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श्रीमद्भगवद्गीता प्रकाश; उसमें रति-आसक्ति जिनकी, वही भारत हैं। एक मात्र चतन्य ही प्रकाश, और चतुर्विंशति तत्वात्मिका प्रकृति ही अप्रकाश है। एवम् प्रकार प्राकृतिक अधिकार में रह करके जो आत्मज्योति लक्ष्य करते हैं, वही भारत हैं। ...- "गुड़ाकेश” (गुडाका = निद्रा, अलसता; ईश=नियन्ता ) = निद्राजयी। अनलस साधकको ही गुड़ाकेश कहते हैं; अविश्रान्त क्रियमान अवस्था ही गुड़ाकेश अवस्था है। निद्राजयी होनेसे ही "अच्युत” लाभ होता है। वही निद्राजयो, जो अज्ञानज निद्राको दमन करके ज्ञानज निद्राका (समाधि-विश्रामका) आश्रय लेनेमें समर्थ हैं; अर्थात् जो साधक क्रिया कालमें निद्राके लिये अवखन्नता तथा चंचलतामें न पड़ करके प्रकाशमय स्थितिलाभ कर सकते हैं। विषयचिन्ता करते करते उससे उत्पन्न अवसन्नतामें अभिभूत हो करके रहनेका नाम अज्ञानज निद्रा वा "निद्रा" है। और श्रात्मलक्ष्य करते करते अपनेसे विषय-वृत्ति मिट जाने पर मनका जो अकम्पन विश्राम होता है, उसीका नाम ज्ञानज निद्रा, आत्मनिष्ठा वा “समाधि" है । इस गुडाकेश अवस्थामें मनमें किसी प्रकारकी इच्छा उपस्थित होनेसे उस इच्छानुसार मानसेन्द्रियको चलानेकी शक्ति पाती है, वह शक्ति कूटस्थसे ही प्रकाश पाती है, इसलिये “अच्युत" को तब हृषीकेश (इन्द्रिय समूहका नियन्ता ईश्वर ) कहा है। ये अवस्था समूह सूक्ष्म होनेसे भी साधन-मार्गमें थोड़ीसी चेष्टा करनेसे ही सहजमें समझमें
आ जाती है। उस प्रकार (२१ श श्लोकके लिखे अनुसार) मध्यस्थलमें रहनेकी इच्छा होनेसे ही गुरुकृपालब्ध हृषीकेश (इन्द्रियोंके ऊपर आधिपत्य करनेकी शक्ति ) द्वारा साधक अपना उत्तम रथ उभय सेनाके ऐन बीच स्थानमें स्थापन करते हैं।
"रथोत्तम"-रथ कहते हैं जिसमें चढ़के जाया जाता है, अर्थात् जो चलनेवाला बैठनेका वा स्थितिका स्थान है। मूलाधारसे आज्ञा