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१८.
श्रीमद्भगवद्गीता “ पन करा अपने कल्याणकी आकांक्षामें बात कहने जाकर “पाण्डुपुत्रोंके प्राचार्य" ऐसी बुरी बात कह दी। गुरुके हृदयमें थोड़ा आघात लगा। गुरुने सोचा कि दुर्योधन मुझे अर्थ देता है, इसलिये आज उसने मुझको "पाण्डुपुत्रोका प्राचार्य" कहा, अपना गुरु स्वीकार न किया; पक्षान्तर में हमारे ऊपर प्रभुता भी दिखलाई; यह सोच करके उन्होंने उपेक्षा कर दुर्योधनके बातका उत्तर देना उचित न समझा। भीष्मने आचार्यका यह उपेक्षा समझकर जिसमें दुर्योधन निरुत्साह न हो जाय, इसलिये सिंहनाद और शंखध्वनि की।
सिंहनाद, शंख। -साधना के प्रथम अवस्थामें जब क्रिया विशेष द्वारा वायुका निरोध होता रहता है, तब अभ्यासके अल्पताके कारण वासनाके वशमें वायुकी ताड़ना करके साधक अवरुद्ध वायुको त्याग करने के लिये बाध्य होते हैं, और उस रुद्धवायु की यातनासे शीघ्र शीघ्र निष्कृति पानेके लिये इस प्रकार वेगसे दीर्घ निश्वासको छोड़ते हैं कि, भीतर में वो सिंहनादके सदृश मालूम होता है, और साथ ही साथ एक ध्वनिका उत्थान होता है (अल्प साधनामें ही वह ध्वनि सुननेमें आती है ), उसका स्वर मोटा और गम्भीर है; वही भीष्मकी शंख-ध्वनि है। निश्वास वेगसे त्याग होनेके कारण शरीर सुस्थ मालूम होता है, और उसका आवाज सुननेमें मधुर होनेसे एक प्रकारका आनन्द भी होता है, उससे वासना वृत्ति खिल आती है, क्योंकि फिर बाहरके विषय भोगके लिये सुयोग आ पहुँचा। इसको ही दुर्योधन का हर्ष कहा जाता है; उस श्रुतिमधुर शब्दको सुनते जाओ तो, वह वायुके ताड़नसे शीघ्रही मिलावटके साथ एक अस्पष्ट शब्दमें परिणत होता है, इसलिये तुमुल है ( जो नीचे कहा जाता है)। ___ भीष्म जो "कुरुवृद्धः पितामहः” है, उसका कारण निम्नलिखित योगशास्त्रके अर्थके साथ कुरु वंशकी सूची पढ़नेसे हो समझ सकते हैं।