________________
प्रथम अध्याय
२७. सुनने में आता है। इन सब शब्दोंका विषय १७/१८ श्लोकमें लिखा है। किन्तु मनके चंचलता हेतु उन सब शब्दोंके क्षणस्थायी और . अपरिस्फुट होनेसे वह अच्छी तरह धारणामें नहीं आता।
. साधकके क्रियाकालमें प्रवृत्ति और निवृत्तिके ताड़नमें अभिभूत होकर कूटस्थकी तरफ लक्ष्य फेंकने में बाध्य होने पर साधक क्रमान्वय नाना प्रकारके रंग बिरंगे रूप देखते और नाना प्रकार बारीक मोटा स्वर सुनते हैं। उन सबकी बात इन कई श्लोकोंमें कही गई है ॥ १५ ॥ १६ ॥ १७ ॥ १८ ॥
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्। -
नभश्च पृथिवीञ्चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ॥ १६ ॥ अन्वयः। सः तुमुलः घोषः (शब्दः ) नभश्च पृथिवीं च एव व्यनुनादयन् (प्रतिध्वनिभिः आपुरयन् ) धात राष्ट्राणां ( दुर्योधनादीनां ) हृदयानि व्यदारयत् ( विदारितवान् ) ॥ १९ ॥
अनुवाद। उस तुमुल शब्दने आकाश और पृथिवीको अपनो प्रतिध्वनिसे विशेष प्रकारसे परिपूर्ण कर धार्तराष्ट्रोंके हृदयको (मानो) विदीर्ण किया ॥ १९ ॥
व्याख्या। वैसे स्वरसमूह जब सुनने में जाते हैं, तब साधकका अन्तःकरण अवश हो करके उसी तरफ आकृष्ट होता है। पृथिवी । (मूलाधार ) और आकाश (विशुद्ध) पर्यन्त समस्त स्थान हो नादसे परिपूर्ण हो जाता है। परन्तु तब उनके मनमें वासना-वृत्तिके प्रबल रहनेसे भला बुरा समझमें न आनेके कारण उन सब शब्दोंको उपद्रव-जनक समझकर साधक उसे परित्याग करनेकी चेष्टा करते हैं, लेकिन कर नहीं सकते। हृदयमें एक प्रकारकी व्याकुलता आ जाती है, जिससे मालूम होता है कि हृदय मानो विदीर्ण हो गया। साधनक्रममें, सर्व प्रथम नाद् उठना प्रारम्भ होनेसे ही ऐसी अवस्था होती है। यह सब स्वयं ही समझा जाता है, कहकर समझाया नहीं जा सकता।