________________ 410 श्रीमद्भगवद्गीता निश्वास और प्रश्वास योनिमें प्रकाशमान रहता है अर्थात् अन्तःकरण कामान्ध हो करके भोगवासनाके सेवक होता है, वही ) यह तीनों शीर्ण हो जाकर "मेरी” परमगति जो "मैं", वही होवेंगे // 32 // किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा। ... अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् // 33 // अन्वयः। पुण्याः ( सुकृतिनः) ब्राह्मणाः तथा भक्ताः राजर्षयः ( परां गतिं यान्तीति ) कि पुनः (वक्तव्यं )? .( अतः त्वं ) इमं अनित्य (क्षणभंगुरं ) असुखं ( सुखजितं ) लोकं प्राप्य मां भजस्व // 33 // अनुवाद। पुण्यवान ब्राह्मणगण और भक्त राजर्षिगण परमागतिको जो प्राप्त होवैगे, उसमें और बात क्या ! अतएव तुम इस अनित्य असुखकर लोक प्राप्त होकर मुझको स्मरण किया करो // 33 // . व्याख्या। जो पुरुष ब्रह्मको जानते हैं, अर्थात् सर्वदा ब्रह्मसंस्पर्शानन्द सुख अनुभव करके देहात्मबुद्धि जिसकी नष्ट हो गई है, वही महात्मा ब्राह्मण है। और जो पुरुष विषय-भोग करते हैं, (लोकचक्षुमें विषयके कीट सदृश देखा जाता है) परन्तु विषय-भोगका प्रत्येक फल जिसके चक्षुके सामने धरा हुआ है जो अपरोक्षदर्शी है, जिसको विषयभोग-मोहमें आत्मज्ञानसे विचलित कर नहीं सकता, वह पुरुष राजर्षि हैं। वे लोग पुण्यवान हैं अर्थात् मलमूत्रमय देहमें इन सबकी आत्मबुद्धि नहीं है; और वे लोग भक्त हैं अर्थात् किसी प्रकारसे विच्युत होकर इन सबके भीतर कोई भी आत्महारा नहीं होते। वे लोग जो इस असुखमय अनित्य जगत्को प्राप्त हो करके भी उस ऊपरवाले “मैं” का भजन करते हैं, इसमें और बात क्या है ! साधक ! अब तुम देखो, तुम आज्ञाचक्रमें उठ आकर निम्नदृष्टिसे विषयकी अनित्य सुखकर क्रियाको जो प्रत्यक्ष करते हो, पुनः ऊर्ध्वदृष्टिसे आत्मतत्वको भी जानते हो, सबही तुम्हारा प्रत्यक्ष होता है,