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तृतीय अध्याय
१३१ ब्राह्मानन्द नहीं मिलता। मूढता हेतु मनके विषयावेगके रहनेसे भी केवल मात्र मान प्रतिपत्ति बजा (दृढ़ ) रखनेके लिये उनका इन्द्रियसंयम है, इसलिये वह मिथ्याचारी हैं* ॥६॥
- यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥७॥ अन्वयः। हे अर्जुन। यः तु इन्द्रियाणि मनसा नियम्य कर्मेन्द्रियः कर्मयोगं आरभते, स: असक्तः विशिष्यते ॥ ७ ॥
अनुवाद । हे अर्जुन ! किन्तु जो मनके साथ इन्द्रिय सकलको संयत करके कर्मेन्द्रियोंसे कर्मयोग आरम्भ करते हैं, वही असत ( आसक्तिशून्य ) पुरुष ही विशिष्ट अर्थात् युक्त होते हैं ।। ७॥
व्याख्या। पांव मारके बैठके एक पावके गुल्फसे गुह्य देशपर आक्रमण करके, दूसरे पांवके गुल्फसे लिंग-मूल दावके * आसन संलग्र दोनों जानुके ऊपर हाथ सीधा करके मणिबन्ध दोनों रखकेमेरुदण्ड घाड़ (घेठ) और मस्तक बराबर सीधा कर लेकरके, कूटस्थ लक्ष्य करके वहां जो जो होता रहेगा, उस तरफ झानेन्द्रिय समूहको
* साधकमात्र ही जानते हैं कि, क्रियाकाल में ठीक ठीक आसन करके बैठा हुआ है, क्रिया होता है, होते होते मनमें ऐसे एक विषय को चिन्ता उठ आई जिससे उस दिन उसी चिन्तामें क्रियाका शेष हो गया; असल काम कुछ न हुआ। इसको भी मिथ्याचार अवस्था जानिये। इस अवस्थामें “ततस्ततो नियम्यैतत् आत्मन्येष वशंनयेत्” इस उपदेश अनुसार दृढ़ उद्यममें क्रिया करनेसे तब इससे निष्कृति पाया जाता है ॥ ६ ॥
* स्वस्तिकासन ही सुखसाध्य है। पग मारके बैठके जानु दोनों और उस दोनोंके भीतर जो दाड़ पड़ता है, दोनों पगके पाति ( पाणी ) उन दाड़के भीतर रखकर त्रिकोणाकार आसनबद्ध करके, सरल भाव में काय-शिर-ग्रीवा सीधा-समान'बराबर रख करके बैठनेसे ही स्वस्तिकासन होता है ॥७॥