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प्रथम अध्याय थोड़ासा समझाना होगा। "समंकायशिरोमोवं" हो करके बैठनेसे साधकका मेरुदण्ड (पीठकी रीढ़ ) पीठके तरफ संकोच हो करके पीठको डोंगा सरिस बना देती है। इस अवस्थामें स्थित मेरुदण्डको गाण्डीव कहते हैं। साधकके मनमें चंचलता आनेसे ही शरीरमें कम्पादि उपस्थित हो करके सर्व शरीर टन टन् झन् झन् करके साधकको और सीधा रहने नहीं देता। शरीर ढीला होनेसे ज्ञानमुद्राका बन्धन भी खुल जाता है। इस अवस्थाको "गाण्डीव गिरपड़ा" कह कर व्यक्त किया गया है ॥ २८ ॥ २६ ।।
न च शक्नोम्यवस्थातु भ्रमतीव च मे मनः। निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ॥३०॥
अन्वयः। अवस्थातुं न च शक्नोमि, मे मनः च भ्रमति इव । हे केशव । विपरीतानि निमित्तानि च ( अनिष्टसूचकानि लक्षणानि ) पश्यामि ॥३०॥
अनुवाद। मैं और बैठ नहीं सकता, मेरा मन चक्र घूमनेकी तरह घूमता है; केशव ! में विपरीत दुर्लक्षण समूहको देखता हूँ ॥ ३०॥
व्याख्या। इस अवस्थामें साधक बड़े व्याकुल हो पड़ते हैं, साधनामें एक पग भी आगे बढ़ नहीं सकते; मन अत्यन्त चंचल हो करके भ्रमणशील अवस्थाको पहुँचता है, और तमाम विपरीत लक्षण भी प्रकाश पाते रहते हैं। इसलिये साधक कहने में बाध्य होता हैकहाँ कैवल्य-स्थिति पाकर शान्ति लाभके उद्देश्यसे. योग, सो ऐसा न होकरके, हे केशव! (१० म अध्यायके १४ श श्लोकमें केशव पदका अर्थ देखिये ) यह तो देखता हूँ ठीक विपरीत-प्राणको संशयमें डालनेवाली यन्त्रणामय नरक-भोगके निमित्त है। मैं तो और स्थिर रह नहीं सकता ॥ ३०॥