________________
द्वितीय अध्याय भूत है। यह सब भूत उत्पत्ति (जन्म) होनेसे पहले कैसी अवस्था में रहते थे, वह किसीके दर्शनमें आता नहीं; फिर लयके ( मरणके बाद) पश्चात् किस प्रकारको अवस्था प्राप्त होती है वह भी कोई नहीं जानता;-ये दोनों ही अव्यक्त हैं। केवल उस उत्पत्ति-लयकी मध्यावस्था व्यक्त अर्थात् इन्द्रियोंके ग्रहणीय-नियमित चंचलताका विकाश, गुणत्रयकी क्रिया है। यह तीनों ही प्राकृतिक नियमके अधीन-अवश्यम्भावी हैं। इसके लिये दुःख करना, रोना, पीटना फिर शोक करना काहेको? और भी देखो! तुम "भारत" (भादीप्ति, आत्मज्योति+रत-आसक्त) अर्थात् योगानुष्ठानमें आत्मज्योति प्रत्यक्ष करके उसमें युक्त हुये हो, और उसी ज्योतिके सहारेसे योगमार्गमें अन्तर्लक्ष्य में प्रत्यक्ष देख चुके हो कि, ब्रह्माश्रया माया,* जो अव्यक्तमूल है, उनसे ही त्रिगुणात्मक चौबीस कला-विशिष्ट ये प्राकृतिक जगत् सृष्टि हुअा है ( १४ श अः देखो);-लय-योगमें ये सब ही पुनः मकड़ीके जालका सुति मकड़ीसे मकड़ीमें मिला लेनेके सदृश, उस अव्यक्तमें ही मिल जाता है;-केवल सृष्टिके प्रारम्भसे लयके पूर्व पर्य्यन्त मध्यवर्ती कालकी क्रियात्मक अवस्था ही व्यक्त है-इसका आदि भी वही अव्यक्त, अन्त भी सोइ अव्यक्त है। इसका स्वरूप प्रत्यक्ष करके भी तुम इसमें क्यों शोक करते हो ? ऐसा न करना चाहिये। इच्छा करके शौकसे अपने गलेमें फांसी नहीं डालना ॥२८॥
आश्चर्यवत् पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्य्यवद्वदति तथैव चान्यः । आश्चर्य्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥ २६ ॥
* जंसे सत्य प्रत्यक्षका अवसर न रहनेसे भी मिथ्या अप्रत्यक्ष कल्पना करके उसको मानलेना, वैसे ही ब्रह्ममें माया भी है ।। २८ ।।