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श्रीमद्भगवद्गीता अर्जुन (अ+रज्जु+न, ८ म अध्यायका १ म श्लोककी व्याख्या देखिये )--जो पाश मुक्त नहीं है, अर्थात् साधकके संसाराबद्ध जीवावस्थाका नाम अर्जुन है। यहां साधकको ही अर्जुन कहा गया है। साधकको साधनाके जीवन में भिन्न भिन्न अबस्थाओंका भोग करना पड़ता है, उस एक एक अवस्थामें उनका एक एक नाम भी पड़ता है। योगशास्त्रका सारभूत इस गीताको समझनेके लिये साधारणतः साधककी तीन अवस्थाओं का उल्लेख किया जा सकता है। पहली 'अवस्था-दीक्षा-संस्कारसे द्विजत्व ले करके क्रियाके प्रथमसे प्रारम्भ करके मृणालतन्तु सदृश अति सूक्ष्म सुषुम्ना-पथके प्रवेश-द्वारमें आने पर्यन्त होती है। यह अवस्था एकदम चंचलतामय है। यही साधककी बालक अवस्था है। इस अवस्थामें केवल गुरुकृपाबलसे कूटस्थज्योतिसे उन्मना ( ऊर्द्धमें आकृष्ट मन ' होकर क्रिया करते करते साधक्के हृदयमें बलका संचय होता रहता है। यही अवस्था महाभारतमें पाण्डवोंके बनवास-कालके नामसे वर्णित हुई है।
इसके बाद द्वितीय अवस्था है। क्रिया द्वारा मनकी प्रबल चन्चलताको नष्ट तथा बाहरका ज्ञान क्षीण करके सुषुम्नामें उस सूक्ष्मातिसूक्ष्मतम छिद्रपथमें मनको प्रवेश कराना ही साधककी द्वितीयावस्था है। उस समय शरीरकी जो जो अवस्था होती, और मनमें जो जो भाव उठते, तथा जो जो दर्शनमें और सुननेमें आते हैं, वही समस्त श्रीकृष्णार्जुनसम्बाद कहकर "गीता" के नामसे वर्णन किया गया है। इस अवस्थामें साधकको केवल अर्जुन नामसे अभिहित किया गया। क्योंकि, वासना क्षय न होनेसे कर्मबन्धन श्हनेसे भी रजः सत्वगुण करके क्रियाशील रहने से उनसे सर्वदा निर्मल कर्म ही सम्पादन होता रहता है। ( महाभारतमें भी लिखा हुआ है कि, सदाकाल निर्मल कर्म करनेसे हो तृतीय पाण्डवका नाम "अर्जुन" हुआ था)। इस 'अवस्थाको प्राप्त ( प्रथम श्लोक कथित धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्रमें आगत )