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श्रीमद्भगवद्गीता उद्वगके समय मनमें एक बुरा भाव उठनेसे उसके बाद ही स्वभावतः अच्छे भावका उदय होता है; यह अभ्रान्त सत्य है। इसलिये साधकके मनमें इस प्रकार "धृतराष्ट्र" भावके उदय होनेके बाद ही ( २० श्लोकमें लिखा हुआ है ) “पाण्डव" भाव उठता है। किन्तु वासनाके प्रबल रहनेसे जैसे ज्ञानकी बातें भी अज्ञानतासे पूर्ण हो जाती हैं; २१ श्लोकमें अर्जुनके कथन समूह भी उसी प्रकारके हैं ॥ १६ ॥
अथ व्यवस्थितान दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान कपिध्वजः । प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ।
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ॥२०॥ अन्वयः। हे महीपते ! अथ ( महाशब्दानन्तरं ) शस्त्रसम्पाते प्रवृत्त ( सति) तदा कपिध्वजः पाण्डव: ( अर्जुनः) व्यवस्थितान् ( युद्धोद्योगे अवस्थितान् ) धात राष्ट्रों को देखके धनुः उद्यम्य ( उत्तोल्य ) हृषीकेशं इदं वाक्यं आह ॥ २० ॥ . अनुवाद। हे महाराज ! अनन्तर शस्त्र सम्पातमें प्रवृत्त होने पर, कपिध्वज अर्जुनने युद्धोउद्योगके लिये अवस्थित धार्तराष्ट्रोके देखके धनु उठाकर हृषीकेशसे यह बात कही ॥ २०॥
व्याख्या। "कपिध्वज"-क्रियाकालमें जुवानको उलट कर नासारन्ध्रके ऊपर श्लेष्माके स्थानको अतिक्रम करके डगला थोडासा बाई तरफ हिलाकर (आपही हिल जाता है) रखना होता है, इसीको साधकको कपिध्वज अवस्था कहते हैं।
"धनुरुद्यम”–मेरुदण्ड अर्थात् पीठकी रीढ़का नाम धनु है । "समं कायशिरोग्रीव" होनेसे ही पीठकी रीढ़धनुषाकारमें पिछाड़ीकी तरफ झुक जाती है। छातीको चितकर मस्तकको सीधा उठा चिबुक को कण्ठकूपकी तरफ संयत कर रखनेसे ही मेरुदण्ड उस प्रकार आकार धारण करता है। इसलिये उस प्रकार बैठनेका नाम "धनुरुद्यमन" है। ऐसे समय प्रवृत्तिका दल छिद्र पाते मात्र विषयकी ओर