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श्रीमद्भगवद्गीता चक्रको समसूत्रमें रखना पड़ता है, तब शाम्भवी-प्रयोग करनेसे ही कूट भेद हो जानेसे, अति सूक्ष्म प्राणाघातसे ही बीज भेद हो जाता है फिर अंकुरित नहीं होता अर्थात् श्वासकी ठोकरसे मन मर जानेसे चैतन्य-समाधि लाभ होती है ॥३॥
अर्जुन उवाच। कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणञ्च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजाविरिसूदन ॥४॥ अन्वयः। हे अरिसूदन ! हे मधुसूदन ! अहं पूजाहौं भीष्मं द्रोणं च प्रति संख्ये ( युद्ध ) इषुभिः कथं योत्स्यामि ॥ ४॥
अनुवाद। हे शत्रदमनकारी मधुसूदन ! इन ( पूजाई ) पूजाके योग्य भीष्म तथा द्रोणके साथ युद्धमें वाण द्वारा किस प्रकार युद्ध करूंगा ? ॥ ४ ॥
व्याख्या। जीवके शरीरमें दो शक्ति निरन्तर क्रिया करती रहती हैं। एक "नर" दूसरी "नारायण"। नर मूलाधारमें रहकर चतन्यसत्त्वाको वैषयिक अज्ञानज तमःमें मिला देनेके लिये, और नारायण सहस्रारमें रहकर उसी चैतन्य-सत्त्वाको अवैषयिक ज्ञानज तमःमें ला करके पालन करनेकी चेष्टा करते हैं। इस चेष्टाका फलही, अर्थात् उन दो शक्तिका समवाय-जनित बल ही जीव-भाव वा जीवत्व है। चैतन्य-सत्त्वा अर्थात् मन जैसे उन दोनों शक्तिकी खिंचाईमें पड़ा है, वैसे प्राण भी पड़ा है, एक दफे भीतर, एक दफे बाहर जोलाहेके कपड़ा बिनने (बुनने ) वाली डरकी तरह चल रहा है। मन-सूक्ष्म
और स्वाधीन है, प्राण-स्थूल और अधीन है मन-जीवत्व, प्राणजीवन है; केवल यही प्रभेद है। उस नर-नारायणको माया-ब्रह्म वा मायिकशक्ति-ब्राह्मीशक्ति भी कहा जाता है। माया त्याग करके ब्रह्ममें जानेकी चेष्टा करनेसे ही; माया ततक्षणात् खींचती रहती है। मन तब प्राणका आवागमन रूप (दोलना) सरिस, माया-ब्रह्मके ठीक