________________ 408 श्रीमहगवद्गीता और किसीमें नहीं होता), वो विषय हमसे बहुत दूरमें पड़ा रहता है। फिर जो उस विषयमें आसक्ति देकर बहु जन्म भोग रागमें मतवाला हो रहता हूँ, वही सुदुराचार अवस्था है; क्योंकि, वह अति चंचलतामय है। फिर जब मैं विषयासक्तिको छोड़कर कूटस्थमें अपने स्वरूपको लक्ष्य करके सूक्ष्म-श्वासमें आसक्ति देकर धारणामें स्थित हो जाऊं, तबही मैं "मैं" होता हूं-साधु होता हूँ। इसीका नाम आत्मनिष्ठा है // 30 // क्षिप्र भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्ति निगच्छति / कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति / / 31 / / अन्वयः। (मुदुराचारऽपि मां भजन ) क्षिप्रं (शीघ्र ) धर्मात्मा भवति, ( ततश्च ) राश्वत् (नित्यं ) शान्तिं निगच्छति ( प्राप्नोति ); हे कौन्तेय ! मे ( परमेश्वरस्य) भकः न प्रणश्यति इति प्रतिजानीहि (निश्चित प्रतिज्ञा कुरु ) // 31 // अनुवाद / ( सुदुराचार भी मुझको भज करके ) शोघ्रही धम्मात्मा होते हैं, ओर नित्य शान्तिको प्राप्त होते हैं। हे कोन्तेय ! मेरा भक्त विनाशको प्राप्त न होगा, यह बात प्रतिज्ञा करके तुम कह सकते हो / / 31 / / व्याख्या। आत्मनिष्ठाका सुख जिसने एक बार अनुभव किया है, उस सुखको फिर भोग करनेके लिये व्याकुलता उसमें अवश्य आती है। उस व्याकुलता उस सुखभोग करनेके लिये उसको अवश्य चेष्टा कराती है। उस चेष्टासे वह उस सुख पाता भी है। अतएव बारंबार के व्याकुलतामें बारंबारके सुख भोगका अभ्यास गाढ़ा हो आनेसे शीघ्रही शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध इन सब विषय भोगके ऊपर वितृष्णा श्रा पड़ती है, चरण ( चलना, फिरना, संकल्प, विकल्प रूप, अन्त:करण धर्मा) छूट जाता है, धारणा आ पड़ती है। यह धारणा ही धर्म है। चित्त तब इस धर्ममें आबद्ध होकर स्थिर रहता है, और