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श्रीमद्भगवद्गीता - अनुवाद। कर्म न करके कदापि कोई क्षणमात्र भी स्थिर रह नहीं सकता,
क्योंकि प्राकृतिक गुणत्रय सभीको अवश करके कर्म करा देते हैं ॥ ५॥ -- व्याख्या। प्राणकी क्रिया ही कर्म है; ज्ञानी, अज्ञानी सबही इस प्राण-चालन में बंधे हुए हैं। प्राणक्रियाको "अजपाजपको" न करके क्षणमात्रभी कोई रह नहीं सकता। निद्रा तथा सुषुप्तिमें भी इस क्रिया का निरोध नहीं होता, अथवा नहीं करूंगा कह करके इस क्रियासे कोई अलग रह नहीं सकता। क्योंकि सत्त्व रजः तथा तमः इन तीन गुणोंके फांसमें पड़ करके सबहीको अवश हो कर कर्म 'करना पड़ता है। सत्त्वगुणमें सुषुम्नाके भीतर श्वास चलता है; और रजस्तमो गुणमें इड़ा तथा पिंगलामें चलता है। जबतक तीन गुणोंका कार्य होवेगा, तबतक इस प्रकार श्वास भी चलता फिरता रहेगा। ब्रह्ममन्त्र सम्पूट करके गुरूपदेश-मतासे प्राणक्रिया करके इन गुणत्रयका अतीत न होने से, कर्मत्याग नहीं होता; सुतरी प्रकृत संन्यास भी नहीं होता ॥५॥
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य प्रास्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान् विमूढ़ात्मा मिथ्याचार स उच्यते ॥ ६॥ अन्वयः। यः कम्र्मेन्द्रियाणि संयम्य मनसा इन्द्रियार्थान् स्मरन् भास्ते, सः विभूढात्मा मिथ्याचारः उच्यते ॥ ६ ॥ ___ अनुवाद। जो कर्मेन्द्रिय समूहको संयत करके मन ही मनमें विषयका स्मरण करते रहते हैं, सो मूढात्मा तथा कपटाचारी कह करके अभिहित होते है ॥६॥
ब्याख्या । कर्मा द्वारा कर्मभूमि अतिक्रम न करके जो त्यागी साज लेते हैं, कर्मेन्द्रिय संयत करने से भी वह प्राकृतिक गुण में आबद्ध रहते हैं इसलिये उनको विषयमें मन देनाही पड़ता है, तब केवल अपना त्यागीत्व, लोक जगतको देखलानेके लिये कर्मेन्द्रियों को कार्यसे विरत कर रखते हैं। इस प्रकार इन्द्रियजयका ढंगमें लोकानन्द बिना