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श्रीमद्भगवद्गीता कामान् प्रजहाति, आत्मनि एष आत्मना तुष्टः ( भवति ), वदा ( सः ) स्थितप्रज्ञः उच्यते ॥ ५५॥
अनुवाद। श्रीभगवान कहते हैं-हे पार्थ ! योगी जब मनोगत समुदय वासना परित्याग करके, अपनेमें आपही रह कर आपही आप सन्तुष्ट रहते हैं, उसो बखत योगोको स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ॥ ५५॥
व्याख्या। योगावस्था भोगके बाद मनके नीचे उतर श्रानेसे भी योगीका लक्ष्य आत्मक्षेत्रमें ही रहता है, और नीचके स्तरमें उतरता नहीं, तब जगत्के आत्मामय हो जानेसे, अपनेमें आपही रहना होता है, .इसलिये वहां विषय भोग करके दूषित कोई कामना ही नहीं पहुँच सकती। इस अवस्थाका प्राप्ति होनेसे ही स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ।। ५५॥
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीमुनिरुच्यते ॥५६॥ अन्वयः। दुःखेषु अनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः वीतरागभयक्रोधः मुनिः स्थितधी: उच्यते ॥ ५६ ॥
अनुवाद। दुःखसे जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, जो सुख में भी स्पृहा शून्य हैं, जो पुरुष अनुराग-भय-क्रोधविहीन तथा मुनि है, उन्हींको स्थितप्रज्ञ कहते
व्याख्या। संसारमें जिसको सुख और दुःख करके कहा जाता है, वह उस योगीमें रहता नहीं; क्योंकि, विषय लेकरके ही संसारका सुख और दुःख है, वह पुरुष विषयमें रहते नहीं; इसलिये उनमें रागभय-क्रोधका स्थान भी कोई नहीं। उनका मन विश्व-व्यापी परमात्मा में संलीन रहता है इसलिये वो योगो मुनि हैं। मनके विषय-मतवाला अवस्था-प्रबुद्ध अवस्था ही जीव कहलाते हैं; और संलीन अवस्थाईश्वर, तथा प्रलीन अवस्था-शिव वा ब्रह्म हैं। जिथतधी पुरुष ईश्वरभावापन्न हैं ॥५६॥