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प्रथम अध्याय
व्याख्या। इस प्रकार कहके तब साधक शोकमें आकुल होकर धनु फेंक देते हैं, अर्थात् मेरुदण्डको शिथिल कर देते हैं, उसे फिर सीधा नहीं रखते। मेरुदण्ड सीधा न रहनेसे प्राण (शर) भी फिर सरल राहकी ओर उठ नहीं सकता, टेढ़ीगति पकड़ता है (गहित पथमें चरण करता है)। इस समय साधक केवल चिन्ताकुल होकर (रथोपस्थे ) कूटस्थकी तरफ देखकर चुपचाप बैठ रहते हैं।
जिन लोगोंने साधन-मार्गमें केवल मात्र अग्रसर होना प्रारम्भ किया है, सुषुम्नाके भीतर प्रवेश करके स्थिर आत्म-ज्योतिके प्रकाशित करनेकी शक्ति पाई नहीं है, वह साधक थोड़ासा प्राणायाम करनेसे ही इस अवस्थाको समझ सकेंगे, क्योंकि पक्का अभ्यास न होनेसे सब शरीर, विशेष करके घुटना, कमर, और पीठ पिराते रहते हैं,
और स्थिर रह नहीं सकते। दोनों पैर लम्वा कर देते हैं, शरीर ढीला कर डालते हैं, तथा साधन विषयमें हताश होकर उदास मनसे चुप चाप बैठ रहते हैं ॥४६॥
इति श्रीमहाभारते शतसाहस्या संहितायां वैया सिक्यों भीष्मपर्वणि श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन सम्वादे अर्जुनविषाद
योगो नाम प्रथमोध्यायः ॥ ॐ॥
____ * रथोपस्थे बैठनेका अर्थ द्वितीय अध्याय ३ य श्लोक की व्याख्या में देखिये ॥४६॥