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श्रीमद्भगवद्गीता जबतक कर्म क्षय हो करके आवरण दूर न हो जाय, तबतक उसी प्रकार शरीर ग्रहण और त्याग अर्थात् जन्म और मरण होता रहता है । ये जन्म-मरण दो प्रकारके हैं,-श्वासगत और शरीरगत। श्वास ग्रहण करके उससे जीवन रक्षा करके भोगके पश्चात् उस श्वासको त्याग करना पड़ता है। श्वासके इस ग्रहण और त्यागको ही श्वासगत जन्म और मृत्यु कहा जाता है। जबतक जीवन है तबतक ये श्वासगत जन्ममृत्यु-प्रवाह' बहता रहता है। ठीक इसी प्रकार जीवत्व जितने दिन है, शरीरगत जन्ममृत्यु-प्रवाह भी उतने दिन है,-जाव एक देह धारण करके, भोगके शेषमें उसको त्याग करके, संचित कर्मराशि भोग करनेके लिये फिर दूसरो एक नवीन देह ग्रहण करते हैं। जैसे जीवन धारण करनेसे जीवनका शेष न होने तक श्वासका ग्रहण और त्याग करना ही पड़ता है; तैसे ( संचित कर्मराशिका क्षय हो करके ) जीवत्वका शेष न होने तक शरीरका ग्रहण और त्याग करना ही पड़ता है;-ये अनिवार्य है। अतएव अपरिहार्य विषयमें शोक करना तुम्हें उचित नहीं ॥ २६ ॥२७॥
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमथ्यानि भारत । अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥२८॥
अन्वयः। हे भारत ! भूतानि अन्यक्कादीनि व्यक्तमध्यानि अव्यक्तनिधनानि एव; तत्र परिदेवना का ? ॥ २८॥
अनुवाद। भूत सकल (प्राणीगण) आदिमें (सृष्टिके पहले) अव्यक (अप्रकाश ), मध्यमें (कुछ कालके निमित्त) व्यक्त (प्रकाश ), तथा मृत्युके पश्चात् फिर अव्यक्त ही हो जाते हैं। अतएव इसमें दुःखका विषय क्या है? ॥२८॥
व्याख्या। आदि-अन्त-मध्य विशिष्ट जो कुछ है वही भूत है। अतएव ये भोगायतन शरीर, अन्त:करण एवं नाना वृत्तियोंका आधार स्वरूप विभिन्न मिश्रामिश्र शिरा प्रशिरा की क्रिया-सब ही