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प्रथम अध्याय धृतराष्ट्रने संजयसे युद्धका हाल पूछना प्रारम्भ किया। संजयने युद्धका विवरण क्रमानुसार श्रीकृष्णार्जुन-संवाद (गीता ) रूपमें वर्णन किया। इसका अर्थ यह है कि, मणिपुरस्थ दशदल अतिक्रम करके चित्राके भीतर प्राणवायु प्रवेश करानेसे ही कुलकुण्डलिनी चैतन्य-युक्त होती है, तब साधकका बाह्यज्ञान अभिभूत होकर वैषयिक अहत्व (अर्थात् चिदाभास वा अस्मिता जो दशो दिशाओं में व्याप्त होकर जीवोंका जीवत्व प्रतिपादन कर रहा है ) निस्तेज होता है। इसीको भीष्मका पतन कहकर निर्देश किया गया है। कुलकुण्डलिनीको जाग्रत करनेसे स्थिर आत्म-ज्योति प्रकाश करनेवाले मानसचक्षुका उदय होता है; उस चक्षुसे तीनों काल ( भूत, भविष्यत्, वर्तमान ) की घटनावली प्रत्यक्ष होती रहती है। उसके पीछे विकर्म ताड़नके द्वारा साधक जब फिर कर्मक्षेत्रमें अवतीर्ण होता है, तब विषयोंके द्वारा वेष्टित हो जाने पर आत्म-ज्योति परोक्ष होनेसे भी, स्मृति जागरूक रहती है, इस करके "धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में प्रथमसे शेषपर्यन्त संघटित व्यापार-समूहकी छाया मात्र उनके मनमें उदय होती रहती है, तब साधक उन व्यापारोंको लेकर मन ही मन प्रश्न करता रहता है और वे प्रश्न (गुरूपदिष्ट क्रियालब्ध ) दिव्य दृक्शक्तिसे मीमांसित (प्रत्यक्षीभूत ) होते रहते हैं। इसीको गीतामें धृतराष्ट्र-संजय सम्बादरूप कथन कहा है। साधककी जाग्रतावस्थाका नाम धृतराष्ट्र और उनकी क्रियालब्ध मानस दृष्टि, अन्तष्टि वा दिव्य दृष्टिका नाम संजय है (अध्याय ११ श्लोक ३५की व्याख्या देखो)। ..
क्रियाके प्रारम्भसे चिदाभास नष्ट होनेतक प्रवृत्तिको ताड़ना और निवृत्तिकी प्रेरणा आदि जो जो घटनाएँ उपस्थित हुई हों, उन सबका
आनुपूर्विक स्मरण करना ही साधकका उद्देश्य है। इसके बाद क्या किया' 'उसके बाद क्या किया इस प्रकार स्वकृत अतीत घटनासमह चिन्ता करके स्मरण करते जामेसे, मनमें जिस प्रकारके प्रेश्न उदयं