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श्रीमद्भगवद्गीता लौटके मर्त्यलोकमें नहीं आने पड़ता। देवतोंकी आराधना करने में जिस प्रकार प्रायास ( कष्ट ) भोग करना होता है, परमेश्वरको
आराधनामें भी उसी प्रकार अायास है, अधिक नहीं। परन्तु देवया जी गण समान प्रायास करके भी आत्मगति लाभ करने सकते नहीं, अनन्त फल नहीं पाते; अल्पबुद्धि हेतु समझनेके फरमें वह लोग कामना करके देवोंकी आराधनामें रत होते हैं। (पर श्लोल देखो) ॥ २३ ॥
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।। २४ ॥ अन्वयः। अबुद्धयः ( मन्दमतयः अविवेकिनः ) मम अव्ययं अनुत्तमं परं भावं (परमात्यस्वरूपं ) अनानन्तः ( सन्तः) अव्यक्त (अप्रकाशं प्रपञ्चातीतं ) मा व्यक्ति आपन्नं ( मनुष्य मत्स्य कूर्मादिरूपेण प्रकाशं गतं ) मन्यन्ते ।। २४ ।।
अनुवाद। बुद्धिहीन मनुष्य गण हमारा अव्यय अनुत्तम और परम भावको न जानक, अव्यक्त नो मैं हूँ उसे व्यक्ति भाव-प्राप्त समझते हैं ॥ २४ ।। ___ व्याख्या। समान प्रयाससे ही जब अनन्त फल मिलता है, तब सब कोई जो दूसरे देवताको त्याग करके क्यों परमात्म सेवामें नहीं रत होते उसका कारण इस श्लोकमें कहा हुआ है। जिनकी बुद्धि नहीं है, अर्थात् जो लोग कर्म द्वारा कर्मको अतिक्रम करके आज्ञा चक्रके बुद्धितत्त्वमें पहुंचकर विवेक ज्ञान लाभ नहीं कर सकते, उनकी अन्तर्ड ष्टि श्रावृत ही रहती है। इस कारण परमेश्वर परमात्माका जो अव्यय (नित्य ), अनुत्तम ( सर्वोत्कृष्ट ) और परं (मायातीत ) स्वरूप है, उसे प्रत्यक्ष नहीं कर सकते। प्रत्यक्ष न करनेसे यह होता है, कि परमात्माको अव्यक्त होने पर भी, व्यक्तिभावापन्न करके मनमें धारण कर लेते हैं । अर्थात् परमात्मा निराकार ब्रह्म होकरके भी जगत् की रक्षाके लिये लीला छल करके जो विविध मूर्ति धारण करता है,