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श्रीमद्भगवद्गीता संकल्प-विकल्प परित्याग करके जो अवस्थान, अथच बुद्धिकी क्रिया संम् होती है, फिर मिट भी जाती है, परन्तु सिद्धान्त स्थिर नहीं होता, इस प्रकारका अवस्थान ही मानसिक विचार-अवस्था है।
गुरूपदिष्ट क्रियाकालमें मन सूक्ष्मावलम्बी होनेसे विस्तारको प्राप्त होता है, तब उसकी संकीर्णता नष्ट हो जाती है, इसलिये इस जन्म
और पूर्व जन्मके अर्जित 'सु' 'कु' कर्म संस्कार-समूह प्रत्यक्ष होते रहते हैं। आजन्म विषय-वासना द्वारा जड़ित रहनेसे साधकका विषयसंस्कार सत्संस्कार से अधिकतर शक्तिसम्पन्न होकर उनको लक्ष्यभ्रष्ट तथा वशीभूत कर लेता है; परन्तु गुरूपदेशका संस्कार ( कूटस्थ चतन्य वा श्रीकृष्ण ) सतत जागरूक रहनेसे उसके आलोक द्वारा सत्संस्कारसमूह पुनरुद्भासित होकर उनको पुनः लक्ष्यामिमुखी करता है। यह विषय संस्कार ही प्रवृत्ति और सत्संस्कार निवृत्ति है। नदी-निक्षिप्त काष्ठखण्ड ज्वार (समुद्रोत्थित जलविकर्षण ) भाटा ( समुद्रसे उस जलका पुनराकर्षण ) के वशसे उजान-भाटीमें अर्थात् विकर्षण और
आकर्षणसे संचालित होने पर भी परिशेषमें जैसे विशाल सागरमें जाकर गिरता ही है, विकर्षणका वेग उसको अटका नहीं सकता, वैसे ही धैर्य धारण करके गुरूपदेशके अनुसार क्रिया करते रहनेसे, प्रवृत्तिसमूह चाहे कितना ही प्रबल हो, अन्तमें विशाल शान्तिसागर (ब्रह्मपद) तक पहुँच हो ही जाती है। सत्चेष्टाशील साधक मात्रको यह आक्षेपण और विक्षेपण मालूम है; क्रियाके प्रारम्भसे ही यह आक्षेपण और विक्षेपण होता रहता है इसीलिये कहा कि-युद्धच्छु होनेसे ही समवेत होना पड़ता है।
___"किमकुर्वत संजय" दश दिनके युद्ध में भीष्मके पतित होनेके पश्चात् रणक्षेत्रसे हस्तिनापुरमें (कर्मक्षेत्र, जहां धृतराष्ट्र वा मन रहता है ) संजयके लौट पाकर भीष्मके पतनकी वार्ता सुनानेके लिये उपस्थित होनेपर