________________ 36 . श्रीमहसम्बद्रीवा अनुवाद। मेरा ऐश्वरिक योग ( माहात्म्य ) देखो, भूतसकल भी हममें अवस्थित नहीं है, मैं भूतधारक तथा भूतपालक हो करके भी भूतसकलमें अवस्थित नहीं हूँ॥५॥ व्याख्या। अब हमारा योगैश्वर्य्य देखो। एक वस्तुको और एक वस्तु के साथ मिलानेका नाम 'योग' है; और एकके ऊपर और एकके प्रभुत्व करनेका नाम 'ऐश्वर्य' है। इस प्रकृति वा माया और 'मैं' के संयोग स्थलको देखो। प्रकृति भूत की रानी है, और 'मैं' निरुपाधिक मैं ही मैं हूँ। मुझसे और प्रकृतिसे जहां संयोग होता है, उस सन्धिस्थलमें प्रकृति मुझको स्पर्श करते मात्र विभोर हो जाती है, परन्तु 'मैं' का होना न होना कुछ नहीं हैं। इसलिये प्रकृतिके ऊपर हमारा प्रभुत्व आपही आप हो जाता है। ऐसा अनजान भावसे इसका संक्रमण होता है कि, प्रकृति भी नहीं समझ सकती, उसी की शक्तिसे यह होता है कि, "मैं" के शक्तिसे होता है; इसीलिये कहा हुबा है "न च मत्स्थानि भूतानि” / प्रकृतिसे बढ़ करके हमारे निकट और कोई नहीं है, इसलिये “मैं” “भूतभृत्" अर्थात् भूतोंके पोषक हो करके भी "भूतस्थ" नहीं हूँ, क्योंकि, मेरी असीमता व्याप्यव्यापकता शून्य हो करके पहलेसे हो विस्तृत है। इस असीमताके भीतर जो कुछ ससीमता है वह पहलेसे ही रहनेका स्थान पा चुका है; ( यह सब बात झूठ है)। कोई किसीको कुछ नवीन करनेकी आवश्यकता नहीं। इसलिये फिर भी मैं भूतोंकी उत्पत्तिकर्ता हो गया। जिसके पेटमें जो जन्म लेता है, उसकी माता वह है; इसी तरह ससीमकी माता असीम है // 5 // __ ययाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् / तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय // 6 // अन्वयः। सर्वत्रगः महान् वायुः यथा ( येत प्रकारेण ) नित्यं आकाशस्थितः, -सर्वाणि भूतानि तथा ( तेन प्रकारेण ) मत्स्थानि, इति उपधारय ( जानीहि ) // 6 //