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श्रीमद्भगवद्गीता अर्थात् चौबीस तत्वसे पृथक् , तवातीत निरन्जन पुरुष जो 'मैं उसी 'मैं' के ( मेरे ) स्वरूप अवगत होते हैं, उनमें मिलकर-'सदसत् तत्परं यत्' वही होते हैं। किन्तु गुरुपदमें-वासुदेवमें श्रात्मसमर्पण करनेसे, भक्त होनेसे, मायाकी मोहिनी-शक्ति प्रापही आप लोप हो जाती है,-माया अतिक्रम भी हो जाता है। अर्जुनरूपी साधक अाज भक्त तथा सखा हुये हैं ( "भक्तोऽसि मे सखा चेत्ति" ), कर्म अतिक्रम करके उपासनामें प्रवृत्त हुए हैं;-इसलिये श्रीगुरुदेव कूटस्थ चैतन्यरूपसे उनके समीप सन्मुखमें उनका चालक ( सारथी) होकर के. उपस्थित हुए हैं, शिष्यके सफल संशय दूर करते हैं,- स्वयं अपने मायाको हटाय देते हैं, मायिक आवरणसे और साधकको गतिरोध करने नहीं देते; उनके अन्तःकरणमें शक्ति संचार करके ज्ञान और विज्ञानको एकही साथ प्रकाश कराय (खिलाय ) देते हैं। अहो! धन्य वही, जिनको यह अवस्था मिली है, उन्हींका जीवन सार्थक है ॥३॥
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥४॥ अन्ववः। भूमिः ( पृथिवीतन्मात्रं ) आपः (रसतन्मात्र) अनल: ( तेजस्तन्यानं ) वायुः ( स्पर्श तन्मात्रं.) ख ( आकाशतन्मात्रं ) मनः (मनसः कारणमहंकार ) वुद्धिः (तत्कारणं महत्तत्त्वं ) अहंकारः ( तत्कारणं अविद्यासंयुक्तमव्यक्त) इति एव च मे प्रकृतिः ( ममैश्वरी मायाशक्तिः ) अष्टधा भिन्ना ( भेदसमागता )॥४॥
अनुवाद। पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहङ्कार, इस इस रूपसे हमारी प्रकृति इन अष्टभागमें विभक्ता है ॥४॥
- व्याख्या। अव्यक्त वा मूलप्रकृति - पञ्च महाभूत, पञ्च तन्मात्रा, दश इन्द्रियां, और चार अन्तःकरण-इन चौबीस तत्व करके विभक्ता *। अव्यक्तसे ही इन चौबीसके उत्पत्ति होनेके
• १३श अध्याय षष्ठ श्लोक देखो।