________________
३३२
श्रीमद्भगवद्गीता है। परन्तु भेद-ज्ञानके रहनेसे कामनाशील लोग “मैं” को एक भाव से ग्रहण न करके भिन्न भावसे ग्रहण करते हैं; इसीलिये अन्तर्यामी भगवान् ( परमात्मा ) भी उन सबको उसी भिन्न भावके अनुरूप श्रद्धा प्रदान करता है, उन सबका भेदभाव मिटाकर अभेद भाव नहीं देता। कारण यह है कि, जो जिस भावसे उसको भजता है, वह भी उसको उसी भावसे तुष्ट करता है-"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहं" ।। २१ ॥
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
लभते च ततः कामान् मयैव विहितान् हि तान् ॥ २२ ॥ अन्वयः। सः तया ( मद्विहितया ) श्रद्वया युक्तः ( सन् ) तस्य देवतायाः (तन्वाह ) आराधनं ईहते ( करोति ), ततः ( तदनन्तरं ) मया एव ( परमेश्वरेण सर्वज्ञेन ) विहितान् (निमितान् ) तान् कामान् ( ईप्सितान् ) हि (निश्चितं ) लभते ॥ २२॥
अनुवाद। वह उसी प्रकार श्रद्वासे युक्त हो करके उसी देवमूत्तिको आराधना करता रहता है, तदनन्तर हमसे ही विहित उनही कामनाये लाभ करता है ।। २२ ॥
व्याख्या। भगवान् कामी लोगोंको उनके भेदज्ञानका अनुरूप जो श्रद्धा प्रदान करता है वह लोग उसी श्रद्धासे युक्त हो करके उसी देवमूर्तिकी आराधनामें प्रवृत्त होता है। आराधनाके पश्चात् अभीष्ट (ईप्सित् ) फल लाभ करता है सही; परन्तु वह फल परमेश्वर ही विहित करता है अर्थात् परमेश्वर ही । उन सबके भीतर जो सच्चेके “मैं” वही "मैं" ) उन सबका उसी उसी कामनाका पूरण करता है; क्योंकि परमेश्वर ही एकमात्र कर्मफलप्रदाता है। कामीगण हतज्ञान होके नहीं समझ सकते कि, एक प्रभु परमेश्वर ही उन लोगोंको काम्यफल प्रदान करता है। समझनेके अभाव-फलसे वह लोग सोचते हैं कि, उन लोगों का आराधित देवता ही उन सबका अभीष्ट पूरण