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________________ २०२ श्रीमद्भगवद्गीता - अनुवाद। कर्मसमूह मुझको लिप्त कर नहीं सकते, कर्मफलमें मेरा स्पृहा नहीं। जो मुझको इस प्रकार जानते हैं, वह कर्म समूह से आबद्ध नहीं होते ॥ १४ ॥ व्याख्या। जिन्होंने क्रियायोगसे मनको विषयविहीन करके पंचतत्त्वके ऊपर उठ करके अपना स्वरूप देखे हैं, वह अच्छी तरह समझे हैं कि, कर्ममें निर्लिप्त होना तथा कर्मफलमें स्पृहाशून्य होनेका स्वरूप कैसा है। साधक योगानुष्ठानसे अपना उस प्रकार आत्मभावको जान लेके नित्यसत्त्वस्थ होते हैं इस करके देह त्यागके समय वह जिस अवस्थामें रहें, तब उनका "अग्निज्योतिरहः शुक्ल.” उत्तरायण काल उपस्थित होता है, जिसलिये अपुनरावृत्ति गति लाभ होती है; और उनको पुनः देह धारण रूप कर्मबन्धनमें फंसना नहीं पड़ता ॥ १४ ॥ एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः । कुरु कम्मैव तस्मात् त्वं पूर्वः पूर्वतरं कृतम् ।। १५ ।। अन्वयः। एवं ज्ञात्वा पूर्वैः मुमुक्षुभिः ( जनकादिभिः ) अपि कर्म कृतम् । तस्मात् त्वं पूर्वः (मुमुक्षुभिः) कृतं (अनुष्ठितं ) पूर्वतरं ( प्रथम ) कर्म एव कुरु ।। १५ ॥ __ अनुवाद। पूर्व पूर्व मुमुक्षुगण भी इसी प्रकार जानके कम्म कर गये हैं; अतएव तुम पूर्व पूर्व मुमुक्षुगणके आचरित पूर्वतर ( प्रथम ) कर्म ही किया करो ॥ १५ ॥ व्याख्या। सच है कि, आत्माको निर्लिप्त और स्पृहाशून्य भाव करके जाननेसे और कर्मबन्धनमें पड़ना नहीं होता, किन्तु वैसा कह करके कर्मत्याग किया जा नहीं सकता; क्योंकि, कर्मत्यागी सिद्ध के भी पतन की सम्भावना है, किन्तु कमीके किसी प्रकारसे पतन की सम्भावना नहीं है। इसीलिये "कर्म ज्यायोह्यकर्मणः" है । पूर्व मुगणमुक्षु जो लोग सब आत्मभावको अच्छी तरह जान लिये थे
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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