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द्वितीय अध्याय दूर हैं। देशगत दूरवतीको हाथ और पैर द्वारा अर्थात् शारीरिक क्रिया द्वारा संग्रह ( सम्यक् प्रकार करके ग्रहण) किया जाता है; कालगत दूरवर्तीको भूत-भविष्यत्के अनुमान एवं विचार द्वारा अर्थात् अन्तःकरणकी क्रिया द्वारा ग्रहण किया जाता है; तथा पात्रगत दूरवत्तींके संग्रह ( सम्यक् प्रकार करके ग्रहण ) अनुभव द्वारा अर्थात् अनु होते होते सबके शेषमें चित्तधर्मके पार होनेके बाद अर्थात् लय योग द्वारा अन्तःकरणवृत्तिका लय करते करते मायिक सब कुछ मिट जानेके बाद आत्मामें प्रात्मा मिलने पर होता है। जो शरीर, मन और
आत्मा-ये तीनों एक करके दूरवती (षटचक्रके पर पारस्थित ) नाद बिन्दुको सम्यक् प्रकार ग्रहण कर सकते हैं अर्थात् उसमें मिल जा सकते वा मिलनेको चेष्टा करते हैं, उसको विपश्चित् कहते हैं। किन्तु जो मनुष्य क्रियायोग करके उस दूरवर्तीको संग्रह नहीं करते वा संग्रह करनेकी चेष्टा नहीं करते-निकटवर्ती अर्थात् पंचचक्रके भीतर दृश्यमान विषयका ग्रहण करते हैं, उनको अविपश्चित कहते हैं। निष्काम कमके अनुष्ठानसे ही दूरवर्तीका ग्रहण होता है; सकाम कर्मसे दूरवर्तीका ग्रहण नहीं होता, निकटवत्तीका ग्रहण होता है। इसलिये सकाम पुरुष ही अविपश्चित् अर्थात् अविवेकी है। अविवेकी कामनापरवश होकर विषय-सुख भोगोंका सर्वोत्कृष्ट स्थान जो स्वर्ग, उसीको लक्ष्य करता है। स्वर्ग लाभ ही काम्यकर्मका सर्वोत्कृष्ठ फल है. वेदके कर्मकाण्डमें इसी प्रकार विधान है। वह लोग वेदके उन उन वचनोंको लेकर "स्वर्ग लाभ ही श्रेष्ठतम फल है, उसे छोड़ कर और (दूसरा ) कुछ नहीं है" ऐसी नाना प्रकारकी साज सज्जावाली मनोहर बातें कहते हैं। इस प्रकार करनेसे ऐसा होता है कि, वो सब अपनेको भूलकर नित्यानित्य-विचार विहीन होकर भोग और ऐश्वय्य लेकर ही मतवाले बने रहते हैं, समाधिमें व्यवसातात्मिका बुद्धि-युक्त हो नहीं सकते। क्यों नहीं हो सकते उसका विषय खुलासा कहा जाता है