद। हे पाण्डव । श्रुतिस्मृतिमें जिसको संन्यास कहा है, उसीको ही योग कह करके जानना; क्योंकि सङ्कल्प परित्याग न करनेसे कोई कभी योगी हो नहीं सकता ॥२॥ व्याख्या। योग किसको कहते हैं ? - योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः" --"योगश्चित्तसमाधान' अर्थात् चित्तवृत्ति की निरोध वा चित्तकी समाधान अवस्थाको योग कहते हैं। विषय और इन्द्रियोंके संयोग करके चित्तमें जितना प्रकार भावका उदय होता है, उसका प्रत्येकको एक एक वृत्ति कहते हैं। वह समस्त ही चित्तके क्षिप्तमूढ़ विक्षिप्तादि अवस्था या विषम अवस्था है। विषय और इन्द्रियों के संयोग छिन्न हो जानेसे चित्तमें और किसी प्रकार वृत्तिकी उदय नहीं होती, समता आती है; उसी अवस्थाको ही चित्तवृत्ति की निरोध वा चित्त की समाधान कहते हैं। चित्तकी समाधान करना होय तो, अभ्यास योग द्वारा पहले संकल्प त्याग करना पड़ता है, उस प्रकार संकल्प त्यागसे ही विकल्प भी आप ही श्राप त्याग होता है; नहीं तो नहीं होता; इसलिये संन्यास अर्थात् सर्वनाश वा त्याग न होनेसे योग भी नहीं होता। ५ म अः में भी कहा हुआ कि, योग बिना संन्यास नहीं होता। अतएव योग और संन्यास परस्पर सापेक्ष है, एकको छोड़के दूसरा होता ही नहीं। श्रुति-स्मृतिकी मतामें भी सर्व कर्म तथा कर्मफल त्याग करनेकी नाम संन्यास है। सो होनेसे ही परमार्थतः योग और संन्यास पदार्थ एक ही है ॥२॥ आरुरुक्षोमुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते। योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥३॥ अन्वयः। योणं आरुरुक्षोः (आरोढुमिच्छतः ) मुनेः ( कर्मफल-संन्यासिनः ) Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ . श्रीमद्भगवद्गीता कर्म कारणं ( साधनं ) उच्यते; योगारूढस्य (पुनः ) तस्य शमः ( सर्वकर्मभ्यः निवृत्तिः) एव कारणं ( साधनं ) उच्यते ॥ ३॥ . अनुवाद। जो मुनि योगारूढ़ होने की इच्छा करते हैं, कर्म ही उनको साधना किन्तु योगमें आरूढ़ होने पश्चात् शमः अर्थात् कर्म त्याग ही उनके साधन है ॥३॥ व्याख्या । जो साधक कर्मफलके वासना त्याग किये हैं, ईश्वरमें* मन संलीन ( आत्मसमर्पण) करते हैं, वही पुरुष मुनि है। जब तक वह योगमें आरूढ़ न होयके अर्थात् आज्ञाचक्रमें कूटस्थमें न उठ जाय के उठने की इच्छा करते हैं, तब तक एकमात्र कमही अर्थात् प्राणायाम द्वारा षट्चक्रमें यथाविधि प्राण-विन्यास करना ही उनका साधना है, दूसरा साधना नहीं है। यही है आरुरुक्षु अवस्था। उस प्राणायाम द्वारा एक चक्रसे दूसरे चक्रमें उठते उठते आज्ञा चक्रमें उठ जाने के पश्चात् , कर्मराज्य अतिक्रम होनेसे, प्राणकर्म आपही श्राप त्याग हो जाता है, तब शम आता है अर्थात् अन्तरिन्द्रिय विक्षेप विहीन होता है। उस प्रकारसे योगारूढ़ होयके विक्षेप विहीन होनेसे ही ठीक 'मनमें मन देना' होता है; तब "तब "हिरण्मये परे कोषे विरजन् ब्रह्म निष्कलं” यह भावना बिना और कोई वृत्ति ही नहीं रहती, तन्मना हुआ जाता है; यही है अष्टाङ्ग योगका सप्तमाङ्ग ध्यानयोग । यह ध्यान योगही सहस्रार-क्रिया है। इसकी परिपाक अवस्थाही ज्ञानयोग है। [क्रिया द्वारा किस प्रकार अवस्था प्राप्त होनेसे योगाढ़ होता है, उसे पर श्लोकमें कहेंगे] ॥३॥ यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कमस्वनुषज्जते । सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥४॥ अन्वय : यदा हि ना ( नरः) इन्द्रियार्थेषु ( शव्दादिविषयेषु ) कर्मसु च न अनुषज्जते ( आसक्किं न करोति ), तदा ( सः नरः ) सर्वसंकल्पसंन्यासी, योगारूढः उच्यते ॥ ४॥ * योगी क्षुद्र ब्रह्माण्ड की ईश्वरमें लय अभ्यास करेंगे ॥३॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय २६३ अनुषाद। जब मानष शब्दादि विषयमें और कर्मसमूहमें संसक न होते, तब हो उनको सर्वसंकल्पत्यागी योगारूढ़ कहा जाता है ॥ ४ ॥ व्याख्या। साधक ! क्रिया करते करते जब तुम देखोगे कि, तुम्हारा मन विषयके आकर्षणमें और गिरता नहीं, प्राण क्रियाके साथ भी और तुम्हारा मनका कोई सम्बन्ध नहीं, प्राण स्थिर धीर हो गया, इच्छामात्रके भी और उदय नहीं होता, तब ही जानो तुम योगारूढ़ हुये हो। उस समय मन आपही आप सहस्रार-कियाको आश्रय करता है, उसके बिना तब और उसका दूसरा कोई साधना नहीं रहता; इसके थोड़ासा बाद ही ब्राह्मी-स्थितिकी प्राप्ति होती है। उस स्थितिभोगकाल में ही सर्व संकल्पसंन्यासी योगारूढ़ अवस्था होता है ॥४॥ उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् । अात्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥५॥ अन्वयः। आत्मना आत्मानं उद्धरेत् ( संसारात् योगारूढ़तामापादयेत् ) आत्मानं न अवसादयेत् (नाधोगमयेत् ) हि ( यतः ) आत्मा एष आत्मनः बन्धुः, आत्मा एव आत्मनः रिपुः ॥५॥ अनुवाद। आत्मा द्वारा आत्माको ऊद्ध (ऊंचे ) में ले जावेंगे, आत्माको अधःपातित न करेंगे, क्योंकि आत्मा ही आत्माका बन्धु, आत्मा ही आत्माका शत्रु है ॥५॥ व्याख्या। मूलाधारादि पांचो चक्रही शब्द स्पर्शादि पांच विषय के लीलाक्षेत्र है, संसार यही है। मन जबतक यहाँ रहता है, तबतक विषयके आकर्षणमें पड़के सत् असत् नाना वृत्तिके अधीन होता है। इसीलिये गुरूपदिष्ट क्रियानुष्ठानसे मनको उठाय लेके कूटस्थमें स्थिर रखना पड़ता है। इसीका नाम आत्माको उद्धार है। इस उद्धार साधन करनेसे ही विक्षेप विहीन अनासक्त अवस्था पा जाता है और Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ श्रीमद्भगवद्गीता नित्य-सुख भोग होता है। उद्धार-साधन न कर सकनेसे संसारके (चक्रमें घुमना पड़ता है, सुख नहीं मिलता। इसीलिये कहा हुआ है कि "नात्मानमवसादयेत्” अर्थात् आत्माको ( मनको) आज्ञाके नीचे आने नहीं देना अर्थात् विषय संस्पर्शमें नहीं लाना। अापही श्राप अपनेको उद्धार न करनेसे दूसरा कोई नहीं कर सकता (४र्थ अ:४२ श्लोक की व्याख्या देखो)। मनको मनसे ही वश करने होता है, अर्थात् विचार-बुद्धिकी सहारासे विषय-वासना त्याग करके मनको अन्तमुख करना पड़ता है। मनको आज्ञा भेद कराके योगारूढ़ कर सकनेसे आपही आपका बन्धु हुआ जाता है, नहीं तो आपही आपका रिपु। अपना इष्ट अनिष्टका कर्ता आपही है, दूसरा नहीं । श्रीगुरुदेव उपदेश द्वारा पथ और लक्ष्यको मात्र देखला देते हैं, अनुष्ठान और पथ अतिक्रम आपही आप करना पड़ता है ॥ ५॥ बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः। अनात्मनस्तु शत्रत्वे वर्तेतात्मैव शत्रवत् ॥ ६ ॥ अन्वयः। येन आत्मना एव आत्मा जितः ( वशीकृतः ), आत्मा तस्य आत्मनः बन्धुः, तु (किन्तु ) अनात्मनः ( अजितात्मनः ) आत्मा शत्रबत् एव शत्रुत्वे वत्तेत ॥ ६॥ अनुवाद। जो पुरुष आत्मासे आत्माको वशीभूत कर चुके उनका आत्मा ही उनका बन्धु है। किन्तु जो अनात्मा अर्थात् आत्मासे आत्माको वश कर नहीं सकते, उसका आत्मा शत्रु सदृश उसका शत्रुताचरण करता है ॥ ६ ॥ व्याख्या। पूर्व श्लोकमें कहा हुआ है कि, आत्माही आत्माका बन्धु-आत्माही आत्माका रिपु है। किस प्रकार लक्षणाक्रान्त आत्मा श्रात्माका बन्धु, और किस प्रकार अात्मा आत्माका रिपु है, वही कथा इस श्लोकमें कहा हुआ है कि, जितेन्द्रिय पुरुषका आत्मा बन्धु, और अजितेन्द्रियका आत्मा रिपु है। जो साधक क्रिया-योगके Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय २६५ अनुष्ठान फल करके अधिक समय कूटस्थमें अटक रहके-देह “मैं" नहीं है, “मैं” का भी देह कर के कुछ नहीं है-इस प्रकार दृढ़ज्ञानसे देहाभिमानशून्य होते हैं, वही साधक जितेन्द्रिय हैं। जितेन्द्रिय पुरुष ही महापुरुष। वही भाग्यवान आत्मा द्वारा आत्माको अर्थात् मन द्वारा मनको जय करके आप ही आपके बन्धु हुये हैं; अर्थात् सकल अवस्था में ही वह आत्मामें रहते हैं; आत्मासे विच्युत होके उनको विच्छेद भोग करना नहीं पड़ता, किन्तु जो अजितेन्द्रिय देहाभिमानी है, वह अनित्य असत्यको नित्य-सत्य ज्ञान करके मोहित हो रहते हैं, अपना उद्धार साधन कर नहीं सकते। देहाभिमान वश करके उसका स्वभाव ऐसा ही होता है कि, शत्रु जैसे इष्टनाश करके अनिष्ट साधन करता है, वह भी वैसे अज्ञानताके मारे मायाकी धोरमें पड़के अपनी प्रकृत इष्ट-त्याग करके अनिष्ट विषयमें इष्टज्ञान करता है ॥ ६ ॥ जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः। शीतोष्णसुखदुःखेष तथा मानापमानयोः॥७॥.. अन्वयः। "जितात्मनः ( जितेन्द्रियस्य ) प्रशान्तस्य (रागादिरहितस्य) परमात्मा समाहितः ( साक्षादात्मभावेन वत्तं ते इत्यर्थः) किश्च शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः (पूजापरिभवयोः) [ समः स्यात् इत्यध्याहारः ]"-शंकरः ॥७॥ अनुवाद। जो पुरुप जितात्मा और प्रशान्त, उनको परमात्मा साक्षात् आत्माभावमें अवस्थित हो रहते हैं, ऐसे कि, शीत उष्णमें सुख दुःखमें, मान अपमानमें अविचलित रहते हैं ॥७॥ . व्याख्या। जितात्माका अात्माही जो बन्धु है, उसीको स्पष्टतया व्यक्त करनेके लिये यह श्लोक कहा हुआ है। क्रियायोग करके ऊर्द्ध में उठ जायके जितेन्द्रिय और प्रशान्त (रागद्वषादि रहित ) अवस्था प्राप्ति होनेके पश्चात् साधकका सर्वत्र आत्मदृष्टि प्रतिष्ठित होता है-आत्मभावमें ही अवस्थिति होता है; और तब उनको Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ श्रीमद्भगवद्गीता परमात्मतत्वका साक्षात्कार लाभ भी होता है। संसारके भीतर प्रारब्धभोग कालमें भी, साधारण लोगोंके सदृश शीत, उष्ण, सुख, दुःख, मान, अपमान प्रभृतिके द्वारा विलित होके, उनको उस परमात्मतत्त्वसे विच्युत होना नहीं पड़ता है, उनको उस परमात्मसङ्ग भोग अविच्छेद करके होता ही रहता है ।। ७॥ ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः। युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्ट्राश्म कांचनः॥८॥ अन्वयः। ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थः (अप्रकम्पः) विजितेन्द्रियः समलोष्ट्राश्मकांचनः योगो युक्तः ( योगारूढः समाहितः ) इति उच्यते ॥ ८ ॥ अनुवाद। जो साधक ज्ञान और विज्ञान करके तृप्तात्मा-कूटस्थ-विजितेन्द्रिय-मृत्खण्ड पत्थर और सुवर्णमें समान ज्ञान सम्पन्न, उसी योगीको ही युक्त ( योगारूढ़ ) कहते हैं ॥८॥ व्याख्या। (इस श्लोक और पाश्लोकमें योगारूढ़के लक्षण कहा हुआ है)। ___ ज्ञान और विज्ञानका थोड़ा थोड़ा ३य अः ४१ श्लोकमें व्याख्या किया हुआ है; किन्तु विशेष करके समझानेके लिये पुनः कहा जाता है। उपदेश और अनुष्ठान द्वारा प्रत्यक्ष अनुभूत जो कुछ बोध उत्पन्न होता है उसीका नाम ज्ञान है; इसका चरम है ब्रह्मज्ञान वा आत्मज्ञान अर्थात् सबही ब्रह्म-"मैं" ही ब्रह्म. इस प्रकार निश्चय ( अकम्पन स्थिति ) होना। इस आत्मज्ञानको ही ज्ञान कहते हैं । विज्ञान शब्द के दो अर्थ.है, "वि" उपसर्गके 'विशेष' और 'विगत' इन दो प्रकार अर्थभेद करके एक अर्थ है विशेष ज्ञान, दूसरा विगत ज्ञान है। २४ श तत्वके पृथक पृथक सत्वाके बोध, और उन सबके मिश्र तथा अमिम क्रिया कलाप सममाना और उन सबका अनुसन्धान करना-विशेष ज्ञान है और प्रिया द्वारा अन्तःकरण लय हो जा करके जब सब मिट Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय २६७. जाता है, किसी प्रकारका ज्ञान भी नहीं रहता, तत्वज्ञान और तत्त्वातीतका ज्ञान सब मिट जाता है, स्फुरण मात्रका अभाव हो जाता है, तब ही विज्ञान अर्थात् विगत ज्ञान होता है। इस अवस्था में 'विज्ञान' और 'अज्ञान' समान अर्थ बोधक है अर्थात् ज्ञानका परिपाक अवस्था। जो पुरुष प्राकृतिकज्ञान ( तत्त्वज्ञान वा विशेष ज्ञान), आत्मिक ज्ञान (तत्वातीतका ज्ञान वा ज्ञान) और वृत्तिविस्मरण अवस्था (विगत ज्ञान ) सब जान चुके, उनके लिये और जाननेको कुछ बाकी न रहने से, उनका अन्तःकरण तृप्त हुआ है। इस प्रकार साधक ही "ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा” है। अतएव वह "कूटस्थ” अर्थात् उनमें कम्पन और चंचलता मात्र न रहनेसे वह पुरुप निर्विकार है,-"जितेन्द्रिय” अर्थात् इन्द्रियवृत्ति समूह उनके अधीन होते हैं। उनके परिपूर्ण होके ब्रह्मभावमें रहनेसे उनका इन्द्रिय समूह ब्रह्म बिना दूसरा कुछ अवलम्बन नहीं पाता, इसलिये साम्य मावमें रहता है। “सर्व ब्रह्ममयं" होनेसे ईटा, पत्थर, सोना, चांदी प्रभृति सब उनके लिये समान हो जाता है । जो साधक इस प्रकार अवस्था प्राप्त हुये हैं, वही साधक युक्त वा योगारूढ़ सुहृन्मित्राय्युदासीनमध्यस्थद्वष्यबन्धुषु । साधुष्वपि च पापेष समबुद्धिर्विशिष्यते ॥ ६ ॥ अन्वयः। सुहृन्मित्रायुदासोनमध्यस्थवष्यबन्धुषु ( सुहृत् = प्रत्युपकारं अनपेक्ष्य उपकर्ता, मित्रं स्नेहवान् , अरि:= शत्रुः, उदासोनः= विषदमानयोः उभयोः अपि उपेक्षक, मध्यस्थ = विवदमानयोः उभयोः अपि हिताशंसी, द्वेष्यः = द्वष विषयः, बन्धुः = सम्बन्धी; एतेषु ) साधुषु ( सदाचारेषु ) पापेषु ( दुराचारेषु ) च अपि समबुद्धिः (रागद्वेषशून्यबुद्धिः) विशिष्यते (योगारूढ़ानां सर्वां उत्तम इत्यर्थ : ) ॥ ९॥ अनुवाद। सुहृत् , मित्र, अरि, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य, बन्धु, साधु और पानी इन समस्तमें समबुद्धि सम्पन्न जो पुरुष, योगारूढ़ साधकोंके भीतर वही श्रेष्ठ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। उपकारको प्रत्याशा न रखके जो उपकार करता है, उसोको सुहृत् कहा जाता है। स्नेहवशतः जो उपकार करता है, वह मित्र है। जो शत्रुता करता है, वह अरि है। विवाद उपस्थित होनेसे दोनों दलके किसी पक्षमें जो नहीं रहते हैं, वह उदासीन हैं; दोनों दलके ही हितकी इच्छा जो करता है, वह मध्यस्थ है। जो द्वषका पात्र-अप्रिय है, वह द्वष्य है। जिसके साथ कोई सम्बन्ध है, वह बन्धु है। शास्त्र वचन अनुसार जो क्रियानुष्ठान करते हैं, वह साधु हैं; और शास्त्र जो मानते नहीं, वह पापी हैं। योगारूढ़ योगी इन समुदयमें समज्ञान सम्पन्न कह करके विशिष्ट है ॥ ६ ॥ योगी युजीत सततमात्मानं रहसि स्थितः । एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥ १० ॥ अन्वयः। [ एवमुत्तमफलप्राप्तये ] योगी ( घ्यायो ) रहसि ( एकान्ते निर्जननिरुद्वेगप्रदेशे ) स्थितः ( सन् ) ( तथा ) एकाकी ( संगशून्यः ) यतचित्तात्मा (चित्त अन्तःकरणं आत्मा देहश्व संयतो यस्य सः ) निराशोः (पीततृष्णः ) अपरिग्रहः (सन्) सततं आत्मा ( अन्तःकरण-मनः ) युजीत ( समाहितं कुर्य्यात् ) ॥ १० ॥ अनुवाद। योगी आकांक्षा और परिग्रह त्याग तथा देह और मन संयत करके निर्जन स्थानमें अकेला बैठके मनको सर्वदा समाहित करेंगे ॥ १०॥ व्याख्या। योगारूढ़ अवस्था ही योगका उत्तम फल है, वह प्राप्त करनेके लिये योगीको निर्जन उद्वगविहीन एक गुप्त स्थानको चुनकर, साथ किसीको न रखके अकेला वहां बैठके देह और मनको संयत करना होवेगा; मनसे श्राशा ( आकांक्षा ) मात्रको दूर करना होवेगा; और सर्वत्यागी होना होवेगा; अर्थात् अन्तःकरणमें जब जिस भाव का उदय होवेगा, तत्क्षणात् उसीको दूर करना पड़ेगा। इसी प्रकार सावधान होकर मनको समाहित करना पड़ता है। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय . २६६ बाहर में जैसे निर्जन गुप्त स्थानको रहस कहते हैं, शरीरके भीतर तैसे सुषुम्नाके अभ्यन्तर ही रहस है। वहाँ जानेसे मन बहिर्लक्ष्य विहीन होता है, बाहरके विषय तब मनको और स्पर्श नहीं कर सकते। देह संयत करना, गुरूपदिष्ट नियममें आसन करके बैठनेसे ही होता है, और मन संयत करना, गुरूपदिष्ट नियमसे लक्ष्य स्थिर रखनेसे ही होता है ॥ १०॥ शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः । नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥ ११ ॥ तत्रैकाग्र मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः। उपविश्यासने युज्याद् योगमात्मविशुद्धये ॥ १२ ॥ अन्ववः। तत्र ( रहसि ) शुचौ देशे ( शुद्धस्थाने ) नात्युच्छ्रितं ( नात्युच्चं) नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरं ( चलाजिनकुशानां उत्तरं उपरिस्थं, कुशानामुपरि चर्म तदुपरि वस्त्रं तदुपरि स्थितमित्यर्थः ) स्थिरं ( निश्चलं) आत्मनः ( स्वायत्तीकृतं स्वस्तिकासनादिकं ) आसनं प्रतिष्ठाप्य, तत्र आसने उपविश्य मनः एकाग्रं कृत्वा, यतचित्तन्द्रिक्रियः ( सन् ) अात्मविशुद्धये ( अन्तःकरणस्य शुद्धयर्थ ) योगं युज्यात् (अभ्यसेत् ) ॥ ११ ॥ १२ ॥ अनुवाद। उस 'निर्जन गुप्त प्रदेशमें ( गोमयादि लेपन द्वारा) पवित्र स्थानमें अपना ( अभ्यस्त ) प्रासन स्थापन करना चाहिये; वह श्रासन अति उच्च अथवा अति नीचा होना न चाहिये-हेलता डोलता न रहे-और पहले कुश, उसके ऊपर ( लोमयुक्त मृगचर्म वा विड़ाल जातीय चम) उसके ऊपर ( अरञ्जित) पडवस्त्र ( रेशमी कपड़ा) बिछायके उसके उपर बैठने होता है; इस प्रकार आसन पर बैठके मनको एकाग्र करके, चित्त और इन्द्रियोंके क्रिया संयत करके श्रात्मशुद्धिके लिये योगाभ्यास करने पड़ता है ॥ ११ ॥ १२ ॥ ___ व्याख्या। क्या करता हूँ, क्या नहीं करता हूँ, कोई जानने न पावे ऐसे गुप्तस्थानमें गौके गोबरसे मार्जन करके अपना-आसन ( स्वस्तिकासन, सिद्धासन प्रभृति जो कोई आसन अपना आयत्त Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० श्रीमद्भगवद्गीता हुआ हो वही) करना होता है, यह आसन "चलाजिनकुशोत्तरम्" होना चाहिये अर्थात् पहिले कुश बिछाके * उसके ऊपर लोमश मृगचम अथवा कम्बल, उसके ऊपर गरद, तसर आदि ( कीटवाले ) रंग न लगाया हुआ रेशमका वस्त्र बिछा लेना, उसके ऊपर आसन करके बैठना। इस चैलाजिनकुशोपरिस्थित अपना-आसन जमीनसे अधिक ऊंचा न हो, जमीनके बराबर भी न हो, भीगा (गीला ) हुश्रा वा शैत्य न लगने पावे अथवा हठात् कोई कीटादि सरीसृप उसके ऊपर न उठने पावे, इतना ऊंचा ( अन्दाज तीन पाव वा एक हाथ ऊंचा) बेदीके ऊपर होनेसे ही होवेगा। और भो, आसनमें इतना अभ्यस्त होना होगा जैसे बहुत देर तक बैठ रहनेसे भी किसी प्रकारका क्लेश उत्पन्न न हो, जैसे शरीर में टन टन् झन् झनादिसे आसन छोड़ना न पड़े। और "उपविश्य" शब्दसे यह समझा जाता है कि, श्रासनके ऊपर खड़े होके अथवा सोके आसन मारना नहीं चाहिये, योगाभ्यास कालमें बैठ करके आसन भारना चाहिये। यह बैठा हुआ-आसन प्रधानतः दो प्रकारका लिया गया है जिसे नीचे उद्धृत कर दिया गया ** | इस प्रकार आसन करके बैठना योगका बहिरंग है। किन्तु योगी बाह्यिक देश-काल-पात्र तिरपेक्ष हैं; शरीर ही उनका सब है, शरीर ही * कुशाकी होरी देके अथवा कुशाको चटाई बिनवाके आसन तैयार करना पड़ता है। कुश बिना दूसरी कोई चीज ( जेसे पटुवाकी डोरी, कासिकी डोरी, शनकी डोरी प्रभृति ) देके कुशासन बिनवा लेनेसे नहीं होवेगा ॥ ११ ॥ १२ ॥ ** आसन, अष्टांग योगका तृतीयांग है, यह आसन अनेक प्रकारका होनेसे भी, स्वस्तिकासन ( सहजासन ) और सिद्धासन ये दो प्रकार प्रासन ही योगाभ्यासके लिये प्रधान है, सो ऐसे हैं (१) “जानूोरन्तरे सम्यक् कृत्वा पादतले ठभे। ऋजुकायः समासीनः स्वस्तिकं तत् प्रवक्ष्यते"। (२) योनिस्थानकमंघ्रिमूलघटितं कृत्वा दृढ़ विन्यसेन मेढ़ पादमथकमेव हृदये कृत्वा हर्नुसुस्थिर। स्थाणुः संयमितेन्द्रियोऽचलदृशा पश्येत् भ्र वोरन्तरं, ह्य तन्मोक्षकपाटभेदजनक सिद्धासनं प्रोच्यते"। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय २०१ उनका आसन है; शरीरके भीतर ही वह उस प्रकार आसन स्थिर कर लेते हैं। सुषुम्नाके अभ्यन्तर ही उनका रहस अर्थात् गुप्तस्थान है। यहां जो ब्रह्मनाड़ी है, वह "महापापविमोचनी महापुण्यमयी नित्या" है, इस कारण शुचि ( पवित्र ) है। गुरूपदिष्ट नियम अनुसार बाहर के आसनमें यथारीति उपवेशन करके सुषुम्नाके उस शुचिस्थानके नअति उचे न-अति नीचे, मध्यस्थानमें, अर्थात् सात चक्रके मध्य चक्र हृदयस्थ अनाहत चक्रमें, ( वायु आकर्षण द्वारा) शरीरके अधोगामी वेगका भार अर्पण करना होता है; इसोका नाम आत्म-आसन प्रतिष्ठा करना * है। क्रम अनुसार अभ्यास द्वारा उस वेग धारण करनेमें जब श्रायास न होवेगा, अंग-कम्पनादिकी चेष्टा भी न रहेगी, तब ही वह आसन स्थिर होवेगा। फिर अनाहतमें स्थापन करनेसे वह आसन 'चैलाजिनकुशोत्तरम्” अर्थात् चैल, अजिन, और कुशाके ऊपर स्थापित होता है। क्योंकि, ब्रह्माजीकी प्रथम सृष्टि कुश ब्राह्मी- . शक्ति-पृथ्वीतत्त्व है, इनका स्थान मूलाधार; अजिन वैष्णवी शक्ति है, इनका स्थान स्वाधिष्ठान; चैल रौद्री शक्ति है, इनका स्थान मणिपुर; इन तीन शक्तिके ऊपर हृत्कमलमें आत्मशक्तिकी प्रतिष्ठा करने से ही आत्मासन चैलाजिनकुशोत्तर होता है। बाहर जैसे कुशके ऊपर लोमश चर्म, उसके ऊपर रेशमी वस्त्र बिछाकर श्रासनमें बैठके क्रिया करनेसे शरीरमें जो वैद्यु तिक तेज और शक्ति संचार होती है ___ * प्रश्वास सम्पूर्ण रूप खींच लेका शरीर शिथिल न रखके संकुचित वा संयत करके छातीमें जोर लगाके बैठनेसे हो शरीरके अधोगामी वेग हृत्कमलमें धारण करना होता है। वायु खींचकर छातीमें जोर देनेके समय जैसे हृत् पिंड और फुसफुसमें वाय का धक्का न लगने पावे; वायुका धक्का मेरुदण्डके भीतर अनाहत चक्र वायुस्थानमें (हृत्कमलमें ) फेंकना होवेगा ( क्रिया गुरूपदेशसे बोधगम्य होता है। इस प्रकार सावधान होके गुरूपदेश क्रम अनुसार सहज क्रियामें प्राणचालन करनेसे ही योग सिद्ध होता है; नहीं तो नाना प्रकार विघ्न होनेकी सम्भावना है ॥ ११ ॥ १२ ॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता उसको पृथिवी खींच ले नहीं सकता; वैसे मूलाधार-स्वाधिष्ठान-मणिपुरके ऊपर अनाहतमें शरीरका वेग धारण तथा उसमें सम्पूर्ण रूप बोझ देकर स्थिर हो सकनेसे, मन पर पार्थिव विषयकी चंचलता आक्रमण कर नहीं सकती। भीतर और बाहरमें उस प्रकार श्रासनके ऊपर स्थित होके मन को एकाग्र करना होता है, अर्थात् मनोवृत्ति समूहको एकमें केन्द्रीभूत करना होता है। मूलाधारादि पांच चक्र पांचों तत्त्वके आधार हैं कह करके वह सब पांच हैं, और आज्ञाका विन्दु ही एक है। मनको मस्तक-सन्धि वा योग-स्थानमें रखके ( दूसरा चित्र देखो), इस विन्दु को दिल लगाकर लक्ष्य करनेसे ही, मनको एकाग्र करना होता है। इस प्रकारसे एकाग्र करनेसे ही चित्त और इन्द्रियोंकी क्रिया आपही आप समेट आती है, और विषयमें नहीं जाती। - उपरोक्त प्रकार में योगाभ्यास (प्राणचालन ) करनेसे ही चित्त शुद्ध होता है ॥ ११ ॥ १२॥ समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः। संप्रेक्ष्य नासिकाग्र स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥ १३ ॥ अन्वयः। कायशिरोग्रीवं ( कायः देहस्य मध्यभागः शिरः ग्रीवा च मूलाधाराधारभ्य मूर्तीग्रपर्यन्त ) समं ( अवकं ) अचलं च धारयन् , स्थिरः (दृढ़प्रयत्नः सन् ) स्वं (स्वकीयं ) नासिका (नासिकायाः अन शोषंदेशं भ्र वोर्मध्यभागं इत्यर्थः ) संप्रेक्ष्य (भ्र मध्ये बद्धदृष्टिः भूत्वा इति भावः) दिशः च अनवलोकयन् ( योगं युज्यात् इति पूर्वेणान्वयः) ।। १३ ॥ ___ अनुवाद। काय ( शरीरका मध्यभाग) शिर और ग्रोवाको समान और अचल भावमें रखके दृढ़ प्रयत्नके साथ अपनी नासिकाके अग्रभागमें दृष्टि स्थिर करके, किसी दिशामें अवलोकन न करके ( योगाभ्यास करेंगे ) ॥ १३॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय २७३ व्याख्या। पूर्व श्लोकमें योगाभ्यासका आसन-प्रकरणं कहके किस प्रकार भावसे शरीरको रखना होगा, इस लोकमें उसी कथा कहते हैं। दोनों स्कन्ध स्वाभाविक अवस्थामें रखके, पीछेकी तरफ छातिको थोडासा चिताय करके, कठि-पीठ खड़ा (सीधा ) करके, चिबुक (टुढढी ) को कण्ठकूपकी तरफ थोड़ासा झुकाकर मस्तकको जितना खड़ा किया जा सके, करनेसे ही "समं कायशिरोप्रीवं" हुआ जाता है। मस्तक, घाड़ (गहन ) और पीठकी रीढ़ ( मेरुदण्ड) इस प्रकार भावसे सीधा करना होगा, जैसे ये तीन एक हो जायें, किसी प्रकार न हिल सकें। उस प्रकारसे शरीरको धारण करके मस्तकप्रन्थिकी भीड़ेसे दोनों ध्र के अयन बीचमें-जहां आज्ञाचक्र है उसी स्थानमें-मनही मनसे ताकना होवेगा; चक्षुके ऊपर किसी प्रकार जोर जबर्दस्ती न करना चाहिये, आंख मूंदके भीतर भीतर स्वाभाविक भावसे मनही मनमें दृष्टि प्रक्षेप करनेसे ही नजर भ्रमध्यमें स्थिर होता है। उस प्रकारसे नजर स्थिर करके क्रिया करनेसे दसों दिशा में नाना प्रकार रंग बिरंग दर्शनमें आता है, परन्तु उन सबको मन लगाकर देखना न चाहिये; दृष्टि केवल ठीक मध्यमें रखना होता है । इसी प्रकार भावसे योगानुष्ठान करना कर्तव्य है ॥ १३ ॥ प्रशान्तात्मा विगतभीब्रह्मचारिबते स्थितः। मनः संयम्य मञ्चित्तो युक्त भासीत मत्परः ॥ १४ ॥ अन्वयः। (तदनन्तरं ) प्रशान्तात्मा (प्रकर्षेण शान्तान्तःकरण ) बिगतभीः ( विगतभयः ) ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ( सन् ) मनः संयम्य ( मनसो वृत्तीरुपसंहृत्य ) मच्चित्तः ( मयि अपितचित्तः ) मत्परः ( मदेकनिष्ठः) ( एवं ) युक्तः ( समाहितः सन् ) आसीत (तिष्ठेत् ) ॥ १४ ॥ अनुवाद। (तत्पश्चात् ), प्रशान्तात्मा, भयवज्जित, ब्रह्मचर्यशील संयतमना, मद्तचित्त, मत्परायण और युक्त होके अवस्थान करेंगे ॥ १४ ॥ -१८ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालदीता g श्रीमद्भगवद्रोता व्याख्या। पूर्व लोकके उपदेश अनुसार योगानुष्ठान करनेसे श्रात्मविशुद्धि होती है। तब अन्तःकरण प्रशान्त होता है अर्थात् विक्षेप-वर्जित होके कूटस्थमें स्थिर होता है, भय रहता नहीं, विक्षेप न रहनेसे विच्युत होने की सम्भावना दूर होके निर्भय होती है। इस अवस्थामें, प्राकृतिक संग त्याग हो जानेसे अन्तर्देशमें जो नाद-ब्रह्मका उत्थान होता है, साधक उखीको अनुसरण करते रहते हैं; और दूसरी कोई क्रिया ही नहीं करते; कर्मत्यागी होते हैं; सहस्रारमें उठ जाते हैं। इस समय केवल नाद-ब्रह्म मात्र अवलम्बन रहनेसे वह ब्रह्मचारी होते हैं, और उनके मन की संकल्प-विकल्प क्रिया आपही आप सिमट जाती है कह करके संयतमना होते हैं; और चित्त भी क्रम अनुसार उसी नादके अभ्यतरमें प्रवेश करते रहनेसे एक अपूर्व ज्योति लक्ष्य होता है; पश्चात् उस ज्योतिके भीतर प्रवेश भी करता है। अन्तमें वह अन्तरनुसरण वृत्ति मिट कर जो अवस्था आती है, उसीको मत्पर (मनिष्ठ ) अवस्था कहते हैं । इसके बाद और चित्तवृत्ति नहीं रहती, उसी ज्योतिमें मिलकर युक्त हो जाती है-इसीको वृत्तिविस्मरण वा चित्त-वृत्तिका निरोध वा समाधान अवस्था-युक्त (योगप्राप्त) समाहित अवस्था कहा जाता है। इस अवस्थामें शरीर एक जलसे भरा हुआ कुम्भ सदृश मात्र बैठा रहता है ।। १४॥ युजन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः । शान्ति निर्वाणपरमा मत्संस्थामधिगच्छति ॥ १५ ॥ अन्वयः। एवं ( यथोकन विधानेन ) सदा आत्मानं ( अन्त:करणं ) युज्जन् ( समाहितं कुर्वन् ) नियतमानसः ( संयतचित्तः ) योगी निर्बाणपरमां (निर्वाणं मोक्षः, तत् परमा निष्ठा यस्याः तो) मत्संस्था ( मद्रु पेणावस्थिति ) शान्ति ( संसारोपरति ) अधिगच्छति ( प्राप्नोति) ॥ १५॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय २७५ अनुवाद। यथोक्त विधान अनुसार मनको सदा समाहित करते करते संक्त चित्त होकर योगी, आत्मामें स्थित जो निर्वाण रूप परम शान्ति, उसे प्राप्त होते हैं ॥ १५ ॥ - व्याख्या। ब्रह्मनिर्वाण ही परम शान्ति-योगका चरम फल है। सदा काल समाधि अभ्यास करते करते ही वह प्राप्त होता है। इस श्लोकके 'सदा' शब्द और १० म श्लोकके 'सतत' शब्द एकार्थ प्रतिपादक है अर्थात् इन दोनोंका हो अर्थ 'सर्वदा' है। अब बात यह है कि, योगाभ्यासीके लिये अविच्छिन्न भावमें समाधि भोग असम्भव है; वह होनेसे बात एक कैसे हुई ? फिर योगशास्त्र में है कि दिवा न पूययेल्लिङ्ग रात्रौ नैव च पूजयेत्। सर्वदा पूजयेल्लिङ्ग दिवारात्रिनिरोधतः।” अर्थात् तारक ब्रह्म कूटस्थ पुरुषकी पूजा दिनमें भी नहीं करना, रात्रिमें भी नहीं करना, सर्वदा करना; वह होनेसे हो सर्वसिद्धि मिलता है * । “सर्वदा" किसको कहते हैं ? सूर्योदय से सूर्यास्त पर्य्यन्त दिवा, और सूर्यास्तसे सूर्योदय पर्य्यन्त निशा है। इस निशामें सन्ध्यासे साढ़े नौ बजे समय पर्यन्त और साढ़े चार बजेसे सबेरे पर्यन्त समयको रात्रि कहते हैं, और साढ़े नौ बजे समय के बाद साढ़े चार बजे समयके भीतर इस सात घण्टे समयको महानिशा-महामहानिशा–कालरात्रि वा सर्वदा कहते हैं । इस समयमें * यह अर्थ इस श्लोकके बाहर वाला अर्थ है, इससे बाहर वाला कालनिरूपण किया हुआ है। इसका प्राध्यात्मिक अर्थ है, दिषा - सूर्यसंचारमें अर्थात् पिङ्गलामें, रात्रौ-चन्द्रसंचारमै अर्थात् इडामें। कूटस्थ ब्रह्म की पूजा करना हो तो इड़ा किम्वा पिङ्गलाके भीतर देके प्राण चालना करना न चाहिये, इड़ा पिङ्गला निरोध करके सुषुम्नाके भीतर से प्राणचालन करने होता है (क्रिया गुरुमुखगम्य ); सो करनेसे हो मन स्थिर होता है, और कूटस्थ भेद होके परम शिवमें लय होता है। "सुषुम्नान्तर्गतेवायौ मनः स्थैर्य प्रजायते"। सुषुम्ना ही सर्वसिद्धिदायिनी है जिस लिये इसको "सर्वदा" कहते हैं ॥ १५ ॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ श्रीमद्भगवद्गीता पूजा करनेसे इष्टदेवता प्रसन्न होके सर्वसिद्धि प्रदान करते हैं कह करके इसका नाम सर्वदा हुआ। इस 'सर्वदा' को लक्ष्य करके ही 'सदा' और 'सतत' शब्द बैठाया हुआ है, इस समयको ही योगाभ्यासके लिये प्रकृष्ट समय जानना, क्योंकि, अष्टप्रहरके भीतर इस समयमें ही तमोगुणका पूर्ण प्रभाव वर्तमान होता है, इस समयमें क्रिया करनेसे मन शीघ्र विशुद्ध तमोके आकर्षणमें पड़कर स्थिर होके स्थिति-पद पाता है, अर्थात् समाहित होता है। प्रथम प्रथम समाधि निमिष-स्थायो होता है; क्रम क्रमसे अभ्यास वृद्धिके साथ ही साथ समाधिका स्थिति-काल भी बढ़ता है। अवलम्बन भेद करके समाधि दो प्रकारका है,-जड़-समाधि और चैतन्य-समाधि। ध्यानावस्थामें प्राकृतिक किसी पदार्थको अवलम्बन करके यदि अन्तःकरणवृत्ति मिट जाय, तो जड़-समाधि कहा जाता है; यह निकृष्ट है। परन्तु ध्यानावस्थामें चतन्य वा आत्मासे च्युत न होके यदि मन उस चैतन्य वा आत्मामें ही लीन हो जाय तो उसे चंतन्य-समाधि कहा जाता है। यह चैतन्य-समाधि ही इस श्लोकमें 'मत्संस्थां शांति' है। चैतन्यसमाधिको ही योगशास्त्रमें समाधि कहा है। यह समाधि भी पुनः दो प्रकारकी है-सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। जिस प्रकारकी समाहित अवस्था में प्रज्ञा अर्थात् ज्ञान रहता है, अर्थात् जिस अवस्थामें अन्तःकरण सर्वतोभाव करके आत्म-लक्ष्यमें श्राबद्ध होता है, विक्षेष का नाम मात्र नहीं रहता, किन्तु अपने अस्तित्वकी विभिन्न अवस्थाका बोधन होता रहता है, इस प्रकार समाधिको ही सम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं। सम्प्रज्ञात समाधि फिर अन्तःकरणकी मन-बुद्धि-अहंकारचित्त इस क्रमसे क्षेत्रभेदसे वितर्क-विचार-आनन्द-अस्मिता इन चार प्रकारकी है। और जब सब मिट जाती है, वृत्तिविस्मरण अवस्था आती है कोई ज्ञानही न रहे, उसीको ही असम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं। यही है सर्वोत्कृष्ट चरमसमाधि; यह सर्वोत्कृष्ट असम्प्रज्ञात Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय २७७ समाधि ही इस श्लोक में "मत्संस्थां निर्वाण-परमा शान्ति” अर्थात् चैतन्यमें निर्वाणरूप शान्ति ( चैतन्य में मिलकर मिट जाना अवस्था ) है ॥ १५ ॥ नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः । न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥ १६ ॥ अन्वयः । हे अर्जुन ! तु ( किन्तु ) अत्यश्नतः ( अत्यधिकं भुञ्जानस्य ) योगः ( समाधिः ) न ग्रसित ( न भवति ) - न च एकान्त ( अत्यन्तं ) अनश्नतः ( अभुञ्जानस्यापि ), न च अतिस्वप्नशीलस्य ( अतिनिद्राशीलस्य ) - न च एव (अति) जाग्रतः ( योगः अस्ति इत्यर्थः ) ॥ १६ ॥ अनुवाद | परन्तु हे अर्जुन ! अति भोजन करने वालोंका योग नहीं होता, एकदम भोजन न करने से भी योग नहीं होता तैसे अतिनिद्रालुके भी नहीं होता, और एकदम जागनेवाले को भी ( योग ) नहीं होता ॥ १६ ॥ व्याख्या । १७ लोककी व्याख्या में देखो ॥ १६ ॥ युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्म्मसु । युक्त स्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ १७ ॥ अन्वय । युक्ताहारविहारस्य ( नियमित भोजन पादक्रमस्य ) कर्म्मसु युक्तचेष्टस्य ( नियमानुसारेण चेष्टा कुर्वतः ) युक्त स्वप्नावबोधस्य ( नियमित निद्राजागरस्य ) दुःखहा ( सर्ब संसारदुःखक्षयकृत् ) योगः भषति ( सिध्यति ) ॥ १७ ॥ अनुवाद | नियमित आहार विहार करनेवाला, कर्म्म सकलको नियमित चेष्टा करनेवाला, और नियमित निद्रा तथा जागरित रहनेवाला जो है, उसीको दुःखहारी योगसिद्धि होती है ॥ १७॥ व्याख्या | योगीके लिये अति आहार, अनाहार दोनों ही निषिद्ध है, नियमित आहार ही उनको विधेय है । १७ अः ८ म श्लोकके अनुसार सात्त्विक आहार, सो भी परिमित परिमाण होने से Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८, श्रीमद्भगवद्गीता ही आहार नियमित होता है। उदरका आधा अंश अन्न द्वारा, एक चतुर्थांश पानी ( दुग्ध, जल ) द्वारा पूर्ण करके अवशिष्ट चतुर्थ अंश वायु चालन के लिये खाली रखनेका का नाम मिताहार है । जिस प्रकार चाल चलनमें चलने से अंग-प्रत्यङ्ग की परिचालना हेतु शरीर कम्मठे रहे, अथच श्रमका उदय न हो उसीका नाम नियमित विहार है । क्रिया ( साधना ) अब थोड़ा सा कर दिया, इसके बाद थोड़ा करूंगा, आज नहीं हुआ, कल दो दिनका एक साथ कर लूंगा, इस प्रकार करने से योगसिद्धि नहीं होती, साधनाके लिये नियम ठीक रखना चाहिये; अर्थात् किस समय के घड़ी क्रिया करना होगा उस विषयमें प्रथम दृढ़ता चाहिये; इसमें किसी प्रकार व्यतिक्रम न होनेसे ही युक्तचेष्ट होना होता है। तंसे निद्रा जागरण भी नियमित होना चाहिये; क्योंकि, अधिक निद्रा सेवनमें शरीर अवसन्न और वायु-पथ समूह श्लेष्मायुक्त होने से योगानुष्ठान में किन होता है; तैसे एकदम न सोने से भी शरीर ग्लानियुक्त होके नाना प्रकार विकारग्रस्त होता है, योग होता ही नहीं। योगाभ्यासीके लिये एक प्रहर काल निद्रा लेना ही यथेष्ट है । प्रथम प्रथम योगाभ्यास के समय रात्रिमें पूरी एक नींद खुलासा लेनी होती है; तिसके बाद उठकर शौच प्रस्रावादि त्याग करके, हाथ मुख धोके शुचि होके शासन करके बैठके क्रिया करना होता है । योगमार्ग में कुछ अग्रसर होनेके पश्चात्, उस निद्रा दिनमान में आहार के बाद लेकर रात्रिका सम्पूर्ण समय योगानुष्ठान में लगाना अच्छा है । पुनश्च नियमित परिमाण निद्रा लेके दिन रात योगाभ्यास करोगे, सो नहीं होगा; स्वाभाविक अवस्था में सजाग रहना भी चाहिये। यह सब बाहर के नियम हैं । * " मिताहारं विना यस्तु थोगारम्भं च कारयेत् । नाना रोगो भवेत्तस्य किञ्चिद् योगो न सिध्यति ॥ " Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय २७४ बाहिक आहार-विहार सम्बन्धमें जैसे बांधा हुआ नियम पालन करना होता है, क्रियाकालमें अन्तरके भीतर भी इसी प्रकार नियम पालन करना होता है; वही कहा जाता है। शरीर पोषणके लिये किसी द्रव्य गलाधःकरण द्वारा उदरस्थ करनेका नाम आहार है; क्रिया के समय एक मात्र वायु ही आहार होता रहता है। वह वायु-आहार अति अधिक अथवा एक दम न होनेसे योग नहीं होता, अर्थात् प्रश्वासके साथ वायुको खूब जोरसे खींच लोगे, उसमें सर्व शरीरमें कम्पन श्रावेगा, इस प्रकार होनेसे योग नहीं होता, रोग होता है। तैसे श्वासको न खींचके किम्बा श्वास न फेंक के एक बारगी दम बन्द करके रहनेसे भी रोग होता है। निश्वास-प्रश्वास सहज प्राण चालन से आपही आप जैसे चलता है, उसीके बशमें रह करके गुरूपदिष्ट कौशल प्रयोग करना पड़ता है, वह होनेसे ही योग होता है, इसीका नाम युक्ताहार है। और यह श्वासके क्रिया यथा समयमें यथा नियममें अनुष्ठान करनेसे ही अर्थात् श्वासको कभी दीर्घ कभी हस्व, कभी बारीक कभी मोटा न करके मन्त्र-समन्वय द्वारा समान प्राकार से उठाने फेंकनेसे ही युक्तविहार तथा युक्तचेष्ट होना होता है। अब स्वप्न और जागरण क्या है ? वह भी कहा जाता है। हम लोग साधारण अवस्थामें दिन रातके भीतर जितने प्रकार की अवस्था पाते हैं, वह समस्त ही योगाशास्त्रके मतमें स्वप्न है, इसलिये कहा हुआ है कि, यह जगत् स्वप्नवत् है; अर्थात् आत्मचिन्ता वा ईश्वर चिन्ता त्याग करके जो विषय-संश्रव होता है, वही स्वप्न है। और साधनामें ऊपर उठके अन्तरतम प्रदेशमें प्रवेश करके जिस अवस्थामें संसारके अनित्यत्व, अकिञ्चित्करत्व और आत्माके नित्यानन्दत्व अपरोक्ष ज्ञानसे अनुभव किया जाता है, उसीको जागरण या "प्रबोध-समय" कहते हैं। इस स्वप्नावस्थामें अर्थात् विषय संश्रवमें अधिक समय रहनेके लिये मन उसीमें आसक्त हो जानेसे भीतर में प्रवेश कर नहीं सकता; Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० श्रीमद्भगवद्गीता तैसे योगानुष्ठानमें जो जाग्रत अवस्था ( समाधि नहीं ) मिलती है, प्रथम प्रथम उसमें अधिक क्षण रहनेका चेष्टा करनेसे ( रहा तो जाता ही नहीं, अभ्यास दोष करके उससे भ्रष्ट होना ही पड़ता है; तथापि एकासनमें बैठके निरन्तर प्राण-क्रिया करके उसी अवस्था ठीक रखने की चेष्टा करनेसे ) शरीरका उपादान क्षय होता है, सुतरां शरीर भी रोगग्रस्त हो पड़ता है। इसलिये प्रथमतः नियम वांधाः यथा समय में योगानुष्ठान करना होता है; पश्चात् जैसे जैसे अभ्यास दृढ़तर होते रहे ( ऐकान्तिकी इच्छासे नियम पालन करनेसे अभ्यास शीघ्र ही दृढ़ होता है ), से वैसे क्रियाकी स्थिति काल आप ही श्राप बढ़ता जाता है, तब और किसी विघ्नका डर नहीं रहता। गुरूपदेश के ऊपर निर्भर करके अति सावधानीसे और अति यातनाके साथ इन सब उपाय अनुसार क्रियाके अनुष्ठान करनेसे समाधि-लाभ होता है, समस्त दुःखका भी क्षय होता है ॥ १६ ॥ १७ ॥ यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते । निष्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥ १८ ॥ अन्वयः। यदा चित्तं विनियतं ( विशेषेण संयतं एकाग्रतामापन्नं सत् ) प्रात्मनि एव अवतिष्ठते, तदा सर्वकामेभ्यः ( दृष्टादृष्टविषयेभ्यः ) निष्पृह [ योगी ] युक्तः इति उच्यते ॥ १८ ॥ ___ अनुवाद । जब चित्त विशेष भावसे नियत होकर आत्मामहो स्थिति लाभ करता है, तबही योगी सर्वकामसे स्पृहाशून्य होकर युक्तनामसे अभिहित होते हैं । १८ ॥ व्याख्या। १७वां श्लोकमें कहा हुआ है कि, नियमबद्ध होके कर्म करनेसे ही योग ( समाधि ) होता है। अब कर्मका अनुष्ठान करनेसे किस समय युक्त होना होता है, इस श्लोकमें वही कहा जाता है। जब चित्त एकाग्र होकर एकमात्र आत्मामें स्थिर हो जाता है, आत्मा बिना दूसरे किसीको धारणा (चिन्ता ) नहीं करता है, अपने Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ षष्ठ अध्याय में आप रहता है, उसी समयको ही सर्वचिन्ता विवर्जित अवस्था कहा जाता है, अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज, मरुत , व्योम वह जो सर्व हैं. इनके साथ सम्बन्ध रहित हो जानेसे इनके ऊपर और स्पृहा नहीं रहता; एकमात्र आत्मा ही अवलम्बन होते हैं। यही है युक्त अवस्था ॥ १८ ॥ यथा दीपो विवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता । योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥ १६ ॥ अन्वयः। यथा निवातस्थः ( वातवजितस्थाने स्थितः ) दोपः न इङ्गते ( न चलति ), आत्मनः योगं युञ्जतः ( समाधि अनुतिष्ठतः ) योगिनः यतचित्तस्य (संयतान्तःकरणस्य ) सः ( दीपः ) उपमा ( दृष्टान्तः ) स्मृता ।। १९ ।। अनुवाद । वायु-विहीन स्थानमें जैसी दीप शिखाकी कम्पन नहीं होता, आत्मयोगनुष्ठानमें रत योगीके संयतचित्तकी तादृश उपमा स्थिर किया हुआ है ॥ १९॥ . व्याख्या। वायु-विहीन स्थानमें दीपशिखा क्रमशः वारीक ( सूक्ष्म ) हो आके सुचीकी अग्रभाग सदृश होता है; यह क्रम-सूक्ष्म शिखा अङ्कित हुआ तसवीर सदृश निश्चल है, तथा उसमें ऊर्द्ध-प्रवाह वर्तमान है। बत्तीसे लेके शिखाके अग्रभाग पर्य्यन्त ही प्रकाश है ठीक उसके बाद ऊपरसे ही अप्रकाश (निराकार ) है। चित्त संयत करनेके पश्चात्, ठीक उसी प्रकारसे समुदाय वृत्ति एकाग्र होकर एक अतीव सूक्ष्म विन्दुमें स्थिर-प्रवाह आकारसे प्रवेश करके मिट जाता है, अर्थात् वह सब वृति अपना अपना उत्थान पतन रूप साकारत्व परित्याग करके निराकारत्वमें ( साम्यत्वमें ) परिणत होता है ॥ १६ ॥ यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया । . . यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥ २० ॥ सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम। वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥२१॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२.. श्रीमद्भगवद्गीता यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः। यस्मिन् स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥ २२ ॥ तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितं । स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिविण्णचेतसा ॥ २३ ॥ अन्वयः। योगसेवया ( योगानुष्ठानेन ) निरुद्ध ( निवातप्रदीप-कल्पं एकाग्रीभूतं) चित्त यत्र ( यस्मिन् अवस्थाविशेष ) उपरमते ( उपरतिं गच्छति ), यत्र च एव ( यस्मिन् अवस्था विशेषे ) आत्मना ( समाधिपरिशुद्ध नान्तःकरणेन ) आत्मानं पश्यन् आत्मनि तुष्यति ;-यत्र स्थितः ( सन् ) अयं ( योगी ) आत्यन्तिकं (अनन्तं) बुद्धिग्राह्य अतीन्द्रियं ( इन्द्रियसम्बन्धातीतं ) यत् सुख तत् वेत्ति, न च एव तत्त्वतः (आत्मस्वरूपात् ) चलति ;-यं (अवस्थाविशेषं) लब्ध्वा च अपरं लाभं ततः अधिकं न मन्यते, यस्मिन् स्थितः ( सन् ) गुरुणा ( महता ) दुःखेन अपि न विचाल्यते ( नाभिभूयते);-तं (पूर्वोकप्रकारं अवस्थाविशेष) दुःखसंयोगवियोगं (विषयेन्द्रियसंस्पर्शोद्भवा सर्वा मनोवृत्तिः एष दु:ख, तस्य योगेन वियोग: यस्मिन् तं, दुःखरहितमित्यर्थः) योगसंज्ञितम् ( योगशब्दधाच्यं ) विद्यात् ( जानीयात् )। सः ( योगः ) अनिविण्णचेतसा ( निवेदरहितेन चेतसा ) निश्चयेन ( अध्यवसायेन ) योक्तव्यः ( अभ्यसनीयः) ॥ २० ॥ २१ ॥ २२ ॥ २३ ॥ अनुवाद। योग सेवा ( योगानुष्ठान ) द्वारा निरुद्ध चित्त जिस अवस्था विशेषमें उपरत (निवृत्त) होता है, और जिस अवस्था विशेष में आत्मा द्वारा आत्माको दर्शन करके आत्मामें ही तुष्टि लाम किया जाता है, जिस अवस्था विशेषमें स्थित होके, योगी बुदिग्राह्य अतीन्द्रिय अनन्त सुख अनुभव करते है, अथच आत्मस्वरूपसे विचलित नहीं होते , जिस अवस्था लाभ करके पश्चात् दूसरे किसी लाभको जिससे अधिक लाभ करके मनमें नहीं मानते, और जिसमें स्थित होनेसे ( आधिव्याधिरूप ) महत् दुःखसे भी विचलित नहीं होते ;-उसी दुःखांसस्रव विहीन अवस्थाको ही योगशब्द वाच्य जानना। उस योगकी अध्यवसाय सहकार निर्वेद-रहित चित्तसे अभ्यास करना होता है ॥ २० ॥ २१ ॥ २२ ।। २३ ।। व्याख्या। चित्तवृत्तिकी निरोध अवस्थाका नाम योग है। मन को एकाग्र करके ( १२श श्लोक की व्याख्या देखो ) क्रिया करते करते Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ षष्ठ अध्याय जब शिरा प्रशिरा आदि सब वायु-पूर्ण हो आवे, फुसफुसके क्रिया धीर भावसे सम्पन्न होते रहें, शरीरमें किसी प्रकारकी चंचलता वा उद्वग न रहे, तब मन भी सम्पूर्ण रूपसे पांचों चक्रके सम्बन्ध त्याग कर उठ आके श्राज्ञामें स्थित होता है, इसीको ही चित्तकी निरुद्ध अवस्था कहते हैं। इस अवस्थामें आनेसे नीचे वाले आकर्षण शक्ति निस्तेज हो जानेसे, स्वभावके वशमें मन आपहो आप ऊर्द्धदिशामें आकर्षित होता है, और सहस्रारमें उठ जाता है। निरुद्ध (बहिर्विषय-व्यापार-परिशून्य ) चित्त सहस्रारमें उठ जा करके निर्वापित न होना पय॑न्त, भिन्न-भिन्न क्रममें उठता रहता है, वही एक एक क्रम योगका वा समाधिका एक एक अवस्था है; वही सब अवस्था हा २०२२ श्लोकों पर पर व्यक्त किया हुआ है। योगसेवा द्वारा ( क्रिया करते करते ) चित्त निरुद्ध होनेके बाद पहले ही उपरम प्राप्त होता है अर्थात् विषयाकर्षण की खींचाई मिट जानेसे स्थिर होता है; उस स्थिर अवस्था बाहाल रखनेके लिये और किसी प्रकार नवीन चेष्टा करना नहीं पड़ता; परन्तु मनकी संकल्पक्रिया अब तक भी नष्ट न होनेसे एक आकांक्षा रहती है; वह श्राकांक्षा न मिटनेसे, वह क्या है, जाननेके लिये उस विषयमें एक विशेष प्रकारका तर्क उपस्थित होता है; इस कारण करके इस उपरम अवस्थाको योगशास्त्रमें वितर्क-अवस्था कहा हुआ है। यह वितर्क ही सम्प्रज्ञात समाधिका प्रथम स्तर है। तत्पश्चात् चित्त और थोड़ासा अग्रसर होनेसे, संकल्प-क्रिया अभिभूत हो पाता है, तव प्रात्मा द्वारा आत्मा को साक्षात् करके चित्तमें तुष्टि आता है। इस समय प्रात्मा क्या है, प्राकृतिक पदार्थसे उनका प्रभेद क्या है, वह अपरोक्ष स्वरूप ज्ञानसे विचार कर लेनेसे आकांक्षा मिट जातो है; इसीलिये इस अवस्थाको विचार-अवस्था कहते हैं। यह विचार ही सम्प्रज्ञात समाधिका द्वितीय स्तर है। इसके बाद एक प्रकारका सुख उदय होता है; वह Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ श्रीमद्भगद्गीता सुख अतीन्द्रिय अर्थात् ज्ञानेन्द्रिय और मन के अतीत है, इन सबसे वह सुख अनुभवमें नहीं आ सकता, अर्थात् संकल्पात्मक मनकी क्रिया रहनेसे उस सुखका उदय होता ही नहीं, इसलिये उस सुख वाणीमें कह करके समझानेकी कोई युक्ति नहीं-अव्यक्त है; यह सुख बुद्धिप्राह्य है, अर्थात् संकल्प विहीन निश्चयात्मिका वृत्तिसे ही अनुभवमें आता है; और भी यह सुख आत्यन्तिक है, अर्थात् अनन्त--भोगसे शेष नहीं होता, और भोग करनेसे आत्मतत्त्वसे विचलित भी होना नहीं होता. यह सुखावस्था ही योगशास्त्रके प्रानन्द-अवस्था, सम्प्रज्ञात समाधि का तृतीय स्तर है। इसके बाद और एक अवस्था आती है, वह प्राप्त होनेसे, उसके बाद प्राप्त होनेको और कुछ नहीं रहता; वही प्राप्तिकी प्राप्ति-पराकाष्ठा स्थिति है, यही अपनेमें आप रहनाअवस्था, योगशास्त्रका अस्मिता-अवस्था, सम्प्रज्ञात समाधिका चतुर्थ और शेष स्तर है। इस चतुर्थ अवस्थाके बाद वृत्ति-विस्मरण अवस्थापरिपूर्ण ज्ञानके परिपाकके लिये अज्ञान अवस्था कैवल्य वा निर्वाण अवस्था आती है; उस अवस्थामें गुरुतम दुःखसे भी विचलित होना नहीं पड़ता अर्थात् तब और मायाविकार स्पर्श कर नहीं सकता, किसी प्रकारका मालूम करनेका व्यापार ही नहीं रहता, अन्तःकरण ही नहीं है, तो जाने कौन ? इसलिये इसको असम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं। इस अवस्थाको लेके साधक अपने शेष निश्वासको फेंकनेसे ही अपुनरावृत्ति गति-लाभ करते हैं । अतएव संसारके हर्ष-विषाद रूप जो दुःख है उसके संयोगमें और उनको आना नहीं पड़ता। इसी कारण करके योगको ‘दुःखसंयोगवियोग" कहा हुआ है। इसीलिये यह योग योक्तव्य अर्थात् अभ्यास द्वारा आयत्त करना सर्व जनको ही उचित है। अभ्यासके प्रथममें आयास ( कष्ट ) है कह करके त्याग करना उचित नहीं; निर्वेद-रहित चित्तसे अर्थात् वेद-विहित उत्साह तथा उद्यम सहकार, और निश्चय द्वारा अर्थात् "करुंगा ही करुंगा" Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय २८५ इस प्रकार दृढ़ अध्यवसाय (पण ) द्वारा यत्न करना पड़ता है, चेष्टा करने होता है, करनेसे ही आयत्त भी हो जाता है ॥ २० ॥ २१ ।। ॥ २२ ॥ २३ ॥ संकल्पप्रभवान् कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः। मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥ २४ ॥ अन्वयः। संकल्पप्रभवान् सर्वान् कामान् अशेषतः (निलैंपेन सवामनt) त्यकत्वा, मनसा एव इन्द्रियग्रामं (इन्द्रियसमूह ) समन्ततः ( सर्वतः ) विनियम्य (विशेषण नियमनं कृत्वा) (सः योगो योक्तव्य इति पूर्वणान्वयः) ।। २४ ।। - अनुवाद । संकल्पजात समुदय कामनाको सम्पूर्ण रूप त्याग करके तथा मनके बारा इन्द्रिय समूहको सर्व विषयसे उठा लाकर योगाभ्यास करना होता है ॥ २४ ॥ व्याख्या। जिस नियममें योग अभ्यास करना होता है, इस श्लोकमें वही कहा हुआ है। यथा नियममें आसन पर बैठ करके विषय-चिन्ता और प्राप्तिकी इच्छा मात्रको एकबारगी परित्याग करके मनको कूटस्थमें नियुक्त करनेसे ही इन्द्रिय समूह आपही आप निय. मित होते हैं। क्योंकि, समुदय इन्द्रिय मनहीको अनुगमन करता है। इसलिये मन जिस जिस विषय में जाता है, उस उस विषय भोग करनेवाला इन्द्रिय भी तत्क्षणात् क्रियामुख होता है। किन्तु मन यदि विषय त्याग करके अविषयमें अर्थात् आत्मतत्त्वमें संलग्न होय, तो इन्द्रिय समूह विषयको अवलम्बन स्वरूप न पायके सर्व विषयसे निवृत्त और निष्क्रिय होता है। मन द्वारा मन ही मनमें इन्द्रिय निग्रह करना ही, इन्द्रिय-निग्रहका एकमात्र उपाय है, दूसरे उपायसे नहीं होता, मिथ्याचारी होना पड़ता है ॥ २४ ॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८६ श्रीमद्भगवद्गीता शनैः शनैरुपरमेबुद्धयो धृतिगृहीतया। आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न विचिदपि चिन्तयेत् ॥ २५ ॥ अन्वयः। (थोगी ) धृतिगृहीतया (धैय्येण युक्तया ) बुद्धया शनैः शनैः ( अभ्यासक्रमेण, न तु सहसा इत्यर्थः ) उपरमेत् ( उपरति कुर्य्यात् ); मनः आत्मस्थं कृत्वा किञ्चिदपि न चिन्तयेत् ॥ २५ ॥ अनुवाद। ( योगी ) धैय्यंयुक्त बुद्धद्वारा धीरे धीरे उपरत होवेंगे, मनको आत्मामें सम्यक् स्थापन करके कुछ भी चिन्ता न करेंगे ॥ २५ ॥ व्याख्या। धैर्य सहकार बुद्धिको चलायके अर्थात् ठीक ठीक गुरूपदिष्ट विधान अनुसार क्रिया होतो है या नहीं, अनुश्रण (सर्वदा) उस पर सतर्क रहके, अति धीरे धीरे उपरति करना होता है, अर्थात् मनको विषयसे निवृत्त करना पड़ता है। धीरे धीरे, इसका अर्थ यह है कि, जल्दी जल्दी न करके क्रम अनुसार एक चक्रसे दूसरे चक्र में, वहांसे और एक चक्रमें, इस रीतिसे प्राणको ऊर्द्धमें ले जाके धारण करना होता है, कारण कि-प्राण ही मनका नियन्ता है; प्राणके चंचलता-स्थिरतादि अवस्था भेदसे मनका भी तद्र प अवस्था प्राप्ति होती है। प्राणके प्रथमतः अति वेगके साथ ऊर्द्ध में चालन करनेसे योग नहीं होता, रोग होनेकी सम्भावना होती है; क्योंकि क्रिया-विहीन साधारण अवस्थामें नाड़ी-पथ समूह क्रूरवायु और श्लेष्मासे रुद्ध रहता है, इसलिये प्राणवायुको पहले ही वेगके साथ ऊंचेमें प्रेरणा करनेसे वह वायु पूर्ण वेगसे आके उस रुद्ध पथमें धक्का देता है; परन्तु उस धक्कासे पथ परिस्कार न होनेसे नाड़ी-चक्र समूह क्षुब्ध और विपर्यस्त हो पड़ता है, और उल्टी उत्पत्ति होती है। इसलिये उपदेश है कि धीरे धीरे उठना होता है। प्रथमतः स्वभावके वशमें रह करके वायुको धीरे धीरे कौशल क्रम अनुसार उठा ला करके, यथा नियममें निश्वास प्रश्वास चालन द्वारा मूलाधारादि चक्र क्रममें वायुको भीतरमें संयत Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय २८७ करना पड़ता है । इस प्रकार करनेसे भीतर में एक तेजका संचार होता है; जिसमें नाड़ीपथ सब परिस्कार होता है, और वह संयतवायु उसी उसी पथमें प्रवेश करके शरीर को वायुसे परिपूर्ण करता है, वायु का आलोड़न भी मिट जाता है, प्राण धीर सूक्ष्म प्रवाहसे ब्रह्मनाड़ीमें बहता रहता है, मन उपरति प्राप्त होता है अर्थात् विषयमुखी वृत्ति छोड़के चंचलताको परित्याग करता है । उसी समय मनको 'आत्मसंस्थ' करना होता है, अर्थात् आत्मामें - कूटस्थ तारकब्रह्ममें सम्यक् प्रकार करके स्थिर करना होता है; लक्ष्य प्रवाह उन्हीं में प्रवेश कराने पड़ता है, किसी प्रकारकी चिन्ता न करना चाहिये। इस अवस्था में किन्तु स्मृति-संस्कार अति सूक्ष्माकारसे अनजान भावसे आकर मन को आक्रमण करके विच्युत करनेका ( पिछाड़ी हटाय देनेकी) चेष्टा करता है, कृतकार्य्य भी होता है; उससे निष्कृति पानेका उपाय श्रीभगवान् पश्चात्के श्लोकमें ही उपदेश किये हैं ॥ २५ ॥ यतो यतो निश्चरति मनश्च चलमस्थिरम् । ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥ २६ ॥ अन्वयः । चंचलं ( अत्यर्थ चलं अतएव ) अस्थिरं मनः यतः यतः ( यस्मात् यस्मात् शब्दादेर्निमित्तात् ) निश्चरति (स्वभावदोषान्निर्गच्छति ), ततः ततः (तस्मात् शब्दादेनिमित्तात् ) एतत् ( मन ) नियम्य ( प्रत्याहृत्य ) आत्मनि एव वशं नयेत् ( स्थिरं कुर्य्यात् ) ।। २६ ॥ अनुवाद | चंचल और अस्थिर मन जिस जिस कारण से निर्गमन करेगा, उसी ससी कारण से उसको घुमायके आत्मामें लाकर वशमें लावेंगे ।। २६ ।। व्याख्या । स्मृति - संस्कार मनमें शब्दादि किसी एक विषयको जगा देके ज्योंही मनको आत्मच्युत करता है, त्योंही वह मालूम हो जाता है। तब वैराग्य भावना से उस उस विषय के स्वरूप (असारत्व) दर्शन करके उससे मनको फिर आत्मामें ही घुमा लाकर वश करना Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ श्रीमद्भगवद्गीता पड़ता है। इसी प्रकार बार बार करते करते, स्मृति-संस्कार निस्तेज हो जावेगा, मन भी चंचलभाव त्याग करके स्थिरत्वको लेवेगे ॥ २६ ॥ - प्रशान्तमनसं ह्यनं योगिनं सुखमुत्तमम् । उपेति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ।। २७ ।। अन्वयः। एनं (एवं प्रत्याहारादिभिः पुनः पुनः मनो वशीकुर्वन्तं ) शान्तरजसं (प्रक्षीणमोहादिक्ल शरजसं ) प्रशान्तमनसं अकल्मवं ( धर्माधादिवजितं ) ब्रह्मभूतं ( जीवन्मुक्त) योगिन हि ( एव ) उत्तमं सुखं ( समाधिसुख स्वयमेव ) उपेति (गच्छति ) ॥ २७॥ अनुवाद। इस प्रकार करते करते मन जब समस्त रजोगुणके मलिनतासे विमुक्त होकर प्रशान्त भाव ग्रहण करता है, तबही ब्रह्म भावापन्न उस योगीको उत्तम सुख प्राप्ति होती है ॥ २७ ॥ व्याख्या। मनको पुनः पुनः पूर्वोक्त प्रकारसे प्रत्याहार द्वारा आत्मामें लाकर वश करनेसे, योगी प्रशान्तमना होते हैं, अर्थात उनका मन चंचलताको त्याग करके स्थिर होता है; पश्चात उनके रजोगुणकी क्रिया भी शान्त होती है, तब उनके अन्तःकरणमें मोह आदि क्लेश समूह क्षीणसे क्षीणतम हो जानेसे वह पुरुष शान्तरजस होते हैं; तत्पश्चात् ब्रह्मभूत वा जीवन्मुक्त होते हैं, तब और उनमें भेदज्ञान रूप दोष नहीं रहता। इस कारण करके उत्तम सुख जो ब्रह्मानन्द-जो वाणीसे प्रकाश हो नहीं सकता,-जिसके सादृश्य नहीं,-जो एकमात्र बुद्धिग्राह्य ---नित्य-अतीन्द्रिय है, वह निरतिशय सुख उनमें आपही आप उपस्थित होता है ॥२७॥ युञ्जन्नेव सदात्मानं योगी विगतकल्मषः । सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥ २८ ॥ . अन्वयः। एवं (अनेन प्रकारेण ) सदा ( सर्वदा ) आत्मानं ( मनः ) युञ्जन् ( वशीकुर्वन् ) योगो विगतकल्मषः (विध तपापः सन् ) ब्रह्मसंस्पर्श अत्यन्तं (सर्वोत्तम) सुखं अश्नुते (भुत ) ॥ २८ ॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय अनुवाद। उपरोक्त प्रकारसे मनको सर्वदा वशमें लाते लाते योगी विंगतपाप होकरके ब्रह्मसाक्षात्कार रूप सर्वोत्तम सुख भोग करते हैं ।। २८॥ व्याख्या। २७ वा और २८ वां श्लोकका विषय एक ही है, दोनों में ही योगी जीवन्मुक्त है । परन्तु प्रभेद यह है कि, २७ श्लोकमें योगी सुखके आश्रय स्वरूप, स्वयं निष्क्रिय है, २८ श्लोकमें योगी सुखका भोक्ता इसलिये सक्रिय हैं। २७ श्लोकमें योगो ब्रह्ममें समाहित अवस्था प्राप्त. २८ श्लोकमें योगी ब्रह्ममें प्रबुद्ध अवस्था प्राप्त है। २८ वां श्लोकको अवस्था २७ वां श्लोककी अवस्थाका परिपाक-फल है ॥२८॥ सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।। ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥ २६ ॥ अन्वयः। योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ( सर्वभूतेषु भेदज्ञान-परिशून्यः सन् ) आत्मानं ( स्वं ) सर्वभूतस्थं ( सर्वेषु भूनेषु व्याप्य स्थितं) सर्वभूतानि च आत्मनि (स्थितानि इति शेषः ) ईक्षते ( पश्यति ) ॥ २९ ॥ अनुवाद। योग द्वारा युक्तचित्त और सर्वत्र समदर्शन सम्पन्न योगी आत्माको सर्वभूतमें स्थित और सर्वभूतको आत्मा ( स्थित) अवलोकन करते हैं ॥ २९॥ व्याख्या। पूर्व श्लोकोक्त जीवन्मुक्त अवस्थाका लक्षण यह है कि, जीवन्मुक्त पुरुष अपनेमें और सर्वभूतमें समदर्शी-अभेद ज्ञान सम्पन्न है, उनके लिये सबही ब्रह्म है, अतएव ब्रह्म बिना दूसरा कुछ एनकी दृष्टिमें पृथक बोध नहीं होता। साधक ! क्रियाके परावस्थाके परावस्थामें उतर पा करके तुम जो आत्ममिलन करते हो, जिसमें तुम्हारा विपरीत बोधन अन्तःकरणमें उठने ही नहीं पाता, यह श्लोक उसीका साक्षी देता है, मिलाय लेवो ॥ २६ ॥ -१६ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० श्रीमद्भगवद्गीता यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वच मयि पश्यति । तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ ३० ॥ ___ अन्वयः। यः मां ( सर्वस्यात्मानं ) सर्वत्र पश्यति, सर्व ब्रह्मादिभूतजातं ) च . मयि (सर्वात्मनि ) पश्यति, तस्य (आत्मैकत्वदशिनः एव ) अहं ( ईश्वरः ) न प्रणश्यामि ( न परोक्षतां गमिष्यामि ) स: च ( विद्वान् ) मे ( मम ) न प्रणश्यति (न परोक्षो भवति ) ॥ ३०॥ अनुवाद। हमको जो सर्वभूतमें तथा सर्वभूतको हमही में दर्शन करते हैं, उनके पास कभी मैं नष्ट ( अदृश्य ) नहीं होता हूँ तथा वह भी कभी हमारे पास नष्ट ( अदृश्य ) नहीं होता है ॥ ३० ॥ व्याख्या। सिद्ध होनेके बाद, साधक साधनाके चरम सीमामें पहुँचनेके पश्चात् अपनी इच्छानुसार ब्रह्ममें मिल जाकर निराकार रूप से "सदसत्तत्परं यत्-एकमेवाद्वितीय" भी हो सकते हैं, फिर मिश न जाकर "हरिहरात्मा” के सदृश साकारमें उपास्य उपासक भाव रक्षा करके भी अवस्थिति कर सकते हैं, यह दोनों ही उनके आयत्ताधीन रहता है। प्रथम अवस्था अद्वैतवादका विषय है, और द्वितीय अवस्था विशिष्टाद्वैतवादका विषय है। इस श्लोकमें वो दोनों अवस्था ही व्यक्त हुआ है, यथा - सर्वत्र समदर्शी, अभेद ज्ञान सम्पन्न होनेसे योगी परमात्मामें मिशकर नित्ययुक्त होते हैं, तब उनके अन्तःकरणमें उभयत्व मिट जाके एक अद्वितीय “मैं” ही रहता है, जिसलिये मैं" देके उनको, उनको देके "मैं" को ढांकना नहीं होता। दोनों मिट जाके एक होनेसे-'तत्' और 'त्वं' मिश करके एक 'अहं' होनेसे, उनके 'मैं' और मेरा 'वह' दोनों मिलकर 'एक'-इस भावका नाश नहीं होता। ( यह अद्वतवाद है)। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय २६१ समदर्शी और अभेदज्ञान सम्पन्न होनेसे योगी परमात्मा वा परमेश्वरके साथ मिलकर नित्ययुक्त होते हैं, दोनों ही परस्परके आकर्षणमें आबद्ध रहते हैं; इसलिये योगीका निर्मल सूक्ष्म दृष्टि सतत प्रकाश रहती है, और वहां दृष्टि किसी आवरणसे ढका न पड़ने से, उनके चक्षुमें सर्वत्र ही परमेश्वर विराज करते हैं; वैसे उनके ज्ञान भक्तिमें मुग्ध होकर परमेश्वर भी उनके प्रति अपना अनुग्रह-प्रवाह सतत खुलासा रखते हैं, निमेषमात्रके लिये भी उनको अनुग्रहसे वञ्चित नहीं करते। असल बात, दोनोंमें जैसे एकात्मक होते हैं। (यह विशिष्टाद्वैतवाद है ) ॥३०॥ सर्पभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः । सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥३१॥ अन्वयः। यह सर्वभूतस्थितं मा एकत्वं आस्थितः ( अभेदमाश्रितः सन् ) भजति, सः योगी सर्वथा (सर्वप्रकारः ) बर्तमानः अपि मयि ( वैष्णवे परमे पदे) वतते ॥ ३१॥ अनुवाद। जो मुझको सर्वभूतस्थित एकत्वमें ( अभेद भावसे ) आश्रय करके भजना करते हैं, वह योगी सर्व प्रकारमें वर्तमान रह करके भी हमहीमें वर्तमान रहते हैं ॥ ३१॥ व्याख्या। सुषुम्नाके अन्तर्गत ब्रह्मनाड़ीका अवलम्बन करके क्रिया विशेष द्वारा जो साधक तन्मय हुये हैं, दृष्टि ब्रह्ममयो कर चुके हैं, उनके पास सबही एक है; वह योगी आत्माको सर्वभूतमें ही अभेद भावसे ग्रहण करते हैं; इसलिये उनके पास विषय और ब्रह्मके भेद न रहनेसे, वह योगी जहाँ जब जिस अवस्थामें रहते हैं, साधारण जीव सदृश सर्वतोभावमें विषय भोग करनेसे भी, वह योगी है अर्थात् योगावस्थासम्पन्न है, इसलिये “मैं” में अर्थात् आत्मपदमें-- परमपद विष्णुपदमें अवस्थित है, वह नित्य मुक्त है, कोई कुछ भी Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमहामवदगीता उतके मोक्ष मार्गमें वाया दे नहीं सकता। क्या शरीर धारण अवस्था में, क्या शरीरान्तमें, वह योगो 'मैं' हो करकेही रहते हैं ॥ ३१ ॥ आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥३२॥ अन्धयः। हे अर्जुन ! यः आत्मौपम्येन ( आत्मतुलनया ) सुखं पा यदि था दुःख सर्वत्र ( सर्वदेशकालपात्रषु ) सभं पश्यति, सः योगी परमः ( उत्कृष्ठः ) मतः ॥ ३२॥ अनुवाद। हे अजुन ! जो पुरुष आत्म तुलनामें सुख किम्बा दुःखको सर्वत्र समान दृष्टिसे दर्शन करते हैं, हमारे मतामें वही पुरुष परम योगी है ॥ ३२ ।। व्याख्या। योगीगण साधन-फल करके दो अवस्था भोग करते हैं-एक आत्मभावावस्था और दूसरा जीवभावावस्था है। जब वह लोग बाहर वाले विषयको त्याग करके अन्तर ( भीतर ) में चरण करते हैं, तब उन लोगोंका प्रात्मभावावस्था और जब बाहरके विषयमें रहते हैं, तब जीवभावावस्था है। आत्मभावमें सर्वज्ञत्व हेतु निर्विकार साम्यावस्थाकी प्राप्ति होती है, स्थिर आनन्द-प्रवाह बहता रहता है, तथा विषय-संस्पर्शमें आनेसे भी जिस प्रकार वृत्तिका उदय हो करके मनमें सुख दुःखका विकाश करता था, उस प्रकार (विषय मतवारा) और नहीं होता। इस आत्मभावसे जीवभावमें उतर आके विषयसंस्पर्शमें आनेसे, पहिले पहल “संगात् संजायते कामः"-इस वाक्यके अनुसार विषयवृत्तिका उदय होता है। परन्तु जब अभ्यास सिद्ध हो करके अन्तर्बहिः समान होता है, तब जीवभावमें विषयसंग होनेसे भी, विषयाकारा वृत्तिका उदय न होके अन्तःकरणमें समान आत्मानन्द-प्रवाह बहता रहता है, सुख, दुःख सबही एक चिद्-विलास बिना दूसरे भावसे लक्ष्य नहीं होता, इसलिये समान आकार धारण करता है। इस आत्माभावके सादृश्यमें बाह्यभावको गठन करना ही Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय २६३ साधनाका चरम फल है, इस अवस्थामें जो साधक आ पहुँचते हैं, वही पुरुष परम योगी हैं। श्रीभगवानं ब्रह्मज्ञके ( जीवन्मुक्तके ) लक्षण और अवस्था २६।३०।३१ श्लोकमें कह पाये हैं; विशेषतः "सर्वथा वर्तमानोऽपि' इत्यादि क्वन द्वारा दिखला दिये है कि, उनको ( उस योगीको) और कोई विधि निषेध नहीं है, इसलिये संसारवाही मूढ़ सरिस आचार व्यवहार उनको होना भी असंगत हो नहीं सकता। तब उनके मनोभाव कैसा होता है सो लक्ष्य करा देनेके लिये भगवान् ३२वां श्लोकमें कह आये हैं कि, उनके भीतर बाहर एकरस बरोबर समान. भीतरमें भी जैसे निर्विकार रहते हैं, बाहर आनेसे भी वैसे सुख दुःखका तरंग उनके मनमें उठता ही नहीं। इस अवस्थाको लक्ष्य करके ही अष्टावक्र ऋषि कहते हैं, "हन्तात्मज्ञस्य धीरस्य खेलतो भोगलीलया। न हि संसारवाहीकै मूढः सह समानता ।। यत्पदं प्रेप्सवो दीनाः शक्राद्याः सर्वदेवताः। अहो ! तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति” ॥३२॥ अर्जुन उवाच। .. योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन । एतस्याहं न पश्यामि चंचलत्वात् स्थिति स्थिराम् ॥३३॥ अन्वयः। अर्जुनः उवाच। हे मधुसूदन ! अयं य: योगः त्वया साम्येन (समत्वेन ) प्रोक्तः ( कथितः ), अहं चंचलत्वात् एतस्य ( योगस्य ) स्थिरी (अचला) स्थितिं न पश्यामि ( नोपलभे ) ॥ ३३ ॥ अनुवाद। अर्जुन कहते हैं। हे मधुसूदन । साम्यरूप यह जो योग आप मुमको कहते हैं, मनके चंचलताके लिये इसका अचल स्थिति में नहीं देखता हूँ। ३३॥ व्याख्या। पर श्लोकके व्याख्या में देखो॥३३॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ श्रीमद्भगवद्गीता चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवढ़म् । तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥ ३४॥ . . अन्वयः। हे कृष्ण ! हि ( यतः ) मनः चंचलं प्रमाथि ( प्रमथनशीलं देहेन्द्रियक्षोभकर इत्यर्थः ) पलवत् ( प्रवलं ) ( तथा ) दृढ़ ( विषयवासनानुवन्धितया दुर्भव), अहं तस्य ( एवम्भूतस्य मनसः) निग्रहं (निःशेषेण रोध) वायोः ( निग्रहं ) इव सुदुष्करं ( सर्वथा कर्तुं अशक्यं ) मन्ये ॥ ३४ ।। - अनुवाद। हे कृष्ण ! मन तो अति चंचल, प्रमाथि, बलवान और दृढ़ है । हमारे मन में होता है कि इस मनको निग्रह करना वायुके निग्रह करनेके सदृश अति कठिन व्यापार है ॥ ३४ ।। : व्याख्या। चित्तकी साम्य भावको ही योग कहते हैं। यह साम्य भाव एक वारगी जल्दी नहीं आता। प्रथम प्रथम यह योग क्षणस्थायी सदृश होता है, तत्क्षणात फिर चमक-भंग सरिसे भंग हो जाता है; विषयाकर्षणके लिये मनका चंचलता ही इसका कारण है। इस अवस्थामें साधक स्थिर स्थिति अर्थात् दीर्घस्थायी समाधि नहीं पाते। ३३ श्लोकमें यह बात ही अर्जुनके मुखसे व्यक्त हुआ है। परन्तु साधक क्रियायोगसे क्षणिक स्थितिभोग करके मनकी प्रकृति जान सकते है, देखते हैं कि, मन अति "चंचल"-"प्रमाथि” अर्थात् एक न एक विषयमें धावित हो करके इन्द्रिय समूहको विलोड़ित कर रहा है, स्थिर होने नहीं देता, "बलवत्" अर्थात् इतना प्रबल है कि, वशमें लाना मुश्किल हैं-और "दृढ़" अर्थात विषय-वासनासे जड़ित रहनेके सबबसे दुर्भेद्य है, भेद करने के लिये जानेसे वासनामें ही लपटाये पड़ने होता है। यह सब प्रत्यक्ष करके ( भोग करके ) हो साधक मनमें स्मरण करते हैं, कि जैसे शरीरमें वायुका निरोध करना अति कठिन है, मनको वश करना भी तैसे कठिन है, वश होता ही नहीं। इसलिये व्याकुल हो करके पुनराय श्रीगुरुके शरणापन्न होते Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय २६५ हैं (आत्मभावमें लक्ष्य करते हैं )। कृष्ण ही गुरु हैं, भक्तजनों के पापादि दोष कर्षण करते हैं-पश्वात् भक्तको खींच लाकर निर्वाण-पद (मुक्तिपद) में मिला देते हैं, इसलिये उनका एक नाम कृष्ण है ॥ ३३ ॥३४॥ श्रीभगवानुवाच । अशंशयं महाबाहो मनो दुनिग्रहं चलम् । अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ ३५ ॥ अन्वयः। श्रोगवान् उवाच । हे महाबाहो! मनः अपंशयं (निश्चयमेव ) दुनिग्रहं चलं; तु ( तथापि ) हे कौन्तेय ! अभ्यासेन वैराग्येण च गृह्यते ॥ ३५ ॥ अनुवाद। श्रीभगवान् कहते हैं, हे महाबाहो ! मन जो चंचल और दुनिग्रह, जिसमें कोई सन्देह नहीं; तथापि हे कौन्तेय ! अभ्यास और वैराग्य द्वारा मनको निग्रह किया जा सकता है ॥ ३५॥ व्याख्या। ३३१३४ वा श्लोकमें शिष्य क्रियायोग अनुसार अपना अभिज्ञता जिस प्रकार प्रकाश किया, वह जो ठीक है, उसमें शिष्यको उत्साह देने के लिये भगवान कहते हैं-हां, सच है; मन अति चंचल और दुर्निग्रह ( वशमें लाना बड़ा कठिन ) है, इसमें कोई सन्देह नहीं; तथापि किन्तु मन अवश्य नहीं है, वश किया जा सकता है; इसका उपाय भी है; वह उपाय और कुछ नहीं-अभ्यास और वैराग्य है। अभ्यास तथा वैराग्यसे ही मन निगृहीत होता है;-'अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः' । ___ अभ्यास किसको कहते हैं ? कि 'तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यास' अर्थात् यम-नियम आसन-प्राणायामादिके अनुष्ठानसे चित्तको यत्न और उत्साहपूर्वक बार-बार एकाग्र करके स्वरूपमें स्थिर करनेकी चेष्टा का नाम अभ्यास है। यह अभ्यास यदि दीर्घकाल श्रद्धा सहकार . निरवच्छिन्न रूपसे सर्वदा सम्पन्न किया जाय तो द मानीत. Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .:२९६ श्रीमद्भगवद्गीता अविचलित होता है। तब इच्छा करनेसे ही चित्तको जहां तहां "संगत किया जा सकता है। --- वैराग्य क्या ?--कि 'दृष्टानुश्रविक-विषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्' अर्थात् दृष्ट और अनुश्रविक ये दो प्रकार विषय भोगके ऊपर वितृष्णा वा इच्छाराहित्यका नाम वैराग्य है। जोवद्दशामें इहलोकमें जो कुछ भोग किया जाय, उसका नाम दृष्टविषय है, और मृत्युके बाद परलोकमें वेदोक्त मतानुसार सुकर्म-फल करके जो स्वर्गादिभोग हो, उसका नाम अनुश्रविक विषय है। इस प्रकार वैराग्य उत्पन्न होनेके पश्चात् , प्रकृति-पुरुषका पृथकता प्रत्यक्ष होता है। तब प्राकृतिक गुणके ऊपर भी वितृष्णा जनमता है। प्राकृतिक ऐश्वर्या और प्रलोभित नहीं कर सकता, बिना विघ्न मनको भी निरोध किया जाता है ॥ ३५ ॥ असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः। वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥३६ ॥ अन्धयः। असंयतात्मना योगः दुष्प्रापः इति मे मतिः; तु ( किन्तु ) वश्यात्मना यतती ( भूयोऽपि प्रयत्नं कुर्वता सता ) योगः ( केवल्यमित्यर्थः ) उपायतः ( श्रद्धावोायु पायक्रमेण ) अधाप्तुं शक्यः ॥ ३६ ॥ . अनुवाद। असंयत चित्तके लिये योग दुष्प्राप्य है, यही हमारा मत है; परन्तु मनको जो वश कर चुके हैं, यथाविहित उपाय क्रम अनुसार यन करनेसे वह पुरुष योग प्राप्त होनेके समर्थ होते हैं ।। ३६ ॥ व्याख्या। अभ्यास और वैरान्य ही चित्त संयम करनेका उपाय है। इसे जो नहीं कर सकते, उसका योग नहीं होता। अभ्यास और वैराग्यसे मनको वश वा संयत कर सकनेसे योगकी अधिकारी होता है, तब प्रयत्न करनेसे ही श्रद्धा-वीर्य-स्मृति-समाधिप्रज्ञा यह उपाय क्रमसे योग प्राप्ति होती है। इसीलिये मुमुक्षुका योग 'एषायप्रत्यय' है। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'षष्ठ अध्याय _____ २९७ प्राणायामादि द्वारा वश्यात्मा होनेसे ही पहले पहल श्रद्धा आती है, अर्थात् मन भक्ति पूर्वक कूटस्थमें धृत होता है, प्रसन्न ( प्रकृष्ट रूप से स्थिर ) होता है। पश्चात् वीर्यकी उत्पत्ति होती है, अर्थात् मन ब्रह्मतेज करके बलीयान् होता है। तब स्मृतिका उदय होता है, अर्थात् “मैं” ही जो ब्रह्म हुँ वह स्मरणमें आता है। इस स्मृतिके सहारेसे ही मन तन्मना होकरके तन्मयत्व ले करके साम्यभावमें स्थित होता है; यही समाधि है। इस समाधिके बाद प्रज्ञाका उदय होता है, अर्थात् आत्मस्वरूप साक्षात्कार होता है, इस प्रज्ञाके बाद ही योग वा चतन्य-समाधि प्राप्ति होती है। इस चैतन्य-समाधिसे ही कैवल्य वा मुक्ति होती है। प्रयत्न करके उस उस उपाय क्रममें यदि मन लय न हो, तो जो समाहित अवस्थाके सदृश अवस्था आती है, उसमें कैवल्य प्राप्ति नहीं होती, वह जड़समाधि वा वाजिगरों की वाजि होकर खड़ी होती है। उससे केवल भोग लाभ होता है, इसलिये पुनः संसारमें आना ही पड़ता है ॥ ३६॥ अर्जुन उवाच। अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाचलितमानसः। अप्राप्य योगससिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥ ३७॥ अन्वयः। अजुनः उवाच । हे कृष्ण ! अयतिः ( यः प्रथमं योगे प्रवृत्तः ततः परं तु सम्यक् न यतते ) श्रद्वयोपेतः ( किन्तु आस्तिक्यबुद्धियुक्तो वत्त'ते ) योगात् चलितमानसः ( किम्बा भ्रष्टस्मृतिः सन् योगात् क्षलितो भवति ), योगसंसिद्धि अप्राप्य ( सः योगस्य संसिद्धिं कंवल्यं अप्राप्य ) को गतिं गच्छति ( प्राप्नोति ) ?॥ ३७॥ अनुवाद । अर्जुन कहते हैं, हे कृष्ण ! जो साधक योगमें प्रवृत्त हो करके योग साधनमें यतन नहीं करते, किन्तु आस्तिक्य-बुद्धियुक रहते हैं, किम्बा जो साधक Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ श्रीमद्भगवद्गीता मनके चंचलता हेतु योगभ्रष्ट होते है, योगसंसिद्धि ( कंवल्य ) न पाके वह किस प्रकार प्रति पावेगे? ॥ ३७॥ .. व्याख्या। योगानुष्ठान करनेसे सब साधक ही जो सिद्धिलाभ करेंगे, वह नहीं, बहुतोंको असिद्धावस्थामें ही शरीर त्याग करना पड़ता है। यह प्रसिद्ध योगी भी फिर दो प्रकारके हैं। एक, जो पहले अच्छी तरह श्रद्धा युक्त हो करके योगानुष्ठान प्रारम्भ करते हैं पश्चात् शिथिल-वैराग्य हो करके और यथा नियम क्रियानुष्ठानमें यतन नहीं करते, परन्तु आस्तिक्य बुद्धियुक्त रहते हैं। यह साधक "श्रद्धयोपेतः अयतिः'। दूसरा, जो साधक श्रद्धा सहकार बरोबर ठीक ठीक चले गये हैं, किन्तु मृत्युकालमें दैव दुर्विपाक करके लक्ष्य स्थिर रखने न पाके चंचल हो गये, भन आत्मतत्त्वसे च्युत होनेके लिये भ्रष्ट हुये; यह साधक "योगाच्चलितमानसः" है। अब यह दो प्रकार अवस्थापन्न साधककी गति कैसी होवेगी? दोनों प्रकारमें ही तो यह दोनों योगमें संसिद्ध न होनेसे मुक्ति वा अपुनरावृत्ति गति न पावेंगे। तब किस प्रकार गतिको पावेंगे ? ॥ ३७॥ कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति । अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढ़ो ब्रह्मणः पथि ॥ ३८ ॥ अन्वयः। हे महाबाहो ! (सः ) ब्रह्मणः पथि (ब्रह्मप्राप्तिमार्गे ) अप्रतिष्ठः ( स्थिति अप्राप्य, निराश्रयः सन् ) विमूढः ( इतिकर्तव्यताज्ञानशून्यः) तथा उभयविभ्रष्टः (योगात् कम्मच्चि विच्युतो भूत्वा ) छिन्नाभ्र इव ( छिन्नमेघवत् ) न नश्यति कच्चित् ? ॥ ३८ ॥ अनुवाद। हे महाबाहो। वो भ्रष्ट साधक ब्रह्ममार्ग में प्रतिष्ठा लाभ करनेमें असमर्थ होके विमूढ़ होनेसे, योग और कर्म दोनोंसे ही विभ्रष्ट हो करके छिन्न मेघ सरिसे क्या नष्ट न होवेगे?॥ ३०॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय २६६ व्याख्या। मेघ संचारके बाद, प्रतिकूल वायु द्वारा छिन्न भिन्न होनेसे वह मेघ जैसे एक जगहमें स्थिर नहीं होता, और स्थितिके अभाव करके अनुकूल वायु भी नहीं पाता, जिसलिये गलकर जल भी हो नहीं सकता,-क्रम अनुसार न मेघ, न जल, इन दोनों अवस्था में से किसी एकको न पाकरके, वायुकी ताड़ना करके आकाशमें विलीन होता है, अयति योगी लोग अथवा जो लोग देव विपाकमें पड़ करके ब्रह्ममार्गमें अर्थात् ब्रह्माकाश वा चिदाकाशमें प्रतिष्ठालाम करने न • पाके, विमूढ़ हो जाते हैं, कौन इष्ट है वह धारणा नहीं कर सकते,. वह सब क्या योग (ज्ञान ), क्या कर्म दोनोंसे ही भ्रष्ट हो जाके साधारण मूढ़ सरिसे संसारमें मिल करके अधोगतिका पावेंगे ? ॥३८॥ एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः। त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥ ३६ ।। अन्वयः। हे कृष्ण। मे ( मम ) एतत् संशयं अशेषतः छेत्तु (अपनेतु) अर्हसि; त्वदन्यः ( त्वत्तोऽन्यः ऋषिदेवो वा ) अस्य संशयस्य छेत्ता (नाशयिता) न हि उपपद्यते ( न सम्भवति ) ॥ ३९॥ अनुवाद। हे कृष्ण। निःशेष रूप करके हमारा यह संशय आप छेदन कर दीजिये; इस संशयका छेत्ता बिना आप और दूसरा कोई हो नहीं सकता ॥ ३९॥ व्याख्या। श्रीकृष्ण ही अक्षर पुरुष-ईश्वर है। उन्होंमें सर्वज्ञत्व बीज वर्तमान, परिपूर्ण है। दूसरे जितने देव, ऋषि, मुनि आदि सुषुम्ना मार्गमें अवस्थित हैं सब ही इस पूर्ण के अंश हैं; इसलिये उन लोगका सर्वज्ञता भी तदनुरूप है। जबतक इस परिपूर्ण अक्षर ब्रह्ममें मिशकर एकरस न हुआ जाय, तब तक ही पूर्व और अंशत्व रूप तारतम्य रहता है। भूत-भविष्यत्को वर्तमानके सदृश देखना हो तो-सर्वशंशय नाश करना हो तो, उस अक्षर ब्रह्ममें चित्तसंयम करना होता है, दूसरे कही करनेसे नहीं होगा। इसलिये साधिक Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० श्रीमद्भगवद्गीता श्रीकृष्णरूप परं अक्षर ब्रह्ममें चित्त विनिवेश करके, ४० से ४४ वां पर्य्यन्त श्लोकमें योगभ्रष्टकी गति निरूपण करते हैं ॥ ३ ॥ श्रीभगवानुवाच । पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।। न हि कल्याणकृत् कश्चित् दुर्गति तात गच्छति ।। ४०॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच। हे पाथं । न एष इह (इहलोके ) न अमुत्र. (परलोके ) तस्य ( थोगभ्रष्टस्य ) विनाशः विद्यते ( नाशो नाम पूर्वस्मात् होनजन्म प्राप्ति: न अस्तीत्यर्थः ); हि ( यस्मात् कारणात् ) हे तात ! कल्याणकृत् (शुभानुष्ठाता) कश्चित् ( जनः ) दुर्गतिं न गच्छति । ४० ॥ अनुवाद। श्रीभगवान् कहते हैं । हे पार्थ! क्या परलोकमें और क्या इहलोक में उनका विनाश नहीं है; क्योंकि हे ताल ! कल्याणकृत् कोई कभी दुर्गतिको प्राप्त नहीं होते ॥ ४०॥ व्याख्या। यदि योगी अयति हो परन्तु आस्तिक्य बुद्धियुक्त रहे, . किम्बा यदि योगभ्रष्ट ही हो, तो भी उनका और विनाश नहीं, इहलोकमें तो है ही नहीं, परलोकमें भी नहीं; क्योंकि, जो कल्याणकमके अनुष्ठान करते हैं अर्थात् आत्मप्रतिष्ठा वा ब्राह्मीस्थिति लाम के लिये चित्तशुद्धिकी उपायभूत क्रियानुष्ठान करते हैं; उनको और दुर्गति प्राप्त नहीं होती। इहलोकमें विनाश नहीं है, उसका कारण यह है कि, एकदफे अखण्डमण्डलाकार गुरुपद दर्शन होनेके पश्चात् आस्तिक्य-बुद्धिका उदय होनेसे, आत्म-विस्मरण नहीं होता; इसलिये क्रियायोगमें यत्नशील न रहनेसे भी गुरुपद दर्शन-जनित सत्-संस्कार-शक्ति करके किसी प्रकार बुरे कर्ममें मति गति नहीं होती। परलोकमें भी विनाश नहीं है, इसका कारण यह कि उस सत-संस्कार-शक्तिसे हीन जन्मकी प्राप्ति नहीं होती। (परवत्ती दो श्लोक देखो)। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय ३०१ [ पिता पुत्ररूपसे आत्माका विस्तार करते हैं, इसलिये वह तातहैं। पुत्रको भी पिता तात कहते हैं। गुरु भी दीक्षा द्वारा शिष्यको दूसरा जन्म देकर द्विज करके आत्मज्ञानका विस्तार करते हैं । इसलिये शिष्य पुत्र तुल्य है। अतएव श्रीभगवान्ने स्नेह करके शिष्य अर्जुन को तात कह के सम्बोधन करते हैं ] ॥४०।। प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः। शुचीनां श्रीमतो गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥४१॥ अन्वयः। योगभ्रष्टः पुण्यकृता ( अश्वमेधादियाजिनां ) लोकान् प्राप्य (तत्र ) शाश्वतीः समाः ( बहून् सम्बत्सरान् ) उषित्वा ( वाससुखमनुभूय ) शुचीनां ( सदाचाराणां ) श्रीमता ( विभूतिमतां ) गेहे (गृहे ) अभिजायते (जन्म लभते ) ॥ ४१ ।। अनुवाद। योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यकर्मा लोगोंके लोक प्राप्त हा करके वहां बहु वत्सर निवास करते हैं, पश्चात् पवित्र और लक्ष्मीश्रीसम्पन्न लोगोंके घर में जन्म ग्रहण करते हैं ॥ ४१॥ व्याख्या। योगभ्रष्ट दो प्रकारका होता है; एक-मनमें विषयवासनाके उदयके लिये वैराग्य शिथिल होनेसे "अयतिः" होनेसे होता है; और दूसरा-कालके वशसे मृत्युमुखमें पतित होनेके समय तीव्र वैराग्य रहनेसे भी सम्चित कर्मदोष करके अनजान भावसे विषयाकर्षणमें पड़के अतिमृत्युपद में उठ जानेके पहले "योगान्चलितमानसः" होनेसे होता है। जो सब साधक भोगवासनाके वशमें पड़कर योगभ्रष्ट होते हैं, उन सबकी इस श्लोकके अनुसार गति होती है; और जिन सबको वैराग्य रहनेसे भी देव विपाकमें पड़ करके योगभ्रष्ट होना पड़ता है, उन सबकी गति आगेके श्लोकके अनुसार लाभ होती है। प्रथम प्रकारके योगभ्रष्ट पुरुष, मृत्युके बाद पारलौकिक फल भोग करनेके लिये, पुण्यवान लोग जिस जिस लोकमें जा करके वास करते Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ श्रीमद्भगवद्गीता हैं, अपने कर्मफलसे उन सब लोकमें कुछ काल वास करके अविच्छिन्न भावसे सुख भोग करते हैं; पश्चात् भोग क्षय होनेसे कर्मभूमि मर्त्यलोकमें प्रवेश करते हैं; अर्थात् पुनराय जन्म ग्रहण करते हैं। यह जन्म, उन लोगोंकी विषय भोग-वासनाके पूरण होनेके लिये जैसे लक्ष्मीमन्तके घर में होता है, तैसे उन लोगोंकी आध्यात्मिक उन्नति के लिये उस लक्ष्मीमन्तके घर शुची अर्थात् सदाचार सम्पन्न होता है । जिस संसार ( घर ) में उदार भावका भगवत् प्रेम वर्तमान है, वही संसार शुची है ॥ ४१ ॥ अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् । एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् ॥ ४२ ॥ अन्वयः। अथवा धीमता (व्यवसायात्मिकाबुद्धिमतां ) योगिनां ( योगनिष्ठानां ) एव कुले भवति (जायते), जन्म यत् ईदृशं एतत् हि लोके दुर्लभतरं ॥४२॥ ___ अनुवाद। अथवा वो भ्रष्ट योगी धोमान् योगियों के कुल में जन्म ग्रहण करते हैं। ऐसे जो जन्म हैं, इस जगत्में वही दुर्लभ है ॥ ४२ ॥ व्याख्या। द्वितीय प्रकारका भ्रष्टयोगी श्रेष्ठ है। व्यवसात्मिका बुद्धियुक्त योगीके घरमें वह जन्म ग्रहण करता है; इह जगतमें इस प्रकारका जन्म बड़ा दुर्लभ है-अति सौभाग्यका फल है। इस प्रकार जन्मप्राप्ति होनेसे जीव जैसे जन्म-सिद्ध शक्ति प्राप्त होता है, क्योंकि, कुलाचार प्रथा करके बिना प्रयाससे ही उनकी भगवत् प्राप्तिका दरवाजा खुल जाता है । (४४ वा श्लोक देखो)॥ ४२ ॥ तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिएम् । यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥४३॥ अन्वयः। ( सः ) तत्र ( शुचीनां श्रीमता गेहे धीमतां योगीनो कुले वा जातः -सन् ) पौवदेहिक ( पूर्वदेहभव ) तं बुद्धिसंयोग ( ब्रह्मविषयया बुध्या संयोग ) लभते; Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ षष्ठ अध्याय हे कुरुनन्दन ! संसिद्धौ (संसिद्धिप्राप्तिनिमित्त) ततश्च भूयः ( तस्मात् पूर्वकृतसंस्कारात् अधिकं ) यतते ( यत्नं करोति ) ॥ ४३ ।। अनुवाद। हे कुरुनन्दन ! वहाँ वह पूर्वदेह जात उसी बुद्धिसंयोग लाभ करते हैं, और संसिद्धिकी प्राप्ति के लिये पहले से भी अधिक यतन करते हैं ॥ ४३ ॥ व्याख्या। जिस प्रकार बुद्धिसंयोग होनेसे पूर्व जनममें ब्राह्मीस्थिति लाभके लिये यत्न किये थे, पवित्र लक्ष्मीमन्तके घरमें अथवा धीमान योगीयोंके कुलमें जन्म ग्रहण करके वह पुरुष उसी बुद्धिउसी ब्रह्मविषयक बुद्धि ही लाभ करते हैं, और इस जन्ममें पूर्वसे भी अधिक यत्न सहकार सिद्धिलाभकी चेष्टा करते हैं ॥४३॥. .. पूर्वाभ्यासेन तेनैव हियते यवशोऽपि सः। .. . जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्त्तते ॥४४॥ जन्वयः । हि ( 4तः ) सः ( योगभ्रष्टः ) अवशः अपि ( कुतश्चित् अन्तरामात् अनिच्छन्नपि ) तेन पूर्वाभ्यासेन ( पूर्वजन्मकृतयोगाभ्यासजनितेन संस्कारेण ) एव ह्रियते ( संसिद्धौ आकृष्यते, विषयेभ्यः परावृत्य ब्रह्मनिष्ठः क्रियते )। योगस्य जिज्ञासुः अपि ( योगस्य स्वरूपं ज्ञातुं इच्छन् योगमार्गे प्रवृत्तमात्रोऽपि ) सः शब्द. ब्रह्म ( वेद ) अतिवर्तते ( अतिकामति ) ॥ ४४ ॥ ___ अनुवाद। क्योंकि वह भ्रष्ट योगी अवश ( अनिच्छुक ) होनेसे भी, उसी पूर्वाभ्यास द्वारा आकृष्ट होते हैं; और योगका तत्त्व जिज्ञासु होते मात्र ही शब्दब्रह्म को अतिक्रम करते हैं ॥ ४४ ॥ व्याख्या। योगभ्रष्ट योगी सिद्धि लाभमें पूर्व जन्मसे अधिकतर यत्न करते हैं; जिसका कारण यह है कि वह योगी पूर्व जन्मके योगाभ्यासके लिये संस्कारकी प्रबल ताड़नामें चालित होते हैं। यदि वह योगी अवश भी हो जाये, अर्थात् मनमें अगर विषयभोग-वासनाका संस्कार उदय हो करके अन्तराय स्वरूप होनेसे योगसंसिद्धि प्राप्ति विषयमें अनिच्छुक भी हो, तो भी पूर्वकृत योगज संस्कार इतमा प्रबल Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ श्रीमद्भगवङ्गीता है कि, उनको बाध्य करके योगमें प्रवृत्त करता है। योगजं संस्कार कुछ कालके लिये दूसरे संस्कार से अभिभूत हो सकता है, परन्तु यह न सबको क्षय करके आपही अपनी क्रियाको प्रकाश करता है; योगज संस्कार विनष्ट नहीं होता । यह साधारण नियम है। किन्तु जो "योगात् चलितमानसः” अर्थात् द्वितीय प्रकारका योगभ्रष्ट है, उनको और किसी दूसरे संस्कार के उदयमें अवश होना नहीं होता; वह भ्रष्ट योगी जब पूर्वयोग-संस्कार द्वारा हित अर्थात् आकृष्ट होकर योग जिज्ञासु होते हैं अर्थात् योगका स्वरूप जानने के लिये योग में प्रवृत्त होते हैं; तत्क्षणात् बिना प्रयाससे ही पूर्व अभ्यास- गुण करके शब्दब्रह्म वा वेदको अतिक्रम करते हैं अर्थात् एकदम नादके अन्तर्गत ज्योतिके भीतर मनको विलीन करके विष्णुके परम पदमें स्थित होते हैं। अनाहतध्वनि वा प्रणव- नाद ही आदि है; उसीसे ही कर्म्मका क्रम विकाश कर के सहस्रारादि सात चक्र में अथर्व, खाम, यजु और ऋक्की उत्पत्ति है, (द्वितीय अध्याय ४५ वां श्लोककी व्याख्या देखो ) इसलिये इन सबको ही शब्दब्रह्म * कहते हैं ॥ ४४ ॥ प्रयत्नाद् यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्विषः । अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ॥ ४५ ॥ अन्वयः । तु ( वस्तुतः ) योगी प्रयस्नात् यतमानः ( पूर्वप्रयत्नाद् उत्तरोत्तरं अधिकं यत्नं कुर्वन् ) संशुद्धकिल्विषः ( विधूतपाप: ) अनेकजन्मसंसिद्ध: ( अनेकेषु जन्मसु उपचितेन योगेन सम्यक ज्ञानो भूत्वा ) ततः (पश्चात् ) परां गतिं याति ( प्राप्नोति ) ॥ ४५ ॥ - * ऋगादि चतुर्वेद जब मूलाधारादि सप्त स्वर्ग में क्रियाका विकाश करते हैं, तब ही शरीर की उत्पत्ति होता है | शरीरको काय्यं ब्रह्म कहते हैं काय्यं ब्रह्म कर्म है, शब्दब्रह्म-ज्ञान है ॥ ४४ ॥ --- Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय अनुवाद। वस्तुतः योगी, पूर्व पूर्व प्रयत्नसे भी अधिकतर यत्नशील होनेसे, क्रमशः निष्पाप होते होते अनेक जन्ममें संसिद्धि लाभ करते हैं, पश्चात् परागतिको प्राप्त होते हैं ।। ४५॥ व्याख्या। भगवान् ४० से ४४ वें पर्य्यन्त श्लोकमें अर्जुनके प्रश्न का उत्तर देकर, अब देखाते हैं कि, योगीत्वही श्रेय है। योगी होकरके मन्दप्रयत्न होने पर भी परागति मिलनेके कारण, छिन्नाघ्र सदृश नष्ट होने नहीं होता। __ योगी अर्थात् योगानुष्ठानमें श्रद्धायुक्त जो, वह "प्रयत्नात् यतमानः” अर्थात् उनका पूर्व प्रयत्नसे परवत्ती प्रयत्न बलवत्तर है। क्योंकि एक दफेकी चेष्टामें योगमार्गमें जितना अभ्यास होता है, दूसरे दफेकी चेष्टामें उतना उठनेमें और कष्ट नहीं होता; कारण यह है कि, प्रथम वारके अभ्यासका संस्कार मनमें दृढ़बद्ध रहता है इसलिये द्वितीय वारमें उसी संस्कारक्शसे क्रिया होता है; इसलिये यत्न विपथमें प्रयुक्त न होनेसे क्रम अनुसार अधिकतर बढ़ता रहता है। योग अभ्यस्त हो आनेसे ही पश्चात् "संशुद्धकिल्बिषः" होना होता है, अर्थात् चित्तशुद्ध होनेसे विषय रमण रूप पाप (चंचलता ) में लिप्त होना नहीं पड़ता। किन्तु चित्तशुद्धि होनेसे भी ध्यान बिना मुक्ति नहीं होती, इसलिये कहा हुआ है कि "अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्"। अब अनेक जन्म क्या है ? - निःश्वास त्याग करके फिर खींच न ले सको तो, जो प्रलय , (मृत्यु ) होता है, उसको महाप्रलय कहते हैं; इस महाप्रलयके बाद .. पुनराय देह धारण करनेका नाम जन्म है। वैसे निःश्वास त्याग करके खींचनेके पूर्व पर्य्यन्त कालको खण्डप्रलय कहते हैं। इस खण्डप्रलयके बाद पुनराय प्रश्वास ग्रहण करनेका नाम भी जन्म है। प्रयत्नके तारतम्यके अनुसार सिद्धिलाभका कालका भी तारतम्य होता है। प्रयत्न मृदु होनेसे महाप्रलयके बाद जो जन्म है, उस प्रकारके अनेक जन्मके -२० Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ श्रीमद्भगवद्गीता बाद संसिद्धि लाभ होती है; परन्तु प्रयत्न तीव्र होनेसे उस खंड प्रलय के बाद जो जन्म होता है, उस प्रकारके अनेक जन्म अर्थात् अनेक प्राणायामसे संसिद्धि लाभ होती है। इसलिये पतञ्जलि ऋषिने सूत्र लिखा है कि,-"तीब्रसम्बेगानामासन्नः” अर्थात् तीब्र सम्बेग वालोंके "आसन्न" है अर्थात् समाधि वा योगसंसिद्धि शीघ्र होती है; (कार्यप्रवृत्तिके मूलीभूत दृढ़तर संस्कारका नाम सम्बेग है)। अतएव स्मृतिमें भी है-“अत्युत्कटपूण्यपापानामिहैव फलमश्नुते"। सम्बेग तीव्र होनेसे योगी एक जीवन में ही कतिपय प्राणायाममें * संसिद्ध होते हैं; किन्तु तीब्र सम्बेग न होनेसे एक जीवनमें नहीं होता, अनेक जन्म लेना पड़ता है। संसिद्धि ( समाधि ) लाभ होनेके पश्चात् ही, उसके परिपाकमें असम्प्रज्ञात निवौंज समाथि-कैवल्यस्थिति --- परागति-ब्रह्मनिर्वाण प्राप्ति होती है ।। ४५ ॥ तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः । कम्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥४६ ॥ अन्वयः। योगी तपस्विभ्यः अधिकः ( श्रेष्ठः ) ज्ञानिभ्यः अपि अधिकः मतः (शातः ); योगी कम्मिभ्यः च अधिकः ( विशिष्ठः); तस्मात् ( कारणात् ) हे अर्जुन ! त्वं योगी भव ॥ ४६॥ अनुवाद। हमारो मता में योगी तपस्वोसे श्रेष्ठ है शानीसे भी श्रेष्ठ है; योगी कमीसे भी श्रेष्ठ है; अतएव, अर्जुन ! तुम योगी हो जावो ।। ४६ ॥ व्याख्या। जो साधक कर्मफलका आश्रय न करके कार्य कर्म करते हैं, योगी वही हैं। क्योंकि, कर्मफल का आश्रय न करनेसे सर्वत्र .. * योगीगणने स्थिर किया है कि, प्राणायाम यथानियम एकासनमें बारह दफे करनेसे ही मनका "प्रत्याहार" होता है। इसके बारहगुणा, १४४ दफे प्राणायाममें "धारणा" होती है, जिसके बारहगुणा, अर्थात् १७२८ दफे प्राणायाममें "ध्यानअवस्था" होतो है; जिसके बारहगुण अर्थात् २०७३६ दफे प्राणायाममें "समाधि" होती है ॥४५॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय ३०७. समदृष्टि आती है, चिच भी अनजान भावसे वासुदेवमें अर्पित हो जाता है; इसलिये तब, ( वृत्तिविस्मरण अवस्थामें गुरु दुःखसे भी विचलित न होनेके सदृश ) विषय-संस्पर्शमें आनेसे भी, चित्तमें उसकी लकीर न पड़नेसे, आत्मतत्त्वसे विचलित होना नहीं होता। इस कारण योगी-तपस्वी, ज्ञानी और कर्मी इन तीनोंसे ही श्रेष्ठ हैं। बाहर जैसे, जो चान्द्रायणादि व्रत तपस्या करते हैं-वह तपस्वी हैं, जो शास्त्र विज्ञानविद् वह ज्ञानी है, और जो अग्निहोत्रादि कर्म करते हैं, वह कमी है; वैसे योगमार्गमें साधक जब प्राणमें मन देकरके षट्चक्रमें प्राणचालन द्वारा प्राणायाम करते हैं, तब वह कम्मी है, जब तपोलोक आज्ञामें ( 'भ्र वोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् ) प्राण स्थिर करते हैं, तब वह तपस्वी हैं; और जब वह पुरुष मनमें मन देकरके आत्मतत्त्व जानते रहते हैं तब ज्ञानी हैं। इन सब अवस्थाओंमें ही मन एकदेशवर्ती अर्थात् निर्दिष्ट एकमात्र तत्त्वका अवलम्बन करके रहता है; किन्तु अब अनासक्त होनेसे “यत्र यत्र मनोयातिं तत्रैव ब्रह्म लक्ष्यते' यह अवस्था आती है, तब मन कोई एक निर्दिष्ट तत्त्वको अवलम्बन नहीं करता, ब्रह्माकारावृत्ति लेकरके विश्वव्यापी होता है,योगी हुवा जाता है। अतएव इस प्रकारको अवस्था. सबसे श्रेष्ठ है। यही जीवन्मुक्त --साधनासे अतीत-विधि निषेध वर्जित अवस्था है। इसीलिये श्री भगवान्ने "तस्मात् योगी भवार्जुन" कह करके योगी होनेका अर्थात् अनासक्त हो करके कार्य कर्म करनेका उपदेश दिया है। पहले भी कहा है, "असक्तोह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥४६॥ योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना। श्रद्धावान भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥ अन्वयः। यह श्रद्धावान् ( सन् ) मद्गतेन ( मयि सात्मनि वासुदेवे समा Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ श्रीमद्भगवद्गीता हितेन ) अन्तरात्मना ( अन्त:करणेन ) मा ( परमात्मानं ) भजते; सः सर्वेषां योगिना अपि युक्ततमः मे मतः ।। ४७ ॥ ___ अनुवाद। जो साधक श्रद्धावान् होकरके मद्त चित्त द्वारा हमारा भजन करते हैं, वही पुरुष सब योगीके भीतर युक्ततम है यही हमारा अभिप्राय है ।। ४७ ।। व्याख्या। भक्त ही भगवानको आदरवाले चीज है । जो श्रद्धावान् होके अर्थात् ऐकान्तिक आग्रहके साथ योगानुष्ठान द्वारा अन्तरात्माको (चित्तको वा चित्तप्रतिविम्बित विम्बको) परमात्माके भीतर (परम पदमें ) प्रवेश कराते हैं, तब उनको उस परमपद बिना और दूसरा कोई अवलम्बन नहीं रहता, इसलिये आपही आप उसी एक आत्माका ही भजन होता रहता है, वही भक्त है, वही युक्ततम अर्थात् श्रेष्ठ है, क्योंकि योगियोंके जितने प्रकारकी अवस्था होती है, उसके भीतर यह अवस्था सबसे ऊंचा है, और वहो आत्माके अभिमत अर्थात् आत्माके समान है, आत्मामें और उनमें प्रभेद नहीं रहता, वह आत्मा हो जाते हैं। - इस श्लोकमें श्रीभगवान्ने भक्तियोगानुष्ठानसे योगी होनेका ही उपदेश दिया है ॥ ४७॥ .. "प्रात्मयोगमवोचाद् यो भक्तियोगशिरोमणिम् । त वन्दे परमानन्द माधवं मक्तसेवधिम्"। इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंघादे अभ्यासयोगो नाम पष्ठोऽध्यायः। , -: Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽध्यायः -- - श्रीभगवानुवाच । भय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युजन्मदाश्रयः । असंशयं समग्र मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥१॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच । हे पार्थ! मयि आसकमनाः ( सन् ) योगं युजन् ( मनः समाधानं कुर्वन् ) मदाश्रयः ( मां एव आश्रयं प्राप्य ) त्वं ) यथा ( येन प्रकारेण ) समय (समस्तं विभूतिबल-शक्त्यैश्वर्यादिगुणसम्पन्नं) मां ( परमात्मानं ) असंशयं ज्ञास्यसि तत् शृणु ॥ १॥ . अनुवाद। श्रीभगवान् कहते हैं। हे पार्थ ! हममें आसक्तमना होकर योग अभ्यास करते करते मुझको आश्रय पाके जिस प्रकारसे मुझको समग्र भावसे संशय रहित हो कर जान सकोगे उसे श्रवण करो ॥१॥ व्याख्या। "मयि आसक्तमना:” हो करके (मनको आत्ममन्त्र के साथ एकमात्र आत्मामें-तत् पदमें संयुक्त करके ) योग अभ्यास (ब्रह्मनाड़ीमें प्राणचालना) करना ही कर्म-साधन मार्गके पहिले क्रम है। इस कर्म सम्बन्धमें जो जो कहनेको है उसे पूर्व अध्यायमें कह कर, श्रीभगवान ६ ष्ठ अध्यायके शेष श्लोकमें देखला दिये हैं कि, कर्म भक्तिमिश्रित होनेसे ही कर्मका चरम फल जो युक्ततम अवस्था है, उसकी प्राप्ति होती है। क्योंकि "मयि आसक्तमना:" होकरके योग अभ्यास करते करते ही-'मदाश्रयः (आपही आप अपनेका श्राश्रय) होना होता है। अर्थात् साधक अपना हेराया हुआ धन परमात्माको आश्रय रूपसे प्राप्त होते हैं। इसका अर्थ यह है कि, प्राणक्रिया शान्त हो आनेके पहले जो सर्वशक्ति कारण कूटस्थ पुरुष रूपसे दूर पर लक्ष्य होते थे। अब प्राणक्रियाके स्थिर हो जानेसे Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० श्रीमद्भगवद्गीता वह पुरुष समीपवत्ती होते हैं, साधकके चैतन्यसत्त्वा अवाधतः उन्हीमें जा पड़ता है, वही एकमात्र आश्रय होते हैं । इस प्रकारसे समीपवर्ती होनेका नाम उपासना ( उपसमीप+आसन= स्थिति ) है। इसलिये षष्ठ अध्यायमें कर्म शेष हो जानेसे ही सप्तम अध्यायमें इस उपासनाका प्रारम्भ हुआ है। उपासना ही साधन मार्गका द्वितीय क्रम है। इस उपासना द्वारा ही परमेश्वरके विभूति, बल, शक्ति, ऐश्वर्य प्रभृति समग्र गुण निःसंशय रूपसे जाना जाता है,-मिल भी जाता है, अति मिलन करके जैसे लोहेमें अग्निका संक्रम है। जिस प्रकारसे जाना जाता है, वही इस अध्यायमें भगवान उपदेश करते हैं। अर्जुन ( साधक ) अब उसी उपदेश सुनने का अधिकारी हुये हैं, और उसे ग्रहण करने में भी समर्थ हैं, वही समझानेके लिये भगवानने उनको पार्थ कह करके सम्बोधन लिये हैं, अर्थात् अर्जुन जो मातृस्वभाव गुण करके भाकर्षण-शक्ति बलसे इच्छानुसार एकभावको त्याग करके दूसरे भाव ग्रहणमें समर्थ हैं, इस इसारामें उतना ही समझा दिया गया है ॥ १॥ ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः। यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥२॥ अन्वयः। अहं ते (तुभ्यं ) इदं सविज्ञानं ( विज्ञानसहित ) ज्ञानं अशेषतः वक्ष्यामि ; यत् (ज्ञानं ) ज्ञात्वा इह भूयः अन्यत् ज्ञातव्यं ( पुरुषार्थसाधनं ) न अवशिष्यते ॥ २ ॥ अनुवाद। मैं तुमको विज्ञानके साथ यह ज्ञान अशेष करके कहूँगा, जिसके जाननेसे इस जगतमें और कुल भी जाननेको बाकी न रहेगा ॥ २॥ व्याख्या। कर्मको अतिक्रम करके उपासनामें प्रवृत्त होनेसे अपरोक्षानुभूतिमें (निजबोध करके ) ज्ञान और विज्ञान जाना जाता है; जाननेको और कुछ भी बाकी नहीं रहता। साधक अब उसी Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११ सप्तम अध्याय उपासनामें प्रवृत्त हैं; इसलिये जाननेको जो कुछ है, सब श्रीमुखके उपदेशसे उनको मालूम हो जाता है, कुछ बाकी नहीं रहता ॥२॥ मनुष्याणां सहस्रषु कश्चिद् यतति सिद्धये। यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः॥३॥ अन्वयः। मनुष्याणां सहस्रषु ( असख्याना मनुष्याणां मध्ये ) कश्चित् सिद्ध ये यतति (सिद्धयर्थ प्रयत्नं करोति ); यतता अपि (प्रयत्नं कुर्वतामपि ) सिद्धानां ( मध्ये ) कश्चित् मां ( परमात्मानं ) तत्त्वतः ( स्वरूपतः ) वेत्ति ( जानाति ) ॥३॥ अनुवाद। हजारों मनुष्योंके भीतर कदापि कोई एक भाग्यवान सिद्धिके लिये प्रयत्न करते हैं ;-फिर सिद्धगण प्रयत्नशील होनेसे भी, उन सबके भीतर हो तो कोई एक महापुरुष यथार्थ रूपसे मुझको जान सकते हैं ॥३॥ व्याख्या। ज्ञान अति दुर्लभ पदार्थ है, भक्ति बिना मिलता ही नहीं। मनुष्य बिना दूसरा कोई जीव ज्ञान तो पाता ही नहीं। मनुष्यके भीतर भी बहुत कम, हो तो हजारके भीतर सिद्धि पानेके लिये कोई एकजना चेष्टा करता है, अर्थात् ज्ञान लाम करनेके लिये प्राणायाम द्वारा प्राणको जय करनेमें यतनशील होता है। प्राणायाम अभ्यास द्वारा ब्रह्मानाडीको अवलम्बन करके आज्ञामें स्थिर होना ही सिद्धि है। यह सिद्धि ही कर्मकाण्डका शेष है। कर्ममें सिद्धिलाभ करते मात्र तत्क्षणात् ज्ञानलाभ नहीं होता, उपासना चाहिये। सिद्ध होकरके उपासनामें यत्नशील न होनेसे मायाकी विपाकमें तो पड़ना ही होवेगा; परन्तु यत्नशील होनेसेही जो ज्ञानलाभ अर्थात् परमात्मतत्त्व वा विष्णुपद प्राप्त होता है, सो भी नहीं होता, क्योंकि चित्तलय न होने पय॑न्त मायादेवी मोहजाल विस्तार करके साधकको मोहित करनेके लिये चेष्टा करती रहती है। उस मोहिनीशनिको अतिकम करनेकी उपयुक्त तीव्र वैराग्य-वेग न रहनेसे ही पतन होता है। अतएव बहुत कम मनुष्य ही आत्माको “तत्त्वतः" जान सकते, Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ श्रीमद्भगवद्गीता अर्थात् चौबीस तत्वसे पृथक् , तवातीत निरन्जन पुरुष जो 'मैं उसी 'मैं' के ( मेरे ) स्वरूप अवगत होते हैं, उनमें मिलकर-'सदसत् तत्परं यत्' वही होते हैं। किन्तु गुरुपदमें-वासुदेवमें श्रात्मसमर्पण करनेसे, भक्त होनेसे, मायाकी मोहिनी-शक्ति प्रापही आप लोप हो जाती है,-माया अतिक्रम भी हो जाता है। अर्जुनरूपी साधक अाज भक्त तथा सखा हुये हैं ( "भक्तोऽसि मे सखा चेत्ति" ), कर्म अतिक्रम करके उपासनामें प्रवृत्त हुए हैं;-इसलिये श्रीगुरुदेव कूटस्थ चैतन्यरूपसे उनके समीप सन्मुखमें उनका चालक ( सारथी) होकर के. उपस्थित हुए हैं, शिष्यके सफल संशय दूर करते हैं,- स्वयं अपने मायाको हटाय देते हैं, मायिक आवरणसे और साधकको गतिरोध करने नहीं देते; उनके अन्तःकरणमें शक्ति संचार करके ज्ञान और विज्ञानको एकही साथ प्रकाश कराय (खिलाय ) देते हैं। अहो! धन्य वही, जिनको यह अवस्था मिली है, उन्हींका जीवन सार्थक है ॥३॥ भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥४॥ अन्ववः। भूमिः ( पृथिवीतन्मात्रं ) आपः (रसतन्मात्र) अनल: ( तेजस्तन्यानं ) वायुः ( स्पर्श तन्मात्रं.) ख ( आकाशतन्मात्रं ) मनः (मनसः कारणमहंकार ) वुद्धिः (तत्कारणं महत्तत्त्वं ) अहंकारः ( तत्कारणं अविद्यासंयुक्तमव्यक्त) इति एव च मे प्रकृतिः ( ममैश्वरी मायाशक्तिः ) अष्टधा भिन्ना ( भेदसमागता )॥४॥ अनुवाद। पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहङ्कार, इस इस रूपसे हमारी प्रकृति इन अष्टभागमें विभक्ता है ॥४॥ - व्याख्या। अव्यक्त वा मूलप्रकृति - पञ्च महाभूत, पञ्च तन्मात्रा, दश इन्द्रियां, और चार अन्तःकरण-इन चौबीस तत्व करके विभक्ता *। अव्यक्तसे ही इन चौबीसके उत्पत्ति होनेके • १३श अध्याय षष्ठ श्लोक देखो। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय ३१३ सबब अव्यक्तको पृथक् तत्त्व गिना नहीं जाता; कोई कोई धरभी लेते हैं। ऐसा होनेसे अव्यक्त पच्चीस क्या पुरुष छव्योसे, नहीं तो पुरुषही पच्चीस । प्रकृतिको इन चौबीस तत्त्वमें विभाग करनेसेभी, यथार्थतः यह पाठ भागमेंही विभक्ता। विकार-क्रियाके द्वारा उसी आठसे और षोड़श तत्स्वके उत्पत्ति होनेसेही चौबीस तत्त्व होता है। इस श्लोकमें प्रकृतिकी अविकृतआठ अंशके बात ही कहा हुआ है। वह आठ भाग यह है(१) भूमि-पृथ्वीतत्त्व, इसका स्थान मूलाधार; (२) आप-रसतत्त्व, इसका स्थान स्वाधिष्ठान; (३) अनल-तेजस्तत्त्व, इसका स्थान मणिपुर, (४) वायु-वायुतत्व, इसका स्थान अनाहत; (५) खं-आकाशतत्त्व, इसका स्थान विशुद्ध; (६) मन-यह एकादश इन्द्रिय, दश इन्द्रियों के नेता; इसलिये मन शब्दसे मनका कारण अहङ्कार एवं दश इन्द्रियोंकोभी समझाता है; मनके देवता चन्द्रमा और इसका स्थान प्राज्ञामें कूटस्थ के भीतर दिशामें जहां चन्द्रमण्डलका विकाश * ; (७) बुद्धिः -- बुद्धि शब्दसे बुद्धिकी कारण महत्तत्वको भी समझाता है; इसका देवता ब्रह्मा और स्थान आज्ञामें कूटस्थके बाहर दिशामें, जिस दिशामें विवस्वान्का विकाश * ; (८) अहकार;-अहंकार शब्दद्वारा अविद्यासंयुक्त अव्यक्तको भी समझाता है; कारण कि, अहंकार ही सृष्टि वृद्धिका कारण; है इसलिये मूलकारण अव्यक्तको भी इस अहंकारके अन्तर्गत किया हुआ है। इसका स्थान प्राज्ञाके ऊपर “दशाङ्गुल" और सहस्रार । साधक अब उपासनामें प्रवृत्त, कूटस्थ-चैतन्यके समीपमें स्थित हैं; सबही उनका प्रत्यक्ष होता है, किञ्चित् मात्र भी और दूरमें नहीं, सबही निकटमें है। इस कारण भगवान् लक्ष्य करायके देखाते हैं "इयं मे प्रकृतिरष्टधा भिन्ना"-"यह हमारा प्रकृति आठ भागमें विभक्त" है ॥ ४॥ . _* चतुर्थ चित्र देखो। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ श्रीमद्भगवद्गीता अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् । जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥ ५॥ अन्वयः । हे महाबाहो ! इयं ( अष्टधा भिन्ना प्रकृति: ) अपरा ( जड़त्वात् निकृष्टा अशुद्धा अनर्थकरी संसाररूपा बन्धनात्मिका ) इतः तु अन्यां मे जीवभूतां ( जीवस्वरूपां प्राणधारणनिमित्तभूत) प्रकृति परां ( प्रकृष्टां ) विद्धि, यया (चेतनया क्षेत्रज्ञस्वरूपया प्रकृत्या ) इदं जगत् धार्य्यते ॥ ५ ॥ अनुवाद । हे महाबाहो ! यह अपरा है; परन्तु इससे स्वतन्त्र हमारा जो जीवरूपा एक प्रकृति है, जो इस जगत्‌को धारण करके है, उनको परा कह करके जानना ।। ५ ।। व्याख्या । जो प्रकृति आठ अंशमें विभक्ता, सो जड़ है, इसलिये अशुद्धा, अनर्थकरी और संसार - बन्धनका कारणरूपा, इसलिये निकृष्टा है । परन्तु जो प्रकृति चेतन, जीवस्वरूप, और प्राण धारणका कारण है, जो ब्रह्मरन्ध्रसे मूलाधार पर्यन्त ब्रह्मनाड़ीमें विराजते हुए शरीर रूप जगत्को धारण करनेके लिये जगद्धात्री नाम लिये हैं, वही चैतन्य प्रकृति ही परा ( श्रेष्ठा) । असल बात, प्रकृति दो, - परा और अपरा । परा - - चैतन्या प्रकृति, अपरा - जड़ प्रकृति, अपरा - क्षेत्र, परा-क्षेत्रज्ञ, क्षेत्रकी धाता; श्रतएव परा श्रेष्ठ है, अपरा निकृष्ट है । साधक अब इन सबको निजबोधरूप अपरोक्ष ज्ञानसे अपने शरीर के भीतर प्रत्यक्ष करते हैं। ( ५म चित्र देखो ) ॥ ५ । । एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय । अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥ ६ ॥ अन्वयः । सर्वाणि भूतानि ( स्थावरजङ्गमात्मकानि ) एतद्योनीनि ( एते परापरे क्षेत्रक्षेत्रज्ञ लक्षणे मत्प्रकृती योनी कारणभूने येषां तानि ) इति उपधारय (जानीहि ); ( अत: ) अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः ( परमकारणं) तथा प्रलयः ( संहर्त्ता ) ॥ ६ ॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय अनुवाद | इन दोनों प्रकृतिसेही समस्त भूतकी उत्पत्ति जानना । कारण ) मैं ही समस्त जगत् के सृष्टि संहारका कारण हूँ ॥ ६ ॥ ३-१५ ( इस व्याख्या । परमेश्वरके जड़ और चैतन्यरूप अपरा तथा परा नामसे यह जो दो शक्ति वा प्रकृति, जो अब साधक स्वरूप- ज्ञान से प्रत्यक्ष करते हैं, इन दोनोंसे ही सर्वभूत उत्पन्न हुए हैं । यह दो प्रकृति दिन रात परस्पर मिलती हुई नाना जीवकी सृष्टि कर रही हैं। जलके ऊपर वेगसे आपतित वायु नाना अंशमें विभक्त होके वारिकी आवरण में प्रवृत्त होकर जैसे राशि राशि छोटे बड़े बुबुमें परिणत होता है, चैतन्या प्रकृति भी वैसे ही जड़के आवरण में आवृत्त होकर नाना प्रकारके जीव मूर्ति धारण करते हैं। जड़ प्रकृति देह रूपमें परिणत होती है, और चैतन्या प्रकृति देहके भीतर प्रवेश करकेभोक्तारूपसे स्वकर्म्म द्वारा उसको धारण करते हैं । इसलिये यह प्रकृति ही सर्व भूतों के योनि वा कारण है । किन्तु प्रकृतिका कारण परमेश्वर है; इस करके परमेश्वर ही समस्त जगत्का कारण है । वही सर्वशक्ति कारण हैं; परमेश्वरसे ही इस जगत् की उत्पत्ति कह करके वह जगत्के प्रभव है, उनसे ही जगत् के लय (विश्राम ) होता है: इस कारण से वह जगत् के संहर्त्ता हैं ॥ ६॥ मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनन्जय । मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥ ७ ॥ अन्वयः । हे धनब्जय ! मत्तः ( परमेश्वरात् ) परतरं ( श्रेष्ठं ) अन्यत् किञ्चित् ( जगतः स्थितिसंहारयो स्वतन्त्रं कारणं ) न अस्ति । इदं ( प्रत्यक्ष भूतं ) सर्वे (जगत् ) मयि ( परमेश्वरे ) सूत्रे मणिगणा इव प्रोतं ( प्रथितं ) ॥ ७ ॥ अनुवाद । हे धनञ्ज ! ( इस परिदृश्यमान जगत् में) हमसे श्रेष्ठ दूसरा और कोई नहीं है । मालाका सूतमें मणि सरीखे हममें यह समस्त जगत गूंथा ( पोया ): हुआ है ॥ ७ ॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ .. श्रीमद्भगवद्गीता - व्याख्या। परमेश्वर “एकमेवाद्वितीयम्”–अर्थात् वह एक ही एक, दो नहीं। उनके शक्तिका नाम माया है। उनकी वह माया जब उनमें लीन रहती है अर्थात् विकाशको प्राप्त नहीं होती, तब वह ब्रह्म, और जब मायाका विकाश होता है, तबही वह परमेश्वर बनते हैं। उनकी यह माया त्रिगुणमयी है। यह माया विकाश प्राप्त होते मात्र ही दो रूप धारण करती है-एक रूपसे चैतन्यरूपिणी, और एक रूपसे जड़रूपिणी है। पश्चात् तीन गुगके विकारमें जड़-चैतन्यके घात-प्रतिघात करके उत्थान-स्थिति-पतन यह तीन क्रिया चलते रहते हैं। उन तीन क्रियाओंसे ही जगतका सृष्टि-स्थिति-लय होता है। जगतके साथ ही साथ जीवका भी सृष्टि-स्थिति-लय प्रारम्भ होता है। अब परमेश्वर एक होनेसे भी जगत के सृष्टिमें उनको दो भावसे देखा जाता है; वस्तुतः ऐसा नहीं, वह तो मायाका भ्रम है। जैसे जल अपना कारण तेज सहयोगसे कठिन, तरल और वाष्प्य श्राकार धारण करके तीन होता है, वस्तुतः तीन-तीन नहीं, एकही एक है, केवल अवस्था भेद मात्र; तैसे माया, निज कारण परमेश्वरके सहयोग से नाना तत्त्रमें परिणता होती है। पुनः जल जैसे तेजसे उत्पन्न होने के लिये तेज बिना और कुछ नहीं, केवल तेजका रूपान्तर मात्र वैसे माया भी ब्रह्म बिना दूसरा कुछ नहीं है। इसीलिये, एक रसतत्त्वमें ही कठिन. तरल, वाष्प्य ये तीन रूप सदृश, एक ब्रह्ममें हो जगतके नाना रूप प्रतिभात है। इस कारण काके इस श्लोकका "सूत्रे मणिगणा इव' इस उपमा द्वारा सूत और मणिका प्रभेद देखाकर परमेश्वर का द्वैतभाव ग्रहण नहीं होता, माया द्वारा जगतको नेत्रसे बहु दिखाता है कह करके ही, मणि और सूत दोनों पृथक् पदार्थका उल्लेख करके उपमामात्र दिया हुआ है मात्र । इस उपमाकी और भी थोड़ीसी सार्थकता है। परमेश्वर परमात्मा जो "मैं" रूपसे जगतको धारण कर रक्खे हैं, इस उपमा द्वारा वही बात समझाया हुआ है। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ सप्तम अध्याय एक माला गाथनेमें जैसे एक सूत चाहिये, सूतको मणियोंके भीतर भीतर खींच लेना होता है, पश्चात् जेसे वही सूत जिसको आश्रय करके ही मणिके दाना सब परस्पर पाबद्ध होयके माला नाम धारण करता है, वह सूत भी फिर देखनेमें न आता अथच वही सूत मणियां के माला रचनाका एकमात्र आश्रय वा कारण है, उसको छोड़ करके और कोई दूसरा कारण नहीं; जगत् भी ठीक वैसा ही है। जड़ और चैतन्यके सयोगसे एक एक मणिस्वरूप यह जो असंख्य जीव है, इस असंख्य जीवके भीतर एक "मैं' वर्तमान। इस "मैं" के अस्तित्व अपने अपने सब कोई समझता है, लेकिन कोई देखने नहीं पाता। मणिमय मालाके सूत सरीखे जोवमय जगत्के एकमात्र आश्रय "मैं" हूँ। इसको अब साधक प्रत्यक्ष करते हैं; देखते हैं कि "मैं" से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं,-"मैं" से ही जगत्-प्रपञ्चका उत्पत्ति और नाश होता है,-"मैं" ही परम कारण। असल बात "मैं" ही आत्मा; सहस्रारसे मूलाधार पर्य्यन्त सुषुम्नाके भीतर ब्रह्माकाशमें इनके स्वरूपविकाश; इसलिये यह सर्व तत्त्वोंके भीतर ब्रह्मसूत्र रूपसे वर्तमान। इस ब्रह्मसूत्रमें हो तत्त्व समूह उत्पन्न और अवस्थित है ।।७॥ रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्यायो । प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥८॥ अन्वयः। हे कोन्तेय! अहं अप्सु रसः ( रसतन्मात्रस्वरूपया विभूत्या आश्रयत्त्वेनाप्पु स्थितोऽहमित्यर्थः), शशिसूर्ययोः प्रभा अस्मि (चन्द्र सूयं च प्रकाशरूपया विभूत्या तदा श्रयत्वेन स्थितोऽहमित्यर्थः), सर्व वेदेषु प्रणवः (खरीरूपेषु तन्मूलभूत ओङ्कारोऽस्मि ), खे ( आकाशे ) शब्दः (शब्दतन्मात्ररूपोऽस्मि ), नृषु ( पुरुषेषु ) पौरुष ( उद्यमोऽस्मि)॥८॥. अनुवाद। हे कौन्तेय ! जलका रस मैं, चन्द्र सूर्य की प्रभा मैं, सर्ववेदका प्रणक मैं, आकाशका शब्द मैं, और पुरुषका पौरूष मैं हूँ ॥ ८ ॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ श्रीमद्भगवद्गीता व्याव्या। भगवान् जो सर्व भूतोंके भीतर है, तिनमें जो यह सब गाया हुआ है, सो कैसे, वही कथा वह ८ से १२ पर्यन्त पांच श्लोकमें एक एक करके दिखाते हैं। भगवान् मायामय है। इसलिये वह एक होने पर भी विचित्र कौशलसे "मैं" सज लेकर बहु भावसे व्यक्त होते हैं। प्रकृति उनसे ही उत्पन्न, इसलिये प्राकृतिक पदार्थ उनहींमें गूथा है; वही एकमात्र आश्रय -सूक्ष्म रूपसे सर्वभूतमें ही वर्तमान; चतुर्दश भुवन-समन्वित वृहत् ब्रह्माण्डमें भी जैसे, जीवशरीर-रूप क्षुद्र ब्रह्माण्डमें भी ठीक उसी प्रकारसे ही वह वर्तमान है। इसीलिये योगी अपने शरीर में हो विश्व प्रत्यक्ष्य करते हैं; और अब उपासनामें अपरोक्ष ज्ञान लाभ करनेसे उनके शरीर-रूप विश्वकोषके आश्रय परमेश्वर कहां किस प्रकार विभूतिसे विश्वको धारण करके, उसे देखते हैं। इन पांच श्लोकों में वह सब विभूति सोलह प्रकारसे कहा हुआ है, वही सब एक दो करके कहा जाता है। ____(१) "जलका रस मैं हूँ”–भगवान् "अहं' वा “मैं” रूपसे सुषुम्ना के अभ्यन्तरमें सहस्रार-मूलाधार-व्यापी ब्रह्माकाशमें स्वरूप व्यक्त रहके (जैसे एक मृत्तिका हो बालू, कंकर, कोयला, पत्थर, धातु, रत्न, प्रभृति नाना पदार्थके श्राकारमें परिणत होता है, वैसे ), आत्ममाया द्वारा अहंत्व, विस्तार करके विविध तत्त्वमें परिणत होते हैं। इस करके स्वादिष्ठानमें वह रसतत्व है। रसतत्त्व ही तरल पदार्थ मात्रोंके श्राश्रय है। प्रधानके नामसे तज्जातीय समुदयको समझा जाता है कह करके, अप अर्थात जलके नाम करके कहते हैं कि-मैं रसरूपसे तरलका धाता हूँ। भगवानका अहत्व चित्शक्ति है। (२) "शशिसूर्य्यकी प्रभा मैं हूँ"-भगवान्की वह अहत्व ही सहस्रारमें चिज्ज्योति रूप करके विकाश प्राप्त है; वही ज्योति कूटस्थसे पिङ्गला-मुखमें प्रतिफलित हो करके विवस्वान् वा सूर्य रूप धारण Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय ३१६ करती है, और इड़ा मुखमें प्रतिफलित हो करके चन्द्र वा शशि रूप धारण करती है। यह शशि सूर्य्यही यथाक्रममें इड़ा और पिङ्गलाका अधिपति, और यही दोनों ज्योतिष्क-मण्डलका प्रधान कह करके इनही के नामसे समुदय ज्योतिष्क-मण्डलको समझाता है। इन दोनोंकी जो प्रभा वा ज्योति, वह उस चिज्ज्योतिका अंश-विकाश कहके, भगवान् प्रभारूपसे इन सबका धाता है। (३) "सकल बेदका प्रणव में हूँ"-सहस्रारसे मूलाधार पर्य्यन्त विस्तृत सुषुम्ना ही वेद वा शब्दब्रह्मका स्थान, इसलिये इनको स्वरस्वती ( स्वरके श्रादि ) कहा जाता है। यह वेद ऋक्, यजुः, साम, अथवेन् चार अंशमें विभक्त हैं (२य अः४५ श्लोककी व्याख्या देखो)। भगवान्के अहंत्व यहां प्रणव वा ओंकाररूपी; इसलिये प्रणव उनका वाचक है। यहां जो कुछ उच्चारित होता है, वह सबही उस प्रणवको आभय करके; वह सब प्रणवका ही विलास है। इसलिये भगवान् प्रणवरूपसे वेदका धाता है। (४) "आकाशका शब्द मैं हूँ”–भगवान्के अहंत्व, विशुद्ध चक्रमें शब्दरूपी। शब्दतन्मात्रासे ही आकाशकी उत्पत्ति है। इसलिये भगवान् शब्दरूपसे आकाशका धाता है । (५) "मनुष्यमें पौरुष मैं हूँ"-जिस शक्तिद्वारा इन्द्रियगण क्रिया करनेमें समर्थ, और मन-बुद्धि अपने अपने कर्ममें प्रवृत्त, वही पौरुष अर्थात् उद्यम, चेष्टा वा कार्य-प्रवृत्ति है। भगवानका अहत्व ही मूल कार्य-प्रवृत्ति स्वरूप है। जड़ और चैतन्यके संयोगसे जितना नर अर्थात् जीव ( क्योंकि श्रेष्ठके नाम ग्रहणसे सब प्राणीको ही सममाता है, कह करके नर अर्थमें जितना प्रकार प्राणी) सृष्ट होता है, सो सब मूलका--प्रवृत्तिका परिणाम है और उसीसे ही परिचालित है। इसलिये भगवान् पौरुष रूपसे नरका धाता है ॥८॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० .. श्रीमद्भगवद्गीता पुण्योगन्धः पृथिव्याञ्च तेजश्चास्मि विभावसौ। जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥ ६ ॥ अन्वयः। पृथिव्यां च पुण्योगन्धः (गन्धतन्मात्रं पृथिव्याश्रय-भूतोऽहमित्यर्थः), विभावसौ ( अग्नौ ) तेजः च अस्मि; सर्वभूतेषु जीवनं (प्राणधारणमायुरहमित्यर्थः), तपस्विषु तयः च अस्मि ॥ ९॥ अनुवाद। मैं पृथिवोका पुण्यगन्ध, अग्निका तेज, सर्वभूतोंका जीवन, तपस्वियों का तप हूँ ।। ९॥ व्याख्या। भगवान्के अहंत्व वा चित्शक्ति-(६) मूलाधारमें गन्धतन्मात्रा रूपसे पृथिवीके धाता। पुण्यगन्ध ही है गन्धतन्मात्रा, यह अविकृता है। विकृत होनेके ही पञ्चीकरण प्रारम्भ होता है; तब और पुण्यत्व अर्थात् तन्मात्रावस्था नहीं रहता। इसलिये पुण्यशब्दका प्रयोग हुआ है। (७) मणिपुरमें तेज वा दीप्तिरूपसे विभावसु अर्थात् अग्निकी धाता। (८) अनाहतमें जीवन अर्थात् प्राणवायु रूपसे सर्वभूतोंके धाता। . (६) और भरतक-प्रन्थिसे श्राज्ञा पर्यन्त स्थानमें तपरूप करके तपस्वियोंके धाता हैं । ६॥ बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् । बुद्धिबुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ॥ १० ।। अन्वयः। हे पार्थ ! मां सर्वभूतानां सनातनं बीजं विद्धि। अहं बुद्धिमतां बुद्धिः, तेजस्विनां तेजः अस्मि ।। १० ।। अनुवाद। हे पार्थ ! सर्वभूतों का सनातन बोज कह करके मुझको जानना, बुद्धिमानोंको बुद्धि और तेजस्वियोंका तेज भी मैं हूँ ॥१०॥ व्याख्या। (१०) भगवत्-अहत्व कामपुर चक्रमें अनादि कालसे ही बीज स्वरूप करके वर्तमान रहनेसे, भगवान् ही सर्वभूतोंके सनातन कारण, अर्थात् उत्पत्तिके विधाता। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय ३२१ (११) वह अहंत्व ही पुनः आज्ञाके ऊपर दिशा बुद्धिक्षेत्रमें बुद्धि स्वरूपसे वर्तमान है। जीवमात्रके बुद्धि ( कोई काम काज करना, न करना, सो निश्चय करनेवाली शक्ति ) वहांसे ही आती है; इसलिये भगवान् बुद्धिमानों की बुद्धि है। ___ (१२) तेजस्वियोंका तेज भी भगवान् है ।. जिस शक्ति द्वारा मन में असीम साहस और विश्वास उत्पन्न होता है, जो उत्साह और विश्वास कोई किसीसे भी नहीं हिलता, जिससे इच्छामात्र पूरण होता है, उसीको तेज कहते हैं। यह तेज ही ब्रह्मबल, अतएव भगवत् शक्ति है। सहस्रारमें इनका विकाश; ओजः शक्ति भी इन्हीं को कहते हैं । यह शक्ति अति पुण्य वा सतकर्मका फल है; इसीलिये सबको नहीं होती। जिन सबको होती है, वही सब तेजस्वी है । तेजस्वीके दर्शनमात्र ही लोग मुग्ध होते हैं। भगवान की चित्शक्ति उसी तेजरूपसे तेजस्वियोंकी पाता है ॥ १०॥ बलं बलवतामस्मि कामरागविवर्जितम्। धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ।। ११॥ .. अन्वयः। हे भरतर्षभ ! ( अहं ) बलवता कामरागविवजितं ( कामः असन्निकृष्टषु विषयेषु तृष्णा; रागः प्राप्तेषु विषयेषु रजना, ताभ्यां विकजितं ) बलं ( सामर्थ्य सत्त्वं ) अस्मि । तथा भूतेषु धर्माविरुद्धः कामः अस्मि (धर्मेण शास्त्राथेन अविरुद्धः यः प्राणिषु भूतेषु कामः यथा देहधारणमात्राद्यर्थोऽशनपानादि विषयः सः अस्मि ) ॥ ११ ॥ अनुवाद। हे भरतर्षभ ! बलवानोंके काम राग विवजित जो बल, सो मैं हूँ;-और प्राणीमात्र धर्मका अविरोध जो काम, सो भी मैं हूँ ॥ ११ ॥ व्याख्या। (१३) "कामराग-विवर्जित बल मैं हूँ"। अप्राप्त विषय पानेके लिये आकांक्षाकी नाम काम, और प्राप्त विषयके ऊपर आसक्तिका नाम राग है। मनुष्यके जो बल काम और राग शुन्य, --२१ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ श्रीमद्भगवद्गीता अर्थात् जो बल रहनेसे मनुष्य भोगके विषयके संसर्गमें आकरके भी भोग में अनुरक्त वा आग्रहान्वित नहीं होते, अनासक्त भावसे स्थिर रह सकते, शरीर और मनमें चंचलता तथा उद्वेगका उत्थान होने नहीं देता, वही बल आत्मबल वा भगवत् सत्त्वा है । इसलिये बलवान के वैसा बल वह है । अतएव भगवान् बल रूपसे बलवानोंका धाता है । (१४) 'धर्माविरुद्ध काम मैं” । - संकल्प - विचार - अनुभूतिचिन्ता, अन्तःकरणके ये चार वृत्ति जिस अवस्था में पूर्ण विकशित हो करके आत्मतत्त्व प्रत्यक्ष करता है, उसी अवस्थाका नाम धर्म है। जो काम इस धर्म के अविरोधि, अर्थात् जिस काम भोगसे इस धम्म से विच्युत होने नहीं होता, अर्थात् जिस प्रकार आकांक्षा और विषय भोग करनेसे उस अवस्थासे भ्रष्ट हो करके आत्महारा होने नहीं होता, वही धर्मके अविरोधि काम है; वही काम भगवत् सन्दवा है । "युक्ताहारविहारस्य" इत्यादि श्लोक मता में सात्विक आहार विहार, और गार्हस्थ्य - ब्रह्मचर्थ्यानुष्ठानसे यथाशास्त्र धर्मपत्नीमें उपगत होना प्रभृति ही धर्माविरुद्ध काम है । भगवान्‌के अहंत्व वा चितशक्ति उस धर्म्मगत कामस्वरूप से ही विश्वके धाता है ॥ ११ ॥ "" ये चैव साविका भावा राजसास्तामसाश्च ये । मत्त एवेति तान् विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥ १२ ॥ अन्वयः । सात्त्विकाः ( शमदमादयः ) राजसाः ( हर्षदर्पादयः ) तामसाः च ( शोकमोहादयः ) ये च ये च एव भावा: ( मनसः विकाराः), तान् मत्तः एव ( जायमानान् ) इति विद्धि; तु ( किन्तु ) अहं तेषु न (बतें, भवामि इत्यर्थः ), ते मयि ( ते तु मदधीनाः सन्तः मयि वर्त्तन्ते जोववत् तदधीनः न इत्यर्थः ॥ १२ ॥ अनुवाद | सात्विक, राजस और तामस - ये जो तीन प्रकारके भाव हैं, उन सबको हमसे ही उत्पन्न जानना; किन्तु मैं इन सबके भीतर नहीं हूँ, वे सब हम में हैं ॥ १२ ॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय ३२३ व्याख्या। (१५) "गुणमय भावत्रयका कारण मैं हूँ"।-कर्म संस्कार वश करके जीवके मनमें नाना प्रकारके भावका उदय होता है। वह सब भाव कोई कोई सात्विक, कोई कोई राजसिक, और कोई कोई तामसिक है। शम, दम प्रभृति सात्त्विक भाव; हर्ष, दर्प प्रभृति राजस भाव; और शोक, मोह प्रभृति तामस भाव है। आत्मभावसे ही ये सब भाव उत्पन्न हैं. अर्थात् आत्मसम्पर्क करके प्रकृति क्रियाशीला होनेसे प्राकृतिक विकार जो कुछ है उन सबका आश्रय का कारण आत्मा है। इसीलिये भगवान् कारण रूपसे सब भावोंका धाता है। (१६) “मैं उन सबमें नहीं, वे सब हममें हैं"। परमात्मा कारण होनेसे भी निर्लिप्त, प्राकृतिक विकार उनको स्पर्श नहीं कर सकते । अतएव प्राकृतिक भाव प्रात्माको आश्रय करके रहनेसे आत्माके आधीन हैं; परन्तु आत्मा श्राधीन नहीं है। आत्मा नित्य-शुद्ध-बुद्धमुक्त स्वभाव सम्पन्न है। आत्मा परम कारण है, आत्माका कारण कोई नहीं। इसलिये सबका धाता आत्मा है ॥ १२॥ त्रिभिगुणमयर्भावैरोभिः सर्वमिदं जगत्। मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥१३॥ - अन्वयः। इदं सर्व जगत् एभिः त्रिमिः गुणमयःभावः मोहितं (अविवेकतामापादितं सत् ) एभ्यः परं अव्ययं मां न अभिजानाति ॥ १३ ॥ अनुवाद। यर समस्त जगत् इसी त्रिगुणमय भाषसे मोहित करके, इन सबसे श्रेष्ठ जो मैं अव्यय हूँ; मुझको जान नहीं सकते ॥ १३ ॥ व्याख्या। जगत्के समस्त जीव ही सात्त्विक, राजसिक और तामसिक इस त्रिगुणमय भावसे मोहित हैं, अर्थात् तीनों गुणकी मोहिनी शक्तिसे आकृष्ट हो करके, गुणकी क्रिया ही नित्य, पवित्र और उत्तम है इस प्रकार ज्ञानसे अविवेकके मारे उसीमें मोहित हो Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ श्रीमद्भगद्गीता (ब) जाता है; अतएव उन सबके अन्तरिन्द्रिय गुणोंके आवरणमें आवृत्त होनेसे, वह लोग सर्वदर्शी नहीं हो सकते। इसलिये जो वस्तु परात्पर और अव्यय तथा इस त्रिगुणमय जगत्के आश्रय है, उस गुणातीत वस्तुको अर्थात् “मैं” को नहीं जान सकते ॥ १३ ॥ दैवी ह्यषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥ १४ ॥ अन्वयः। मम एषा गुणमयो दैवो ( देवस्य ममेश्वरस्य विष्णोः स्वभावभूता ) माया दुरत्यया ( दुस्तरा ) हि ( प्रसिद्धमेतत् ); ( तथापि ) ये माम् एव प्रपद्यन्ते ( भजन्ति ) ते एतां ( सर्वभूतचित्तमोहिनी) भायां तरन्ति ( अतिक्रामन्ति, संसार बन्धनात् मुक्तः सन् मां अभिजानन्तीति भावः ) ।। १४ ॥ अनुवाद। हमारा यह गुणमयो देवो माया दुस्तरा है; परन्तु जो एकमात्र मुझको भनते रहते हैं, वह लोग इस मायाको अतिक्रम कर सकते हैं ।। १४ ॥ व्याख्या। माया, सत्व रजः तमः इन तीन गुणोंकी समष्टि कह करके गुणमयी, और ईश्वरके स्वभावभूता कह करके देवी है। इस मायाको अतिक्रम करना बड़े दूरकी बात है, अर्थात् अतिक्रम करनेकी चेष्टा करके इसको अतिक्रम किया नहीं जा सकता, इसलिये दुस्तरा है; क्योंकि, माया पदार्थ ऐसा ही है कि, मायांबन्धन मोचनकी चेष्टा जितना ही किया जाय, उसमें तितना ही लिपटाय पड़ने होता है, (मनही मनमें जैसे आकाशके डोरीकी गांठ बांधकर पुन खोलनेकी चेष्टा विफल होती है-तैसे ), परित्राण पाया जाता ही नहीं। यह प्रसिद्ध है। चण्डी ( दुर्गा ) प्रभृति शक्तिपन्थके उपदेश यही है। किन्तु सब चेष्टाको परित्याग करके, मायाका आक्रमण दमन करनेवाला चेष्टामात्र भी न करके, माया जो करे करने दो, उस विषयमें मोहित होना तो दूरकी बात है उसके ऊपर भ्रक्षेप भी न करके सर्वान्तःकरणसे आत्मसेवामें रत होना होता है, अर्थात् आत्ममन्त्रको Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय ३२५ अवलम्बन करके, एकमात्र उसीका अनुसरण करना होता है; प्रकृति ( माया ) दमनकी चेष्टा करना ही नहीं। ऐसा होनेसे, आप ही आप माया निस्तेज होनेसे, अनजान भावमें माया भी अतिक्रम हो जाती है, गुणातीत अव्यय आत्माको भी जाना जाता है, और पुनः मायाके बन्धनमें भी नहीं पड़ने होता ॥ १४ ।। न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः। माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता ॥ १५ ॥ अन्वयः। दुष्कतिरः ( दुकम्म कारिगः ) मूढाः (विवेकशून्याः ) नराधमाः मायया अपद्दतज्ञाना8 ( निरस्नशास्त्राचार्योपदेश ननितज्ञाना: ) आसुरं भावं (दम्भोदोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यधेव चेत्यादि रूपं भावं) आश्रिताः ( प्राप्ता: सन्तः) मां न प्रपद्यन्से ( भजन्ति ) ॥ १५ ॥ अनुवाद। बुरा काम करनेवाला विवेक विहीन नराधम लोग मायासे हत ज्ञान और आसुरिक भावग्रस्त हो करके "मुझ" को नहीं भजते ॥ १५ ॥ व्याख्या। जो लोग बुरा काम करनेवाला है, अर्थात् जो लोग आत्मकर्मको त्याग करके शास्त्र-निषिद्ध बुरा काम सब करता है, वह लोग दुष्कृत् है। वह सब दुष्कर्मी सत् असतका विचार नहीं कर सकते इसलिये मूढ़ अर्थात् विवेकज्ञान-विहीन हैं। इसलिये वह सब निकृष्ट नर हैं। मायाके चक्रमें पड़कर उन लोगोंका शास्त्राचार्योपदेशजात ज्ञान भी लोप हो जाता है, अर्थात् वह लोग शास्त्र-आलोचनाका ज्ञान और गुरूपदेशका ज्ञान धारणामें नहीं रख सकते; अतएव वे लोग दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोधादि आसुरिक भाव ले करके सदाकाल प्राकृतिक तत्त्वमें मोहित हो रहते हैं, आत्मतत्त्वको नहीं पकड़ सकते। [सुकृतगण ही "मामेव" भजना करके माया पार हो सकते हैं, दुष्कृतगण नहीं हो सकते। आगेका श्लोक देखो।] ॥१५॥. Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ श्रीमद्भगवद्गीता चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन । आत्तॊ जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥ १६ ॥ अन्वयः। हे भरतर्षभ अर्जुन । प्रातः ( रोगाद्यभिभूतः ) जिज्ञासु (मात्मज्ञानेच्छु ) अर्थार्थी ( विभूतिकामः ) ज्ञानी ज (आत्मवित् च ) इति चतुर्विधाः (चतुः प्रकाराः ) सुकृतिनः ( सुकर्मकारिणः ) जना: मां भजन्ते ।। १६ ॥ अनुवाद। हे भरतर्षभ अर्जुन,! आत्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी, इन चार प्रकारके सुकृतिशाली लोग मुझको भजते रहते हैं ।। १६ ।। व्याख्या। सुकृतिशाली लोग ही परमात्म-सेवा करते हैं। पुनः यह सब भी सुकृतिके तारतम्य अनुसार चार प्रकारके हैं। वही चार प्रकार यथा,--(१) "आत्त"। जो रोग, शोक, भय, अथवा जन्म मरण रूप संसार-बन्धनमें कातर, वहा भक्त आत्त हैं। यह पुरुष केवल इन सब सांसारिक ज्वाला यन्त्रणासे निष्कृति पानेके लिये ही भगवत सेवामें प्रवृत्त होते हैं। (२) "जिज्ञासु'। जो तत्त्वबोध लाभ की इच्छा करते हैं, अर्थात् जड़ क्या है ? चैतन्य क्या है ? सृष्टिका कारण क्या है ? कैसे सृष्टि होती है ? ज्ञान क्या? विज्ञान क्या है ? मैं कौन हूँ ? मेरा कल्याण क्या ? चरम गति क्या है ? इत्यादि वर्क (भेदाभेद ) जाननेके लिये भगवतसेवामें प्रवृत्त होते हैं, वह पुरुष जिज्ञासु हैं। यह प्रथमसे श्रेष्ठ है; क्योंकि यह पुरुष कातर नहीं है। (३) "अर्थार्थी'। जिससे इच्छा साधन किया जाता है, यही अर्थ; इसलिये 'अर्थ' अर्थमें शक्ति वा विभूति। विभूति भगवत्सस्ता है। इस विभूति प्राप्तिके लिये जो साधक भगवत्सेवामें प्रवृत्त होते हैं, वहीं अर्थार्थी हैं। अर्थार्थी जिज्ञासुसे भी श्रेष्ठ हैं, क्योंकि, अर्थ वा विभूतिको भगवतसत्त्वा जानकर उसको अपने आयत्तमें लाने चाहते हैं। (४) "ज्ञानी'। जो आत्मा क्या है ? उसे जान चुके, विशेष जाननेके लिये जिनको कुछ भी बाकी नहीं, जो आत्मानन्दमें Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय ३२७ . परितृप्त हो गये, केवल अपनेमें आप रहते हैं; वह ज्ञानी हैं। ज्ञानी सबसे श्रेष्ठ हैं, क्योंकि, ज्ञानीमें आकांक्षा कुछ भी नहीं है ( आगेका श्लोक देखो) ॥१६॥ तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते । । प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥ १७ ॥ अन्वयः। तेषां ( मध्ये ) ज्ञानी नित्ययुक्तः ( सदा मनिष्ठः ) एकभक्तिः (एकस्मिन् मय्येव भक्ति युक्तः ) ( अतएव ) विशिष्यते ( विशिष्ट इत्यर्थः) अहं हि ज्ञानिनः अत्यथं ( अत्यन्त ) प्रियः स च मम प्रियः ॥ १७ ।। अनुवाद । उन सबके भीतर ज्ञानी नित्ययुक्त और एकभक्ति कह करके श्रेष्ठ है; मैं ज्ञानोका अत्यन्त प्रिय हूं, ज्ञानी भो मेरे अत्यन्त प्रिय है ॥ १७ ॥ व्याख्या। जिनके अन्तःकरणमें मैं ही सर्व भूतात्म-भूतात्मा "मैं” हूँ इस प्रकार ज्ञानका उदय (स्थिर निश्चय ) हो चुका, वही ज्ञानी हैं। ज्ञानीकी दृष्टिमें सब ही ब्रह्म है। इसलिये उनमें देहाभिमान भी नहीं, चित्त-विक्षेप भी नहीं है। इस कारण करके वह नित्ययुक्त अर्थात् नित्य वस्तुमें युक्त है। और उनके भक्ति तथा अन्तःकरणके स्थिति एक बिना दो में नहीं होता; कारण यह है कि, एक श्रात्मा ही उनका अवलम्बन, आत्मा बिना किसीकी पृथक सत्वा उनके दृष्टिगोचर नहीं होती। इसलिये वह “एकभक्ति" है। दूसरे दूसरे सुकृत्गण एकभक्ति नहीं हैं, क्योंकि उन सबकी भक्ति 'दो' में-एक है उद्देश्य में, अर्थात् आकांक्षित वस्तुमें, और एक है उद्देश्यसाधन करनेवाला वा आकांक्षाका पूरण करनेवाला भगवानमें । झानीका भगवान् ही सब है, भगवान् बिना और कोई उद्देश्य नहीं है। इसलिये कहा हुआ है कि मैं * (अक्षर ब्रह्म ) अत्यन्त करके * असल बात यह है कि "मैं" वा आत्मा सबका ही प्रिय है। सब कोई ही अपनेको सुखा करनेके लिये मैं मैं"-"मेरे मेरे" करके पागल हो रहे हैं। साधारण लोग अज्ञानान्धकारसे अपना "मैं" का स्वरूप न समझ करके विषय-सुखमें Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ श्रीमद्भगवद्गीता ज्ञानीका प्रिय हूँ। पुनः ज्ञानीका हृदय सर्वदा निर्मल, वासना-मलका छायामात्र भी ज्ञानीमें नहीं है, इस कारण वहां सदाकाल ही आत्मा का स्वरूप-विकाश है; निमेषके लिये भी भगवान् वहांसे अन्तर्हित नहीं होता; ज्ञानीका हृदय ही भगवत्मन्दिर है। इस कारण कहा हुआ है कि-वह भी मेरा प्रिय है ॥ १७ ॥ उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्। आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमा गतिम् ॥ १८ ।। अन्वयः। एते ( प्रातदियः ) सर्वे एव उदारा: ( महान्तः ), तु ( किन्तु ) ज्ञानो आत्मा एव मे मतम् (निश्चयः ), हि ( यस्मात् ) सः ( ज्ञानी ) युक्तात्मा ( मदेकचित्तः सन् ) अनुत्तमा ( सर्वोत्कृष्ट ) गतिं मां एव (परं ब्रह्म ) आस्थितः (आस्थितवान् ) ॥ १८॥ अनुवाद। ये सब लोग उदार हैं; परन्तु हमारे समझमें ज्ञानी आत्माका ही स्वरूप है, क्योंकि, ज्ञानी युक्तात्मा हो करके अनुत्तम गति पाकर मुझको हो आश्रय करके रहते हैं ॥ १८॥ व्याख्या । उदार - उत् +आ+ ऋ+अ। ऋ+4= 'र' का अर्थमें गमन करनेवाला। आ-विपरीत अर्थ बोधक है। इसलिये आ+र 'आर' अर्थमें आगमन करनेवाला। उत् अर्थमें ऊर्ध्वमाया के ऊपर। उत्+आर = 'उदार' अर्थमें ऊर्ध्वमें आगमन करनेवाला; अर्थात् जो साधक प्राकृतिक आवरणको भेद करके ऊपरमें आते हैं अथवा पा सकते हैं, जिनके उस कार्यमें किसी प्रकारकी बाधा नहीं रहती, वही पुरुष उदार हैं। अब प्रात, जिज्ञासु, अर्थार्थी और लपटे रहते हैं, परन्तु ज्ञानी, ज्ञानालोकमें “मैं" का स्वरूप दर्शन करके आत्मानन्दसुखसे विषयानन्द सुखमें नहीं उतरते। विषय-सुख भोगसे मन निस्तेज होता है, आत्म-सुख भोगसे मन सतेज रहता है। इसलिये ज्ञानी अत्यन्त करके आत्माको हो प्रिय मानते है ।। १७॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ सप्तम अध्याय ज्ञानी-ये सबके सब उदार ( महान् हैं ) क्योंकि, ये सब ही प्राकृतिक तत्त्वको परित्याग करके एकमात्र परमात्म तत्त्वका अवलम्बन करते हैं, अतएव १४वें श्लोक अनुसार क्रिया करनेसे इन सबको माया की आवरणमें नहीं पड़ने होता। यह सबके सब भगवान्के प्रिय हैं। .परन्तु ज्ञानीके लिये थोड़ा बहुत विशेषत्व है। आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी ये तीनों "एकभक्ति” नहीं हैं, कारण कि इन सब (प्रत्येक ) का ही भगवानको अक्लम्बन करके एक न एक उद्देश्य पूरण कराय लेनेका अभिलाष है; किन्तु ज्ञानीके कोई अभिलाष ही नहीं है, परं • वा परमात्मा ही ज्ञानीका सब कुछ है। परमात्मा परब्रह्म ही सर्वो-. त्तम गति है; उसके ऊपर और कोई गति नहीं है। ज्ञानी युक्तचित्त होकर इस सर्वोत्तम गतिको आश्रय करके रहते हैं, दूसरा और कुछ ज्ञानीके हृदयमें स्थान नहीं पाता। इस कारण ज्ञानी अात्मसदृश वा आत्माका स्वरूप है ॥ १८ ॥ बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान् मां प्रपद्यते । वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ १६ ॥ अन्वयः। ज्ञानवान् बहूनां जन्मना अन्ते ( समाप्ती ) सर्वे वासुदेव इति ( सर्वात्मदृष्ट्या ) मां (सर्वात्मानं ) प्रसद्यते; सः महात्मा (अपरिच्छिन्नदृष्टिः ) सुदुर्लभः ॥ १९ ॥ अनुवाद । ज्ञानवान् बहुत जन्मके बाद “सबही वासुदेव" इस प्रकारसे मुझको प्राप्त होते हैं, इस प्रकारका महात्मा अति दुर्लभ है ॥ १९ ॥ व्याख्या। अात्मा ही सत् है, और आत्मा बिना सब कुछ "असत् है-इस ध्र व सत्यको समझ करके जो पुरुष एकमात्र परमात्मसेवामें रत होते हैं, वही पुरुष ज्ञानवान हैं; और जो पुरुष उस सत्य को अपरोक्षानुभूतिसे प्रत्यक्ष करके आत्मस्वरूप लाभ करते हैं, वही पुरुष ज्ञानी हैं। अतएव आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी यह सबही ज्ञान Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० श्रीमद्भगवद्गीता वान हैं। ज्ञानवानसे ज्ञानी होना होय तो बहुत जन्म * अतिवाहित करने पड़ता है, ज्ञानी होना ही इस श्लोकको "मां प्रपद्यते” अवस्था है; अर्थात् "मुझको प्राप्त होना” वा आत्मस्वरूपप्राप्त अवस्था है। इस अवस्था प्राप्त होनेसे, सबही वासुदेव है-इस प्रकारका अभेद ज्ञानसे सर्वत्र आत्मदृष्टि स्थापन होता है। इस प्रकारके आत्मभाव-प्राप्त पुरुष ही महात्मा हैं, महात्मा अति दुर्लभ है। अर्थात् तीसरे श्लोक के "कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः” इस वाक्यानुसार बहुत कम लोग ही, सहस्रों सिद्धके भीतर कहीं एक आध शरीर-'मैं' को प्राप्त होते हैं। इस कारण करके उक्त अवस्थाप्राप्त महात्मा पुरुष दुर्लभ हैं ॥ १६ ॥ कामैस्तैस्तहृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः। तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥ २० ॥ अन्वयः। तैः तः (धन जनयशो कीतिप्रभृतिविषयः नानाविधेः) कामैः ( कामनाभिः हृतज्ञानाः ( अपहृतविवेकविज्ञानाः जनाः ) तं तं नियम ( देवताराधने प्रसिद्धो यो यो उपवासादिलक्षणः नियमः) आस्थाय (आश्रित्य ) स्वया । स्वकीयया ) प्रकृत्या ( स्वभावेन, जन्मान्तराजितसंस्कारविशेषेण इत्यर्थः) नियताः ( वशोकृताः सन्तः ) अन्यदेवताः ( सर्वात्मनः बासुदेवान् व्यतीरिक्तान् देवताः) प्रपद्यन्ते ( भजन्ति ) ॥ २० ॥ अनुवाद। लोग ( धन, जन, यश, कीत्ति प्रभृति विषयों के ) नाना प्रकार के कामनासे हृतज्ञान होकर, अपने स्वभावके वश में बाध्य हो करके उस उस कामनाके अनुरूप नियम अबलम्बनपूर्वक दूसरे देवतोंका आराधन करते हैं ।। २० ॥ * बहुत जन्म अर्थात् ६ छ अः ४ वें श्लोककी व्याख्याने अनेक जन्मका अर्थ देखो। उसको छोड़ करके प्राकृतिक आवरण भेद करना भी एक एक जन्म है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, और आनन्दमय यह पांच कोष हो आवरण है। अन्नमय कोष हो स्थूल शरीर; प्रागमय, मनोमय और विज्ञानमय कोष ही सूक्ष्म शरीर; और आनन्दमय कोष ही कारण शरीर है। इस सूक्ष्म शरीरका एक एक आवरण भेद करके तत्तदूर्ध्व आवरणमें प्रवेश करना भी साधकका एक एक जन्म है ॥ १९॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय ___३३१ व्याख्या। सब कोई ज्ञानवान नहीं हो सकता। कारण यह है कि सहस्रों पुरुषके भीतर कोई एक पुरुष सत्पथमें खड़ा होता है, सत्पथमें खड़ा होकरके भी सहस्रोंके भीतर कोई एक जन अभेद ज्ञान लाभ करता है, और दूसरे दूसरे लोग भेदज्ञानसे मोहित होकर धन, जन, यश, कीर्ति विषयके नाना प्रकार कामनाके फांसमें पड़कर हतज्ञान हो जाता है। अतएव उसी उसी कामना पूरणके लिये चेष्टा करके कर्म-संस्कारकी सृष्टि करता है। पूर्व पूर्व जन्मकी सचित यह कम-संस्कार ही उन सबकी अपनी प्रकृति है। मनुष्य अपने अपने इस प्रकार प्रकृतिसे ही वशीभूत हो करके अवश भावसे कार्यमें नियोजित होते हैं, परन्तु भेदज्ञानसे अात्महारा हो जानेके लिये मूल परमात्मतत्त्वको पकड़ नहीं सकते, और उन उन कामना साधनोपयोगी उपवासादि रूप जो जो नियम प्रवृत्ति शास्त्रमें लिखा हुआ है, उन सब नियमका आश्रय करके उन उन कामनाओंकी अधिष्ठात्री दूसरे दूसरे देवतोंके आराधनमें प्रवृत्त होते हैं ॥ २० ॥ यो यो यां यां तनु भक्तः श्रद्धयाचितुमिच्छति । तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहं ॥२१॥ अन्वयः। यः यः ( कामी ) भक्तः ( सन् ) श्रद्वया यां यां तनु ( देवतारूपां मदीयामेव मूत्ति ) अच्चितु इच्छति (प्रवृत्तो भवति ), तस्य तस्य ( का मिन ) तां एव ( तत्तन्मूत्तिविषयां एव ) अचला श्रद्धां अहं विदधामि ( स्थिरीकरोमि ) ।। २१ ॥ अनुवाद। जो जो ( कामी ) भक्त हो करके श्रद्धा सहकार जिस जिस देवमूत्ति को अर्चना करनेके लिये प्रवृत्त होता है, मैं उन सबको उसौ मूत्ति विषयमें ही अचला श्रद्धा देता रहता हूँ ॥ २१॥ व्याख्या : परमात्मा देव, मनुष्य प्रभृति सब जीवोंके अभ्यन्तर (भीतर ) में “मैं” रूपसे वर्तमान है। इसलिये, जिस किसी देवता का ही अर्चना किया जाय, एक “मैं” का ही अर्चना करना होता, Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ श्रीमद्भगवद्गीता है। परन्तु भेद-ज्ञानके रहनेसे कामनाशील लोग “मैं” को एक भाव से ग्रहण न करके भिन्न भावसे ग्रहण करते हैं; इसीलिये अन्तर्यामी भगवान् ( परमात्मा ) भी उन सबको उसी भिन्न भावके अनुरूप श्रद्धा प्रदान करता है, उन सबका भेदभाव मिटाकर अभेद भाव नहीं देता। कारण यह है कि, जो जिस भावसे उसको भजता है, वह भी उसको उसी भावसे तुष्ट करता है-"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहं" ।। २१ ॥ स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते। लभते च ततः कामान् मयैव विहितान् हि तान् ॥ २२ ॥ अन्वयः। सः तया ( मद्विहितया ) श्रद्वया युक्तः ( सन् ) तस्य देवतायाः (तन्वाह ) आराधनं ईहते ( करोति ), ततः ( तदनन्तरं ) मया एव ( परमेश्वरेण सर्वज्ञेन ) विहितान् (निमितान् ) तान् कामान् ( ईप्सितान् ) हि (निश्चितं ) लभते ॥ २२॥ अनुवाद। वह उसी प्रकार श्रद्वासे युक्त हो करके उसी देवमूत्तिको आराधना करता रहता है, तदनन्तर हमसे ही विहित उनही कामनाये लाभ करता है ।। २२ ॥ व्याख्या। भगवान् कामी लोगोंको उनके भेदज्ञानका अनुरूप जो श्रद्धा प्रदान करता है वह लोग उसी श्रद्धासे युक्त हो करके उसी देवमूर्तिकी आराधनामें प्रवृत्त होता है। आराधनाके पश्चात् अभीष्ट (ईप्सित् ) फल लाभ करता है सही; परन्तु वह फल परमेश्वर ही विहित करता है अर्थात् परमेश्वर ही । उन सबके भीतर जो सच्चेके “मैं” वही "मैं" ) उन सबका उसी उसी कामनाका पूरण करता है; क्योंकि परमेश्वर ही एकमात्र कर्मफलप्रदाता है। कामीगण हतज्ञान होके नहीं समझ सकते कि, एक प्रभु परमेश्वर ही उन लोगोंको काम्यफल प्रदान करता है। समझनेके अभाव-फलसे वह लोग सोचते हैं कि, उन लोगों का आराधित देवता ही उन सबका अभीष्ट पूरण Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सप्तम अध्याय ३३३ करता है। इसी भेद ज्ञानके लिये उन सबका वह प्राप्त फल चिरस्थायी नहीं होता (आगेका श्लोक देखो) ॥ २२ ॥ अन्तवत्त फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् । देवान् देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥ २३ ॥ अन्वयः। तु (किन्तु ) अल्पमेधसां (अल्पप्रज्ञानां परिच्छिन्नदृष्टीना ) तेषा ( कामिना ) तत्फलं ( मया दत्तमपि ) अन्तवत् ( विनाशि) भवति, देवयजा ( देवताराधनकारिणः ) देवान् यान्ति ( उत्पत्तिनाशीलं देवभावं प्राप्नुवन्ति ), मद्भक्ताः मां अपि ( अनाद्यनन्तं परमानन्दं एव ) यान्ति ( प्राप्नुवन्ति )। [“एवं समानेऽप्यायासे मामेव न प्रतिपद्यन्ते अनन्तफलाय, अहो खलु कष्टं वत्तते इत्यनुक्रोशं दर्शयति भगवान्" इति शंकरः ] ।। २३ ॥ अनुबाद। परन्तु उन अल्पमेधासम्पन्न लोगों को यह फल अन्तवत् (अचिरस्थायी) होता है; देवयाजीयां देवतागणको प्राप्त होता है, मद्भक्त लोग मुझको हो प्राप्त होता है ।। २३ ॥ व्याख्या। एकमात्र "मैं" ही अनादि अनन्त हूँ। यह विश्व प्रपंच "मैं" सेही उत्पन्न, कालवशसे पुनः “मैं” में ही लय प्राप्त होता है। इसलिये देवगण विश्वके सर्वश्रेष्ठ जीव होनेसे भी अचिस्थायी हैं; कालवश करके सबको ही लय प्राप्त होना होता है। परन्तु जो "मैं", परमात्मा वा परमेश्वर है, उनका और लय नहीं है; वह नित्यशुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वभाव-सम्पन्न है। उनको छोड़ करके भेद ज्ञानमें. दूसरे देवताको आराधना करनेसे जो फल मिलता है, सो परमेश्वर कर्तृक विहित होनेसे भी अन्तवतोंकी आराधनाके लिये अन्तवत् हो जाता है। और भी, देवतोंकी आराधना करनेसे देवलोकमें देव भाव. की ही प्राप्ति होती है, इसलिये भोगक्षय पश्चात् पुनराय मर्त्यलोकमें जन्म ग्रहण करना पड़ता है। परन्तु परमेश्वरकी आराधना करनेसे. अनादि अनन्त परमानन्द स्वरूप परमेश्वरको ही मिल जाता है, और. Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता लौटके मर्त्यलोकमें नहीं आने पड़ता। देवतोंकी आराधना करने में जिस प्रकार प्रायास ( कष्ट ) भोग करना होता है, परमेश्वरको आराधनामें भी उसी प्रकार अायास है, अधिक नहीं। परन्तु देवया जी गण समान प्रायास करके भी आत्मगति लाभ करने सकते नहीं, अनन्त फल नहीं पाते; अल्पबुद्धि हेतु समझनेके फरमें वह लोग कामना करके देवोंकी आराधनामें रत होते हैं। (पर श्लोल देखो) ॥ २३ ॥ अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः । परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।। २४ ॥ अन्वयः। अबुद्धयः ( मन्दमतयः अविवेकिनः ) मम अव्ययं अनुत्तमं परं भावं (परमात्यस्वरूपं ) अनानन्तः ( सन्तः) अव्यक्त (अप्रकाशं प्रपञ्चातीतं ) मा व्यक्ति आपन्नं ( मनुष्य मत्स्य कूर्मादिरूपेण प्रकाशं गतं ) मन्यन्ते ।। २४ ।। अनुवाद। बुद्धिहीन मनुष्य गण हमारा अव्यय अनुत्तम और परम भावको न जानक, अव्यक्त नो मैं हूँ उसे व्यक्ति भाव-प्राप्त समझते हैं ॥ २४ ।। ___ व्याख्या। समान प्रयाससे ही जब अनन्त फल मिलता है, तब सब कोई जो दूसरे देवताको त्याग करके क्यों परमात्म सेवामें नहीं रत होते उसका कारण इस श्लोकमें कहा हुआ है। जिनकी बुद्धि नहीं है, अर्थात् जो लोग कर्म द्वारा कर्मको अतिक्रम करके आज्ञा चक्रके बुद्धितत्त्वमें पहुंचकर विवेक ज्ञान लाभ नहीं कर सकते, उनकी अन्तर्ड ष्टि श्रावृत ही रहती है। इस कारण परमेश्वर परमात्माका जो अव्यय (नित्य ), अनुत्तम ( सर्वोत्कृष्ट ) और परं (मायातीत ) स्वरूप है, उसे प्रत्यक्ष नहीं कर सकते। प्रत्यक्ष न करनेसे यह होता है, कि परमात्माको अव्यक्त होने पर भी, व्यक्तिभावापन्न करके मनमें धारण कर लेते हैं । अर्थात् परमात्मा निराकार ब्रह्म होकरके भी जगत् की रक्षाके लिये लीला छल करके जो विविध मूर्ति धारण करता है, Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय ३३५ उन सब मूर्तियों को साधारण जीवके न्याय समझते हैं । इसलिये उसको एकभावमें लेकर आदर-सत्कार न करके, विविध मूर्त्तिमें देवत की आराधना करते हैं; वह सब देवता भी जो उसी प्रभुके स्वरूप हैं उसे वह लोग अभेद भावसे ग्रहण नहीं कर सकते । अतएव श्रपातरमणीय भोगमें मोहित होकर के अन्तवत् फल प्राप्त होते हैं, अनन्त फल नहीं पाते ।। २४ ॥ नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः । मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥ २५ ॥ अन्वयः । अहं सर्वस्य ( लोकस्य ) प्रकाशः न ( भवामीत्यर्थः ) यतः योगमायासमात्रतः ( योगः गुणानां युक्तिर्घटनं सैव माया, तया समावृतः संछन्नः ) ( अतएव ) मूढ़: अयं लोकः अजं अव्ययं मां न अभिजानाति ) ।। २५ ।। अनुवाद | मैं सबके पास प्रकाशित नहीं हूँ; कारण कि यह जगत्, योगमाया द्वारा सम्यक् आवृत होकर मूढ़ता प्राप्त होनेसे, अज और अव्यय मुझको जान नहीं सकते ।। २५ ।। व्याख्या | योगमायाका आवरण रहनेसे ही बुद्धिहीन मनुष्य "मैं" के परम भावको नहीं जान सकते। योगमाया अर्थ में वासना है । भगवान्‌का जिस अचिन्त्य प्रज्ञाविलास द्वारा अघटन घटन होता है, उसीको ही योगमाया कहते हैं । यह भागवतीय अनिच्छाकी इच्छा वा लालसारूपा महाशक्ति है, जो जीव भावके अनुभवमें नहीं आता । यह शक्ति त्रिगुणके संयोगसे ही उत्पन्न हुई है इसीलिये इसका नाम योगमाया है । यह इच्छाही जगत् को छाय (घेर) रक्खी है। यह सूर्य और पृथिवीकी मध्यस्थ मेघावरणके सदृश परमात्मा और जीवके मध्यभागमें वर्त्तमान रह करके परमात्माको * या सा नाहेश्वरी शक्तिर्ज्ञानरूपातिलालसा । व्योमसंज्ञा पराकाष्टा सैषा हैमवती सती ।। २५ ॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ श्रीमद्भगवद्गीता जीव-चक्षुसे छिपाय रक्खा है। लोग इस इच्छा शक्ति के वशसे ही + यह करूंगा, वह करूंगा, यह मेरा है, वह मेरा है; इत्याकार वासना -- विलास से मुग्ध - मोहित - ज्ञानहारा होता है; इसीलिये आवरण भेद करके अज और अव्यय परमास्माका स्वरूप जान नहीं सकते । परन्तु जो साधक भक्तिबलसे योगमायाका आवरण भेद कर सकते हैं, अर्थात् संसार-वासना त्याग कर सकते हैं; उनके आंख के पिनेवाला परदा खुल जाती है, साधकको भी सब देखने में आता है और परमेश्वर भी उसके पास प्रकाश होता है । इसीलिये भगवान् ने कहा है कि - " मैं सबके पास प्रकाशित नहीं हूँ" अर्थात् भगवान्, भक्त और ज्ञानीकेपास सदा प्रकाशमान है, अभक्त और अज्ञानी के पास ही अप्रकाश है ॥ २५ ॥ वेदाहं समतीतानि वर्त्तमानानि चार्जुन । भविष्याणि च भूतानि मान्तु वेद न कश्चन ॥ २६ ॥ अन्वयः । हे अर्जुन ! अहं समतीतानि (विनष्टानि ), वत्तमानानि च भविष्याणि च (भावीनि च ) भूतानि (त्रिकालवर्तीनि स्थावरजङ्गमानि सर्वाणि ) वेद ( जानाभि ), तु किन्तु ) मां कश्चन ( कोऽपि ) न वेद ( वेत्ति ) ।। २६ ।। 9 अनुवाद । हे अर्जुन ! भूत, भविष्यत् वत्तीमान तीनों कालके भूत समूहको मैं जानता हूँ, परन्तु मुझको ( वह लोग ) कोई नहीं जानता ॥ २६ ॥ व्याख्या । “मैं” अर्थात् परमात्मा वा परमेश्वर नित्य-शुद्ध-बुद्धमुक्त स्वभाव सम्पन्न है । वह वाणि-विलास में मायाभुक्त होनेसे भी सदा ही मायातीत है; क्योंकि, परमेश्वर मायाके आवरण से मूढ़ताको प्राप्त नहीं होते। वह परिणाम- शून्य और निरहंकार है; इस कारण से, जगत् में भूत-भविष्यत् - वर्त्तमान काल भेद रहने पर भी, उसके पास सबही वर्त्तमान है; - वह सर्वज्ञ है । जीवगण अहंकार - युक्त होनेसे अल्पज्ञ है; इसलिये उसको जान नहीं सकते। जैसे आकाशमें मेघका Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७ सप्तम अध्याय सञ्चार होकर सूर्य छिप जानेसे लोकचक्षु उस मेघावरण भेद करके सूर्यको प्रकाश नहीं कर सकता। अर्थात् सूर्यको देखने नहीं पाता, परन्तु मेघ जितना ही धना होय, सूर्यकी ज्योति उसको भेद करके जगतको प्रकाश करती है; अल्पज्ञ जीव और सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान ईश्वर में भी ठीक वैसा ही प्रभेद है। जो साधक साधनाके धन ज्ञान-भक्ति द्वारा अहंकारका नाश कर सकते हैं। उनके चक्षुकी ज्योतिसे आवरण शक्तिका नाश होता है, वा हीन प्रभा हो जाता है, इस कारण करके परमेश्वर साधकके पास प्रकाश होता है ॥ २६ ॥ इच्छाद्वषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत । सर्वभूतानि सम्होहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥२७॥ अन्वयः। हे भारत परन्तप ! सर्गे (स्थूलदेहोत्पत्तौ सत्यां ) सर्वभूतानि इच्छाद्धषसमुत्थेन ( इच्छाद्व पोद्भवेन ) द्वन्द्वमोहेन (शीतोष्ण-सुखदुःखा दिद्वन्द्वनिभित्तो मोहो विवेकभ्रंशः तेन ) सम्मोहं यान्ति ( अहमेव सुखोदुःखीचेति गाढ़तरमभिनिवेशं प्राप्नुवन्ति ) ॥ २७ ॥ अनुवाद। हे भारत परन्तप ! स्थूल देह उत्पन्न होनेसे ही प्राणियां इच्छाद्वेष-जनित द्वन्द्व मोहसे मोह प्राप्त होते हैं ॥ २७ ॥ व्याख्या। जीव कब योगमायाके वशमें पड़के अज्ञानान्ध होता है ? इस प्रकारका प्रश्न उठाकर उसका उत्तर स्वरूप इस श्लोकमें कहा हुआ है कि, जीव जन्म लेते मात्र ही योगमायाके आधीन होता है। जिस समय जीवका सर्ग अर्थात् स्थूल शरीर धारण वा जन्म होता है, तत्क्षणात् उसके मनमें इच्छा-द्वषका सञ्चार होता है अर्थात् शारीरिक स्वच्छन्दताके प्रति इच्छा और अस्वच्छन्दताके प्रति द्वष आता है। इस इच्छा द्वषके आनेसे ही द्वन्द्वमोहकी उत्पत्ति होती है। अर्थात् जीव स्वच्छन्दतामें सुखबोध करके स्वस्थ (चुपचाप) रहता है, और अस्वच्छन्दतामें दुःखबोध करके रोता रहता है। इस -२२ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ श्रीमद्भगवद्गीता प्रकारसे सुख-दुःख प्रभृति मोहमय दोनों भावके वशीभूत होकरके अपने ( "मैं" ) को भूल जाता है, संसारके तरङ्गमें मोहित होके रहता है ॥२७॥ येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् । ते द्वन्द्वमोहनिमुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥२८॥ अन्वयः। तु ( किन्तु ) येषां पुण्यकर्मणां ( पुण्याचरणशीलाना ) जनानां पापं (मनसः चाश्चल्यं ) अन्तगतं (नष्ट ), ते द्वन्द्वमोहनिम्मु काः ( द्वन्द्वनिमित्ताने मोहेन निम्मु काः ) दृढ़वताः ( एकान्तिनः सन्तः ) मा भजन्ते ॥ २८ ॥ __ अनुवाद। परन्तु जो सब पुण्यकर्मा लोगोंका पाप विनष्ट हुआ है, वह लोग द्वन्द्व मोहसे मुक्त और दृढ़वत हो करके मुझको भजते रहते हैं ॥ २८ ॥ व्याख्या। जिस कर्मसे शरीर और मन पवित्र होता है, उसी को पुण्यकर्म कहा जाता है। सात्त्विक आहार, सात्विक व्यवहार, साविक क्रिया,-इन सभोंसे शरीर पवित्र होता है, अर्थात शरीरमें मत्तता तथा ग्लानि विहीन निर्मल ईश्वरीय तेजका सञ्चार होता है; और प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि इन सब साधनासे मन पवित्र होता है। इस कारण शरीर और मनको पवित्र करनेवाला यह सबही पुण्यकर्म है; और इन सब पुण्यकर्म जो लोग करते हैं। वह लोग पुण्यकर्मा है। पुण्यकर्मा होनेसे ही पाप नष्ट होता है। शरीर और मनके मैलका नाम पाप है। रजस्तमप्रधान रस शरीरका मैल है; यह मैल आनेसे कूटस्थमें आत्मज्योति-प्रतिफलन-शक्तिका हास होता है, तब और अन्तर्दृष्टिसे कुछ भी लक्ष्य नहीं होता। विषयासक्ति और अनुदारता मनके मैल हैं; मनका मैल ही विषम अनिष्टकरी है, क्योंकि, इस मैलके रहनेसे साधन पथमें अग्रसर नहीं हुआ जाता। पाप नष्ट होनेसे ही द्वन्द्वमोहसे मुक्ति पाई जाती है, अर्थात् वैषयिक सुख दुःखमें और अभिभूत नहीं होने पड़ता। अतएव Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय ३३६ तब और कोई किन नहीं रहता, दृढ़व्रत भी हुआ जाता है । इसी अवस्थापन्न लोग ही परमात्माका भजन करते हैं अर्थात् अभेदभावसे परमात्माका साक्षात्कार लाभ करते हैं ॥ २८ ॥ जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये । ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥ २६ ॥ अन्वयः । ये ( जनाः ) जरामरणमोक्षाय ( जरामरणयोनिरासनार्थ ) माँ आश्रित्य ( मत्समाहितचित्ताः सन्तः ) यतन्ति, ते तत् ( परं ) ब्रह्म विदुः, कृतस्नं ( समस्तं ) अध्यात्मं ( विदुः ), अखिलं ( सरहस्यं ) कम्म च ( विदुः ) ॥ २९ ॥ अनुवाद | जो लोग जरामरण निवारण करनेके लिये मुझको आश्रय करके प्रयत्न करते हैं, वह लोग तद् ब्रह्म, समस्त अध्यात्म, और अखिल कम्र्म्मको जानते हैं ।। २९ ।। व्याख्या । जरामरणही जीवकी श्राति है। शरीरके जीर्णताका नाम जरा, और जिस प्रकार से देह त्याग होनेसे पुनराय देह धारण करना पड़ता है, उसीका नाम मरण है । जरामरण निवारण करनेके लिये जो जो साधक भगवत्सेवामें नियुक्त होते हैं, वही लोग आतं भक्त हैं। आर्त्त भक्त ही क्रमोन्नति द्वारा जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी होते हैं, इसलिये तद्ब्रह्म, अध्यात्म और कर्म्मको सम्पूर्णरूप करके जान सकते हैं। ब्रह्म एक अद्वितीय होने पर भी, जगत् रचना - व्यापार के हिसाब से उसके तीन अवस्थायें हैं । वह तीन अवस्था यथा, - कार्य्यब्रह्म, शब्दब्रह्म और परब्रह्म है । कार्य्यब्रह्म - जीव जगत है; इसीको 'वर' कहते हैं । शब्दब्रह्म - परमेश्वर है; यह जीव जगत के आश्रय, कूटस्थ 'अक्षर' पुरुष है; इसलिये यह सगुण है । और जो परब्रह्म है, वह क्षर-अक्षर से अतीत उत्तम पुरुष है; उत्तम अर्थ में उत् + तम अर्थात तमो वा मायाके ऊर्ध्व में - मायातीत वा गुणातीत; अतएव परब्रह्म निर्गुण है । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० श्रीमद्भगवद्गीता निगुणकी उपासना नहीं होता। सगुणकी उपासना द्वारा निगुणमें परिणत होने होता है। इसलिये भगवान्ने कहा है, कि मुझको अर्थात् सगुण अक्षर ब्रह्म परमात्माको आश्रय करनेसे ही जीव सर्वज्ञ हो करके अध्यात्म और कर्म आदि सब कुछ जान सकता है, तथा निर्गुण ब्रह्मको भी प्राप्त होता है * ॥ २६ ॥ साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञच ये विदुः। प्रयाणकालेऽपि च मा ते विदुयुक्तचेतसः ।। ३० ॥ अन्वयः। ये साधिभूताधिदैवं साधियज्ञं च मां विदुः (जानन्ति ), ते प्रयाणकाले अपि च ( मरणकाले अपि ) युक्तचेतसः ( समाहितचित्ताः सन्तः ) मां विदुः (जानन्ति ) ॥ ३०॥ अनुवाद। जो लोग मुझको अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञके साथ जान सकते हैं, वह लोग मरण कालमें भी युक्तचित्त हो करके मुझको जान सकते है।॥३०॥ ध्याख्या। मृत्युकाल विषम काल है। जप, तप जो कुछ है इसी समयके लिये है। मृत्युके अव्यवहित पूर्वमें जीवात्मा सूक्ष्म शरीरको * अक्षर ब्रह्म ही आश्रयणीय है,-क्षर ब्रह्म और परंब्रह्म आश्रयणीय नहीं है, उसे उदाहरण द्वारा समझाया जाता है। जैसे जलका कठिन, तरल और वाष्प्य यह तीन अवस्थायें हैं, इसके भीतर तरल अवस्था ही जीवका जीवन है, उसीसे जीविका सम्पादन होती है; कठिन अवस्था जीविकाका विघ्न उत्पादन करता है; और वाष्प्य अवस्था आयत्तातीत है; परन्तु विद्वान विद्या-बलसे तरलसे ही इच्छामात्र कठिन और वाष्प्य अवस्था उत्पादन कर सकते हैं।-ठीक इसी प्रकार कार्यब्रह्म जीवके बन्धन, और परं ब्रह्म साध्यातोत है; शब्द ब्रह्मही अभीष्टप्रद है। यह मन्त्ररूपी है। इसको एकान्त मन करके अवलम्बन करनेसे ही यह मनोहर चिद्धन रूपसे प्रत्यक्ष होता है; तब सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान हो करके इच्छानुसार सर्वव्यापी तथा परं ब्रह्ममें लोन हुआ जाता है ॥ २९॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय ३४१ करता है; तब जन्म-जन्मान्तरीण कर्मसंस्कार समूह इकट्ठ उपस्थित होकरके उनको आक्रमण करता है, मृत्यु भी बल पूर्वक उसके स्थूल देह के साथ संस्रव छिन्न करता रहता है। इस अवस्थामें जीव यन्त्रणाके मारे अस्थिर और किंकर्तव्य-विमूढ़ होयके आत्मविस्मृत हो जाता है। इसलिये देहत्यागके साथ पुनर्जन्मका बीज स्वरूप किसी एक संस्कारको अवलम्बन करके चला जाता है। किन्तु जो साधक साधनफलसे परमात्माका आश्रय ले सकें, उनको तद्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ * सब मालूम होनेसे, मृत्युकालमें मृत्यु यन्त्रणासे अभिभूत नहीं होते; वह पुरुष मृत्युके पूर्वलक्षण जानते मात्र ही पञ्चतत्वों के ऊपर कूट भेद करके सहस्रार ब्रह्मपदमें उठ जाते हैं । उस अवस्थामें मृत्युयन्त्रणा और पूर्वसंस्कार उनको छू नहीं सकता। अतएव वह साधक विचलित वा आत्मविस्मृत न होकरके युक्तचित्तही हो रहते हैं, परमात्माको प्राप्त होते हैं और उसीमें मिल जाते हैं ॥ ३०॥ इति श्रामद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्र श्रीकृष्णार्जुन संवादे ज्ञानविज्ञानयागो नाम सप्तमोऽध्यायः * यह सब क्या है, सा अष्टम अध्यायके ३१४ श्लोकमें भगवद् वाक्यसेही प्रकाश है, देखिये ॥ ३०॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मष्टमोऽयायः -:: अर्जुन उवाच । किं तद् ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम । अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ॥ १ ॥ अधियक्षः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन । प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ॥ २ ॥ अन्वयः । प्रजुतः उवाच । हे पुरुषोत्तम ! तत् ब्रह्म किं ? अध्यात्मं किं ? कर्म्म किं ? अधिभूतं च किं प्रोक्त ं ? किं च अधिदैवं उच्यते ? हे मधुसूदन ! अत्र देहे अधियज्ञः कः, कथं ( केन रूपेण ) अस्मिन् ( देहे स्थितः ) ? प्रयाणकाले ( मरणकाळे ) च नियतात्मभि: कथं ( केन उपायेन ) ( त्वं ) ज्ञेयः प्रसि ? ॥ १ ॥२॥ अनुवाद | अर्जुन कहते हैं । हे पुरुषोत्तम ! तद्रह्म क्या? अध्यात्म क्या है ? और कर्म भी क्या है ? अधिभूत किसको कहते हैं ? और अधिदेव भी किसको कहते हैं ?, और देहके भीतर अधियज्ञ कौन है - किस प्रकार से यहां रहते हैं ? हे मधुसूदन । संयतचित्त योगीगण मरण कालमें तुमको किस उपायसे जान सकते हैं ? ।। १ ।। २ ।। व्याख्या | श्रीभगवान्ने पूर्व अध्यायके शेष दो श्लोकों में जो सात पदार्थों की कथा कह चुके, तत्वजिज्ञासु साधक (अर्जुन) उन सबको समझ करके अपने आयत्त में कर लेनेके लिये आत्म-जिज्ञासामें सात प्रश्न करते हैं - (१) हे गुरुदेव ! यह जो आपने ब्रह्मकी कथा कहते हैं, वह ब्रह्म क्या है ? (२) अध्यात्म क्या है ? (३) कर्म क्या है ? (४) अधिभूत किसको कहते हैं ? (५) अधिदेव किसको कहते हैं ? (६) इस देहमें अधियज्ञ कौन है ? किस प्रकार से वह यहाँ रहता है ? (७) प्रयाणकाल में ( मृत्युकाल में देह छोड़कर चले जानेके समय ) किस उपाय करके आपको जाना जाता है ? यह सब प्रश्न Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३ . अष्टम अध्याय करनेके समय साधक भगवान्को पुरुषोत्तम और मधुसूदन ( दो) भावसे प्रत्यक्ष करते हैं अर्थात् साधक अब क्षरब्रह्म ( पञ्चतत्त्व ) से सम्बन्धविहीन हो करके कूटस्थमें अक्षर ब्रह्मके समीपवर्ती होकर देखते हैं कि, कूटस्थचैतन्य श्रीभगवान्ही अक्षरातीत निरञ्जन पुरुष-पुरुषोत्तम हैं, पुन: यह पुरुष ही पञ्चतत्त्वमें विषय-भोगाकांक्षा रूप मधु (मिठास ) का नाशक-मधुसूदन है। इसलिये इन दो श्लोकोंमें साधक भगवान्को पुरुषोत्तम और मधुसूदन नामसे सम्बोधन किये हैं। और भी, विपदकालमें भगवान् मधुसूदन रूपसे ही आश्रय होते हैं; जीवका प्रयाणकाल ( मृत्युसमय ) से बढ़कर विपद और नहीं है। अतएव अर्जुन प्रयाणकालकी कथा कहते समय सधुसूदन नाम कहे हैं। [ पुरुषोत्तम की व्याख्या १५ श अः १८ श्लोक और मधुसूदन की व्याख्या १म अ: ३४ श्लोकमें देखो] ॥१॥२॥ श्रीभगवानुवाच। अक्षरं परमं ब्रह्म स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते । भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥३॥ अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् । अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतांवर ॥ ४ ॥ - अन्वयः। श्री भगवान् उवाच। ( यत् ) परमं अक्षरं ( तत् ) ब्रह्म, स्वभावः अध्यात्म उच्यते, भूतभावोद्भवकरः विसर्गः कर्म संज्ञितः हे देहभृतां वर ! क्षरः भावः अधिभूतं, पुरुषः अधिदैवतं, अत्र देहे अहं एव अधियज्ञः च (उच्यते) ॥३॥४॥ अनुवाद। श्रीभगवान् कहते हैं-परम जो अक्षर वहो ब्रह्म है; स्वभावही अध्यात्म नामसे उक्त होता है; जो विसर्ग ( यज्ञ ) भूतभावका उद्भव करनेवाला, उसीका नाम कम है। हे देहीश्रेष्ठ ! जिसका क्षय है, उसको अधिभूत कहते हैं। पुषही अधिदेवता है, और इस येइके भीतर "मैं" ही अधियज्ञ हूँ॥३॥ ४ ॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। "भगवान्”—“ऐश्वर्य्यस्य समग्रस्य वीर्य्यस्य यशसः श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षष्णां भग इतीङ्गना'... जिसमें इन छःओंके एकाधारमें समावेश है, वही भगवान है। यह जो सात प्रश्न उठा है, इसका मीमांसा उस श्रीमुख बिना और किसी मुखसे बाहर नहीं हो सकता; इसलिये मुक्तात्मा निजबोधक रूप भगवान् साधकका प्रश्न मीमांसा कर देता है;-अर्थात् साधक कूटस्थ श्रीबिन्दु में चित्तसंयम करके स्वयं अपने मनही मनमें अपने प्रश्न का उत्तर करता है (१) "अक्षरं परमं ब्रह्म"--जिसमें परिणाम नहीं, अदल बदल नहीं, चिरनित्यत्व विद्यमान है; वही 'ब्रह्म” है। _ "अक्षर”-जिसमें परिणमनता नहीं-"कूटोस्थोऽक्षर उच्यते”— कूटमें पड़ करके जो एक होकरके भी नाना आकार धारण करता है। कूटका अर्थ और विवरण ४र्थ अः ५म श्लोकमें देखी। कूट अर्थमें सोनारके निहाईको भी समझाता है, जिसके ऊपर फेंककर सोना कूटा ( पिटा ) जाता है। उस कूट के ऊपर पड़ करके जैसे एक सोना नाना प्रकारका रूप धारण करता है, नाना नाम पाता है, फिर गलाय देनेसे नाम और रूप उड़ जाकर वह जैसेका तैसाही रहता है, उसी प्रकार एक चैतन्यधन “कूट में" (प्रकृति-पटमें ) प्रतिबिम्बित होकरके नाना रूप धारण करता है, प्रातःकाल यवों के बालियोंपर ओसकगमें सूर्य-किरण पड़ करके जैसे नाना रंग दिखाई पड़ता है, परन्तु ओसकण एक ही एक रहता है और वह जैसे सूर्यगतिकी महिमासे होता है, तैसे प्रकृतिको कार्यकारिणी शक्तिसे एकही "चैतन्य" विश्वसाजको सज लिये हैं; इसीको 'कूटस्थ' कहते हैं। जैसे बाहरका सोनार बाहरके कूटपर सोना कूटता है; भीतरमें भी वैसा एक स्थान है (जिसको कूट कहते हैं ), जहाँ एक दृष्टिमें देख रहा हूं, आंखका पलक नहीं गिरता, तथापि देखता हूँ, एकही पदार्थ एकही जगहसे Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५ अष्टम अध्यया इतना आकार धारण कर लेता है कि, किस प्रकारसे, कहांसे, क्या करके, क्या होता है, और कौन करता है, वह समझमें नहीं आता। वही कूट और कूटस्थ है, उसीको 'तत्' कहते हैं। यह 'तत्' कैसा है ? यथा- "तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः दिवीव चक्षुराततम्"। इस “तद्ब्रह्म" को अन्धा बनकर देखना होता है । जो लोग देखते हैं, वह लोग आकाशमें एक विस्तारित (देखता हुआ) आँख सरोखे देखते हैं। जैसे आखके चारों दिशा सुफेद और बीच में काला है, वैसे इस तत्पदमें भी (चन्द्र, सूर्य, अग्निके प्रकाश बिना) कैसा एक अनिर्वचनीय प्रकाशको चारो दिशामें लेकर ठीक बीचमें बिजली घोरा हुआ गाढ़ा बैगनी चिकन काला गोलक प्रत्यक्ष होता है, उसीको विष्णुका परमपद कहते हैं। इस परमपदका और भी विवरण यह है "कोदण्डद्वयमध्यस्थं पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषा। कदम्बगोलकाकारं ब्रह्मलोकं व्रजन्ति ते"- अर्थात् गुण लगा हुआ दो धनुष के मुख मिलाकर देखनेसे जिस प्रकार ( अण्डा सरीखे ) आकार होता है, उसीके बीचमें स्थित कदमके फूल सदृश एक गोलक है; जो लोग ज्ञानचक्षु द्वारा यह गोलक देखे हैं, वह लोग ब्रह्मलोकमें गमन करते हैं। इसलिये इसका नाम विष्णुका परम पद है । वह जो डिम्बाकार के भीतर कदम्बाकार गोलक देख पड़ता है, वह दोनोंही सीमाशून्य और एक है। मस्तकके ऊपरमें जैसे आकाश सीमाबद्ध गोलक दिखाई पड़ता है, अथच वह चक्षुके दृष्टिमें थोड़ासा होनेसे भी महान् असीम है, यह भी तसे सीमाशून्य अवधि रहित महान् है; इसलिये इसको 'तद्ब्रह्म कहते हैं। (२) "स्वभाव"-स्व शब्दमें अपना और भाव शब्दमें क्या, वह नहीं कहा जा सकता। किन्तु कहनेसे जो लोग कहते हैं वह इस प्रकारका है,-जगत्में जीव स्त्री और पुरुष हैं। इस स्त्री स्त्रीमें वा पुरुष पुरुषमें भाव नहीं होता; क्योंकि, जबतक आकांक्षा रहेगी, तब Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ श्रीमद्भगवद्गीता तक इस शान्तिमय अवस्थाका प्रकाश नहीं होता। जब स्त्री पुरुषको और पुरुष स्त्रीको प्राप्त होकर दोनोंकी आकांक्षा निवृत्ति कर चुके, दो मिलकर एक हो चुके-यह जो उद्घ गशून्य विश्राम-अवस्था वा चरितार्थ-अवस्था है, यही 'भाव' कहलाता है। गुरुवाक्यमें अटल विश्वासकी आसक्ति पर्य्यन्त भी जिस अवस्थामें लय हो जाती है, किसी वृत्तिका भी क्षयोदय नहीं रहता, ऐसे अकम्पन अवस्थाको भावावस्था कहते है। इतने दिन जो बुद्धि मनके किंकरी सदृश एकही शब्द-स्पर्श-रूपरस-गन्धका निश्चयता बार बार करा कर नवीन आकारमें उन सबको मनके पास ले जाकर मन-भुलानेवाला ( मनमतवारिया) मूर्ति कर देती थी, आज वही बुद्धि बहिमुखी वृत्ति छोड़ कर अपने प्राणके प्राण 'अहं' को आश्रय कर चुकी, इसीलिये स्वभावका और एक नाम "अध्यात्म” है। अधि = प्रधान; जिसका प्राधान्य है, वही प्रधान है। इस जगद्-व्यापारका भला बुरा जो निश्चय करे, वही प्रधान है। जगत् अनित्य और आत्मस्वरूपही नित्य है-इसे निश्चय करती है इस करके ही 'अधि' अर्थमें निश्चय त्मिका बुद्धि, और 'आत्म' अर्थमें “मैं” है; अर्थात् बुद्धिकी आत्ममुखी दृष्टिका नाम अध्यात्म है। मेरी बुद्धि. 'मैं' हो जानेका नाम अध्यात्म है। (३) "भूतभावोद्भवको विसर्गः कर्म संज्ञितः" - कालका भूत, भविष्यत , वर्तमान इन तीन अवस्थाके भीतर भूत अति सूक्ष्म, और भविष्यत अपरिज्ञात है। परन्तु इन तीन अवस्थाओं में ही कालका परिणमनता समझा जाता है। जो जन्म नहीं लिया है, वह किस प्रकारके आकारसे, कैसे और किस स्आनमें है, कुछ मालूम नहीं होता; मालूम करने का कोई उपाय भी नहीं है, परन्तु जैसे जन्म लिया, तत्क्षणमें हो वर्तमान हुआ। पुनः जन्म के साथही साथ कला, काष्ठा, क्षण, जैसे होते गये, वैसे ही वह भूतके गर्भमें पड़कर भूत हो Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय ३४७. जाने लगा। इसलिये कहते थे कि कालका जो अवस्था अपरिज्ञात है, वही भविष्यत् है; कालका जो अति सूक्ष्म वा व्यक्त अवस्था है, वही वर्तमान है; कालका जो अति स्थूल अवस्था है, वही भूत है। यह जो कर्मभुक् काल का गर्भस्थ प्रलीन अवस्था, लय अवस्था वा परिणाम अवस्था है, इस अवस्थाको भूत कहते हैं, अर्थात् जो जन्मता है. जन्म लेकरके थोड़े दिन रहता है, पुनः जन्म लेनेके पहले जैसे अपरिज्ञात था, तैसे परिणामके कृपासे अपरिज्ञात हो जाता है। यह भूत सत्व रज और तमोगुणका विकार लेकर पांच आकार धारण किया है। उन सबका नाम-आकाश, वायु, तेज, जल और पृथिवी है। इन सभों का एक एक गुण भी है। आकाशमें शब्द गुण; वायुमें शब्द और स्पर्श गुण, तेजमें शब्द, स्पर्श और रूप गुण; जलमें शब्द स्पर्श, रूप और रस गुणः पृथिवीमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध गुण है। इस दृश्यमान जगत्में जो तुम देखोगे, वह सबही इन भूतोंके अन्तर्गत हैं। जब यह सब कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ था, तबही अपरिणामी अखण्ड ब्रह्म कहा जाता था। इसी सव-समष्ठिमें जब व्यष्टि भावका प्रारम्भ होता है, तबही दो विन्दु होते हैं,-पहला अपरिणामी और दूसरा परिणामी। एक ही ब्रह्मके सत और असत् रूपसे इन दोनों विन्दुमें परिणत होना ही विसर्ग ( वि= विशेष+सर्ग-सृष्टि ) है। इसी विसर्ग द्वारा अपरिणामीसे परिणामीका विस्तार प्रारम्भ होता है। यह प्रारम्भही भूतभाव है; और इस प्रारम्भकी वृद्धिका नाम उद्भव है। यह उद्भव संसारमुखमें सृष्टि वृद्धि करता है, और ब्रह्ममुख में सृष्टिका लय करता है; अर्थात् संसारमुखमें उन दोनों विन्दुसे बहुस्वकी सृष्टि होती है, और ब्रह्ममुखमें वह दो विन्दु मिलकर एक हो जाता है। यह सृष्टि और लय करनेवाला विसर्गही कर्म * है। * ४र्थ अः १७ वा श्लोककी व्याख्यामें कर्मका व्याख्या दिया हुआ है, देखो। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ श्रीमद्भगवद्गीता (४) 'अधिभूत'-वह जो कालत्रयसे खण्डित, षट् विकार-सम्पन्न* मर्त्य, नाशमान वा क्षरभाव है, बुद्धि जब आत्माको परित्याग करके इन सबको लेकर खेलती रहती है, तबही अधिभूत अवस्था कहा जाता है। (५) 'पुरुष'-पुरमें जो सोया हुआ है, उसोको पुरुष कहते हैं । पुर कहते हैं घग्को। चारो दिशामें दिवाल देकर आकाशको घेर लेने से भीतरमें जो जगह रहता है, उसोको पुर कहते हैं। इस देहरूप पुरके भीतर, चैतन्यरूपसे जो सो रहे हैं, वही पुरुष हैं, अर्थात् चित्तपटमें प्रतिविम्बित जो “चिच्छाया” वा अभिव्यङ्ग चैतन्य है, वही पुरुष है-वही चित्तरूप पुरमें सो ( प्राप्त होकर ) रहा है। ___ बुद्धि जब बहिर्मुखी वृत्ति परित्याग करके इस पुरुषको लेकर खेलता रहे, आलोचना करती रहे, और समझती रहे, तब "अधिदेव" अवस्था कहता है। अधि अर्थमें बुद्धि; यह पहले कह चुके हैं। अब 'देव' कहते हैं। द+एव= देव; 'द' शब्दमें स्थितिका स्थान अर्थात् योनि है, और 'एव' शब्द में यह है। बुद्धि जब "हमारी स्थितिका स्थान यह है"-कह करके उस ईश्वर स्वरूपमें मिल जानेके लिये चेष्टा करें वा मिल जाय, उस अवस्थाको ही "अधिदेव" कहते हैं । __ (६) "अधियज्ञ”-अधि = बुद्धि, यज्ञ =ग्रहण और त्याग है। यह जो बहिराकाशमें अमृतमय वायु विचरता है, वह वायु जब शरीरके भीतर प्रवेश करता है, तब शरीरके गरमीसे जलकर विष हो जाता है। विष होतेही उसकी बहिर्मुखी गतिका प्रारम्भ होता है, और धीरे धीरे वह विष बाहर निकल जाता है। यह जो अमृतमय वायुके आकर्षण और विषका विकर्षण है आपही आप होता रहता है। नासारन्ध्रके भीतर गल-गह्वरके नीचे पहुँचनेसे चावल कूटनेवाले ढंकी सरीखे एक यन्त्र है, और दो नली हैं-एक पायु नली और दूसरी * अस्ति, जायते वद्ध'ते, विपरिणमते, अपक्षीयते, घिनश्यतोति षट विकाराः । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय ३४६ खाद्य नली। खाद्य पानीय आदि जो सब द्रव्य मुख द्वारा शरीरके भीतर दिया जाता है, उसे वह ढेंकी-यन्त्र वायु नलीको बन्द करके जल और खाद्य जानेवाले नलमें प्रेरण करता है वा चलाय देता है, और जब केवल निश्वास प्रश्वास प्रवाहित होता है, तब वह ढेकी यन्त्र जल और खाद्य नलका मुख बन्द करके वायुके नलमें वायुको चला देता है। वह वायु बरोबर नीचे मेरुदण्ड-संलग्न सुषुम्नाके ठीक मुखमें पहुंच कर सुषुम्नाके भीतर प्रवेश कर मूलाधार भेद करके, बज्राके भीतर प्रवेश करके, मणिपुर भेद करके, क्रम अनुसार अनाहत-विशुद्धआज्ञा भेद करके सहस्रारके मूल त्रिकोणमें पहुंचता है; पुनः ठीक उसी रास्तामें घुम आकर बहिराकाशमें विश्राम लेता है। यह जो वायुकी गति-ग्रहण और त्याग है, (गुरूपदिष्ठ क्रियाके द्वारा बुद्धि जब यह आकर्षण और विकर्षण यथारीति सम्पादन करती है, उसी अवस्थाको ‘अधियज्ञ' कहते हैं। इस शरीरके भीतर "अहं" ही यह अधियज्ञ है। 'अहं' शब्दमें आत्मा है; और 'अत्र'-(अं ब्रह्मणे स्थूल शरीराय, रजो गुणाय, संकल्प-विकल्पात्मक-मनोधर्मरूप-सृष्टिक्रियाय ) अर्थात् 'अ' शब्दके अर्थमें सृष्टिकर्ता ब्रह्माको समझाता है; स्थूल शरीर जाग्रतावस्था, रजोगुण, संकल्प-विकल्पात्मक मन न होनेसे ब्रह्मा बना जाता नहीं; अतएव यह सब वर्तमान रहते हैं। और 'त्र'-(तृ= तारणे) अर्यात् उन अवस्थाओंका त्राण वा विश्राम जहां होता है। (गुरूपदिष्ट क्रिया करनेवाले साधक लोग इस अवस्थाको जानते हैं और इस जगहको भी जानते हैं)। अत एव हे देहभृतांवर= देहीश्रेष्ठ ! जो कुछ तुम प्रश्न किये थे, वह सब तुम्हारे इस देह के भीतर है, देख लो, प्रत्यक्ष का प्रमाण आयश्यक नहीं होता ॥३॥४॥ . Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० श्रीमद्भगवद्गीता अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् । यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशकः ॥ ५॥ अन्वयः। अन्तकाले च मां एव स्मरन् कलेवरं मुक्त्वा यः प्रयाति, सः मद्भाव याति, अत्र संशयः न अस्ति ॥ ५ ॥ अनुवाद । अन्तकालमें जो मुझको स्मरण करते करते देह त्याग करे वह हमारे भावकोही प्राप्त होता है। इसमें संशय नहीं ॥ ५॥ व्याख्या। 8-१० श्लोकही अर्जुनके सप्तम प्रश्नका उत्तर है; अर्थात जिस उपायसे भगवान् प्रयाणकालमें ज्ञेय होते हैं वह उन दो श्लोकमेंही कहा हुआ है। परन्तु वह उपाय अभ्यास-सापेक्ष है। इसलिये भगवान्ने ५-८ श्लोकमें मृत्युकालके मानसिक अवस्थाका फल कह करके अभ्यास-प्रकरण कहा है। ५म श्लोकमें कहा है, अन्तकाल में मुझको स्मरण करके शरीर त्याग करनेसे, मद्भावको प्राप्त होता है; इसका कारण स्वरूप ईष्ठ श्लोकमें कहा है-जिस हेतु शरीर त्याग करनेके समय जो भाव स्मरण होता है, वही भाव प्राप्त होता है । इसीलिये ७म श्लोकमें सर्वकालमें 'मामनुस्मरन' और युद्ध (प्राणायामादि ) करनेको कहा है। तत्पश्चात् ८म श्लोकमें कहा है-इस प्रकारके अभ्यासयोगसे चित्त जब अनन्यगामी होता है, तब ही परमपुरुष प्राप्त होता है। यह सब बचन पूर्व सूचना स्वरूप कह करके, पश्चात हम-१०म श्लोकमें भगवान प्रयाणकालमें कौन उपाय और किस प्रकारसे ज्ञेय होते हैं कह कहा। इन श्लोकोंको क्रमान्वय पढ़नेसे सब समझमें आ जायगा।] ४. अब देख लो, उस अक्षर ब्रह्मसे लेकर इस अधियज्ञ पर्य्यन्त सब कुछ मेरे ही आश्रय करके रहता है, इसलिये मैं वासुदेव हूँ ( जिसके शरीरमें सब कुछ वास करे, जो सबका आश्रय है, इस जगत्के समस्त जीव जिनके शरीरका अङ्ग-प्रत्यङ्ग है, अथच जो शरीर वा शरीरी नहीं Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय है, वही वासुदेव है )। ऐसा जो "मैं", उस “मैं” को 'मैं जानकर ( अर्थात मातृ-पितृ अंश यह शरीर 'मैं' नहीं, इस ज्ञानसे ) जो शरीर को त्याग करे वही 'मैं' हो जाता है अर्थात आत्मस्वरूप लाभ करता है। इसमें संशय करनेका कोई प्रयोजन नहीं;-यह बात सच यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥६॥ अन्वयः। हे कौन्तेय ! अन्ते (अन्तकाले ) यं यं वा अपि भावं स्मरन् कलेवरं त्य नति, सदा तद्भावभावितः ( तस्य भावो भावनानुचिन्तनं, तेन भावितो बासितचित्तः ) तं तं ( स्मर्य्यमाणं भावं ) एव एति ( प्राप्नोति ) ॥ ६ ॥ अनुवाद। हे कौन्तेय ! सवंदा अभ्यास हेतु जिसके मन में जो भाव प्रबल होता है, वह अन्त कालमें उसी भावको स्मरण करते करते शरीर त्याग करता है, अतएव वह उसी भावनामय शरीरको ही प्राप्त होता है ॥ ६॥ व्याख्या। आयुः शेष होता है, पुनः मृत्यु आती है, यह जो सन्धि-समय है, इस समयमें जिस मनोवृत्तिसे जो शरीर (शेष निःश्वास ) त्याग करगे, वह उसी वृत्तिकी अनुरूप अवस्थाको पावेंगे। इसीलिये प्रति निश्वासके शेष अवस्था में उस तद्विष्णुका परमपद मन ही मनमें देखते देखते निश्वास त्याग करना उचित है। क्योंकि मैं तो नहीं जानता हूँ कि हमारा शेष निश्वास यही है वा नहीं। साधक को २१६०० बारके प्रत्येक बारमें ही हुंशियार होना चाहिये ॥ ६ ॥ तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्यं च । मय्यर्पितमनोवुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥७॥ - अन्बयः। तस्मात् सर्वेषु कालेषु मां अनुस्मर ( अनुचिन्तय ) युध्य च ( युद्धादिकं स्वधर्म कुरु ); मय्यपितमनोबुद्धिः ( मयि वासुदेवे अपितं मनः बुद्धिश्च येन सः त्वं, तथाभूतः सन् ) असंशयं मां एव एष्यसि ॥ ७॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद | अतएव सर्वकालमें मुझको स्मरण करो और युद्ध करो; तुम्हारा मन और बुद्धि हममें अर्पित होनेसेही तुम निःसन्देह ( संशय रहित मुझको हो पावोगे ॥ ७ ॥ व्याख्या । 1 इसलिये कहता हूँ, कि सर्वकालमें अर्थात् "सर्वदा " ( रात्रि साढ़े नौ बजे के बाद, साढ़े चार बजे पय्यन्तमें ) हमारा अणु (प्रणव) का स्मरण करते करते युद्ध ( प्राणायाम आदि क्रिया ) करो । युद्ध कहते हैं मारपीटको मारने जाओ तो एक बार उठाने होता है और एक बार फेंकना होता है; तुम भी जब श्वास (इषु) फेंकोगे और उठाओगे, तब गुरूपदेश अनुसार क्रिया से पृथिवी जलमें, जल तेजमें, तेज वायुमें, वायु आकाशमें, आकाश इन्द्रिय पञ्चकमें, इन्द्रियों को तन्मात्रा, तन्मात्रा अहंकार में, अहकार महत्तव में, और महतको जीव में योजना करोगे । इस प्रकार योजनाका नाम ही भूतशुद्धि है इस भूतशुद्धि द्वारा स्वरूपस्थ होके जीव - उपाधिको परित्याग करोगे । ऐसा होनेसे ही तुम संशय शून्य “मैं” हो जाओगे | क्योंकि मन-बुद्धिके ऊपर में ही "मैं" है, इन दोनों को हममें फेंकनेसे ही 'मैं' हुआ जाता है ॥ ७ ॥ अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना । परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥ ८ ॥ अन्वयः । हे पार्थ! अभ्यासयोगयुक्त ेन नान्यगामिना चेतसः अनुचिन्तयन् ( शास्त्राचाय्यपदेशमनुध्यायन् ) दिव्यं परमं पुरुषं याति ( गच्छति ) ॥ ८ ॥ अनुवाद । हे पार्थ! अभ्यास योग करके युक्त ( एकाग्र ) तथा अनन्यगामी चित्त द्वारा अनुचिन्तन करते करते (योगी) दिव्य परम पुरुषको प्राप्त होते हैं ॥ ८ ॥ व्याख्या | ऊपर में लिखा हुआ यह जो भूतशुद्धि और प्रकृतिलयका उपदेश है, मनमें स्मरण करते मात्र ही वह नहीं होता । पष्ठ अध्याय के उपदेश अनुसार बहु दिन अभ्यास करते करते साधक जब Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय ३५३ योगमें युक्त * हो जायगा, अर्थात् जब मन गुरूपदिष्ट क्रियामें मूलाधारसे योग्यस्थान हो करके चढ़ते चढ़ते कूटस्थ ब्रह्ममें पहुंच करके 'अहं ममत्व' एकदम भूल जायगा, जब केवल मात्र 'अकेले हूँ' को छोड़कर और कोई बोध न रहेगा, फिर भी, - क्रमानुसार 'अपने हूँ' इस प्रकार करके बोध भी न रहेगा, अथच चैतन्य विलुप्त न हो करके इक्षुरस में घोरे हुए चीनी सदृश चैतन्यधनमें एक हो करके मिल रहेगा, तबही 'योगयुक्त' और 'अनन्यगामी 'चेतन' कहा जावेगा । इसी अवस्था में षोड़शकलाविशिष्ट छाया विहीन अङ्गुष्ठमात्र तैजस पुरुष का दर्शन होता है ॥ ८ ॥ कवि पुराणमनुशासितार मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः । सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ॥ ६ ॥ प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव । भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपति दिव्यम् ॥ १० ॥ अन्वयः । यः प्रयाणकाले भक्त्या युक्त: ( सन् ) अचलेन मनसा योगबलेन च एव प्राणं भ्रुवोः मध्ये सम्यक् आवेश्य कविं पुराणं अनुशासितारं अणोरणीयांसं सर्वस्य धातारं अचिन्त्यरूपं तमसः परस्तात् आदित्यवर्ण अनुस्मरेत्, सः तं दिव्यं परं पुरुषं उपैति ॥ ९ ॥ १० ॥ * एक वस्तुको दूसरे वस्तुसे मिलाय देनेका नाम योग है; इसी तरह सोनेके साथ ताम्बेको गलाय देनेसे, दोनों गलकर एक हो जाता है सोनाही सोना भासमान होता है, ताम्बा नहीं पहिचाना जाता, तैसे सोनेके भीतर ताम्बा रहनेके सदृश, साधना द्वारा पुरुष में महामाया लयके पश्चात् साधक के पास और कभी माया विकार का प्रकाश नहीं रहता; ऐसा एक हो जानेका नाम युक्तावस्था कहते हैं ॥ ८ ॥ —२३ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद | जो साधक मरणकालमै भक्तियुक्त होकर स्थिर मन तथा योगबल द्वारा प्राण को दोनों के भीतर सम्यक् प्रकारसे प्रवेश कराकर, सर्वज्ञ, अनादि, नियन्ता, सूक्ष्मादपि सूक्ष्म, सकलका धारण कर्ता, अचिन्त्यरूप, मोहान्धकारातीत, आदित्यवर्ण प्रकाशस्वरूपको स्मरण कर सके, वही साधक दिव्य परम पुरुषको प्राप्त होता है ।। ९ ।। १० ।। व्याख्या । - ( ७ ) प्रयाणकालमें भक्तियुक्त होकर स्थिर मन और योगबल से प्राणको दोनों भ्रू के ठीक बीचमें सम्यक् प्रकारसे प्रवेश कराकर, 'कवि पुराणं' इत्यादि रूप स्मरण करनेसे ही उसी 'परमं पुरुषं दिव्यं' को पाया जाता है, अर्थात् (१) भक्ति, (२) योगबल से के मध्यभाग में प्राण को प्रवेश कराना, और (३) 'मामनुस्मरण' – इस तीन उपाय से ही भगवान् प्रयाणकालमें ज्ञेय होते हैं । यह जो पुरुष है, वही " कवि " ( हर बात में जो नया नया कहता है वही कवि ) । उस पुरुषको जब देखा जाता है, तब उससे तेजोमय पदार्थ इतना बाहर होता है कि पलहीन दृष्टिमें ताकता हूँ, अनन्त प्रकार का कितना क्या पदार्थ निकल जाता है, कहाँ से निकलता है वह नहीं समझ सकता हूँ, अथच एक पदार्थ दो बार नहीं देख पड़ता, केवल नये नये दृश्यका आविर्भाव; जो देखा है वही देखा है, इस करके समझाया नहीं जाता, इसलिये कहनेवाला 'कवि' कहा है । " पुराणं" - अनादिसिद्धं, चिरन्तनम् । अर्थात् इस पुरुषमें भूत भविष्यत् काल विभाग नहीं है, केवल वर्त्तमान ही विद्यमान है । साधक कृपा करके किञ्चित् परिश्रमके साथ क्रिया करनेसे ही इस विश्वश्वर हरिका दर्शन पाते हैं, इसलिये 'पुराण' कहा हुआ है । साधक ! आज ही जो तुम इसे देखते हो, और कभी कोई देखा नहीं वा देखेगा नहीं. ऐसा नहीं; काम करने वाला जो होवेगा, वही देखेगा । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय ३५५ 'अनुशासितार' अर्थात् यह पुरुष ही विश्वका नियन्ता है। इसके आंखके साथ आंख मिलानेसे, एक ही दृष्टिमें ताकते रहते हैं, ऐसे ही देखने में आता है। ज्योंही देखनेवालेके आंखका पलक गिरता है, त्योंही पुरुषको आवरण शक्ति झांप देती है, किन्तु पुरुष एक ही दृष्टि से साक्षी स्वरूप वहीं खड़ा है। जो मैं भला बुरा काम काज (पुण्य वा पाप ) करता हूं, पलहीन चक्षुसे उन सबको वह पुरुष देखता है; मेरे हक्शक्तिको प्रकृति आवरण कर देती है इस करके, उस पुरुषके पास प्राकृतिक आवरण कोई काम नहीं कर सकता ; इसीलिये वह पुरुष नियन्ता है। "अणोरणीयांसं"-अणुसे भी अणु, सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म है। यह जो पृथिवीका अणु देखते हो, इस पृथिवीके एक अणुके भीतर जलके दश अणु हैं, तैसे जलके एक अणुके भीतर तेजके दश अणु हैं, एक तेज के अणुके भीतर दश वायुके अणु, और एक वायुके अणुके भीतर दश आकाशके अणु हैं। अतएव भूतोंके भीतर आकाशसे सूक्ष्म भूत और कोई नहीं हैं। इस अाकाशके एक अणुके भीतर दश ब्रह्माणु रहते हैं। इसलिये कहता हूं कि, यह पुरुष इन्द्रियोंके ग्रहणीय नहीं है । मन इन्द्रियोंका राजा है; जबतक मन रहता है, तबतक इस पुरुषका दर्शन नहीं होता, इस कारण करके उपदेष्टाने इस पुरुषको अणुसे भी अणु कहके निर्देश किया। साधक जब स्थूलातिस्थूल पृथिवीके अणुसे उत्तरगति लेकर जल, तेज, वायु, आकाशसे भी सूक्ष्म ब्रह्माणु को आक्रमण करते हैं, तबही उनका 'अनुचिन्तन' होता है। "सर्वस्य धातारम्" - सबका धारण कर्ता । जब साधक आकाश के अणुको परित्याग करके ब्रह्माणुको आक्रमण करता है, तब वह निर्विकार साक्षी स्वरूप होकर पुरुषपदको प्राप्त होता है, और इस पार्थिव अणुसे जगदीश्वरी माया पर्य्यन्त जो कुछ विस्तार है, उन Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ श्रीमद्भगवद्गीता सबका ही धाता (धारक ) कह करके आत्माको (अपनेको ) प्रत्यक्ष करता है। इसलिये इस पुरुषको "सर्वस्यधाता” कहा गया है। "अचिन्त्यरूप” अर्थात् यह रूप चिन्ता करके मिल नहीं सकता ; क्योंकि, कृत कर्मका सोचना ही चिन्ता है। कृत कर्मके भीतर यह पुरुष नहीं है। जो कुछ कर्म है, उसके ठीक ऊपरमें ही यह पुरुष है। इसीलिये "अचिन्त्यरूपम्" है। ___ "आदित्यवर्ण"-अर्थात् ज्योंही साधक आकाशका अणु परित्याग करके ब्रह्माणुको आक्रमण करेंगे, त्याही प्रकाशमय आदित्यरूप सूर्य्य सदृश दीप्तिशाली ( मलस्वरूप मनोबुद्धिके अगोचर) निजबोध रूप भास्वर इस पुरुषमें आ पड़ते हैं । इस पुरुषमें आ पड़ना भी वही है जो साधकका मर-जगतके साधनाका शेष सीमा है। यहाँसे फिर कर पुनः पार्थिव अणुमें न जाना ही "युक्तावस्था" है। साधकका इस पुरुषमें पहुँचनेके पहलेसे हुँशियार होना उचित है। ऐसा होनेसे ही और पुनरावृत्ति नहीं है। जब आकाशका अणु परित्याग करके ब्रह्माणुमें जाना होता है, तब पूर्व पूर्व श्लोक कथित क्रमानुसार आज्ञाचक्रमें आनेसे ही मन और प्राण साथ ही साथ उस पुरुषाभिमुखमें लक्ष्य करता है, इसलिये अचल, अटल स्थिर हो जाता है। इस समय क्रियाशीला प्रकृति निष्क्रिय ब्रह्म-मिलनमें सचेष्ट होती है इस करके, माया-ब्रह्मका संयोग प्रारम्भ होता है। जैसे सागर-संगममें गंगाका वेग पड़कर धीरे धीरे प्रशान्त मूत्ति धारण करके सागर हो जाता है, तैसे जब जीवभाव प्राकृतिक लीलामय पीठसे खेल उठाकर शिवभावके पीठमें घुमके बैठता है, तत्क्षणात् यह पुरुष हो जाता है। जबतक प्राणवायु भ्र मध्यमें उठकर अज्ञानचक्र भेद न करे, तबतक ही चञ्चलता है। जब आज्ञाचक्र भेद करके ऊपर उठ जाती है, तत्क्षणात् निष्कामताका प्रारम्भ होता है और इस अवस्थाकी प्राप्ति होती है। ॥१०॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___३५७ अष्टम अध्याय यदक्षरं वेद विदो वदन्ति विशन्ति यद् यतयो वीतरागाः। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥ ११ ॥ अन्वयः। वेदविदः ( वेदार्थज्ञाः ) . यत् अक्षरं वदन्ति, वीतरागाः यतयः यत् यस्मिन् ) विशन्ति, यत् (ज्ञातुम्) इच्छन्तः ब्रह्मचर्य चरन्ति, तत् पदं (प्राप्त्युपायं) ते ( तुभ्यं ) संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥ ११ ॥ अनुवाद। वेदवेत्तागण जिनको अक्षर कहते हैं, अनुराग बिहीन यतिगण जिनमें प्रवेश करते हैं, जिनको जाननेके लिये इच्छुक होकर ( साधकगण ) ब्रह्मचर्य व्रत पालन करते हैं, उस पद ( प्राप्तिका उपाय ) तुमको संक्षेपसे कहता हूँ ॥ ११ ॥ व्याख्या। जो वेद नहीं पढ़े, वह सब इतर हैं ; वेद पाठ किया है परन्तु वेदका अर्थ परिज्ञात नहीं हुआ, ऐसे पुरुषोंको भद्र कहा जाता है ; जो वेद पाठ किये हैं, और श्रीगुरुदेवके कृपासे वेदार्थका परिज्ञान लाभ कर चके हैं उन्हींको 'वेदवित् कहते हैं । 'वेद' (विद्+घञ ) अर्थात् ज्ञान। इस ज्ञानको जो जान चुके हैं उन्हींको बुध वा "ज्ञ" कहते हैं। वह बुधलोग जिनको 'अक्षर' ब्रह्म कहते हैं, यतन करके यतीलोग वीतरागी ( अनुराग-विहीन ) हो करके अर्थात् द्वन्द्वविमुक्त हो करके जिस अक्षरको प्रत्यक्ष करते हैं वा जिस अक्षर में प्रवेश करते हैं, इच्छाका अन्त अर्थात् शेष करके जिस ब्रह्ममें चरण करके योगीजन ब्रह्मचारी होते हैं वह पद हो "तत्पद” वा विष्णुके परमपद है। किस करके वह पद संग्रह करना होता है ( लेने होता है ) वही परश्लोकमें कहा जाता है ॥ ११ ॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ श्रीमद्भगवद्गीता सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च । मूर्ध्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ।। १२ ॥ ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् । यः प्रयाति त्यजन् देह स याति परमां गतिम् ॥ १३ ॥ अन्वयः। यः सर्वद्वाराणि संयम्य मनः च हृदि निरुध्य आत्मनः प्राणं मूनि आधाय योगधारणां आस्थितः ( सन् ) ॐ इति एकाक्षरं ब्रह्म व्यहारन् ( उच्चारयन् ) मां अनुस्मरन् देहं त्यजन् प्रयाति, सः परमां गतिं याति ॥ १२ ॥ १३ ॥ अनुवाद। जो समुदय इन्द्रियद्वार संयत कर मनको हृदय में निरुद्ध करके थोगधारणा अवलम्बन कर निज प्राणको मस्तकमें स्थापन करके, "ऊँ" इस एकाक्षर ब्रह्ममन्त्रका उच्चारण करते करते तथा मुझको स्मरण करते करते देह त्याग कर जाता है, वह परमागतिको प्राप्त होता है ॥ १२ ॥ १३ ॥ व्याख्या। जब साधक मुमुक्षु होकर आत्मामें आत्मा योग करने जाय, तब उनको शरीरका नवद्वार संयत करना पड़ता है। आसन मारकर बैठनेके समय दोनों पगके एड़ियों द्वारा गुह्य और लिंगको निपीड़ित करना होता है, दोनों हाथ के अंगूठेसे दोनों कान को, तर्जनी द्वयसे दोनों चक्षुको, अनामिकाद्वयसे दोनों ओष्ठको, मध्यमाद्वयसे नासारन्ध्र दोनोंको हद अाक्रमण करने पड़ता है ; ऐसा होनेसे ही सर्वद्वार संयम करना होता है (क्रिया गुरूपदेशगम्य है )। इस अवस्थामें मन प्राणके साथ हृदयमें अटक पड़ता है ; सुतरां अपने उत्पत्तिस्थान बुद्धिको लक्ष्य कर भ्रमध्यमें उठ बैठता है, प्राण भी चलच्छक्तिरहित हो जाता है। इस प्रकारसे सर्वद्वारका संयम करके 'ॐ' इस एकाक्षर ब्रह्म अर्थात् प्रणवको अवलम्बन करने होगा। (प्रणव-प्र+णक्+वं ; प्रशब्दमें प्रकृष्ट पूर्वक, णक् शब्दमें आत्मा, और वं शब्दमें शून्य है ; अर्थात् प्रकृष्ट पूर्वक देहात्माभिमान जिससे शुन्य हो जाता है उसीका नाम प्रणव है )। तत्पश्चात् इस एकाक्षर Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय 356 ब्रह्मवाचक प्रणव मन्त्रको “चैलाजिनकुशोत्तर" प्रासनमें मूलाधारसे चित्तपथमें व्याहरन करेंगे (क्रिया गुरूपदेशगम्य ) / *व्याहरन्”(विशेष रूपसे बाहरण ) अर्थात् उच्चारयन् / उत् = उर्ध्व में चार = चरण करना, अयन= गति ; अर्थात् ऊर्ध्वगतिमें चलाय देवेंगे-ऊंचे दिशामें उठावेंगे। इसीका नाम कुण्डलिनी देवीको उठाना है। किस तरहसे उठावेंगे ? कि, "मामनुस्मरन्”–मेरे अणुको स्मरण करते करते। वह किस प्रकार है ? कि मूलाधारसे उस कुण्डलिनीको ब्रह्मनाड़ीके ठीक मध्यभागसे यथोपदिष्ट क्रियामें धीरे धीरे उठा कर( कामपुर चक्रसे समस्त कामना वा वासनाको समेटकर, स्वाधिष्ठानमें पहुँचकर क्रोधको समेटके, मणिपुरके ऊपर अष्टधा बलयाकार महापन्थके गर्भ होकर लोभको समेटके, अनाहत चक्र भेद करके मोहको समेटकर, विशुद्ध चक्र भेद करके मदको समेटके, आज्ञाचक्र भेद करके मत्सरताको समेटके )-सहस्रारमें परम शिवके ऊपर आहुति देने होगा। इस आहुति देतेमात्र, अ+उ+म, इन तीन वर्णके मिलनेसे जो शब्द होता है, उसी शब्दको व्यजनविहीन.करके उच्चारण करने से जिस प्रकार शब्द होता है, ठीक उसीके सदृश एक ( तैलधारावत् अविच्छिन्न ) ध्वनि उत्पन्न होगा। जब उस ध्वनि की उत्पत्ति होगी, उसके साथही साथ, गन्धज्ञान, रसज्ञान, स्पर्शज्ञान, शब्दज्ञान मिटकर, एक अभूतपूर्व अश्रुतपूर्व अति आवेंगी। उस श्रुतिके ठीक मध्यभागसे एक अदृष्टपूर्व ज्योति देखने में आवेगी ; उस ज्योतिके भीतर भवसागर में चक्कर खानेवाला मन संकोचताको परित्याग करके, विस्तृत विष्णुपदमें व्याप्य-व्यापकता शून्य होकर विलय प्राप्त होगा। इस प्रकार की प्राप्ति होती है। यह जो उपदेश है, श्री श्री सद्गुरुचरणमें मस्तक दिया है जिसने, वही जान लिया है ; यह कथा कहना ही अधिक है // 12 // 3 // Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता अनन्यचेताः सततं यो मा स्मरति नित्यशः। तग्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः // 14 // अन्वयः। हे पार्थ! अनन्यचेताः ( सन् ) यः नित्यशः (प्रतिदिनं ) सततं (निरन्तरं ) मा स्मरति, नित्ययुक्तस्य तस्य योगिनः अहं सुलभः // 14 / / अनुवाद। हे पार्थ! अनन्यचित्त होकर चिरदिन निरन्तर जो मुझको स्मरण करता है, उसी नित्ययुक्त योगीके पक्षमें मैं सुलभ हूँ // 14 // व्याख्या। योग-अभ्यास कालमें जो कदापि चैतन्यको छोड़कर जरासा भी इधर उधर न होता हो, उसीसे ही 'मैं' का स्मरण होता है। मैं भी जैसे अनन्त हूँ, वह भी तैसे अनन्त हो जाता है। वही योगी है; उसीका ही “मैं” सुलभ है, ऐसे जो नित्य "मैं" वह इस "मैं" में युक्त होकर नित्ययुक्त हो जाता है। साधक ! अब तुम समझ कर देखो, तुम्हारे क्रियाके पूर्वावस्था, क्रियावस्था, क्रियाका परावस्था, और क्रियाका परावस्थाका परावस्था, सब इस श्लोकमें कहे हुए हैं // 14 // मामुपेत्य पनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् / नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धि परमां गताः // 15 // अन्वयः। महात्मानः माम् उपेत्य (प्राप्य ) परमा संसिद्धिं ( मोक्ष ) गताः (प्राप्ताः सन्तः ) दुःखालयं अशाश्वतं जन्म पुनः न आप्नुवन्ति // 15 // अनुवाद। महात्मागण मुझको प्राप्त होकर, परमासिद्धि ( मोक्ष ) को प्राप्त होनेसे, पुनः-दुखके आलय स्वरूप अनित्य जन्मको नहीं प्राप्त होते // 15 // व्याख्या। जो सब साधक योगानुष्ठानसे अन्तःकरणको परमात्मामें मिलाने सीखे हैं, वही सब साधक महात्मा हैं; वे लोग ही "परमासिद्धि”-नैष्कर्म्यावस्थाको प्राप्त हो करके “मैं” को पाते हैं, अर्थात् आत्मस्वरूप लाभ करते हैं। सुतरां उनलोगोंको और पुनः दुःखका आलय स्वरूप अनित्य जन्म लेने नहीं होता ; अर्थात् वह Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय 361 लोग नीचे में और उतरते, विस्तार ब्रह्म में पड़ करके सर्वसिद्धिकी आश्रय स्वरूप ब्रह्मही हो जाते हैं।॥ 15 // आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पनरावर्तिनोऽर्जुन / मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते // 16 / / अन्वयः। हे अर्जुन ! आब्रह्मभुवनात् लोकाः पुनरावत्तिनः ( पुनरावर्तनस्वभावाः ), तु ( किन्तु ) हे कौन्तेय ! मां उपेत्य पुनर्जन्म न विद्यते // 16 / / अनुवाद। हे अर्जुन ! ब्रह्मलोक पर्यन्त पहुँचनेसे भी लोग पुनरावर्तन करते हैं ; परन्तु कौन्तेय ! मुझको पानेसे पुनर्जन्म और नहीं होता // 16 // व्याख्या। अपरिपक्व अथच उन्नतिशील साधक जब समाधिसाम्यका सुख भोग करके पुनः संसार-अवस्थामें उतर पाकर समाधिस्थिति-अवस्थाका आलोचना करते हैं ; तब साधक क्रियाका परावस्था और संसार अवस्थाका फल प्रत्यक्ष करके इस प्रकार ज्ञान लाभ करते हैं सूर्यकोषके भीतर जो कुछ है उसीको भुवन कहते हैं। स्थूल शरीराभिमानीको ब्रह्मा कहते हैं। इस ब्रह्मासे आदि लेके स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज, जो कुछ प्रजा हैं. समस्तही भुवनवासी हैं / यह सबही बारंबार जन्म मृत्युके श्राधीन होकर घूमते रहते हैं; क्योंकि, पूर्वकथितके यथार्थ “मैं” में इन सबका परिज्ञान नहीं हैं (५वें श्लोककी व्याख्या देखो)। उसी "मैं" का परिज्ञान होनेसे ही हे शरीराभिमानी बद्ध साधक ! और तुम्हारा पुनर्जन्म नहीं रहता। __ भुवन चौदह हैं। जो सबके ऊपर है वही ब्रह्मभुवन वा ब्रह्माका सत्यलोक है। यह सत्यलोक सहस्रारमें अवस्थित है, इसलिये प्राकृतिक अधिकारमुक्त है। यदि साधक मृत्युकालमें साधनबल करके इस सत्यलोकमें भी चला आवे, किन्तु चैतन्यमें चित्तलय न कर सके, तो Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 श्रीमद्भगवद्गीता भो उनको फिर देह धारण करना होता है। कारण कि जबतक चित्त प्रकृतिको छोड़कर पुरुषमें न मिल जाय, तबतक प्रकृतिके वशमें जन्ममृत्यु होता ही रहेगा। सबसे ऊंचे क्षेत्र ब्रह्मभुवनमें जानेसे भी निस्तार नहीं। परन्तु यदि चित्त उस समय ( मरण समय ) चैतन्य को धारण कर सके, तो जिस किसी भी स्थानमें रहकर शरीर त्याग करें, उनको फिर जन्म लेना पड़ेगा // 16 // सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद् ब्रह्मणो विदुः / रात्रि युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः // 17 // अन्वयः। ब्रह्मणः यत् सहस्रयुगपर्यन्तं अहः सहस्रयुगान्तां ( च ) रात्रिं ( ये ) विदुः ते जनाः // 17 // अनुवाद। जो लोग ब्रह्माका सहस्र युग पर्यन्त एक दिन तथा सहस्र युगान्त' एक रात्रि जानते हैं उन्हींको अहोरात्रविद् कहते हैं // 17 // व्याख्या। "युग" कहते हैं दो को,- एक खींचना और एक फेंकना। इस शरीर में निश्वास और प्रश्वासका खेल अर्थात् खींचने और फेकनेकी क्रिया अष्ट. प्रहरके भीतर 21600 बार होती है। क्रिया करते करते साधकका निश्वास और प्रश्वास शरीरके भीतर जब अति सूक्ष्म होकर क्रिया करे, तब दिनमानके चार प्रहरमें 1000 बार और रात्रिमानके चार प्रहरमें 1000 बार यह 2000 बार नियमित (बिना श्रायाससे स्वभावतः ) हो पानेसे, ब्राह्मीस्थिति पाकर (२य अः 71 / 72 श्लोक ) और उसे भोगकर समझकर साधक ब्राह्मण होते हैं। इसलिये, अहः = प्रकाश और रात्रि अप्रकाश, यह प्रकाश और अप्रकाशका परिज्ञान लाभ कर 'अहोरात्रविद्' हो पड़ते हैं ; अर्थात् ब्राह्मी स्थिति क्या है, सो भी जान लेते हैं, और जगत् व्यापार क्या है उसे भी साधक जान लेते हैं // 17 // Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय 363 अव्यक्ताव्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे / राज्यागमे प्रलीयन्ते तत्रवाव्यक्तसंज्ञके // 18 // अन्वयः। सर्वाः व्यक्तयः ( चराचराणि भूतानि) अहरागमे अब्यक्तात् प्रभवन्ति, रात्र्यागमे ( पुनः) तत्र अव्यक्तसंज्ञके ( कारणरूपे ) एव प्रलीयन्ते // 18 // अनुवाद। समुदय व्यक्त (चराचर प्राणी) दिनमान का आगमन करके अव्यक्तसे उत्पन्न होता है, और रात्रिके आगमनसे उसी अव्यक्त संज्ञक कारणरूपमेंही प्रलीन होता है // 18 // व्याख्या। “अव्यक्त” =प्रकृतिसे ही सर्व अर्थात् जगत्का जो कुछ है वह उत्पन्न होता है। साधक ! अब देखो, जब तुम अपने आवागमनके घोरमें पड़कर विषयोंका दासत्व करते थे, तब यह विषयादि तुम्हींको भोग करता था। तब तुम विषयके भोक्ता न होकर भोग्य बने रहे थे। परन्तु सद्गुरुकी कृपासे जब तुमने आज्ञाचक्रको भेद किया, तत्क्षणात् तुम्हारा अहः आया। रात्रि जाती है दिन आता है इस प्रकार के समयको अहः कहते हैं। सूर्य्यदेव उठने ही चाहते हैं उठने में देर नहीं, ऐसे समयको। इस समय शरीरका रोवा रोवां पर्यन्त स्पष्ट देखा जाता है। आज्ञाचक्र भेद करनेके पश्चात् विवस्वान्के बहुत निकट होकर प्रकृतिके रूप यौवन वशीकरण सब एक एक करके प्रत्यक्ष करते हो, जिस करके, अव्यक्त प्रकृतिसे ही यह सब जो निकलती हुई बाहर चली बातो है स्पष्टतया समझ लेते हो, बढ़ भी होते हो कि प्रकृतिके फांसमें और पग न दोगे। क्यों ! प्रत्यक्ष करते हो कि नहों ?-यह तुम्हारी क्रियाको परावस्थाकी पूर्वावस्था है, यह तो हुआ मुक्तिका रास्ता। और जब तुमने प्रथम जीव होनेके लिये कमर कसे, अर्थात् संसार-लीलामें मतवाले होनेके लिये निम्नगति ली थी, अपना वही दिन एक बार स्मरण करो। (4aa . श२ श्लोक देखो)। जब तुमने विवस्वान् को पीछे करके चित्तके निम्न Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 श्रीमद्भगवद्गीता स्तरके ऊपर लक्ष्य करके अहंकारको आश्रय किया था, और मनको भी लेकर विषयमें जब प्रथम छूआ छूत लगाया, वही तुम्हारी घोर अज्ञानता रूप रात्रि थी जिसके अंधियारेमें पड़कर तुमने निज "मैं" को देखनेकी शक्ति भी खो दी थी। तुम जो ऐसे स्वप्रकाश हो सो तुमने भी अव्यक्त प्रकृतिके गर्भमें प्रलोन होकर जीव साज सज लिया था, तुम्हारे उसी घोर दुर्दिनको रात्रि कहते हैं। यही तुम्हारा दिन, और यही रात्रि है। जब तुम 'आत्मा' में रहते हो, तब तुम सर्वज्ञ हो, और जब तुम अात्महारा होते हो, तब सब जानकारीको भूलकर अज्ञ बन जाते हो, और अव्यक्तमें डूब जाते हो // 18 // भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते। रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे // 16 // अन्वयः। हे पार्थ / स एव अयं भूतग्रामः अवशः ( सन् ) भूत्वा भूत्वा राज्यागमे प्रलीयते. ( पुनः ) अहरागमे प्रभवति / / 19 / / अनुवाद। हे पार्थ ! यही बह भूत-समूह विवश होकर बारंबार जन्म ले। हुए रात्रिके आगमनमें प्रलयको प्राप्त होता है, और अहः ( दिवस ) के आगमनमें उत्पन्न होता है / / 19 // व्याख्या। पांच इक मिलकर जहां निवास करें उसीको ग्राम कहते हैं, अर्थात् यह शरीर। वही शरीर भी फिर "मैं" हूँ। हरि ! हरि !! क्या तमाशा है ? अभी 'मैं' सर्वज्ञ सर्वशक्तिकारण था, फिर भूतोंके गांव रूपमें शरीर तज लिया ? वही शरीर फिर बारंबार मरता जनमता और जनमता मरता है। प्रकृति के वशमें 'मैं' विवश हो रहा हूं, रात्रिकी विवशताने मुझको अटका रक्खा, ढांक रक्खा / कैसा करके ढांक रक्खा ! वाह वाह ! रे कृपण साधक ! यह देखो, तुम जो भोग-लालसा छोड़ नहीं सकते, इसका मजा तो एकबार देखो। फिर देखो, अहः श्रानेसे ही अर्थात् सूर्योदयके थोडासा Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय 365 पहले पूर्वगगनमें जिस प्रकार ज्योति प्रकाश होती है, अन्तरमें भी उसी प्रकार ज्योति प्रकाश होते ही, तुम्हारा प्रभव अर्थात् पूर्वस्वरूप दर्शन होता है। परन्तु तुम एकही हो, केवल तुम्हारी दृष्टिका फेर है। 'सृष्टि-मुखी' दृष्टि और 'तुम-मुखी' दृष्टि // 16 // परस्तस्मात्त भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात् सनातनः / यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत् सु न विनश्यति // 20 // अन्वयः। तु (किन्तु ) तस्मात् अव्यक्तात् परः ( तस्यापिकारणभूत ) यः अन्यः सनातनः अव्यक्तः भावः (अस्ति ), सः सर्वेषु भूतेषु नश्यत् सु (अपि ) न विनश्यति // 20 // __ अनुवाद। किन्तु उस अव्यक्तसे भी ऊपर जो सनातन अन्य ( दूसरे) अव्यक्त भाव है, यह समस्त भूतोंके विनष्ट होनेसे भी नष्ट नहीं होता // 20 // ___ व्याख्या। अतएव तुम ब्रह्म, व्यक्त अव्यक्त दोनों मिलकर सनातन हो। तुम भूतों के भीतर हो, अथच अव्यक्त अर्थात् अतीन्द्रिय हो तथा भूतोंके परिवर्तनमें तुम्हारा कुछ अदल बदल नहीं होता। किसीको तुम विनाश भी नहीं करते, और किसीसे तुम विनष्ट भी नहीं होते। "मैं जैसा हूँ वैसा ही हूँ; जलका स्रोत और समय जैसा है, जन्म मृत्यु भी वैसा ही है" // 20 // अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् / यं प्राप्य निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम // 21 // अन्वयः। अव्यक्तः (भावः एव ) अक्षरः इति उक्तः (श्रुतिषु इत्यर्थः ); तं ( अक्षरसंज्ञकमव्यक्त ) परमां गतिं ( गम्यं पुरुषार्थ) आहुः ("पुरुषान्न परं किश्चित् सा काष्टा सा परागतिः" इत्यादि श्रुतयः ), यं ( भावं ) प्राप्य न निवर्तन्ते तत् मम परमं धाम ( विष्णोः परमं पदं ) // 21 // अनुवाद। अव्यक्त ही अक्षर है, इस प्रकार उक्त है; उसीको ( अव्यक्तसंज्ञक अक्षरकोही) परमागति कहा जाता है, जिनको पानेसे पुनरावृत्ति नहीं होता, पही हमारा परमधाम है // 21 // Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। "अव्यक्त" प्रकृतिको कहते हैं। इस प्रकृतिके ऊपर दिशाका शेष सीमा हो "मैं"-"तुम" का संयोग है। इस संयोगके नीचे का दिशा "तुम" है और ऊपरका दिशा "मैं" है। यही अक्षर अवस्था है। यह उभयात्मक अवस्था ही परमागतिका प्रारम्भ है; इसी को प्राप्त होनेसे पुनः संसारमें आने नहीं होता। इसीलिये इसको हमारा नित्यधाम वा परमधाम कहते हैं। इस धाममें गति होने पश्चात् ही साधकको परमागति प्राप्त होती है। वह जो चित्तके ऊपरस्तरका भाव है, वह जो प्रकृति-वशी भाव है, जिसको अक्षर अवस्था कहते हैं ( ८म अः १म श्लोक) जिस अवस्थामें प्रकृतिका समस्त छलना ( विज्ञान ) जाना जाता है ; प्रकृति भी और साधकको छलसे वशीभूत नहीं कर सकेंगी जानबूझके लज्जाके मारे निरस्त होती है; सुतरां साधक और पुनरावृत्तिमें लक्ष्य नहीं करते, स्थायी ब्रह्मत्व ले लेते हैं ( ५म अः 13 / 14 श्लोक देखो ) // 21 // पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया। यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् // 22 // अन्धयः। हे पार्थ ! सः पुरुषः ( अहं ) परः (निरतिशयः, यस्मात् "पुरुषान्न परं किञ्चित्" ) अनन्यया तु भक्त्या ( एकान्तभक्त्या एव ) लभ्यः, यस्य ( कारणभूतस्य पुरुषस्य ) अन्तःस्थानि ( मध्ये स्थितानि ) भूतानि ( कार्य्यभूतानि, कार्य हि कारणस्थान्तवती भवति), येन (पुरुषेन ) इदं सर्व ( जगत् ) ततं ( व्याप्त) // 22 // अनुवाद। हे पार्थ! जिनके भीतर सकल भूत अवस्थित हैं, जिनसे यह समस्त जगत् व्याप्त है, वह पुरुपही पर ( श्रेष्ठ ) तथा एक मात्र भक्तिसे प्राप्य है // 22 // व्याख्या। अब साधक ! देखो, यह जो "पुरुष”–पुर है तुम, और सो रहा हूँ 'मैं'-यह व्द्यात्मक ("मैं" तुम संयोग) अवस्था ही Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय 367 सबके ऊपर है, जिसके ऊपर और कुछ ( आदि अन्त विशिष्ट ) नहीं है। 'तुम' के अस्तित्व श्वास पर्यन्त है, इस श्वासके ऊपर में ही 'मैं' हूँ। कहावत है कि, "जबतक श्वास, तबतक आश” श्वास जब मिट जाती है अर्थात् भीतर की श्वास भीतरमें, बाहरकी श्वास बाहरमें हो जाती है उसीके साथ आश भी मिटकर तत्क्षणातू "मैं” हो जाती है / 'मैं पुरुष है। अनन्यभक्तिसे ही यह "मैं” हुअा जाता है। गुरुवाक्य में अटल विश्वासका नाम भक्ति है / यह जो आकाश-धोलाई है, गुरुवाक्यमें अटल विश्वास न होनेसे यह नहीं होता। अब ठीक करके देख लो, इस ''मैं' के ठीक नीचेसे ही प्रकृतिका प्रारम्भ है, इसलिये "अन्तःस्थानि भूतानि;" और प्रकृतिके ठीक ऊपरसे ' मैं” का प्रारम्भ है। यह "भूत" और "तत्" एक हो गये जिसे अब देखते हो। यह यह भूत और तत् कहा गया, प्रत्यक्ष करके शान्ति लो // 22 // यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिञ्चव योगिनः / . प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ // 23 // अन्वयः। हे भरतर्षभ। यत्र काले प्रयाताः ( मृताः ) योगिनः अनावृत्ति यान्ति, ( यत्र काले ) तु आवृत्तिं च एव यान्ति, तं कालं पक्ष्यामि // 23 // अनुवाद। हे भरतर्षभ ! योगीगण जिस कालमें शरीर छोड़कर चले जानेसे और नहीं फिरते, तथा जिस कालमें गमन करनेसे फिर आते हैं उसी कालके विषयमें मैं तुमको कहता हूँ // 23 // व्याख्या। निश्वास बाहर कर देना वा त्यागकर देनेका नाम काल (मृत्यु) है, उसका उपदेश पहले ही किया हुआ है (८म अः ६ष्ठ श्लोक)। अब, जिस शेष निश्वासमें शरीर त्याग करनेसे 'अनावृत्ति' अर्थात मुक्ति और 'पुनरावृत्ति' अर्थात् पुनर्जन्म होता है उसीका उपदेश किया जाता है। योगीजन ठीकसे समझके, इन दोनोंमेंसे (अनावृत्ति और पुनरावृत्ति ) जिसको इच्छा ही प्रहण वा त्याग कर सकते हैं। उसी शेष निश्वास त्यागकी कथा "मैं" कहता हूँ की की Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368 श्रीमद्भगवद्गाता अग्निज्योतिरहः शुक्लः षष्मासा उत्तरायणम् / तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः / / 24 // अन्धयः। अग्निोतिः अहः शुक्ल: उत्तरायणम् षष्मासाः, तत्र प्रयाताः ब्रह्मविदः जनाः ब्रह्म गच्छन्ति // 24 // अनुवाद। जिस कालमें अग्निज्योतिः अहह शुक्ल तथा उत्तरायण षष्मास उदित होता है, ब्रह्मविद् व्यक्तिगण उसी कालमें गमन करनेसे ब्रह्ममें मिल जाते है // 24 // व्याख्या। सप्तजिह्वा अग्निका सात प्रकार रङ्ग है। उसके भीतर मुक्ति देनेवाला रङ्ग कैसा है वह समझ लो,-एक ढेर से अग्निके भीतर, ऊपर थोड़ा थोड़ा राख जम गया, बीच मेंसे एक कोयला टूट कर दो खण्ड हो गया, टूटे हुए दोनों खण्डके शरीरसे चोर काला रङ्ग निकला, उसी काला दोनोंमें अग्नि जोर करके पुनः लाल हो गया' और सब कालेको खा लिया। धीरे धीरे उसका तेज बढ़ते बढ़ते तीसीके फूलके भीतर वाले रङ्ग सदृश श्यामता लेकर एक श्वेत ज्योति का प्रकाश पाया। उस श्यामताहीन श्वेत ज्योतिको ही अग्निोति कहते हैं। अग्निहोत्रमें इस ज्योतिकी उत्पत्ति होनेसे ही कार्यसिद्धि होती है। यह ज्योति, और पहले १८वां श्लोकमें जो अहः कहा हुआ है वही अहः ज्योति, और शुक्ल (सफेद) इन तीनोंके मिश्रणसे एक अपरूप द्य ति प्रकाश पाता है। मरणकालमें प्राणायाम करने नहीं पड़ता आप ही श्राप होता है, उसको चातुर्थिक प्राणायाम कहते हैं / इस चातुर्थिक प्राणायाममें अक्सर बहुत है। साधक इस समयमें केवल गुरूपदिष्ट स्थानमें लक्ष्य करके रहेंगे, प्राणायाम करने नहीं होगा, आपही आप होता है। प्राणायामकी शक्ति करके जब यह त्रिमिश्रणकी ज्योति आकर लक्ष्यस्थलमें खड़ी होवेगी वा प्रकाश पावेगी, तब साधक गुरूपदेश अनुसार ठोक्करसे प्राणत्याग करेंगे। यह Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय यह हुआ षण्मास (आधा) ब्रह्ममें परिलीन होनेका वा अनावृत्तिकी गति / इसको उत्तरायण ( उत् + तर+अयन ) कहते हैं, जिससे और उंची गति नहीं है // 24 // धूमोरात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा- दक्षिणायनम् / ... तत्र चान्द्रमसं ज्योति ोगी प्राप्य निवर्तते // 25 // अन्वयः। धूमः रात्रिः तथा कृष्ण: दक्षिणायनम् षष्मासाः, तेत्र (प्रयातः ) योगी चान्द्रमसं ज्योतिः प्राप्य निवर्तते // 25 // अनुवाद। जिस कालमें धूम, रात्रि, कृष्ण, और दक्षिणायन षण्मास उदित होता है, उस कालमें (गमन करनेसे ) योगी चन्द्रलोककी प्राप्त होकर पुनरागमन करते हैं // 25 // व्याख्या। धूम धूआं; रात्रि-अन्धकार रात, सूर्यास्त के बाद साढ़े सात दण्ड पर्यन्त रात्रिमान कहाता है, उसके भीतर अन्धकार के गभीरता; और कृष्ण अर्थात् काला; इन तीन रंगोंके मिश्रणमें जो रंग होता है, अर्थात् धू धूआं, अंधियारा अंधियारा, और काला काला रंग देखकर यदि योगीका शरीर त्याग न हो, तो चन्द्रलोक पर्य्यन्त उपभोग करके पुनः 'पुनरावृत्ति' लेने पड़ता है। इसीको ‘दक्षिणायन षण्मास वा कुमेरु गति कहते हैं // 25 // . शुक्लकृष्णे गती ह्यते जगतः शाश्वते मते। एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावत्तते पुनः // 26 // अन्वयः। जगतः एते शुक्लकृष्णे गती हि शाश्वते मतेः एकया अनावृत्ति याति, अन्यया पुनः आवतते // 26 // अनुवाद। जगत्की यह शुक्ल और कृष्ण दोनों गतिही अनादि कालसे प्रसिद्ध है; एकसे अनावृत्ति और दूसरेसे पुनरावृत्ति होती है // 26 / / -24 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीमद्भगवद्गीता . व्याख्या। साधक ! अब देख लो; यही अपनी शुक्ल और कृष्ण गति है, समझ लो ; प्रत्यक्ष करके हड़ अभ्यासके द्वारा ऐसा आयत्त करो, जिस करके कार्यकालमें तुम्हारा कल्याण "हस्तामलकवत्" पुनरावृत्ति कराती है // 26 // नो मृती पार्थ जानन् योगी मुह्यति कश्चन / तस्मात् सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन // 27 // अन्वयः। हे पार्थ ! कश्चन योगी एते सृती ( मागौं ) जानन् न मुह्यति; तस्मात् हे अर्जुन ! सर्वेषु कालेषु योगयुक्तः भव // 27 // अनुवाद / हे पार्थ ! इन दो पन्थोंको जाननेसे कोई योगी मोहको नहीं प्राप्त होते; अतएव, हे अर्जुन! तुम सर्वकालमेंही योगयुक्त हो रहो // 27 // व्याख्या। यह शुक्ल और कृष्ण गति केवल अभ्यास द्वारा योगियोंको वायत्त होती है। यदि कदाचित् योगीगण शुक्लगति न ले सके लक्ष्यभ्रष्ट होनेके लिये उनको कृष्णगति हो मिल जाय, तो पुनजम्म लेकर भी उत्तम सुकृति फल हेतु योगीगण जातिस्मरत्व प्राप्त होकर मायाके इन्द्रजालमें और मोहित नहीं होते हैं। जातिस्मरत्वसे तुम्हारा कौन काम है भाई ! तुम अपने प्रति निश्वास में ही शुक्लगति को लक्ष्य करके बेठे रहो // 27 // दानेषु यत् पुण्यफलं प्रदिष्टम् / अत्येति तत् सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् // 28 // अन्वयः। वेदेषु यज्ञषु तपःसु दानेषु च एव यत् पुण्यफलं प्रदिष्ट, योगी इदं (तत्वं ) विदित्वा तत् सर्व प्रत्येति, अयं परं स्थानं च उपैति // 28 // Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय 371 अनुवाद। वेद, यज्ञमैं, तपस्यामें, तथा दानमें जो जो पुष्य फलका उल्लेख है, योगी उल्लिखित तत्त्वको अवगत होकर उन समस्तको अतिकम करते हैं, और आद्य परम स्थान ( विष्णुपद ) को प्राप्त होते हैं / / 28 // व्याख्या। वैदिक क्रियामें, यज्ञके क्रियामें, तपकी क्रिया में, दान की क्रिया में जो जो पुण्यफलका निर्देश किया हुआ है, वह समस्त स्वर्गादि भोग कराकर फिर मर्त्यलोकमें घुमाय लाता है। यह जानकर, समझकर, उन सबमें उपेक्षा करके योगीगण अपने उसी परम स्थानमें, पहले जहाँसे आये थे, उसी आदि स्थानमें-विष्णु पदमें उपनीत होते हैं // 28 // इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसम्वादे अक्षरब्रह्मयोगो नाम अष्टमोऽध्यायः। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽयायः श्रीभगवानुवाच / इदन्तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे / ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसे शुभात् // 1 // अन्वयः। श्रीभगगवान् उवाच / इदं तु गुह्यतम विज्ञानसहितं ज्ञानं अनसूयवे ते प्रवक्ष्यामि, यत् ज्ञात्वा अशुभात् मोक्ष्यसे // 1 // अनुवाद। श्रीभगवान् कहते हैं, तुम असूया बिहीन हुए हो, इसलिये तुमको यह परम गुह्य विज्ञान-सहित ज्ञान कहता हूँ, जिसको जाननेसे तुम अशुभसे मुक्ति लाभ करोगे // 1 // व्याख्या। अब साधक ! तुम देखो, ८म अः में प्रथम दीक्षाके उपदेशसे प्रारम्भ करके शेष पर्यन्त चल कर किस प्रकार करके शरीर त्याग करके परम स्थान प्राप्त करने होता है, उसका उपदेश किया हुआ है; अब जीवन्मुक्ति कैसा है अर्थात् शरीर धारण करके पंक (कीचड़) के भीतर रहनेवाले मछली सरीखे, प्रकृतिके भीतर रह करके भी किस प्रकारसे निर्लिप्त रहने होता है, उसीका उपदेश किया जाता है। "इदन्तु ते"-इत्यादि--यह उपदेश अत्यन्त गुप्त है; भाषामें यह मिल नहीं सकता। तुम (गोता लगाकर जलके भीतर पंठने सदृश इसमें ) डूबने सिखे हो इसलिये अधिकारी हुए हो। अतएव विज्ञान के साथ ज्ञानको समझ लो। ज्ञान है "मैं" का बौधन, और विज्ञान है मेरा' कहने में जो कुछ आता है, उन सबका वा प्रकृतिका बोधन / ज्ञान =ज+ब+आ+न; 'ज' =जायमान अर्थात् उत्पत्ति-स्थिति-नाश विशिष्ट जो कुछ है। 'ब'-गन्धानु अर्थात् शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध जिसमें है। 'श्रा' कारका अर्थ आसक्ति है / 'न' कारका अर्थ नास्ति Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मचब भाकाय है। तबही हुआ, उत्पत्ति-स्थिति-नाशमान इस दृश्य जगत्का कोई किसीमें श्रासक्ति जिस अवस्थामें नहीं रहता, अथच, मूर्छा, मृत्यु वा निन्द्रारूप अज्ञानताका आश्रय न ले करके जो स्थिति है, वही ज्ञान-अवस्था है / 'विज्ञान'-जगत्को समझना हो तो, ब्राह्मीस्थितिमें नहीं होता, थोडासा नीचे उतरकर प्रकृतिके साथ मिलकर समझने होता है। वह होनेसे ही ब्राह्मीस्थिति एक स्तर, और प्राकृतिक स्थिति एक स्तर हश्रा। ब्राह्मी स्थितिमें उपसर्ग मात्रका अभाव है, और प्रकृतिमें सबही उपसर्ग है इसीलिये 'वि' उपसर्ग दे करके विशेषताका प्रतिपादन किया हुआ है। यह दोनों ही परम्पर अत्यन्त भिन्न पदार्थ हैं। इस विज्ञान-सहित ज्ञानको जान लेनेसे ही निल्लिप्तताका बाधा और नहीं भावेगा, क्योंकि, प्रकृतिके फांसमें पड़ करके प्रकृतिको न समझ करके ही "जीव" बन गया था;-जैसे समझ लिया, तत्क्षणात् "ज्ञान" हो गया, 'शिव' भी हो गया, अतएव ब्राह्मी-स्थिति का बाधा कुछ भी न रहा, और जीवन्मुक्ति भी हो गया // 1 // राजविद्या राजगुह्य पवित्रमिदमुत्तमम् / प्रत्यक्षावगमं धर्म्य सुसुखं कत्तुमव्ययम् / / 2 // अन्वयः / इदं ( ज्ञानं ) राजविद्या ( विद्यानां राजा ) राजगुह्य ( गुयानां राजा) उत्तम पवित्र प्रत्यक्षावगमं अव्ययं धर्म्य कर्तुं सुसुख // 2 // ___ अनुवाद। यह ज्ञान सब विद्याका राजा, अति गुह्य, सर्वोत्कृष्ट, अत्यन्त पवित्र, प्रत्यक्ष प्रमाण-सिद्ध ( निजबोधरूप ), अक्षय, धर्म-सम्मत और सुखसाध्य है // 2 // व्याख्या। यह जो ज्ञान है, वह राजविद्या-श्रेष्ठ विखा है। (राज अर्थमें श्रेष्ठ, और विद्या अर्थ में जिससे ब्रह्मज्ञान कराय देता है)। यह सबसे ऊचेमें रहता है इस करके अत्यन्त गुप्त है, क्योंकि उतना दूर न उठनेसे इसको जाना नहीं जाता ; यह उत्तम अर्थात् इससे उत् ( उर्वमें ) तम (स्थिति ) लाभ होता है;-पवित्र = ग्लानि Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 श्रीमद्भगवद्गीता शून्य-प्रत्यक्ष जाज्वल्यमान चक्षुकी हक शक्तिके सामने धर्म्य = अविरोधि-"अविरोधात्तु यो धर्मः सः धर्मः"। जिससे किसीके साथ विरोध उपस्थित न होय, उसीको धर्म कहते हैं। "धर्म धारयते प्रजाः”। प्रजा कहते हैं प्रकृष्ट रूपसे जिसका उत्पत्ति होता है; ऐसा होनेसे ही उत्पत्ति, स्थिति, और भंग जिसमें है, वही प्रजा है, अर्थात् परिणामी जो कुछ है, वही प्रजा है। इस परिणमनता को जो धारण करके हैं, अर्थात् जो स्वयं 'अपरिणामी' है वही धर्म है। इस धर्ममें जिस करके पहुंचा जाय, उसी को "अवगम" कहते हैं। यह जो धर्म है वह अव्यय अर्थात् नित्य है। सुन्दर सुखसे इसको किया भी जाता है और इसीसे अव्ययत्वमें संयुक्त भी हुश्रा जाता है // 2 // अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मास्यास्य परन्तप / अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवमनि // 3 // अन्वयः। हे परन्तप / अस्य धर्मस्य अश्रद्दधानाः ( अद्धाविरहिताः ) पुरुपा: मां अप्राप्य मृत्युसंसारवमनि ( मृत्युय्याप्त संसारमार्गे ) निवर्तन्ते // 3 // अनुवाद। हे परन्तप ! इस धर्मके प्रति श्रद्वाविहनि पुरुष मुझ को न पा करके जन्म-मृत्युरूप संसार पथमें ही प्रत्यावर्तन करता है // 3 // व्याख्या। अबाधतः गुरुवाक्य पालन करके चलने का नाम श्रद्धा है। जिस महाशक्तिसे गुरुवाक्य पालनका सब कुछ बाधा-विन्न नाश होता है, वही श्रद्धा है। जिसमें इस महाशक्ति का अभाव है, वही अश्रद्दधान वा कापुरुष है। यह कापुरुष उस पूर्वकथित द्रष्टास्वरूपमें वा धर्ममें रह करके प्राकृतिक दृश्यका खेल देखने नहीं पाता, इसलिये “मैं' को अर्थात् ब्राह्मीस्थितिको प्राप्त न होकर मृत्युरूप संसारके रास्ते में आता है, अर्थात् जन्म मृत्यु भोग करता रहता है // 3 // Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 375 नवम अध्याय मया ततमिदं सर्व जगदव्यक्तमूत्तिना / मतस्थानि सर्वभूतानि न चाहे तेष्ववस्थितः // 4 // अन्वयः। मया अव्यक्तमूत्तिना ( करणागोचरस्वरूपेण ) इदं सर्वं जगत् ततम् ( व्याप्त), सर्वभूतानि मतस्थानि, अहं च तेषु न अवस्थितः // 4 // अनुवाद / मैं अव्यक्तरूप करके इस समस्त जगत्में व्यापनशील हो रहा हूं, सकल भूत हमही में अवस्थित है, परन्तु मैं उन सबमें अवस्थित नहीं हूँ // 4 // व्याख्या। वह जो मैं ब्राह्मीस्थितिसे जगत्के ऊपर लक्ष्य कर रहा हूं, यह ठीक जैसे सूर्य और पृथिवी है;-पृथिवी अप्रकाश है, और सूर्य स्वप्रकाश, यह दोनों ही अलग और परस्परसे अनेक दूरमें हैं। परन्तु सूर्यको किरण पृथिवीमें पड़ करके जिस जिसमें जितना अधिक मेलजोल करती है, उसीके जेसे तितना अधिक प्रकाश होता है, अथच मेलजोल हो करके भी परस्पर लिप्त नहीं होते; तैसे मैं परिणामी प्रकृति के भूतादियोंके साथ श्रोतःप्रोत भावमें मिल करके भी नहीं मिलता; इसलिये हममें भूतादि रह करके भी “मैं” के ऊपर वह सब लक्ष्य नहीं करते इस करके "मैं" नहीं हो सकते। 'मैं' जो ऐसा व्यक्त हूँ, मेरी न्योति लेकरके ही वह अव्यक्त वा अप्रकाश परिणामी लोग अपना अपना जो कुछ जड़त्व है उसे त्याग करके जैसे चैतन्य सरीखे अभिनय दिखा देते हैं, जैसे वह सब अव्यक्त वा जड़ नहीं, व्यक्त चैतन्य है। परन्तु 'मैं' बिना जो कुछ है, वह समस्त अप्रकाशअव्यक्त है // 4 // न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् / भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः // 2 // अन्वयः। में ऐश्वरं योगं (अपाधारणं माहात्म्यं ) पश्य,-भूतानि न च मत्स्थानि मम आत्मा ( अहं ) भूतमृत भूतभावनः ( सन्नपि ) न च भूतस्थः // 5 // Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 . श्रीमहसम्बद्रीवा अनुवाद। मेरा ऐश्वरिक योग ( माहात्म्य ) देखो, भूतसकल भी हममें अवस्थित नहीं है, मैं भूतधारक तथा भूतपालक हो करके भी भूतसकलमें अवस्थित नहीं हूँ॥५॥ व्याख्या। अब हमारा योगैश्वर्य्य देखो। एक वस्तुको और एक वस्तु के साथ मिलानेका नाम 'योग' है; और एकके ऊपर और एकके प्रभुत्व करनेका नाम 'ऐश्वर्य' है। इस प्रकृति वा माया और 'मैं' के संयोग स्थलको देखो। प्रकृति भूत की रानी है, और 'मैं' निरुपाधिक मैं ही मैं हूँ। मुझसे और प्रकृतिसे जहां संयोग होता है, उस सन्धिस्थलमें प्रकृति मुझको स्पर्श करते मात्र विभोर हो जाती है, परन्तु 'मैं' का होना न होना कुछ नहीं हैं। इसलिये प्रकृतिके ऊपर हमारा प्रभुत्व आपही आप हो जाता है। ऐसा अनजान भावसे इसका संक्रमण होता है कि, प्रकृति भी नहीं समझ सकती, उसी की शक्तिसे यह होता है कि, "मैं" के शक्तिसे होता है; इसीलिये कहा हुबा है "न च मत्स्थानि भूतानि” / प्रकृतिसे बढ़ करके हमारे निकट और कोई नहीं है, इसलिये “मैं” “भूतभृत्" अर्थात् भूतोंके पोषक हो करके भी "भूतस्थ" नहीं हूँ, क्योंकि, मेरी असीमता व्याप्यव्यापकता शून्य हो करके पहलेसे हो विस्तृत है। इस असीमताके भीतर जो कुछ ससीमता है वह पहलेसे ही रहनेका स्थान पा चुका है; ( यह सब बात झूठ है)। कोई किसीको कुछ नवीन करनेकी आवश्यकता नहीं। इसलिये फिर भी मैं भूतोंकी उत्पत्तिकर्ता हो गया। जिसके पेटमें जो जन्म लेता है, उसकी माता वह है; इसी तरह ससीमकी माता असीम है // 5 // __ ययाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् / तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय // 6 // अन्वयः। सर्वत्रगः महान् वायुः यथा ( येत प्रकारेण ) नित्यं आकाशस्थितः, -सर्वाणि भूतानि तथा ( तेन प्रकारेण ) मत्स्थानि, इति उपधारय ( जानीहि ) // 6 // Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय अनुवाद / सर्वत्रगामी महान् वायु जिस प्रकारसे आकाशमैं नित्य अवस्थित है, समुच्चय भूत भी हममें उसी प्रकारसे अवस्थित है जानना // 6 // व्याख्या। जैसे आकाश देखनेमें असीम है, आकाशके पास वायु ससीम हो करके भी अपने अणु परमाणुमें आकाशको मिलाय के असीमका साज सज लिया है, परन्तु जैसे आकाशमें उसका कोई छाप न लगा; इसी तरह जितने भूत हैं उन सबके अणु परमाणुमें ओत-प्रोत भावसे मुझको मिलाकर 'मैं' साजकर अपने सबको छिपाकर मेरा स्वरूप दिखाते हैं। परन्तु "मैं" इन सबके किसी बातमें किसी प्रकारसे लिप्त नहीं हूँ। इसलिये कहता हूँ कि, आकाशमें वायु . सदृश 'मैं' में भूतसमूह है, जान लेओ॥ 6 // सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृति यान्ति मामिकाम् / कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् // 7 // अन्ययः। हे कौन्तेय! कल्पक्षये सर्वभूतानि मामिको प्रकृतिं यान्ति ( मायायां लीयन्ते ), कल्पादौ पुनः अहं तानि विसृजामि // 7 // अनुवाद। हे कौन्तेय / कल्पक्षयौ / प्रलय कालमें) मत समूह मदीय प्रकृतिमें लीन होता है और कल्पादिमें (सृष्टि कालमें ) फिर मैं उन सबको सृजन करता हूँ॥७॥ . व्याख्या। जलका घर द्वार समुद्र है। वायुके शोषण-शक्तिसे जल शोषित हो करके आकाशमें उड़ जाता है, जैसे गरम भातका भाप। वह जो पृथिवीकी सर्वोच्च पर्वतकी सर्वोच्च शिखरकी सर्वोच वृक्षकी सर्वोच्च स्थानकी पत्ति किशलय राग करके नवीन रसमें रजित होकर दर्शन करनेवालोंका मन भुलाता है, देखते हो, उसकी वह रसविन्दु भी उसी महासागरका जल है। वायु द्वारा शोषित जलकण आकाशमें उठकर वायुके सहारासे मेघरूप धरके वर्षणसे समस्त पृथिवीको खोंचकर नदी रूपसे समुद्र में मिलकर पुनः समुद्र हो जाता Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 श्रीमद्भगवद्गीता है। यह "कल्पादि" और "कल्पक्षय” हुआ। इसी तरह मन कल्पना परित्याग करके जब बुद्धिको आश्रय करता है, तत्क्षणात् बुद्धि अहंकार को आश्रय करती है। यह अहंकारही छोटे “मैं” अर्थात् जीव है / जबतक साधक चित्तभेद करके विवस्वानके ऊपर पीठमें न पहुंचे, तब तक उनको चित्तके श्राधीनमें रहने होता है / इसीलिये क्रियाकी परावस्था भोग करके भी साधकको पुनः संसार अवस्थामें, अर्थात् क्रियाकी परावस्थाकी परावस्थामें उतर आने पड़ता है; यह "कल्पादि” हुआ / क्रियाकी परावस्थामें ब्रह्मत्व भोग किया, फिर विवश होकरके जो पुनः संसारावृत्ति हुआ, फिर जो जीव सज कर नाचने लगा, यह प्रकृतिके वशतापन्नका दृष्टान्त और दैनिक प्रलय तथा जन्म ग्रहणके भोगाभोगका बोधन है, यह जैसे अल्पकाल स्थायी है, मृत्युके बाद तैसे कुछ अधिक काल रह करके पुनः संसार प्राप्ति वा जन्म होता है। इससे और कुछ अधिक काल परिलीन अवस्थामें रहनेका नाम महाप्रलय है। परिलीन अवस्थाको ही "कल्पक्षय" कहते हैं। और प्राकृतिक स्फुरण अवस्थाको कल्लके आदि कहते हैं / प्रकृति जैसे "मैं” में लगकर विभोर होकर "मुझको" न लेकर चक्कर खाती है, विवशका खेल खेलती है, प्रकृतिगत जो कुछ है वह सब भी उसी प्रकृति सदृश विवश होकर चक्कर खानेवाले खेलमें योग दिया है। यह कल्पक्षय और कल्पादि कहा गया है // 7 // प्रकृति स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः। भूतग्राममिमं कृत्स्नमवश प्रकृतेर्वशात् // 8 // . अन्वयः। ( अहं ) स्वां प्रकृति अवष्टभ्य ( अधिष्ठाय ) प्रकृतेर्वशात् अवशं इमं कृत्स्र भूतप्रामं पुनः पुनः विमृजामि / / 8 // अनुवाद। (मैं ) अपने ( निज ) प्रकृतिको आश्चय करके, प्रकृति के बशमें विवश इन समस्त भूतोंको बारंबार सृजन करता हूं // 8 // Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय 376 व्याख्या। जैसे दर्पणमें मुख है, और गोष्पद के जलमें आकाश है, वैसे ही चित्तमें प्रतिविम्बित "मैं” हूं। इस "मैं" में बहु मैंको सृष्टि कर लेता हूँ। जैसे सहस्र पलवाले कांचके दुरबीनमें अांख लगाकर देखनेसे एक वस्तुको सहस्र देखा जाता है, तैसे मैं अपने मायाको विस्तार करके एक मैंको अनन्त प्रकार व अनन्त श्राकारसे सृष्टि कर चुका हूँ। कांचके दुरबीनको घुमानेसे जैसे वह एक वस्तु बदलते बदलते और प्रत्येक पलमें नये नये आकार धरते धरते अन्तमें पूर्वसदृश ठीक आकारमें देखा जाता है, तिसमें वह वस्तु जसे जड़ तैसे ही ठीक एक स्थानमें रहता है, हिलता डोलता नहीं, अथच दुरबीनकी टेढ़ी-सीधी फिराईमें भ्रममय बहुतेरे आकारका दृश्य दिखला देता है। वैसेही मेरे मायाकी चक्करवाले खेलके गुणसे बारंबार मेरा जन्म, बारंबार मेरा संक्षय सरीखे भ्रम दिखला देता है। यह भी उसी कांचके वशीभूत दृश्यके सदृश मायाके वशमें भूतोंके प्राम अर्थात् शरीर-समूह इन्द्रजालकी क्रियाका दृश्य है। इसका एक भी सत्य नहीं है॥८॥ न च मा तानि कानि निबध्नन्ति धनब्जय। उदासीन वदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु // 6 // अन्वयः। हे धनञ्जय / तेषु कर्मसु असक्त उदासीनवत् आसीनं मा तानि कर्माणि न च निवघ्नन्ति // 9 // अनुवाद। हे धनञ्जय ! मैं उन सब कर्म में अनासक्त तथा उदासीन सदृश अवस्थित हूँ, इसलिये वह कर्म समूह मुझको आबद्ध नहीं कर सकता // 9 // व्याख्या। कर्म (गुरूपदिष्ट मार्ग में प्राण चालन) जबतक किया जा सके, तबतक ही रजोगुणकी क्रिया है। जैसे जैसे रजोगुणकी क्रियाका अवसान होता रहे, तैसे तैसे सत्त्वगुणका प्रकाश आरम्भ भी होता रहे। इस सत्वगुणका प्रकाश जबतक होता रहे, तबतक रजो Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमदमबद्रीता गुण भी रहता है, जब प्रकाश शेष होकर स्थिति हो गया, होना न होना सब क्रिया मिट कर प्रकाश ही प्रकाश रह गया; यह स्थितिही (शुद्ध) "तमः" है। इस तमोको ही गुणातीत अवस्था कहते हैं / इसको कर्म छू नहीं सकता यह गुणके अतीत अति उच्चपद है; यहां कर्म पहुँच नहीं सकता। मैं 'उदासीनवत्" अर्थात् उस ऊंचे में बैठ रहनेके सदृश बैठा हूँ। सत्व, सत्वरजः, रजस्तम यह सब गुण नीचे में जैसे किल विला करते, घमते फिरते रहते हैं। मेरी आसक्ति इन सबके ऊपर न होनेसे तो कोई भी मुझको छू नहीं सकेगा। मेरेमें आसक्ति भी नहीं है, मुझको यह सब छू भी नहीं सकते। छूया छूत अर्थात् गुण स्पर्श दोष ही बन्धन है, मुझमें गुण स्पर्श नहीं, इसलिये बन्धन भी नहीं है / / 6 // ' . ..... मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् / हेतुनानेन कौन्तेय जगद् विपरिवर्तते // 10 // अन्वयः। हे कौन्तेय ! अध्यक्षेण ( अधिष्ठात्रा ) मया प्रकृतिः सचराचरं ( व्यक्ताव्यक्तात्मकं विश्वं ) सूयते (जनयति ); अनेन हेतुना ( अध्यक्षत्वेन ) जगत् विपरिषत्त'ते ( पुनः पुनः जायते)॥ 10 // अनुवाद। हे कौन्तेय! मेरे अध्यक्षतामें प्रकृति सचराचर जगत्को प्रसव करता है; इस अध्यक्षता हेतु जगत् बारंबार बदलता ( जनमता ) है // 10 // व्याख्या। अध्यक्ष जैसे चीनी ढोवनेवाला बैल ( बरधा ) है ; बोमा ढोवते मरे, परन्तु दूसरा जन चीनी खाय। वैसे कार्य करके परिश्रम कर मरूं मैं; उस कार्यका फलागी हो दूसरा कोई। यहां मैं ( अहंकार ) अध्यक्ष हुआ। आकाशके ऊपर एक दृष्टिसे बहुत देर तक दृक शक्तिको रखनेसे ( ताकनेसे ) लम्बे लम्बे गोल गोल, हिजिर-विजिर कितना क्या देखने में आता है, वह सब जैसे दृष्टिके विकार बिना कोई वस्तु नहीं है, तसे चित्तपटमें प्रतिविम्बित Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्म अध्याय चिच्छायोके साथ मिलकर प्रकृति नाना प्रकारकी घष्टि कर डालती है। वही सब सृष्टि चर ( जो चल फिर कर घूमता है, जैसे जीव जानवर ) और अचर (जो चल नहीं सकते, जैसे पेड़ पत्थर ) है, यह सब भी उस दृशक्तिके विकारसे उत्पन्न श्राकाशके ऊपरके स्वरूप सदृश परिवर्तनशील उत्पत्ति-स्थिति-लय धमी है। परन्तु द्रष्टाका दृकशक्ति और मायाका संयोग ही उसका हेतु है। यह तो असल बात हुई। इसमें फिर धड़-मुड़की टेढ़ी टेढ़ाई ढंग कितना है !-मैं करता हूँ, मैं बोलता हूँ, यह मेरे, वह मेरा, हमसे बड़ा कौन है ! हाय ! हाय ! हाय ! हँसी भी आवे ! रोलाई भी आवे। // 10 // अवजानन्ति मां मूढा मानुषी तनुमाश्रितम् / परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् // 11 // मोघाशा मोधकर्माणो मोज्ञाना विचेतसः / राक्षसीमासुरों चैव प्रकृति मोहिनों श्रिताः // 12 // अन्वयः। मोहिनी राक्षसी आसुरों च एव प्रकृतिं श्रिताः (आश्रिताः) मोघाशाः मोघकाण: मोघज्ञानाः विचेतसः मूढाः ( जनाः ) मम भूतमहेश्वरम् परं भावं अजानन्तः ( सन्तः ) मानुषीं तनु आश्रितं मां अवजानन्ति ( अवमन्यन्ते) // 11 // 12 // अनुवाद। मोहकरो राक्षसी और आसुरी प्रकृतिके आश्रय करके ही मोषाशा, मोषका, मोषज्ञान, विक्षिप्तचेता मूढ़ ( जना ) मेरे भूतमहेश्वरके परममाषको न जानकर मानुषी तनुधारी मेरी अवज्ञा करते है // 11 // 12 // व्याख्या। जिसके मन है उसीको मानुष कहते हैं। उसी मनका धर्म सङ्कल्प और विकल्प करना है। उस मनोधर्ममें जो कोई भानुरता दिखावे, अर्थात् संकल्पमें हो वा विकल्पमें ही हो,-कार्य सिद्धि न कर सकनेसे ही जैसे “मैं मर गया", "मेरे जैसे सर्वस्वान्त हु ऐसा अन्धतामिश्रमें डूब जाता है, वही मानुषी तनुके आधीन है। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता प्रकार अन्तःकरणकी दुर्बलता जिसकी है, वही मूढ़ है। क्योंकि भोगलालसाके श्रापूरणसे वह बचता है, और न होनेसे मरता है। इस अवस्थापन्न लोग, संकीर्णचेता है; “मैं” जो अनादि अनन्त, इस भूतबाजारके महान ईश्वर हूं, सो अपनेको समझ नहीं सकते; इसलिये आपही अपनेको छोटेसे डिबियामें शालग्राम शिला ( नारायण ) सजाकर अवज्ञा करता है। अनित्य आशा, अनित्य कर्म, अनित्य ज्वालामयी राक्षसी, आसुरी (आत्मघातिनी ) प्रकृति का आश्रय लेना ही इसका कारण है // 11 // 12 // महात्मानस्तु मां पार्थ देवों प्रकृतिमाश्रिताः। भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् / 13 // अन्वयः। हे पार्थ! तु ( किन्तु ) देवी प्रकृति आश्रिताः महात्मानः अनन्यमनसः ( सन्त्र ) मा अव्ययं भूतादिं ( जगत्कारणं ) ज्ञात्वः भजन्ति // 13 // अनुवाद / हे पार्थ! परन्तु देवीप्रकृति विशिष्ट महात्मागण अनन्यभना होकर मुझको भूतके आदि और अव्यय जानकर भजते रहते हैं / / 13 // व्याख्या। महत् प्रधान है, और मैं आत्मा हूँ। यह प्रधान अर्थात् मूल प्रकृति वा माया जब सब छोड़कर 'मैं' को सन्मुखमें लेकर बैठ रहे, अथच "मैं" में मिल न जाय, तथा पीठके ओर (संसारवाले) कोई कार्य भी न करे, मायाको इस अवस्थामें जो रहते हैं, वही साधक महात्मा हैं। यह अवस्था, साधन बलसे मन-बुद्धि-अहंकारचित्तके चारों अवस्थाको पीछे करके, 'मैं-मुखी दृष्टिसे होता है, और नीचे दिशा ( चित्तके भी कार्यविमुक्ति अवस्थाके प्रारम्भके नीचे ) में किसी अन्तःकरणके धर्ममें रहनेसे ( यह ) होनेका युक्ति नहीं है। यह तो अतिमात्र तीव्र साधकका काम है। इस समय प्रकृति प्रसव शक्ति त्याग करके पतिरता होती है इस करके "दैवी प्रकृति" कहा हुआ है। साधक भी इस अवस्थापन्न प्रकृतिके आश्रय करके मन Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय आदि अन्त:करण चतुष्टयको त्याग करके “मैं" को भजते रहते हैं, अर्थात् भूतके श्रादिकारण-सर्वशक्तिमती प्रकृतिके सर्वशक्तिकारण "मैं” को ही "मैं" जान करके, अव्यय निश्चय करके, मिल करके, एक हो जानेका चेष्टा करते हैं / / 13 // सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः। नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते // 14 // अन्वः / (ते महात्मानः ) सततं मां कीत्त यन्त दृढव्रताः ( सन्तः ) यतन्तः, भक्त्या मां नमस्यन्तः च, ( तथा ) नित्ययुक्ताः ( सन्तः ) उपासते / / 14 / / अनुवाद। ( वही महात्मागण ) सनत मेरे कीत्त न करके, दृढ़व्रत होकर प्रयत्न करके भक्ति सहकार मुझको नमस्कार करके, और नित्ययुक्त हो करके, उपासना करते हैं // 14 // व्याख्या। सतत (अविच्छिन्न भावसे) जब प्रकृति-पुरुषका चाक्षुषी मिलन होता है ( प्रकृति ही साधक है ), तब साधक तृतीय चक्षुकी हक्शक्ति द्वारा मुझको साधकके भीतर घुसाकर, भीतर बाहर अणु परमाणु मिलाकर आधा "मैं" हो जाकर, मेरी निगुणता और साधकको सगुणता एक करके सगुणमें विकार और निर्गुणमें निर्मालता देखते हैं। यह जो देखना है, उसीको मेरा कीर्तन कहते हैं अर्थात् अपने आशुकका गुण अकेले बैठकर मन ही मनमें जैसे आलोचना करके प्रसन्न होता हूँ, अथच मेरी उस प्रसन्नताको बाहरका कोई नहीं जान सकता; मनकी प्रसन्नता मनमें रह करके जैसे मनही भनमें मनको मतवाला करता है, यह कीर्तन भी उसी प्रकार है। निगुणकी निर्मलता जिस प्रकारसे और गुणके विकारमें मेल न हो सके तथा गुणके विकार भी जिस करके निर्मलतामें मलिनता मिला न दे सके, इस विषयमें दृढ़ता सहकार सतर्क / हुंशियार ) होते हैं। इसीको ही दृढव्रत होकर प्रयत्न करना कहते हैं। मलिनता प्रकृतिमें Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384 श्रीमद्भगवद्गीता और निर्मलता “मैं” में है। एक बार निर्मलतामें लक्ष्य, फिर मलिनतामें आना, फिर निर्मलतामें लक्ष्य, फिर मलिनतामें आना-यह जो ऊंचे नीचे करना अब आकर खड़ा हुआ, इसीको ही नमस्कार कहते हैं। यह गुरु वाक्यमें अटल विश्वासका पल है। इस गुरु वाक्यमें अटल विश्वासका नाम 'भक्ति' है। इस प्रकार जाना आना करते करते प्रकृतिकी अनित्यता "मैं" के संयोगसे घटती रहती है। "मैं" नित्य हूँ, प्रकृति क्रम अनुसार “मैं” में युक्त होकर मेरे सेवामें मिल जाती है, जैसे स्फटिकमें निकटस्थ जवाफूळ (अढ़ौल) के लाल रंगका संक्रमण है। जवाफूल पृथक है स्फटिक भी पृथक् है। स्फटिक अत्यन्त स्वच्छ है, जवाफूलके रंगको अपनेमें धरकर जैसे जवाफे रंगमें रंगीला हो जाता है, प्रकृतिकी 'मैं' --उपासना भी तद्र प है // 14 // ज्ञानयज्ञेन चाप्य ये यजन्तो मामुपासते। एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् // 15 / / अन्वयः। अन्ये अपि च विश्वतोमुखं ( सर्वात्मक) मां ज्ञानयज्ञेन एकत्वेन ( अभेदभावेन ) पृथक्त्वेन (पृथक्भावेन ) बहुधा ( बहुभावेन ) यजन्तः ( पूजयन्तः सन्तः ) उपासते // 15 // अनुवाद। दूसरे लोग भी सर्वात्मक मुझको ज्ञान यज्ञसे ( एकव्व ) अभेद भावसे, ( पृथकत्व ) पृथक भावसे, और ( बहुधा ) बहु भाषसे पूजा करके उपासना करते हैं // 15 // व्याख्या। एकको और एकमें आहुति देनेका नाम यज्ञ है-जैसे विल्वपत्रमें घी लगाकर अग्निमें फेंककर हवन करना। तैसे साधनाके शेषमें जैसे जैसे निजबोधरूप ज्ञानका प्रकाश होता रहता है, वैसे वैसे उस ज्ञानाग्निमें अज्ञानता श्रापही पाप आहुतिकी सदृश पड़ करके जलकर चिर दिनके लिये भस्म हो जाता है, और स्वरूप में स्थिति भी हो जाती है। यह ज्ञानयज्ञ हुआ; यह उदार है। इसमें समझाय Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय 385 दिया कि, “मैं” बिना और कुछ नहीं है। यह एक-ज्ञान जब न था, तब विश्व हुआ था। इस विश्वमें नानात्व,-मैं, तुम, यह, वह, सात, पांच कितने क्या हैं। जिससे जिसका बुद्धि जरा भी अधिक निर्मल है, वही उस अनिर्मल बुद्धिको अपना उपासक बना लेता है, और वह अनिर्मल उसीको ही उपासना करता रहता है। ऐसे शक्ति, शिव, विष्णु, गणेश, सूर्य्य, मनसा, महाकाल आदि कितने क्या उपास्य और उपासकके तरङ्ग चल रहे हैं, देखने में आता है। परन्तु वस्तु जो एकही एक है, उसे अर्थभेदसे खुलासा कर लेनेका शक्ति वह न पायके गोलमाल कर देता है। साधक जब गुरुमहाराजके पास प्रथम पहुंचा, तब वह कुछ भी नहीं जानता था; जाकर प्रणाम करके हाथ जोड़कर . कहा-"ठाकुर ! मैं क्यों यहां आया हूँ ? मैं क्या चाहता हूँ? मैं क्या करूंगा ?" अहो! इस सरलताके आधार शिष्यको प्राप्त होकर दयाका सागर गुरुदेव कहें-"वत्स ! तुम इस त्रितापमय संसारके ज्वालामें जलते हुए यहां आये हो, तुम्हारी मुक्ति चाहिये, इस त्रिताप और तुमको जैसे किसी तरहसे धोखा दे न सके। तुम जो करोगे, वह मैं तुमको कहता हूँ।" यह कह करके गुरुदेवने जिज्ञासु शिष्यकी बहिम्मुखी वृत्तिको अन्तमुखमें चित्त पथमें ला दिये। जब साधक मूल आधारमें, मूलाधारके ऊपर उठ बैठे, तत्क्षणात अपना अधिष्ठान को ( स्वाधिष्ठान ) प्राप्त हुए। जब अधिष्ठान अर्थात् बैठनेका जगह मिला, वैसे ही मणिमय पुरमें श्रा पहुंचे। जब मणिमय पुरके भीतर उपस्थित हुए, तत्क्षणात् देखा कि और किसीसे उनको आहत होनेका डर नहीं है। जब आहत होनेका डर दूर हो गया तत्क्षणातू अनाहत. में, "विशोका ज्योति” जिसमें त्रितापकी ज्वाला छूट जाता है-- सोचना दूर होता है, वही ज्योति खिल उठी। जब विशोका ज्योति खिल उठी, साथ ही साथ विशुद्ध अर्थात् निर्मलत्व प्राप्ति हुई। जब निर्मलत्व प्राप्ति हुई, तत्क्षणात् युगपत् अज्ञानका शेष हुभा। जब Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 / श्रीमद्भगद्गीता अज्ञानताका शेष हुआ तत्क्षणात् स्वस्वरूपमें अवस्थान हुआ। इस स्वस्वरूपमें अवस्थान और ज्ञानाग्निमें अज्ञानताकी आहुति, एक ही बात है। अब समझ लो, साधक ! एकत्व और पृथक्त्व क्या है ? // 15 // अहं ऋतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम / मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् // 16 // अन्वयः। अहं क्रतुः, अहं यज्ञः, अहं स्वधा, अहं औपध, अहं मन्त्रः, अहं एष आज्यं, अहं अग्निः , अहं हुतम् // 16 // अनुवाद। मैंही ऋतु मैंही यज्ञ मैंहो स्वधा, मैंही औषध, मैंहो मन्त्र, मैंही आज्य, मैंही अग्नि, मैंही हवन ( होम ) हूँ / / 16 // व्याख्या। द्वैत दोका नाम है, और अद्वत एकका नाम है / यह द्वतावत विवर्जित "मैं" हूँ। अब साधक ! देखो, तुममें द्वत भी नहीं है, अद्वैत भी नहीं है, क्योंकि तुम "मैं” हो चुके हो। चौदह भुवन शब्दके भीतर जो कुछ है, वहीं सब 'मैं' हूँ। मैं क्या हूँ ? ' “अहं क्रतुः"। क्रतु कहते हैं वेदविहित क्रियाको, अर्थात् ज्ञानके द्वारा जो कुछ क्रिया किया जाता है वही "मैं" हूँ। क्रतु-सोमरससाध्य याग * है “सोम” कहते हैं चन्द्रमाको; इस चन्द्रमासे जिस सुधा का क्षरण होता है वही पुष्टि अर्थात् अमृत है। इस अमृतसे जगत्में जो कुछ दर्शनीय है, उसीका पुष्टि साधन होता है, (८म अः४र्थ श्लोक 'अधियज्ञ” देखो)। जब शरीरके भीतर कोई कुछ उपादान अर्थात् खाद्य दिया जाता है, वही खाद्य पेटके भीतर जानेसे जठराग्नि के द्वारा उसका पचन होता है / पश्चात् सीठी समूह सीठीके दरवाजे * “सोमधारा क्षरेत् या तु ब्रह्मरन्ध्रात् वरानने / पौत्वानन्दमयस्ता यः सः एव मधसाधकः / / आगमसार। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय 387 में, जलांश जलके दरवाजे में, जो कुछ असार वंश अपान वायु फेंक देता है। पचकर जो एकदम सार होकर खड़ा हुमा, जिसको किसी प्रकारसे अग्नि और क्षय नहीं कर सकी, उसीका नाम अमृत हुमा / बही अमृत मेरुदण्डको आश्रय करके वायुके सहारासे शरीरके प्रत्येक अणुके संयोग स्थलमें उन सबका क्षयांश आपूरण करके सहस्रारके मूलत्रिकोणमें उठ पड़ा। उस त्रिकोणमें तीन मुख हैं। एकमुख ईड़ा नाड़ीमें, एकमुख पिङ्गलामें, और एकमुख सुषुम्नामें मिला है। ईड़ा नाड़ीसे जो धारा शरीरमें घुमा फिरा करता है उसीसे शरीरकी पुष्टि होती है। (साधक देखेंगे कि जब उनका बाम नासिकामें श्वास बहेगा, तब उनको क्षुधा नहीं रहेगी) और जो धारा सुषुम्ना मार्गमें सञ्चारण करती है उससे साधकके ज्ञानकी वृद्धि होती है। और जो धारा पिङ्गलामें बहती रहती है उस धाराको सूर्यरूपिणी महामाया खा जाती है। (साधक देखेंगे, जब उनके दक्षिण नासामें श्वास बहेगा, तब उनको क्षुत्बोध होवेगा, क्योंकि इस सुधाकी अपक्षयमें धापूरणका प्रयोजन होगा. अर्थात् खाद्य द्रव्य शरीरमें देने का प्रयोजन होगा,-खाद्य द्रव्यका प्रयोजन समझाय देनेको ही क्षुधा कहते हैं)। साधक गुरूपदिष्ट क्रम अनुसार जिह्वाको गलगहर के भीतर प्रवेश कराकर ऊर्ध्वमुखमें नासारन्ध्रकी पश्चिम भोर भिड़ाकर श्माका स्थान अतिक्रम करके बायें तरफ मुका देनेसे ही सुधाकूप अर्थात् ब्रह्मरन्ध्रको पावेंगे। उस स्थानसे होकर वह अमृत पिङ्गलामें जाती है। रसना पिंगलाका द्वार अवरूद्ध करनेसे, जिलाकी अग्रभागको दांतसे दबानेसे जो योनिस्थान देखा जाता है, उस योनिस्थानमें उस सुधा। कूपस्थ लिङ्गका संयोग होकर सुधाक्षरण-प्रवाह बहता रहता है। वह सुधा जिह्वाको आश्रय करके जठरमें आकर वैश्वानर अग्निमें पड़ता है। वैश्वानर और उसको पचन नहीं कर सकता, अथच वह सुधा वैश्वानरको तृप्ति देकर मेरुदण्डको आश्रय करके, तथा पुनः समस्त Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388 श्रीमद्भगवद्गीता शरीरके प्रत्येक अणुके संयोगको पुष्टि देकर पुनराय सहस्रारका मूल त्रिकोणमें उठ जाता है। ऐसे बारंबार जाना आना होता रहता है। इस अवस्थामें आ पहुंचनेसे साधकका अपक्षय शून्य हो जाता है। इस अपक्षय-शून्यताका नाम ही परिणाम-शून्यता है। यह परिणामशून्यता जिसमें है, वही अपरिणामी है। जो अपरिणामी है वही सत् , ब्रह्म, वा “मैं” हूँ। अब साधक ! समझ लो “अहंक्रतुः" वाक्य का अर्थ क्या है? "अहं यज्ञः”। इस भादान-प्रदानको ही यज्ञ कहते हैं, क्योंकि सर्व प्रकार यज्ञ जिसको आश्रय करके रहता है, वही विष्णु है (विष+ ण+3 ) / विष = व्याप्ति वा व्यापन है; ण-निर्गुण, उपञ्चदेवसमष्टि, अर्थात् शिव, शक्ति, गणेश, विष्णु, सूर्य-इन पांचोंको गलाकर एक कर देनेसे पञ्चदेव समष्टि होती है। इस अवस्थामें सब एक हैं, किसी गुणकी क्रिया नहीं रहती,-जैसे चीनी घोरा हुआ इक्षुका रस सबमें ही सब व्याप्त हो रहा है इस करके, विश्वव्यापक चैतन्य आत्मा ही विष्णु है। इस शरीर रूप विश्वमें वह आदानप्रदान रूप पुष्टि-क्रिया ही पालन है। जिस चतन्य-सत्त्वासे वह पालन सम्पादित होता है वही विष्णु है; वही विष्णु यझेश्वर है, और इसलिये वह यज्ञ भी मैं हूं। "अहं स्वधा"। स्वधा अग्नि देवताकी पत्नी है। अग्निका और एक नाम तेज है। यह तेज सोहागिनी शक्ति भी “मैं हूँ। यह अवस्था अच्छी तरहसे व्यक्त करनेकी युक्ति नहीं है। साधक ! समझ लो, जीवत्वसे ब्रह्मत्व लेनेके लिये चलो तो चित्तके ऊपर दिशामें उठने के समय जो महाशक्ति तेजकी सहायता करती है, वही स्वधा है। “स्व” शब्दमें अपना; और एक जगहसे चलना प्रारम्भ करके चलते चलते तदाकार और एक विश्राम भूमिकामें उपनीत होनेका नाम 'धा' है, जैसे गोतका सम। मैं जो "मैं" से सृष्टिसुख भोग करनेके लिये Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय . 386 मात्महारा होकर दौड़ा था, सृष्टि भोगके पश्चात् पुनः जो 'मैं' जहाँ से दौड़ा था उसी 'मैं' में आ पहुँचा, यही हुआ मेरा “धा"। इसीलिये “मैं” स्वधा हूँ। ___अहं औषधं"। औषध कहते हैं जो रोग नाश करके जीवको बँचा रक्खे। जीव जबतक जीव रहता है, तबतक किसी प्रकारसे उसको बँचनेका उपाय नहीं है / जीवका कार्य जन्म और मरण भोग करना ही है। उस जन्म-मरण भोगको ही भवव्याधि कहते हैं / इस व्याधिके वैद्य श्रीगुरुमहाराज हैं। उनका श्रीमुखनिःसृत जो “मैं” वाचक शब्द है, उसीको ही औषध कहते हैं। उसका प्रयोग करते करते, वह शब्द जन्म-मरण रूप जीवत्वकी क्रिया शेष कराकर “मैं" त्वमें ला फेंकके “मैं” करा देता है, आप भी 'मैं हो जाता है। इसलिये औषध भी 'मैं' हूँ। "अहं मन्त्रः”। मनका त्राण जो करे, वही मन्त्र है। मनका धर्म संकल्प और विकल्प करना है। एक छोड़ना, एक पकड़ना,-एक छोड़ना, एक पकड़ना; जोंकके सदृश मनका यह कार्य अविश्रान्त चलता ही रहता है। यह मन जब सम्पूर्णरूप वृत्तिशून्य हो पड़ता है, मनका वह निवृत्तिक अवस्था ही 'मैं हूँ। इसलिये 'मैं' मन्त्र हूं। __ "अहं आज्यं"। आज्य कहते हैं हविको। जो पुनर्भव वही "हवि" है। क्योंकि, हवनसे हुत वस्तु सूक्ष्मत्व ले करके वायुतत्त्वके साथ मिल करके आकाशमें उठकर पांचो तत्त्रको ही शोधन कर देता है। अर्थात् बली कर देता है। पुनः नवीन शक्तिसे शक्तिमान हो करके प्रत्येक तत्त्व सहस्र मुखसे क्रिया करने लगता है। इस क्रियासे समस्त प्रजाशरीरमें समयोचित आवश्यकीय शक्ति सञ्चार होती है। इसलिये वह सब प्रजा भी फिर सुन्दर सुन्दर नवीन प्रजाको उत्पन्न करती है। यह बहिर्जगत् की क्रिया हुई। और जब अन्तर्यागमें, साधक ! तुम "मैं" में "मैं' को हवन करो, वह भी प्रत्यक्ष करके समझ लो।। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 श्रीमद्भगवद्गीता तुम्हारा जो बहिर्जगत् का “मैं” ( अधोमुखी वृत्ति ) है उसी मैंको गुरूपदिष्ट क्रियासे समेटते समेटते सब समेटना शेष करके जब सर्वशेषके “मैं” में कूदने जाते हो, तब एक बार देख लो, उस "मैं" से ही तुम कटिबद्ध होके सृष्टिमुखी वृत्तिको लिये थे, कितने क्या सृष्टि भी कर डाले थे; अब उन्हीं सब सृष्टि समेट करके, जिस मैंसे बाहर हुये थे, फिर वही “मैं” होते हो। इसलिये आज्य वा हवि शब्दमें पुनर्भव अर्थात् 'मैं ही मैं हूं। "अहं अग्निः”। अग्नि भी मैं हूँ। अग्नि कहते हैं स्वयोनिभूक को, अर्थात् अपने उत्पत्ति स्थानको जो खाता है। काष्ठके भीतर अग्नि है, परन्तु आपही आप काष्ठ जल नहीं उठता / परन्तु दो काष्ठ लेकर घिसनेसे ही अग्नि निकल आती है; अपना उत्पत्ति स्थान जो काष्ठ , उसको खा डालती है; पश्चात् आप भी विश्रामको लेती है / जबतक वह काष्ठ और अंगार रहता है, तबतक ही अग्निका नाम ऊर्वशिख है, अर्थात जिसकी शिखा ऊंचे दिशामें है। जब मैं मायाके गर्भमें प्रवेश किया था, प्रवेशके पश्चात् अपना स्वरूप छिपा रक्खा था, तब वह काष्ठगत अग्निके सदृश मायाके शरीरमें विराजता था। जितनो दुईशा वा सुदशा काष्ठमें आ पड़ती थी, काष्ठके साथ मैं भी उसको भोगता था। तसे मायामें भी है। यह सृष्टिमुखी वृत्तिका काष्ठ हुआ। फिर जब मैं-मुखी वृत्ति लेनेका समय आया, मेरे उद्धार के कर्ता श्रीगुरुदेवने उन दोनों मुखको एक करके जैसे रगड़ दिया वैसे ही झटसे जलकर मेरी जो योनि, माया वा महत है, उसको खाकर आपही आप क्रिया समाप्ति करके ऊंचेमें आकर विश्राम लिया, अर्थात "मैं” हो गया। अतएव अग्नि भी 'मैं' हूँ। - "अहं हुतं” / हुत शब्दमें हवन कार्य्य, अर्थात् जिस गुरूपदिष्ट क्रियासे, इस जगद्-व्यापारको “मैं” में अर्थात् ब्रह्माग्निमें आहुति देकर मुक्ति लिया जाता है वही क्रिया है / वह क्रिया भी "मैं" हूँ। 6 Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय 361 पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः वेद्य पवित्रमोंकार ऋक्सामयजुरेव च // 17 // अन्वयः। अहं एव अस्य जगतः पिता, माता, धाता, पितामहः, वेद्य, पवित्रं, ओङ्कारः, ऋकसामयजुः एव च // 17 // अनुवाद। मैं ही इस जगत्का पिता, माता, धाता, तथा पितामह हूँ ; मैंही वेद्य, पवित्र, ओङ्कार, ऋक् साम, और यजुः है // 17 // ___ व्याख्या। जगतू अर्थमें जो जाता है। जो जाता है, उसका उत्पत्तिकर्ता “मैं” हूँ; क्योंकि, चित्तमें प्रतिबिम्बित हो करके मैं जो "मैं" कह करके अहंकार करता हूँ, उसी अहंकारसे ही सृष्टि होती है। इसलिये मैं सृष्टिका पिता व जनयिता हूँ। और "माता" ?-जो जिसके पेट में जनमता है, वही उसकी माता है। मैं असीम हूँ, यह ससीम जगत् मेरे पेट में ही रहा है, इसीलिये मैं माता हूँ। साधक ! अपने अधिक विश्रामको अल्प विश्राम देकर मिला लो। यह थोड़ा कम और वह अधिकसे अधिक है; यही मात्र प्रभेद है। "धाता" ।-जो धारण करके रहता है। वह देखो, वह भी वही 'मैं' हूँ; क्योंकि, मैं समस्तको गर्भमें धारण करके बैठा हूँ। ___"पितामह'।-सृष्टि के पहले जब माया हमसे पृथक् नहीं हुई थी, खारे जल सरीखे जब हममें घोली रही थी, वही मैं एक मैं हूँ। पश्चात चित्तमें प्रतिफलित बिम्ब एक मैं हूँ। तत्पश्चात् जगतका रचना माला और एक मैं हूँ तभी तीन 'मैं' हुआ। इस शेषवाले मैं का पितामह वह पहलेवाले 'मैं' हूँ। __ "वेद्य'। ज्ञाता ज्ञानसे जो जाननेके वस्तुको जानते हैं, उन्हींको ज्ञेय कहते हैं। अब साधक ! समझ लो, यह जाननेका वस्तु वह Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392 श्रीमद्भगवद्गीता लवणाम्बु "मै" बिना और कुछ नहीं है। इसलिये मैं वेद्य अर्थात् जाननेका वस्तु हूँ। “पवित्र"। -ग्नानिशून्यं; अर्थात विकारी माया जहाँ विकार लेकर कोई नाम-रूपका खेल खेलने नहीं सकता, ऐसा मैं हूं। ___ "ॐकारः" / अर्थात् जिसको उच्चारण करना हो तो अति सूक्ष्मसे खींचकर अति स्थूल दिखलाकर पुनः उसी अति सूक्ष्म में फेंककर नेरन्तर्य रक्षा करके देखना होता है; वही प्रणव मैं हूँ। (साधक ! इसे अच्छी तरह प्रणिधान करके समझ लेवेंगे)। ___ "ऋक् साम यजुरेव च” / (१)-ऋक् = पूर्व आम्ना; (2) साम - पश्चिम आम्ना; (3) यजुः = दक्षिण आम्ना है। ___ ऋक्-'ऋ' अर्थमें पावन, 'क' अर्थमें सृष्टिकर्ता ब्रह्मा है / सृष्टिकद्रूप ब्रह्माको जो पावन (पवित्र ) करता है, वही ऋक् अर्थात वेद है। वेद = विद्+घन , विद् धातुका अर्थ ज्ञान है / स्थूल शरीरधारी मनुष्योंमें सब कोई ज्ञान द्वारा मुक्ति लाभ करते हैं। विचारसे ज्ञानकी उत्पत्ति होती है। कर्मका अर्थ लक्ष्य कर चलनेका नाम ही विचार है। इसलिये ऋक्-कर्मकाण्डप्रधान, उपासनामय, पूर्व गति वा सृष्टि-आडम्बर है। इसका बीज अहंकार है इसलिये “मैं” हूं। ___साम-स+आ+म। स्=सूक्ष्मश्वास, आ आसक्ति, म= मणि, सूक्ष्मश्वासमें आसक्तिं देके (क्रिया गुरूपदेशगम्य ) श्वास स्थिर हो जानेके पश्चात स्वच्छ आवरणके भीतरसे हीराके जल सरीखे जो ज्योति प्रकाशित होती है। उस ज्योतिमें "मैं" और "मेरे" इन दोनों का भेद समझा देता है, साधक लोग जिसको ज्ञानालोक कहते हैं,जिस आलोककी शिखा देखनेकी चेष्टा करनेसे सर्वदा पश्चिममुखी है, दिखाई देता है;-वही "साम" है। "हिरण्मयेन कोषेन सत्यस्यापिहितं मुखं। तच्छुभ्रज्योतिषां ज्योतिः तद् यदात्मविदो विदुः" इति श्रुतिः / वह ज्योतिही 'मैं' हूँ, अतएव मैं साम हूँ। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय 363 यजुः-य+ज+ः / यं-स्वरूपे, जं-जायमाने, उ-स्थितिका स्थान है। साधन-समयमें योनि मध्यगत ज्योतिर्मय जो स्वरूप दर्शनमें आता है, जिसको आत्मदर्शन कहते हैं; जिससे-मैं देह नहीं हूँ, मेरी देह भी नहीं है, इन दोनोंसे मैं अत्यन्त भिन्न हूं, अथच मैं कुछ न करके भी देहको धारण कर रहा हूँ, स्पष्टतः समझा जाता है; वही साक्षात् ज्ञान स्वरूप यजु भी 'मैं हूँ। दक्षिण दिशामें देखा जाता है, इसलिये साधकगण इसको दक्षिण आम्ना कहते हैं // 17 // गतिर्भर्त्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् / / प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् // 18 // अन्वयः। (अहमेव ) गतिः, भत्ता, प्रभुः, साक्षी, निवासः, शरणं, सुहृत्, प्रभवः, प्रलयः, स्थानं ( आधारः) निधानं ( लयस्थानं ), अव्ययं, बीज // 18 // अनुवाद। मैं ही-गति, भत्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, शरण, सुहत, प्रभव , प्रलय, स्थान, निधान और अव्यय बीज हूँ / / 18 // व्याख्या। गति-परिणामको कहते हैं। इस जगतकी 'गति' अर्थात् परिणामस्थल 'मैं' हूँ। 'भर्ता'-जो भरण करे वा जो पोषण करे; पालन कर्ता है। यह जगत् अहंकारसे पालित है; वह अहंकार 'मैं हूँ। 'प्रभु' स्वामी। इस जगतका स्वामी 'मैं हूँ। "साक्षी" देखने वाला है। इस जगतका द्रष्टा 'मैं हूं। "निवास” शब्दमें घर मकान है। जिसके भीतर रहा जाता है वही मकान है। यह जगत् मेरे भीतर रहता है, इसलिये 'मैं' जगत् का निवास हूं। 'शरण'-वही है जिसके पास जानेसे विपदसे रक्षा होता है / जगतभोग ही अर्थात् जन्म-मरण ही जीवका विपद है। जो जाता है -वही जगत है। इस जानेका भ्रम जब "परं" दृष्टिसे मिट जाता है, तबही चिरन्तनत्व प्रकाश पाता है। इस चिरन्तनमें विच्छेद नहीं है, चञ्चलता नहीं है इसलिये चिरन्तन स्वपद है, और स्वपदका विपरीत Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 श्रीमद्भगद्गीता विपद है। 'मैं' में चिरन्तनत्व चिर विद्यमान कह करके, इस जगतका विपदसे परित्राण कर्ता भी 'मैं हूँ। 'सुहृत्'-इस जगतसे किसी प्रत्युपकारका प्रयोजन मेरा नहीं है, अथच सर्वदा मैं जगतका कल्याण करता हूँ। इसलिये मैं जगतका सुहृत् हूं, अर्थात् जीवरूपसे नाचता हुआ मैं जगतका अस्तित्व सम्पादन कर रहा हूँ। अर्थात् 'मैं' जगतके मतामें मत मिला रहा हूँ'सदैकानुमतः सुहृत' जीते रहनेके नाम कल्याण है और मृत्युके नाम अकल्याण है। प्रभव'-महामाया हमको जगतरूपसे प्रसव करती है कह करके, और मैं जगतरूपसे उत्पन्न होता हूँ इस करके प्रभव भी 'मैं' हूँ। 'प्रलय'-यह विश्व ब्रह्माण्ड जगत कल्पान्त होनेसे हमही में विश्राम करता है, इस करके "मैं" ही प्रलय हूँ। 'स्थान'--शब्दमें आधार है। यह जगत् हमहीमें भासमान है। इस हेतु करके 'मैं' ही स्थान हूँ। ____ निधान'-अर्थमें सर्व कार्यके परिसमाप्तिमें जहां जाना होता है। इस जगतका कार्य शेष होनेसे एकमात्र 'मैं' ही 'मैं' रहता हूँ। 'वीज'-जिससे इस जगतकी उत्पत्ति होती है। वह भी 'मैं हूँ। और संच्चे 'मैं' को लिंग-संख्या-कारक देकर कोई नहीं समझा सकता है इसलिये 'मैं' 'अव्यय' अर्थात् विकार-विहीन हूँ // 18 // तपाम्यहमहं वर्ष निगृहाम्युतसुजामि च / अमृतञ्चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन // 16 // अन्वयः / हे अर्जुन ! अहं तपामि, अहं वर्षे उन्मुजामि निगृह्णामि च; अमृतं च मृत्युः च, सत् असत् च, अहं एव // 19 // अनुवाद / हे अर्जुन! मैं ही ताप प्रदान करता हूँ ; मैं ही वृष्टि धारा उत्पन्न फरता हूँ फिर आकर्षण करता हूं; मैं ही अमृत, मृत्यु, सत् और असत् हूँ // 19 // Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय __365 व्याख्या। तप= तापने / सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीके ऊपर प्रथम अशरीरि वाणी 'तप' है। साधक जब क्रियाविशेष द्वारा नादमें जा करके पहुंचते हैं, तब उनको ज्योति प्रत्यक्ष होती है। उस ज्योतिकी महियसी शक्ति इतनी है कि, उसके दर्शनमात्रसे मन संकल्प-विकल्पको अलग छोड़कर उस ज्योतिके भीतर घुस जाता है। क्योंकि ज्योति मनको छा लेती है, मन भो अपने कर्मके साथ मिट जाता है। मनके अभाव होनेसे शरीर-वाक्यादि सब विस्मृतिको प्राप्त होती है / इसलिये जगद्व्यापार मिट जा करके अन्तःकरणका आवरण खुल जाता हैं। और 'मैं ही मैं बिना दूसरे बोध्य-बोधन नहीं रहता। यही समाधि-स्थिति, क्रियाकी परावस्था वा प्रश्वासका शेष है। यही आकर्षण वा तापन है, जैसे सूर्य किरणसे समुद्रका जलवण श्राहरण है। 'वर्ष' = विकर्षण वा स्राव है। वह जो समाधिस्थ चित्तलय अवस्था है, उसमें संसार बीज रहता है; क्योंकि शरीरका शेष निश्वास न फक करके ही यह अवस्था होता है। इसलिये पुनः संसार-अवस्था में आने पड़ता है। उस आनेको ही विकर्षण वा वर्षण कहते हैं। यह प्रकृतिकी संसारमुखी गति वा निश्वास है। 'निग्रह'-निः= नास्ति, ग्रह = ग्रहण, अर्थात् जहां ग्रहण नहीं है, फिर त्याग भी नहीं है, ऐसा जो ग्रहण-त्याग शून्य अवस्था है, उसी को निग्रह अर्थात् प्रलय कहते हैं। प्रकृति-विलयका नाम प्रलय है। और सृष्टिको उत्सृजन कहते हैं प्रकृतिका स्फुरण सृष्टि है / यह दोनों ही "मैं' से होती हैं। संसार-जाल समेटकर प्रकृति जव "मैं" में विश्राम करती है तब ही अमरत्व और सत् अवस्था होती है। फिर जब "मैं" से खिसककर जगत् जालका विस्तार करती है, तब मर वा असत् अवस्था है। असत् कहते हैं तीनों कालमें जिसके विद्यमानता का अभाव है अर्थात् केवल भ्रम / साधक ! देखो, इन सबमें एकमात्र मैं ही में विद्यमान हूँ, केवल वाणीको मार पेंच मात्र है। जब तुम Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366 श्रीमद्भगवद्गीता मुझको ग्रहण करते हो, उसीको निग्रह कहा जाता है। यदि तुम न उतरो तो तुम्हारा 'त्वं' त्व चला जाता है, और तुम "मैं" हो जाते हो। यदि तुम उतर आ पड़ो, तब हो उत्सृजन होता है, अर्थात् ऊंचेमें जो तुम "मैं" हुए थे, उतर पाकर फिर उसी "मैं" को तुम सृष्टि कर डालो। तब ऊँचेवाला मैं तुम्हारे लिये "तुम" हो गया, और नीचेवाला “मैं” जो तुम थे उसी तुमको तुम "मैं" कर लिया। अतएव सब दिशामें मैं ही मैं वर्तमान हूँ // 16 // त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्टा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते। ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक मश्नन्ति दिव्यान् दिवि देवभोगान् // 20 // अन्वयः। विद्याः (ऋक्यजुसामषिदः ) यज्ञः मा इष्टा ( संपूज्य ) सोमपाः पुतपापाः ( सन्तः) स्वर्गति ( स्वर्गगमनं ) प्रार्थयन्ते, ते पुण्यं ( पवित्रं ) सुरेन्द्रलोक आसाद्य (संप्राप्य ) दिवि दिव्यान् देवभोगान् अश्नन्ति ( भुञ्जते ) // 20 // अनुवाद। त्रिवेद वेत्तागण यज्ञानुष्टानसे मुझको पूजा करके गोमपायौ तथा निष्पाप होकर स्वर्गगतिकी प्रार्थना करते हैं; वह लोग पवित्र सुरेन्द्रलोककी प्राप्त होकर स्वर्गमें दिव्यदे, भोग सब भोग करते हैं / / 20 // व्याख्या। "त्रै” कहते हैं सत्त रजः तमः गुणके अधिष्ठाता ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन तीन देवतोंको। जब क्रियामें बैठनेसे साधक में इन तीन गुणकी समता आती है, तबही इन तीन देवताओंकी पृथकता नष्ट हो जाती है। प्रकृति तब साम्यभाव करके सत्वरजस्तमो गुणमयी होती है अर्थात् धर्म-अर्थ-कामको गर्भमें लेकर मुक्ति की आकांक्षासे अपेक्षा करती है। सत्त्वका प्रकाश, रजोकी क्रिया, तमोकी स्थिति एक हो जाकर क्रियाशून्य अधिष्ठान मात्र होके रहती है। मायाको इस अति उच्च अवस्थाको विद्या कहते हैं। इस Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय 367 अवस्थाके बाद ही माया हममें पड़कर "मैं" बन जाती है / साधकका जब यह अवस्था आता है, तब सहस्रारसे सुधा ( सोमरस ) का क्षरण होता है / वह सुधा पापाद मस्तकका पोषण करती है। इसीलिये तब साधक सोमपायी है। इस अवस्था में साधककी चञ्चलता मात्र भी नहीं रहती; अतएव निष्पाप है। यह जो सुधाकी पावन है, यही यज्ञ है। यह अवस्था भी साधककी निर्बीज समाधि नहीं है। इसलिये अवसर मिलनेसे ब्रह्मत्व-सुख भोग करते हैं। यह सुख मर जगत् का कोई किसीके सादृश्यमें नहीं आती; इसलिये "देवभोग" कहा हुमा है। "आठो पहर जो लड़े सो सूर"- अर्थात् अष्ट प्रहर जो क्रिया कर सके वही सुर है। जिसका एक भी निश्वास वृथा न जाय वही सुरेन्द्र है // 20 // ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति / एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते // 21 // अन्वयः। ते तं विशालं स्वर्गलोकं भुक्त्वा पुण्ये क्षीणे (पति) मर्त्यलोक विशन्ति; कामकामाः ( भोगकामयमानाः सन्तः ) त्रयोधम्भं ( वेदत्रयविहितं धर्म) अनुप्रपन्ना: ( जनाः ) एवं गतागतं लभन्ते / / 21 // ___ अनुवाद। वह लोग विशाल स्वर्गलोकको भोग करके पुण्यक्षय होनेसे मत्यलोकमें प्रवेश करते हैं। भोगकामनाके साथ वेदत्रय घिहित धर्मका अनुष्ठान करनेसे इस प्रकार आवागमन करमा होता है / / 21 // व्याख्या। पुण्व-पु-पुंज् ( पिप= पिर्कीके भीतरका गरदा) अर्थात मलमूत्रमय देह +ण= निर्वाण+यं स्वरूप / मलमूत्रमय देह * नि:- नास्ति, वाण - भेद कारक पदाथ। वायुके साहाय्य बिना किसीसे कोई किमीफो भेद कर नहीं सकता, इसलिये वायु भेदक वा वाण है। यह वायु जव "निः" होजाय-न रहे अर्थात् समताको प्राप्त होता है, उसी अवस्थाका नाम निर्वाण Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368 श्रीमद्भगवद्गीता छोड़कर स्वस्वरूप में अवस्थानका नाम पुण्य है; अर्थात् मैं जब देहाभिमान छोड़कर अपने स्वरूप में स्थित हुआ, तब मेरी चञ्चलता नष्ट हो गई; उसी चञ्चलता शून्य अवस्थाको ही पुण्य कहते हैं। इसका व्यतिक्रम ही पाप है। जब तक स्वस्वरूपमें अवस्थान है, तबतक ही अनन्तत्व वा ब्रह्मत्व है। यह विशाल, निस्तरंग, अवधिरहित है / जब तक साधक सबीज समाधिमें भी इस विशाल ब्रह्मके संस्पर्श सुख अनुभव करता है, तबतक साधकमें माया विकारका कुछ भी स्फूरण नहीं होता। जैसे जैसे उस अवस्थाका शेष होता रहता है, अर्थात् वह गर्भस्थ संसार-बीज समाधि-भङ्गके लिये संसार-रसको ग्रहण करता रहता है, तैसे तैसे धीरे धोरे मरजगत्का देहाभिमान भी आता रहता है, और वह स्वरूप स्थितिकी स्थिरत्व कम होते हुए चचलताकी वृद्धि होती रहती है। यह जो स्थिरत्व और चञ्चलत्व है, यह दो स्तर वा स्वर्ग है; यह दोनों ही त्रिगुणमयी मायाकी लीला हैं। इसमें आवागमन अर्थात् जाना आना सिद्ध करता है, क्योंकि, क्रिया करके क्रिया की परावस्थामें रहनेका जो अभिलाष है, वह भी काम है // 21 // अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पय्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् // 22 // अन्वयः। अनन्याः ( सन्तः ) मां चिन्तयन्तः ये जनाः पर्युपासते, अहं तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं ( योग: अप्राप्तस्य प्रापणं क्षेमस्तद्रषं तदुभयं ) वहामि ( प्रापयामि ) // 22 / / अनुवाद / जो लोग अनन्य होकर मेरी चिन्ता करते करते उपासना करते है, मैं उन्हीं नित्ययुक्त साधकोंके योग और क्षेमको बहन करता हूँ // 22 // है। देहाभिमान तबतक वायुका क्रिया है जबतक / वायु बाहर नहीं हुआ अथच देहके भीतर आकाशमें सूक्ष्मरूपसे विश्राम लिया उसी विश्राम भुक्त अवस्था को हो "" कहते हैं / / 21 // Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय 366 व्याख्या। चित्तका धर्म चिन्ता है; वह चित्त जब “मैं” बिना और किसीका चिन्ता न करे, अनन्य होकर “मैं” का चिन्ता तबही होता है। इस प्रकारसे जो साधक "मैं" के ऊपर गिरकर, संसारको भूलकर स्थिर रहे, वह नित्यमें ( “मैं” में ) अभियुक्त (अभि =निर्भय, युक्त = मिलकर एक हो जाना; जैसे कलमी पेड़ ) होता है अर्थात् 'मैं' में युक्त होकर निर्भय हो जाता है, कारण 'मैं' में परिणाम नहीं है; किन्तु साधकका संसार अवस्थामें केवलही परिणमनता है। इसलिये, हममें स्थिर रहनेसे साधकका वह परिणमनता त्याग हो जाकर अपरिणामित्व प्राप्ति होता है;-भय केवल मरनेका है, वह मिट जाता है। इस प्रकार बराबर रहनेसे, भगवान् स्वयं साधकका योग और क्षेम बहन करते हैं। अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति योग है। अब “मत्संस्था शान्ति” ही साधकके पानेकी वस्तु है; इससे बढ़के पानेकी वस्तु और कुछ नहीं है (६ष्ठ अः १५वां और २२वां श्लोककी व्याख्या देसो)। अतएव मत्संस्था शान्ति ही योग है। अनन्य होकर "मां" चिन्ता कर सकनेसे और साधकका कोई भावना नहीं रहता, वह मत्संस्था शान्ति (आत्मभावावस्था ) पानेके लिये चेष्टा भी नहीं करने होता, और प्राप्त हो जानेसे उसकी रक्षा करनेका भी चेष्टा नहीं करने होता। क्योंकि, तब साधक भाग्यवान होते हैं, इसलिये भगवान् साधकका बोझ ढोवते हैं // 22 // येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः। तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूकम् // 23 // अन्वयः। हे कौन्तेय ! ये आप भक्ताः श्रद्धयान्विताः ( सन्तः ) अन्य देवताः यजन्ते, ते अपि मा एव अविधिपूर्वकम् यजन्ति // 23 // अनुवाद। हे कौन्तेय! जो लोग भक्त तथा श्रद्धायुक्त हो करके दूसरे दूसरे देवोंको भी भजते रहते हैं, वह लोग मुझकोहो आवधि पूर्वक भजते रहते है।॥ 23 // Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या : भक्ति और श्रद्धाकी आलवाल दे करके “मैं” से अलग करके और एक देवताका भजन करते जानेसे वह देवता भी “मैं" (मुझ ) को छोड़कर कभी अलग हो नहीं सकता; क्योंकि, साधक जब जिस देवताका भजन करेंगे, तब उनका अन्तःकरण उसी देवताके आकारमें मिल जा करके उसी देवताका रूप धारण करेगा; यह विश्वकोष मेरे गर्भ में ही है, और वह देवता भी विश्वातिरिक्त न होनेके कारण तब "मैं" हो जाता है। दूसरे देवताका उपासना करके भी साधक तब मेरा हो उपासना करते हैं; परन्तु भेदज्ञानसे मोहित हो करके अज्ञानताके लिये साधक उस देवताको “मैं” (हम) से पृथक भावसे भजन करते हैं और मनमें सोचते हैं कि वही देवता उनकी कल्याण करेंगे, यह जो भ्रम, वही अविधि है। [इस अविधिके लिये पुनरागमन (पुनर्जन्म ) हाता है; परश्लोक देखो ] // 23 // अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च / न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते // 24 // अन्वयः। हि ( यतः) अहं सर्वयज्ञानां भोका च प्रभुः एव च; तु ( किन्तु ) ते मां तत्त्वेन ( यथावत् ) न अभिजानन्ति, अतः च्यवन्ति (पुनरावर्तन्ते) / / 24 // अनुवाद। क्योंकि, सर्वयज्ञका भोक्ता भी मैं हूँ, प्रभु भी मैं हूँ, परन्तु वे लोग यथार्थ रूपसे मुझको जान नहीं सक्ते, इस कारण करके पुनरावृत्तिको प्राप्त होते हैं // 24 // __ व्याख्या। अग्निमें साकल्यकी आहुतिका नाम यज्ञ है। यह श्रुति-उक्त तथा स्मृति-उक्त विधान है। श्रुति असरीरी वाणीको कहते हैं; कौन कहा तिसका ठौर ठिकाना नहीं है, परन्तु मुझको सुनने में आया, और मैं समझा। और स्मृति पुराकृत (पहले किया हुआ) कार्यके स्मरणको कहते हैं। इन दोनोंके बीच में मैं हूँ। मैं जब सर्वस्वरूप संसाररूप अज्ञानताको 'मैं' में आहुति देनेके लिये जाता हूँ, तब Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय 401 वह जो श्रुति-उक्त यज्ञ, स्मृति-उक्त यज्ञ और यह संसाररूपी अज्ञानता की आहुतिरूपी यज्ञ है-इन तीनोंका भोक्ता और प्रभु "मैं ही मैं" हूँ। इस “मैं” को न जान करके और एक पृथक मैं को बना लेनेसे ही पुनरावृत्ति अवश्यम्भावी है // 24 // यान्ति देवव्रता देवान् फ्तिन यान्ति पितृव्रता : भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् // 25 // अन्वयः। देवव्रताः देवान् यान्ति, पितृव्रताः पितृन् यान्ति, भूतेच्या ( भूताना पूजकाः ) भूतानि यान्ति; मद्याजिनः मां अपि यान्ति // 25 // - अनुवाद। देवपूजकगण देवताओंको प्राप्त होते है, पितृपूजकगण पितृगणको प्राप्त होते है, भूतयाजिगण भूतोंको प्राप्त होते है, मदयाजिगण मुझको ही प्राप्त होते है // 25 // . ____ व्याख्या। कोई कार्य एक बार करचुकनेसे, उसकी शक्तिसे और एक बार ठीक उसी प्रकार कार्यको कराय देता है। ऐसे किसी एक को बहुत बार करनेसे ही, वह अभ्यासमें आता है। वह अभ्यास गाढ़ा हो जानेसे ही, वही गाढ़ापन संस्कार रूपसे खड़ा हो जाता हैं। इच्छा न रहनेसे भी आपही आप अनजान भावसे उसी कार्यको कराय देना संस्कारके कार्य है। क्योंकि, सांस्कारिक अन्तःकरण संस्कार बिना और किसीको जानता ही नहीं। यदि मैं किसी देवता का भजन करू तो मेरे अन्तःकरणमें उस देवता का संस्कार ही घुल जाता है। शरीर त्याग करनेके समय सस्कारके शक्तिसे मनमें वही देवता ही आकर उदय होता है। यदि उस देवताको लेकर शरीर त्याग हो, तो उसी देवलोकमें जाकर उसी देवताका प्राकार धारणकर उसी देवताका सालोक्य भोग करना पड़ता है। तैसे जो सब साधक -26 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 श्रीमद्भगवद्गीता पितृलोगोंकी आराधना करते हैं, उन सबके अन्तःकरणमें पितृलोकके संस्कार दृढ़ीभूत हो करके शरीरान्तमें पितृलोकमें जाकरके उसी लोक मोग करना पड़ता है। जो लोग भूतादिके याजक हैं, उन सबके अन्तःकरण पाळचभौतिक योनिमें भ्रमण करते रहता है। इन देवतापितृ-भूतोंके उपासकगण पुनरावृत्तिको पाते हैं, अर्थात् जन्म मरण भोग करते रहते हैं। परन्तु जो साधक मद्याजी अर्थात् मेरी उपासना करते हैं, वह लोग मुझको प्राप्त होकर “मैं” में मिलकर "मैं" हो जाते हैं; उन लोगोंकी और पुनरावृत्ति नहीं होती है। . : साधक ! विचार कर देखो, जब तुम पहिले पहल साधना प्रारम्भ किये थे, तब तुम जिन सब बाहरवाले मूर्ति लेकर कारबार खोले थे, वही सब मूत्ति तुम्हारे चित्तमें उठ जाकर प्रत्यक्ष तेजस मूर्तिसे तुम्हारे चित्तको एकाग्रता आकर्षण करते थे या नहीं? उन सब मूर्तिका आकार रहनेसे भी, स्थूल शरीरके सदृश वे छायाधारी नहीं थे, वही सब देवता हैं; कारण यह है कि, जिन सबका छाया न पड़े, वह सब ही देवता हैं। और जो कभी कभी कितने मरे हुए मनुष्यको देखने में भाता है, वह सब पितृलोक हैं। और भी कितना अभूतपूर्व अदृष्टपूर्व इस जन्ममें कभी जिसे न देखा हो ऐसा कि कभी सुना भी न होगा, ऐसे विकट विकट स्वरूप भी सामनेमें आकर खड़े होते हैं; उन सबको भूत कहते हैं। और भी भूत कहते हैं-पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाशको; यह सब भी देखनेमें आता हैं / क्रियामें बैठने के समय पहिले पहल जो कुछ अधिक अधिक मनमें आवे, प्रायः उस दिनकी क्रिया में उसीकी छवि अन्तःकरणमें खेलकर चित्तके ऊपरमें उठने नहीं देता। उस समय यदि इनमेंसे किसी एकको लेकर शरीर त्याग हो जाय तो जितना दिन अव्यक्त-भावमें रहना पड़े, अर्थात् जितना दिन पुनः देह धारणकर जन्म लेना न हो, तितना दिन उस लोकका सम्भोग करके बल संचय करना पड़ता है। पश्चात् उसी बल Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय 403 से उसी आकार लेकर उसी गुणमें गुणी होकर जन्म लेके पुनः संसार की लीलामें नाचना पड़ता है। यह बात निश्चय है। तैसे और भी एक निश्चय है कि यदि तुम ब्रह्मनाड़ीके भीतर भीतर उठ जाकर चित्त भेद करके “मैं” में जा पड़ो, और उस समय शरीरको त्याग करो तो फिर तुमको इस मर्त्यलोकमें आने न पड़ेगा। तुम "मैं" हो जाओगे // 25 // पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति / तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः // 26 // अन्वयः। यो मे भक्त्या पत्रं पुष्पं फलं तोयं प्रयच्छति ( ददाति); अहं प्रयतात्मनः ( शुद्धबुद्धः) भक्त्युपहतं (भक्तिपूर्वकं प्रदत्त) तत् ( पत्रादिकं ) अश्नामि (गृह्णामि ) // 26 // अनुवाद। मुझको जो कोई भक्तिके साथ पत्र, पुष्प, फल, जल देता है, उस शुद्धबुद्धि सम्पन्न साधकके भक्तिसे दिया हुआ उस पत्रादि मैं ग्रहण करता हूँ // 26 // . व्याख्या। 'पत्र” = वेद। पत्रसे छाया होती है, जिस छायेमें खड़ा होनेसे उष्णताकी ज्वाला-यन्त्रणाकी शान्ति होती है; तैसे वेदसे ज्ञानोत्पत्ति होती है, जिस ज्ञान करके भव-यन्त्रणासे अव्याहति मिल जाता है। इसलिये वेद संसार वृक्षका पत्र है। "पुष्प" =गुरूपदेश। वृक्षका सर्वोत्कृष्ट अंश फूल है; इस शरीर धारणका सर्वोत्कृष्ट अंश भी तैसे गुरूपदेश है, जिससे सन्ताप नष्ट और आत्मप्रीतिका उद्भव होता है। “फल' = गुरूपदेशसे कृतित्व लाभ करना। "जल' =गुरूपदेश ग्रहण करनेवाली शक्ति। इस शक्तिसे ही उस पत्र, पुष्प, फलका परिपूर्ग पुष्टि साधन होता है। गुरुवाक्यमें अटल विश्वास करके जो पुण्यवान प्रोक्त पत्र, पुष्प, फल और जल “मैं” में अर्पण करता है-प्रदान करता है, उसका वह अर्पण 'मैं' को ग्रहण न करा करके छोड़ता नहीं। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 श्रीमद्भगवद्गीता __ यह जो अर्पणकी बात कही गयी है, वह भीतरको बात है; अन्तरसाधनाका फल है / इस अपर्णमें अधिकारी होनेके लिये बाह्य-साधना का प्रयोजन है। बाह्य-साधनासे मनका मैल साफ करके, मनको कृपणता दूर न कर सकनेसे, अन्तर-साधनाका अधिकार नहीं आता। इसलिये इस श्लोकका बाह्य-भाव प्रकाश करके बाह्य-साधनाका विषय कहा जाता है। मनुष्य जब जीव जगत्में प्रथम प्रवेश करता है, तब उसको दयाके आधार ममताका उत्स स्वरूप दो जीवित इष्ट देवता मिलते हैं। एक माता है और एक पिता। इन दोनों देवतोंके शरीर, मन, धन, और प्राणके सहारासे उसका वही विवश, असक्त, शिशु शरीर धीरे धीरे बढ़ता हुआ मनुष्य होता है। उन इष्ट देवतोंने अपना तन, मन, धन देकर उसको इतना बड़ा किया; कुसंग दोष तथा दुष्कियाके फल से यदि मानव उन्हों दोनों जीवित देवतोंकी उपासना अपना शरीरमन-धन और प्राण देकर न कर सके, तो उसका दूसरा इष्ट देवता कहो, याग-यज्ञ कहो, और चाहे योग-समाधि ही कहो, कोई भी अच्छा फल नहीं दे सकता। क्योंकि, वह मनुष्य मनमें मन और प्राणमें प्राण मिलाने नहीं सीखा। माता पिताके ऊपर जिसको भक्तिश्रद्धा मन प्राणसे नहीं होती है, किसी पारमार्थिक कार्यमें उसका अधिकार नहीं होता। कारण कि, जगत्की जो कुछ शिक्षा है, उन निःस्वार्थ दोनों सुहृत्से प्राप्त हो करके भी जो मनुष्य उन दोनों के ऊपर अपव्यवहार करता है, उसमें मनुष्यत्व नहीं रहता। जिसमें मनुष्यत्व नहीं है वह मनोधर्म नहीं समझता है। जो मनोधर्म नहीं समझता है, उसमें "मैं" समझनेका शक्ति नहीं रहता; क्योंकि, “मैं" भी पिता माता स्वरूपसे जगतूका पालन कर्ता हूँ; इसलिये, यहींसे मक्तिका प्रारम्भ होना प्रयोजन है। परन्तु जिस भक्तिमान श्रद्धावान कृतज्ञ पुरुषका उन दोनों इष्ट देवतोंके ऊपर इष्ट-देवता-बुद्धि रहती Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 405 नक्म अब्बाय है, वही महापुरुष समझ सकते हैं कि, गुरूवाक्यमें अटल विश्वासका फल क्या है ? सर्व बाधा अतिक्रम करके गुरुवाफ्यके अनुष्ठानमें दृढ़वती होने से तितिक्षा रूप महासाधनके फलसे क्या नहीं करादे सकता है ? उन इष्ट देवतोंके पूजाके लिये ( शरीर धारणोपयोगी आहारके लिये ) पत्र, पुष्प, फल, और जलका प्रयोजन होता है। पिता माताके परितृप्तिके लिये भक्ति सहकार उन लोगोंको पत्र, पुष्प, फल, और जल प्रदान करनेसे परम पिता परमेश्वर परब्रझमें ही वह सब अर्पित हो जाता है। पिता माताके परितोष साधनसे ही मनका मैल कट जाता है, संकोचता दूर होती है, इसलिये अन्तरमें प्रवेश करनेका अधिकार भी आ जाता है // 26 // .. यत् करोषि यदरनासि यजुहोषि ददासि यत्। ... यत् तपस्यसि कौन्तेय तत् कुरुष्व मदर्पणम् // 27 // .. शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः। . संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैयसि // 28 // अन्वयः। हे कौन्तेय ! यत् करोषि, यत् अश्नासि, यते पुहषि, यत् ददाति, यत् मदर्पणं कुरुष्ष; एवं (कुर्वन् ) कर्मबन्धनैः शुभाशुभफलैः मोक्ष्यसे; ( सन् ) संन्यासयोगयुक्तात्मा ( संन्यासः कर्मणां मदर्पणं, स एव योगः तेन युक्तः आत्मा चित्तं यस्य तयाभूतः त्वं ) मा उपैष्यसि ( प्राप्स्यसि ) // 27 // 28 // अनुवाद। हे कौन्तेय ! जो कुछ तुम करोगे, भोजनही करो, हषनही करो, और तपस्याही करो, उन सबको मुझे अर्पण करना; इस प्रकार करनेसेही शुभाशुभ फल देनेवाले कर्मबन्धन से मुक्त हो जाओगे; विमुक्त होकर संन्यासयोगमें युक्तचित्त होनेसेही मुझको पाओगे // 27 // 28 // व्याख्या। साधक ! जब तुम विषयभोग-लालसा लेकर रहते हो, तब तुम्हारे विषयासक्तिके लिये मातृभाव प्रकाश पाता है। और जो उस आसक्तिको तुम नहीं छोड़ सकते उसे कृपणता कहते हैं / Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406 श्रीमद्भगवद्गीता फिर जब तुम उस कृपणताको दूरमें फेंक कर यथारीति उपदेश अनुसार पृथिवीको लेकर जलमें, जल तेजमें, तेज वायुमें, वायु आकाशमें, आकाशको पराकाशमें ले जाओ, उसीको करण कहते हैं; यही पितृभाव है। और यह जो कर चले हो, उसीको भोग कहते हैं / ( विषय भोग करनेका नामही भोग है; इसमें सूचना, चीखना देखना सब रह गया)। और इसको ले जाकर जो “मैं” त्वमें फेंक देते हो; इसीको ही हवन कहते हैं। वह जो विषयादि भोग छोड़ कर चले आये हो, वही दान है। और यह जो माया-विकारको ब्रह्माग्निमें अर्थात् ज्ञानाग्निमें जलाकर भस्म कर दिया, इसीको तपस्या कहते हैं। इन सबको ले जाकर 'मैं' में पड़ने होता है। इस 'मैं' में पड़नेका नाम 'मदर्पण' है। इस प्रकार अर्पणमें कर्मकृतशुभ और अशुभ फल नहीं छू सकता, अतएव कर्मबन्धनसे मुक्ति होती है। 'संन्यास'सं= सम्यक् , न्यास-निक्षेप, त्याग; जब सब त्याग हो गया, तत्क्षणात् तुम्हारा 'मैं' विशुद्ध 'मैं' में पड़ गया, योग भी हो गया। दोनों 'मैं मिलकर एक हो गया; यही युक्त होनेकी अवस्था है। तब और देह अर्थात् देहबुद्धि नहीं रही, 'विमुक्ति' अर्थात् विशेष मुक्ति (सर्वसे ( पृथकता) प्राप्ति हो गई। यही तुम्हारा 'मैं' होना अवस्था है // 27 // 28 // . समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वष्योऽस्ति न प्रियः / ___ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् // 26 // अन्वयः। अहं सर्वभूतेषु समः। मे द्वष्यः न अस्ति, प्रियः न ( अस्ति)। ये तु भक्त्या मां भजन्ति ते मयि ( उत्तन्ते ), अहं अपि च तेषु ( वत्त ) // 29 // अनुवाद। मैं सर्वभूतमें हो समान हूँ। मेरे द्वष्य भी नहीं है, प्रिय भी नहीं है। परन्तु जो लोग भक्ति सहकार मुझको भजन करते है, वह लोग हममें रहते है, "मैं" भी उन सबके भीतर रहता हूँ // 29 // / Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 407 नवम अध्याय व्याख्या। वह जो गुरूपदिष्ट क्रममें 'मैं' भज करके 'मैं' होना है, इस 'मैं' में द्वैताद्वत भाव नहीं रहता। क्योंकि, जो 'मैं' भजता है वह 'मैं' हो जाता है; 'मैं' भी 'मैं'-भजने वालाके साथ मिल कर उसको 'मैं' बनाय लेता हूं। इसलिये 'मैं' निस्तरंग ऊंचानीचा-बिहीन हूँ। 'मैं' में प्रिय वा अप्रियका स्थान नहीं है, सब समान है। 'समोऽहं'-अहं शब्दमें एकको समझाता है। इस एकमें सब मिलने से ऊंचा नीचा नहीं रहता। भूतसमूह जब उस अहमें मिलता है, तब भूतोंका ऊंचा नीचा ह्रास-वृद्धि भी मिट जाकर समान हो जाता है / इसलिये 'मैं' में प्रिय वा अप्रिय की उद्रेक नहीं रहती। जो कोई गुरूपदेश अनुसार अटल विश्वास और भक्तिपूर्वक मैं-भजन करता है, वही 'मैं' में पड़कर मिल करके 'मैं हो जाता है; थोड़ासा भी इधर उधर होनेसे 'मैं' नहीं हो सकता; जैसे शीतकालमें अग्नि तापना है,जो निकटमें रहता है, उसका ठण्ढा (शीत ) दूर होता है, जो दूर रहता है, वह अग्निको देखता है सही लेकिन उसका जाड़ा टूटता नहीं; परन्तु अग्नि दोनोंके लिये समान है // 26 // अपि चेत् सदुराचारो भजते मामन्यमाक। साधुरेव स मन्तव्यः सम्यगव्यवसितो हि सः॥३०॥ अन्वयः। सुदुराचारः अपि चेत् ( यदि ) अनन्यभाकू ( अनन्यभक्तिः सन् ) मां भजते, सः साधुः एव मन्तव्यः ; हि ( यतः ) सः सम्यक् व्यवसितः ( शोभनं अध्यवसायं कृतवान् ) // 30 // अनुवाद / सुदुराचार मनुष्य भी यदि अनन्यभक्ति हो करके मुझको भजन करें तो वह साधु कह करकेही गण्य हौवेगा ; क्योंकि, वह सम्यक् प्रकारसे व्यवसित ( अध्यवसाय युक्त) है // 30 // व्याख्या। साधक ! क्रियाके प्रति लक्ष्य करके आपही समझकर देखो कि यदि मैं अनासहि पूर्वक चरण करू (चरण विषय विना Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 श्रीमहगवद्गीता और किसीमें नहीं होता), वो विषय हमसे बहुत दूरमें पड़ा रहता है। फिर जो उस विषयमें आसक्ति देकर बहु जन्म भोग रागमें मतवाला हो रहता हूँ, वही सुदुराचार अवस्था है; क्योंकि, वह अति चंचलतामय है। फिर जब मैं विषयासक्तिको छोड़कर कूटस्थमें अपने स्वरूपको लक्ष्य करके सूक्ष्म-श्वासमें आसक्ति देकर धारणामें स्थित हो जाऊं, तबही मैं "मैं" होता हूं-साधु होता हूँ। इसीका नाम आत्मनिष्ठा है // 30 // क्षिप्र भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्ति निगच्छति / कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति / / 31 / / अन्वयः। (मुदुराचारऽपि मां भजन ) क्षिप्रं (शीघ्र ) धर्मात्मा भवति, ( ततश्च ) राश्वत् (नित्यं ) शान्तिं निगच्छति ( प्राप्नोति ); हे कौन्तेय ! मे ( परमेश्वरस्य) भकः न प्रणश्यति इति प्रतिजानीहि (निश्चित प्रतिज्ञा कुरु ) // 31 // अनुवाद / ( सुदुराचार भी मुझको भज करके ) शोघ्रही धम्मात्मा होते हैं, ओर नित्य शान्तिको प्राप्त होते हैं। हे कोन्तेय ! मेरा भक्त विनाशको प्राप्त न होगा, यह बात प्रतिज्ञा करके तुम कह सकते हो / / 31 / / व्याख्या। आत्मनिष्ठाका सुख जिसने एक बार अनुभव किया है, उस सुखको फिर भोग करनेके लिये व्याकुलता उसमें अवश्य आती है। उस व्याकुलता उस सुखभोग करनेके लिये उसको अवश्य चेष्टा कराती है। उस चेष्टासे वह उस सुख पाता भी है। अतएव बारंबार के व्याकुलतामें बारंबारके सुख भोगका अभ्यास गाढ़ा हो आनेसे शीघ्रही शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध इन सब विषय भोगके ऊपर वितृष्णा श्रा पड़ती है, चरण ( चलना, फिरना, संकल्प, विकल्प रूप, अन्त:करण धर्मा) छूट जाता है, धारणा आ पड़ती है। यह धारणा ही धर्म है। चित्त तब इस धर्ममें आबद्ध होकर स्थिर रहता है, और Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय 406 दूसरा कुछ प्रहण नहीं करता, इसलिये यह अवस्था शाश्वत शान्तिका निवास भूमि है। भक्त होनेसे-अनन्यभाक होनेसे इस शाश्वत शान्तिकी निवास-भूमिमें जाना ही पड़ता है, विनाशको प्राप्त होता नहीं, अर्थात् विषयासक्तिमें मोहित होकर बारंबार जन्म-मरण भोग नहीं करने पड़ता। साधक ! अब तुम श्रामा चक्रमें उठ करके उपासनासे प्रत्यक्ष ज्ञान में ज्ञान विज्ञानका आकर्षण करनेमें समर्थ हो करके "कौन्तेय" पदवाच्य हुए हो; अब तुम प्रतिज्ञा करके यह बात (प्रति+ ज्ञ=जाननेका वस्तु "मैं" + आ-आसक्ति) अर्थात् जाननेका वस्तु जो "मैं", उसी "मैं” के प्रति श्रासक्ति देकरके “मैं” के भाव अनुभव करके कह सकते हो कि, 'मैं' का भक्त होनेसे और विनाशको नहीं प्राप्त होता // 31 // मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः। लियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् // 32 // अन्वयः। हि (यस्मात् ) पापयोनयः (पापजन्मान:) स्त्रियः वश्याः तथा शूद्राः ये अपि मां (परमात्मानं ) व्यपाश्रित्य ( आश्रयत्वेन गृहीत्वा, संसेन्य इत्यर्थः ) स्युः (भवेयुः ), ते अपि परमां गतिं यान्ति // 32 // ___ अनुवाद। पापजन्मा स्त्री, वश्य, और शूद्र जो कोई मुझको विशेष प्रकारसे आश्रय करके रहते हैं, वे लोगही परमागतिको प्राप्त होते है / 32 // व्याख्या। हे विषयासक्त सापक ! यदि तुम उस ऊपरवाले "मैं" को निश्चय रूपसे आश्रय कर रह सको, तो तुम्हारा स्त्रीभाव (अन्तःकरणमें जब अष्ट गुण कामरस-भोगलालसा बढ़ता है, वहीं अवस्था), तुम्हारा वैश्यभाव ( क्रिया करके क्रियामें प्राप्त जो अलौकिक विभूति है, उसे दिखलानेके लिये-लोगोंके पास बड़े होनेके लिये अन्तःकरण की जो आतुरता है वही ), और तुम्हारा शूद्रभाव (श-श्वास+= स्थिति+द-योनि+रं-प्रकाश अर्थात् जिस अवस्था में, प्रकि Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410 श्रीमद्भगवद्गीता निश्वास और प्रश्वास योनिमें प्रकाशमान रहता है अर्थात् अन्तःकरण कामान्ध हो करके भोगवासनाके सेवक होता है, वही ) यह तीनों शीर्ण हो जाकर "मेरी” परमगति जो "मैं", वही होवेंगे // 32 // किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा। ... अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् // 33 // अन्वयः। पुण्याः ( सुकृतिनः) ब्राह्मणाः तथा भक्ताः राजर्षयः ( परां गतिं यान्तीति ) कि पुनः (वक्तव्यं )? .( अतः त्वं ) इमं अनित्य (क्षणभंगुरं ) असुखं ( सुखजितं ) लोकं प्राप्य मां भजस्व // 33 // अनुवाद। पुण्यवान ब्राह्मणगण और भक्त राजर्षिगण परमागतिको जो प्राप्त होवैगे, उसमें और बात क्या ! अतएव तुम इस अनित्य असुखकर लोक प्राप्त होकर मुझको स्मरण किया करो // 33 // . व्याख्या। जो पुरुष ब्रह्मको जानते हैं, अर्थात् सर्वदा ब्रह्मसंस्पर्शानन्द सुख अनुभव करके देहात्मबुद्धि जिसकी नष्ट हो गई है, वही महात्मा ब्राह्मण है। और जो पुरुष विषय-भोग करते हैं, (लोकचक्षुमें विषयके कीट सदृश देखा जाता है) परन्तु विषय-भोगका प्रत्येक फल जिसके चक्षुके सामने धरा हुआ है जो अपरोक्षदर्शी है, जिसको विषयभोग-मोहमें आत्मज्ञानसे विचलित कर नहीं सकता, वह पुरुष राजर्षि हैं। वे लोग पुण्यवान हैं अर्थात् मलमूत्रमय देहमें इन सबकी आत्मबुद्धि नहीं है; और वे लोग भक्त हैं अर्थात् किसी प्रकारसे विच्युत होकर इन सबके भीतर कोई भी आत्महारा नहीं होते। वे लोग जो इस असुखमय अनित्य जगत्को प्राप्त हो करके भी उस ऊपरवाले “मैं” का भजन करते हैं, इसमें और बात क्या है ! साधक ! अब तुम देखो, तुम आज्ञाचक्रमें उठ आकर निम्नदृष्टिसे विषयकी अनित्य सुखकर क्रियाको जो प्रत्यक्ष करते हो, पुनः ऊर्ध्वदृष्टिसे आत्मतत्वको भी जानते हो, सबही तुम्हारा प्रत्यक्ष होता है, Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय 411 कुछ भी परोक्ष नहीं रहता, यही तुम्हारा राजर्षि भाव है। इस अवस्थामें स्थित तुम निम्नदृष्टि त्याग करके अवश्य एकमात्र इस "मैं" का भजन करो // 33 // मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु / मामेवैष्यसि युक्तवेवमात्मानं मत्परायणः // 34 // अन्वयः। मन्मना ( मद्रचित्तः) मद्भक्तः (मम एष भक्तः) मद्याजी (मत्पूजनशोलः) भव, मां नमस्कुरु; एवं (एभिः प्रकारः) मत्परायणः ( सन् ), आत्मानं (चित्त) युक्त्वा ( मयि समाधाय) मा एव ( परमानन्दरूपं) एष्यसि (प्रास्यसि ) // 34 // . अनुवाद। मद्रतचित्त, मद्भक्त और मद्याजी हो जाओ; मुझको नमस्कार किया करो, इस प्रकारसे मत्परायण होकर चित्तको हममें समाहित करके मुझको ही प्राप्त होओगे // 34 // व्याख्या। कर्मकी परिसमाप्ति करके आज्ञामें उठकर उपासना में प्रवृत्त होनेसे पच कर्मेन्द्रिय, और पञ्च ज्ञानेन्द्रिय बहिर्विषयसे समेट आकर अन्तरके भीतर संकुचित हो जाता है, तब एकमात्र मनोमय क्रिया अर्थात् विशुद्ध अन्तःकरणकी क्रिया चलती रहती है। उसी क्रियामें जिस जिस क्रम से आज्ञासे सहस्रारमें उठकर "मैं" हुना जाता है, इस श्लोकमें उसीको दिखाकर भगवान् इस अध्यायका उपसंहार करते हैं। प्रथमतः “मन्मना" होने पड़ता है, अर्थात् आज्ञामें स्थिर होनेके पश्वात् जो "कोटिसूर्य प्रतीकाशं चन्द्रकोटी सुशीतलं” ज्योतिमण्डल प्रकाश पाता है, उसमें मनोनिवेश करने पड़ता है, अर्थात् अन्तःकरण के चारों वृत्तिको ही पूर्ण मात्रासे उसमें लगाने होता है; पश्वात् मानस नेत्र उस ज्योतिकी ठीक मध्यस्थानमें युक्त होनेसे ही, अन्तःकरणकी संकल्पात्मिका वृत्ति एकदम मिट जाकर निश्चयात्मिका वृत्ति प्रबलसे Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 श्रीमद्भगवद्गीता प्रबलतर हो पाती है, उसमें उस मण्डल मध्यवत्ती हिरण्मय पुष बिना और किसीका प्रहण नहीं होता, एकमात्र उसीमें एकानुक प्रकाश पाता है। यही "मद्भक्त" अवस्था है। स्थिर अचञ्चल दृष्टिके द्वारा ताकते रहनेसे वह पुरुष प्रसन्न होते हैं, और उनकी अनन्त महिमा खिल उठती है। इस प्रकार स्थिर दृष्टिसे ताकते रहना ही "मद्याजी' अवस्या है। पश्चात् जैसे किसी एक पदार्थको एक रष्टिसे बहुत देर तक देखते देखते दृष्टि विलोप होकर क्षण भरके लिये अपने को भूल जाने पड़ता है, बाद फिर जब चमक टूट जाती है तत्क्षणात् उस पदार्थको देखनेमें आता है, ठीक इसी प्रकारसे उस मद्याजी अवस्थामें हिरण्मय पुरुषको एक दृष्टिसे देखते देखते तन्मय होकरके अपनेको भी भूल जाने पड़ता है, पुरुषको भी नहीं देखा जावा; इस प्रकार बारंबार होता है, साधनामें यह जो आत्मविस्मृति और स्फुरण अवस्था है, यही “नमस्कार" है। वह पुरुषही अपरिणामी है, वही पराकाष्ठा और परागति है। इस समय एकमात्र वह पुरुष ही आश्रय होनेसे, इस अवस्थाको “मत्परायण” अवस्था कहते हैं। इस अवस्था के परिपाक होनेसे जब और प्रदर्शन नहीं आता, परन्तु शून्यदृष्टिके सदृश उनमें ताकता मात्र रहता हूँ, अथच बोण्य बोधन नहीं रहता, इस प्रकार क्या जाने कैसे एक भाव होता है; वहो "युक्त" अवस्था है। इस अवस्थामें बोध्य बोधन न रहनेसे भी, दोनोंके भीतर थोडासा प्रभेद रहता है। पश्चात् वही प्रभेद मिट जानेसे दृश्य द्रष्टा मिलकर एक हो जाते हैं, वही एकमात्र अपरिणामी पुरुष "मैं” मात्र रहते हैं। इसीको ही “मैं”-पाना ( प्राप्त होना ) कहते हैं // 34 // इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसम्बादे राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम नवमोऽध्यायः Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rs. 50/