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द्वितीय अध्याय
७६ निम्मित, षट-विकार-सम्पन्न जो भोगायतन है वही स्थूल शरीर है, अर्थात् अस्थिमांसादि-गठित शरीर है । सूक्ष्म शरीर अपंचीकृतपंचमहाभूत-निम्मित, भोगसाधन, एवं सप्तदशफलायुक्त है। (पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचकर्मेन्द्रिय पंचप्राण, मन, और बुद्धि इन सप्तदशको सप्तदश कला कहते हैं । ) निद्राकालमें स्थूल शरीरके बिछौनेके ऊपर बेखबर पड़नेसे भी स्वप्नयोगमें जो शरीरमें क्रिया होती है, उसीका नाम सूक्ष्म शरीर है। और कारण शरीर इन दोनों शरीरका अविद्यारूप कारण मात्र वा बीज है। मृत्युके ठीक पहले जीव वाह्यज्ञान-शून्य होकर सूक्ष्म शरीरमें रहता है, तब उसका समुदय कृतकर्म सामने उपस्थित हो करके फल देनेके लिये प्रस्तुत होता है। साधनसिद्ध योगीके सत्कर्म समूह चिज्ज्योति विकाश कर (सूर्यतेजसे जैसे कुज्झटिका ) समुदय आवरण नष्ट करा देनेसे उनको मुक्तिपदकी प्राप्ति होती है, अर्थात् उनके स्थूल शरीर त्यागके साथ ही साथ तीनों शरीरका ही त्याग हो जाता है, और फिर शरीर धारण करना नहीं पड़ता। किन्तु असाधक किम्बा असिद्ध साधक कर्ममें आबद्ध रहनेसे, चिज्योतिका दर्शन न पा कर केवल शब्दस्पर्शादि विषयोंका दर्शन करते रहते हैं, आवरण भेद वा नष्ट कर नहीं सकते, इसलिये स्थूल शरीर त्याग होनेसे भी सूक्ष्म और कारण शरीर लेके रह जाते हैं। तब, स्वप्नकालमें समुदय इन्द्रिय वृत्ति और संस्कारके साथ भ्रमण सदृश, सूक्ष्म शरीरमें "आकाशस्थ निरालम्ब वायुभूत" होकरके समुदय वृत्ति और संस्कारके साथ विचरण करते रहते हैं। इसीका नाम मृत्युकी पर अवस्था है। किन्तु बीज जैसे क्षेत्र में पड़ करके काल साहाय्यसे वृक्षाकार धारण करता है, वैसे ही वो सूक्ष्म और कारण शरीर-रूप क्षेत्रस्थ चैतन्य यथाकालमें स्वसंस्कारवशमें अर्थात् जिस भावका स्मरण करके मृत्यु हुई थो, उसी भावके अनु- 5 सार स्थूल शरीर धारण करते हैं। इसीका नाम जन्म है। अतएव