________________
१२८
श्रीमद्भगवद्गीता जाना, और तत्त्वनिर्णय-शेषका फल है मन-विलयसे विष्णुपदमें स्थिर हो जाना। ये दोनों ही एक है, केवल प्रकार भेद मात्र है। श्य अः २० श्लोकसे ३८ श्लोक पर्यन्त ज्ञाननिष्ठा, और ४० श श्लोकसे ५३ श्लोक पर्यन्त कर्मनिष्ठा व्यक्त किया हुआ है ; इसलिये भगवान कहते हैं "पुराप्रोक्ता" । साधक सांख्यउपदेश प्राप्त होकरके
और बाहर वाले विषय की चंचलता में पड़ते नहीं, इस करके वह ब्रह्मविद्माके अधिकारी हुये हैं, इसलिये उनको, इस श्लोक में "अन" अर्थात् निष्पाप कह करके सम्बोधन किया गया है ॥३॥
न कम्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्य पुरुषोऽश्नुते ।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समाधिगच्छति ॥४॥ अन्वयः। पुरुषः कर्मणां अनारम्भात् नैष्कर्म्यन अश्रु ते; संन्यसनात् एष व सिद्धिं न समधिगच्छति ॥४॥
अनुवाद। पुरुष कर्म न करके नैष्कर्मको प्राप्त नहीं होता; केवल मात्र पन्याससे भी सिद्धि लाभ नहीं होती ॥ ४ ॥
व्याख्या। ज्ञाननिष्ठा, नैष्कर्म्यसिद्धि वा ब्राहीस्थितिमें कर्ममात्रकाही अभाव है, अतएव चंचलता कुछ नहीं है ; केवल ही निस्तरंग समत्व है। और कर्ममें विषमताके उत्ताल तरंग करके केवल चंचलता ही चंचतला है। इन दोनोंको सामने सामने बैठाके देखने से परस्पर विरोधी कह' करके समझमें आता है। परन्तु योगी लोग कहते हैं, कि ऐसा नहीं (विरोधी नहीं है); ब्राह्मीस्थितिके लिये मुख्य अवलम्बन ही है “कर्मयोग” जिसके अनुष्ठान बिना अन्तःकरण की वृत्ति समूह का (जिसमें कर्म का प्रारम्भ होता है ) सम्यक प्रकार करके नाश किया नहीं जाता, अर्थात् वृत्तिविस्मरण अवस्था आतीही नहीं। वो सबको नाश कर न सकने से, वो जो नेष्कर्म सिद्धि का विश्राम है,-बुद्धि उसका ग्रहण कर नहीं सकती। क्योंकि, ब्राह्मीस्थिति वा नैष्कम्र्य सिद्धि का पूर्वानुष्ठेय करण ही वो