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द्वितीय अध्याय वितल तलमें चले गये थे, तुम्हारा "अहत्व" मिट गया था, क्या तब तुम कुछ मालूम कर सकते थे ?-तब और तुम्हारे जानने लायक विषय कुछ नहीं था, कोई ज्ञान भी नहीं था, उस समय जानने और न जाननेका विषय कुछ नहीं रहता, सब समझका शेष हो जाता है । "अहंत्व" बोध भी जब न रहे, तब कौन किसको जाने ? इस श्लोक में तुम अपनी कई अवस्थाओंको मिला देखो ॥ २६ ॥
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत । तस्मात् सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ ३० ॥
अन्वयः। हे भारत ! अवध्यः अयं देही ( आत्मा) सर्वस्य देहे नित्यं (भवति :; तस्मात् त्वं सर्वाणि भूतानि शोचितुन अहंसि ॥ ३० ॥
अनुवाद। हे भारत ! अवध्य थे जो देही ( आत्मा ) है वह सर्व देहमें नित्य वर्तमान हैं; अतएव तुम मर्व भुतोंके लिये शोक न करना ॥ ३०॥
व्याख्या। तुम भारत-आत्मज्योति-निविष्टचित्त हो; तुम जानते हो और अभी प्रत्यक्ष देख भी चुके हो, ये जो देहस्थ चैतन्य श्रात्मा (देही ) है, वह अवध्य तथा सर्व शरीरमें (जगत्के भीतर आयतन विशिष्ट जो कुछ सब शरीर-चेतन ही हो या अचेतन ही हो ओर उद्भिद भी होय ) नित्य वर्तमान है। अतएव इस नित्य वर्तमानको छोड़ करके अनित्य-देह जो भूत है, उसके लिये तुम शोक न करना, ऐसा शोक करनेसे तुम्हारी शोभा नहीं होती ॥३०॥
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि । धाद्धि युद्धाच्छ्र योऽन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते ॥३१॥
अन्वयः। अपच स्वधर्म अवक्ष्य विकम्पितु न अर्हसि; हि ( यस्मात् ) क्षत्रियस्य धर्मात् युद्धात् अन्यत् श्रेयः न विद्यते ॥ ३१॥