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द्वितीय अध्याय
उसी मातृशक्तिके बलसे मायिक भाव परित्याग कर ब्रह्म भाव लेने में शक्तिमान हो। इसलिये कहता हूँ कि, इस प्रकार क्लीवताका आश्रय न करना। क्लव्य कहते हैं क्लीवके भावको। क्लीव (हिजड़ा) जैसे संसारमें स्त्री-पुरुषत्व-विहीन हो करके केवल मात्र संसार-क्लेश ही भोगती रहती है, वैसे ही साधन-मार्गमें आकर जो मायाकी खिंचाईमें पड़कर पौरुषविहीन होता है, ऊँचेमें भी आसक्ता नहीं, तथा आशा बलवती रहती है, इसलिये इच्छा करके नीचेमें भी नहीं आ सकता ; केवल मात्र साधन-कुश ही उनको सार होता है। तुम परन्तप (पराया-शक्तिको जो तापित करता है अर्थात् प्रकृति-वशी-शक्तिसम्पन्न) अर्थात् सूक्ष्म प्राणायामसे प्राकृतिक चंचलताको नष्टकर योगारूढ़ होनेमें समर्थ हो; अतएव तुममें इस प्रकार क्लोवत्व (पौरुषहीनता) शोभा नहीं पाती। हृदयकी यह तुच्छ दुबलता त्यागकर (उत् ) ऊर्द्ध में (तिष्ठ ) स्थित हो जाओ। "द" "य" "प" "" ये चार स्थितिके स्थानके भीतर साधन-समयमें "प" स्थानमें स्थिर रह करके शाम्भवी-मुद्रासे कूट भेद करना पड़ता है। यह "प" आज्ञाके नीचे विशुद्धके ऊपरमें स्कन्ध और मस्तकके सन्धिस्थलमें अवस्थित है; पंचतत्वोंके ऊपर है इसलिये उत् ( ऊर्द्ध)। जिह्वाको उलट, कर दाढ़ी खींचकर बाहर वाले कण्ठ-कूपमें लगाकर छातोमें जोर देकर बैठके, मेरुदण्ड (पीठकी रीढ़) स्कन्ध और मस्तकको समान और सीधा करनेसे नस समूहके खिंचावसे, मस्तक-ग्रन्थि "प" और आज्ञाचक्र ये दोनों केन्द्र ही समसूत्र होते हैं। वह समसूत्र अवस्था ही कपिध्वजअवस्था है ( १ म अः२० श्लोकका व्याख्या देखो)। मायिक विषय मनमें आनेसे ही ग्रन्थि शिथिल होकर दोनों केन्द्र फिर उस समसूत्रमें रहता नहीं, "प" थोड़ी नीचे और आज्ञाचक्र ऊंचेमें श्रा जाता है। इसी अवस्थाको रथोपस्थमें बैठना कहते हैं। संसार बीज नष्ट करना हो तो कारताको परित्याग करके उस प्रकार "प" और आज्ञा