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. सप्तम अध्याय
३३३ करता है। इसी भेद ज्ञानके लिये उन सबका वह प्राप्त फल चिरस्थायी नहीं होता (आगेका श्लोक देखो) ॥ २२ ॥
अन्तवत्त फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।
देवान् देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥ २३ ॥ अन्वयः। तु (किन्तु ) अल्पमेधसां (अल्पप्रज्ञानां परिच्छिन्नदृष्टीना ) तेषा ( कामिना ) तत्फलं ( मया दत्तमपि ) अन्तवत् ( विनाशि) भवति, देवयजा ( देवताराधनकारिणः ) देवान् यान्ति ( उत्पत्तिनाशीलं देवभावं प्राप्नुवन्ति ), मद्भक्ताः मां अपि ( अनाद्यनन्तं परमानन्दं एव ) यान्ति ( प्राप्नुवन्ति )। [“एवं समानेऽप्यायासे मामेव न प्रतिपद्यन्ते अनन्तफलाय, अहो खलु कष्टं वत्तते इत्यनुक्रोशं दर्शयति भगवान्" इति शंकरः ] ।। २३ ॥
अनुबाद। परन्तु उन अल्पमेधासम्पन्न लोगों को यह फल अन्तवत् (अचिरस्थायी) होता है; देवयाजीयां देवतागणको प्राप्त होता है, मद्भक्त लोग मुझको हो प्राप्त होता है ।। २३ ॥
व्याख्या। एकमात्र "मैं" ही अनादि अनन्त हूँ। यह विश्व प्रपंच "मैं" सेही उत्पन्न, कालवशसे पुनः “मैं” में ही लय प्राप्त होता है। इसलिये देवगण विश्वके सर्वश्रेष्ठ जीव होनेसे भी अचिस्थायी हैं; कालवश करके सबको ही लय प्राप्त होना होता है। परन्तु जो "मैं", परमात्मा वा परमेश्वर है, उनका और लय नहीं है; वह नित्यशुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वभाव-सम्पन्न है। उनको छोड़ करके भेद ज्ञानमें. दूसरे देवताको आराधना करनेसे जो फल मिलता है, सो परमेश्वर कर्तृक विहित होनेसे भी अन्तवतोंकी आराधनाके लिये अन्तवत् हो जाता है। और भी, देवतोंकी आराधना करनेसे देवलोकमें देव भाव. की ही प्राप्ति होती है, इसलिये भोगक्षय पश्चात् पुनराय मर्त्यलोकमें जन्म ग्रहण करना पड़ता है। परन्तु परमेश्वरकी आराधना करनेसे. अनादि अनन्त परमानन्द स्वरूप परमेश्वरको ही मिल जाता है, और.