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तृतीय अध्याय
१३६ करके प्रतिक्षणमें ही शरीर-सुखमें क्षय पाता है, देवगणका पोषण नहीं करता। वस्तुतः शरीर-क्रिया वैश्वानरादि देवगणसेही चालित, तथा प्राण-प्रवाह और सुधा उन सबसे ही प्रदत्त हैं ; जिसलिये वो सब उनही देवतनके द्रव्य हैं। अतएव कौशलसे वह सब चीज उन सब देवतनको अर्पण न करके शरीर-सुखमें विषय भोगके लिये खरचा करनेसे सचमुचही चोर होना पड़ता है। इसमें इष्टसाधन नहीं होता (१०म श्लोकके शेषार्द्धसे १२ श श्लोक तक प्रजापतिवाक्य ) है ॥ १२॥
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः ।
भंजते तेत्वधं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥ १३॥ अन्वयः। यज्ञशिष्टाशिनः ( यज्ञशेषभोजिन । ) सन्तः ( साधवः) सर्व किलिवर्षे ( सर्वपापैः ) मुच्यन्ते। ये तु आत्मकारणात् पचन्ति ते पापाः ( पापचारिण ) अघं ( पापं ) मुंजते ।। १३ ॥ ___ अनुवाद। यज्ञशेष भांजी साधुगण सर्व पापसे मुक्त होते है। परन्तु जो लोग अपने लिये पाक करते है, वो पापाचारी लोग पापही को भोजन करते हैं ।। १३॥.. __व्याख्या। प्राणायाम ही यज्ञ है प्राणस्थिर हो जाना ही यज्ञ शेष है। उसी शेषभागको जो भोजन करते हैं अर्थात् जो प्राणवायुको स्थिर करके शरीरके भीतर धारण (कुम्भक ) करते हैं, वही पुरुष यज्ञशेष भोजी हैं। जो सब साधक उस प्रकार कुम्भकसे प्राणरोध करके यज्ञशेषभोजी एवं सन्त ( सत्सत्वामें एकाग्र मनसे प्रवेश हेतु. तन्मय ) होते हैं, वही सब साधक * प्राकृतिक चंचलताके अतीत हो करके मुक्त होते हैं। किन्तु जो लोग "प्रात्म-कारणमें" अर्थात् भोग ___ * द्वितीय अध्याय ४४ श्लाका व्याख्या देखो। साधु न हो करके केवल ( वाजिगर योगी ) यज्ञशेष भोजीके भाष दिखलानेसे व्यवसायत्मिका बुद्धि पाती नहीं, इसलिये मूति भी नहीं होती ॥ १३ ॥