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चतुर्थ अध्याय
१८६ यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥७॥ - "अन्वयः। हे भारत ! यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिः अधर्मस्य (च) अभ्युत्थानं भवति, तदा अहं आत्मानं सृजामि ॥ ॥ __ अनुवाद। हे भारत ! जब जब धर्ममें ग्लानि तथा अधर्मका अभ्युत्थान होता है, तब ही मैं आत्माको सृजन करता है ॥ ७॥
व्याख्या। जिसे पकड़के वा जिसको अवलम्बन करके रहना पड़ता है, वही धर्म है। अन्तःकरणकी वृत्तिको धारण करके ही जीवका जीवत्व है; अतएव अन्त:करण-वृत्ति ही जीवके धर्म है । अन्तःकरण-मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त-इन चार अशमें विभक्त तथा चिन्तादि चार प्रकारकी वृत्ति वा धर्मसम्पन्न है । अन्तःकरणके यह एक एक अश एक एक युग और एक एक वृत्ति धमके एक एक पाद है।
सृष्टिमुखमें चित्त ही प्रथम है; इसके क्रिया अथवा वृत्तिका नाम चिन्तन है। चित्त विकार-प्राप्त होनेसे, इसमें और एक वृत्ति बढ़ती है, उस वृत्तिका नाम अहं-वृत्ति है; तब इसका नाम पड़ता है अहंकार; जिसलिये अहंकारकी वृत्ति दो हैं-चिन्तन और अहंकत्तत्व। अहंकारके विकार प्राप्त होनेस और एक वृत्ति बढ़ती है, वह वृत्ति निश्चयकरण है, तब इसका नाम होता है बुद्धि; जिसलिये बुद्धिके तीन वृत्ति वा धर्म है-चिन्तन, अहंकत्व, निश्चयकरण। तत् पश्चात बुद्धि विकार प्राप्त होनेसे, उसका नाम होता है मन, उस मनमें अलग
और एक वृत्ति बढ़ती है, उस वृत्तिका नाम संकल्प-विकल्प है, इसलिये मनकी वृत्ति अथवा धर्म चार हैं-चिन्तन, अहंकत्तृत्व, निश्चयकरण,
और सकल्प-विकल्प। ये चार वृ िही धम्मके चार पाद हैं, इनही से अन्तःकरणकी जो कुछ क्रिया सम्पन्न होती है, निवृत्तिमार्गमें