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श्रीमद्भगवद्गीता यदि मामप्रतीकारमशस्त्र शस्त्रपाणयः। धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥ ४५ ॥ ..
अन्वयः। यदि शस्त्रपाणयः धार्तराष्ट्राः रणे अशस्त्रं अप्रतीकारं ( अकृतप्रतीकारं तुष्णी उपविष्टं ) मा हन्युः ( हनिष्यन्ति ), (तहिं ) तत् ( हननं ) मे (मम) क्षेमतरं ( अत्यन्त हितं ) भवेत् ॥ ४५ ॥ __ अनुवाद। अगर वे शस्त्रधारी धात राष्ट्रगण रणमें हमें अशस्त्र तथा अप्रतीकारक दर्शन करके भी हनन करें, तो भी हमारा परम कल्याणकर होवेगा ॥ ४५ ॥
व्याख्या। मनमें जब धिक्कार आता है तब साधक सोचते रहते हैं कि-जाने दो, अब मैं योगक्रिया न करूंगा; विषय वृत्तिके आकर्षणका नाश करनेके लिये प्राणायाम रूपशस्त्र ग्रहण न करूंगा, कोई प्रतीकार भी न करूंगा। इसमें यदि मुझको धार्तराष्ट्र-वृत्ति अर्थात् संसारमुखी-वृत्ति समूहले आक्रान्त होकर ज्वालामय संसार यन्त्रणामें जन्म जन्म जल मरना हो तो वह भी भला, तथापि भोग त्याग करके तमाम इन्द्रिय-वृत्ति नष्ट करनेवाले उपायसे विकलांग होकर जीक्मृतवत् होकर जीवन्मुक्त नाम खरीदना अच्छा नहीं। इस प्रकार योगानुष्ठान कर ब्रह्मराज्यका मुझे कुछ दरकार नहीं ॥४५॥
संजय उवाच । एवमुक्त्वार्जुन संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् । विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥४६॥
• अन्वयः। संजयः उवाच। अर्जुनः एवं उक्त्वा शोकसंविग्नमानसः (शोकाकुलितचित्तः सन् ) संख्ये ( युद्ध ) सशरं चापं ( धनुः ) विसृज्य ( परित्यज्य ) रथोपस्थे ( रथोपरि ) उपाधिशत् ।। ४६ ।।
अनुवाद। संजय कहते हैं। शोकाकुलितचित्त अर्जुन, युद्ध स्थल में ऐसा कहकर सशर धनुष परित्याग कर रथके ऊपर बैठ गये ।। ४६ ॥