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श्रीमद्भगवद्गीता
अनुवाद | जो साधक मरणकालमै भक्तियुक्त होकर स्थिर मन तथा योगबल द्वारा प्राण को दोनों के भीतर सम्यक् प्रकारसे प्रवेश कराकर, सर्वज्ञ, अनादि, नियन्ता, सूक्ष्मादपि सूक्ष्म, सकलका धारण कर्ता, अचिन्त्यरूप, मोहान्धकारातीत, आदित्यवर्ण प्रकाशस्वरूपको स्मरण कर सके, वही साधक दिव्य परम पुरुषको प्राप्त होता है ।। ९ ।। १० ।।
व्याख्या । - ( ७ ) प्रयाणकालमें भक्तियुक्त होकर स्थिर मन और योगबल से प्राणको दोनों भ्रू के ठीक बीचमें सम्यक् प्रकारसे प्रवेश कराकर, 'कवि पुराणं' इत्यादि रूप स्मरण करनेसे ही उसी 'परमं पुरुषं दिव्यं' को पाया जाता है, अर्थात् (१) भक्ति, (२) योगबल से के मध्यभाग में प्राण को प्रवेश कराना, और (३) 'मामनुस्मरण' – इस तीन उपाय से ही भगवान् प्रयाणकालमें ज्ञेय होते हैं ।
यह जो पुरुष है, वही " कवि " ( हर बात में जो नया नया कहता है वही कवि ) । उस पुरुषको जब देखा जाता है, तब उससे तेजोमय पदार्थ इतना बाहर होता है कि पलहीन दृष्टिमें ताकता हूँ, अनन्त प्रकार का कितना क्या पदार्थ निकल जाता है, कहाँ से निकलता है वह नहीं समझ सकता हूँ, अथच एक पदार्थ दो बार नहीं देख पड़ता, केवल नये नये दृश्यका आविर्भाव; जो देखा है वही देखा है, इस करके समझाया नहीं जाता, इसलिये कहनेवाला 'कवि' कहा है ।
" पुराणं" - अनादिसिद्धं, चिरन्तनम् । अर्थात् इस पुरुषमें भूत भविष्यत् काल विभाग नहीं है, केवल वर्त्तमान ही विद्यमान है । साधक कृपा करके किञ्चित् परिश्रमके साथ क्रिया करनेसे ही इस विश्वश्वर हरिका दर्शन पाते हैं, इसलिये 'पुराण' कहा हुआ है । साधक ! आज ही जो तुम इसे देखते हो, और कभी कोई देखा नहीं वा देखेगा नहीं. ऐसा नहीं; काम करने वाला जो होवेगा, वही देखेगा ।