________________ 407 नवम अध्याय व्याख्या। वह जो गुरूपदिष्ट क्रममें 'मैं' भज करके 'मैं' होना है, इस 'मैं' में द्वैताद्वत भाव नहीं रहता। क्योंकि, जो 'मैं' भजता है वह 'मैं' हो जाता है; 'मैं' भी 'मैं'-भजने वालाके साथ मिल कर उसको 'मैं' बनाय लेता हूं। इसलिये 'मैं' निस्तरंग ऊंचानीचा-बिहीन हूँ। 'मैं' में प्रिय वा अप्रियका स्थान नहीं है, सब समान है। 'समोऽहं'-अहं शब्दमें एकको समझाता है। इस एकमें सब मिलने से ऊंचा नीचा नहीं रहता। भूतसमूह जब उस अहमें मिलता है, तब भूतोंका ऊंचा नीचा ह्रास-वृद्धि भी मिट जाकर समान हो जाता है / इसलिये 'मैं' में प्रिय वा अप्रिय की उद्रेक नहीं रहती। जो कोई गुरूपदेश अनुसार अटल विश्वास और भक्तिपूर्वक मैं-भजन करता है, वही 'मैं' में पड़कर मिल करके 'मैं हो जाता है; थोड़ासा भी इधर उधर होनेसे 'मैं' नहीं हो सकता; जैसे शीतकालमें अग्नि तापना है,जो निकटमें रहता है, उसका ठण्ढा (शीत ) दूर होता है, जो दूर रहता है, वह अग्निको देखता है सही लेकिन उसका जाड़ा टूटता नहीं; परन्तु अग्नि दोनोंके लिये समान है // 26 // अपि चेत् सदुराचारो भजते मामन्यमाक। साधुरेव स मन्तव्यः सम्यगव्यवसितो हि सः॥३०॥ अन्वयः। सुदुराचारः अपि चेत् ( यदि ) अनन्यभाकू ( अनन्यभक्तिः सन् ) मां भजते, सः साधुः एव मन्तव्यः ; हि ( यतः ) सः सम्यक् व्यवसितः ( शोभनं अध्यवसायं कृतवान् ) // 30 // अनुवाद / सुदुराचार मनुष्य भी यदि अनन्यभक्ति हो करके मुझको भजन करें तो वह साधु कह करकेही गण्य हौवेगा ; क्योंकि, वह सम्यक् प्रकारसे व्यवसित ( अध्यवसाय युक्त) है // 30 // व्याख्या। साधक ! क्रियाके प्रति लक्ष्य करके आपही समझकर देखो कि यदि मैं अनासहि पूर्वक चरण करू (चरण विषय विना