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सप्तम अध्याय उपासनामें प्रवृत्त हैं; इसलिये जाननेको जो कुछ है, सब श्रीमुखके उपदेशसे उनको मालूम हो जाता है, कुछ बाकी नहीं रहता ॥२॥
मनुष्याणां सहस्रषु कश्चिद् यतति सिद्धये। यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः॥३॥
अन्वयः। मनुष्याणां सहस्रषु ( असख्याना मनुष्याणां मध्ये ) कश्चित् सिद्ध ये यतति (सिद्धयर्थ प्रयत्नं करोति ); यतता अपि (प्रयत्नं कुर्वतामपि ) सिद्धानां ( मध्ये ) कश्चित् मां ( परमात्मानं ) तत्त्वतः ( स्वरूपतः ) वेत्ति ( जानाति ) ॥३॥
अनुवाद। हजारों मनुष्योंके भीतर कदापि कोई एक भाग्यवान सिद्धिके लिये प्रयत्न करते हैं ;-फिर सिद्धगण प्रयत्नशील होनेसे भी, उन सबके भीतर हो तो कोई एक महापुरुष यथार्थ रूपसे मुझको जान सकते हैं ॥३॥
व्याख्या। ज्ञान अति दुर्लभ पदार्थ है, भक्ति बिना मिलता ही नहीं। मनुष्य बिना दूसरा कोई जीव ज्ञान तो पाता ही नहीं। मनुष्यके भीतर भी बहुत कम, हो तो हजारके भीतर सिद्धि पानेके लिये कोई एकजना चेष्टा करता है, अर्थात् ज्ञान लाम करनेके लिये प्राणायाम द्वारा प्राणको जय करनेमें यतनशील होता है। प्राणायाम अभ्यास द्वारा ब्रह्मानाडीको अवलम्बन करके आज्ञामें स्थिर होना ही सिद्धि है। यह सिद्धि ही कर्मकाण्डका शेष है। कर्ममें सिद्धिलाभ करते मात्र तत्क्षणात् ज्ञानलाभ नहीं होता, उपासना चाहिये। सिद्ध होकरके उपासनामें यत्नशील न होनेसे मायाकी विपाकमें तो पड़ना ही होवेगा; परन्तु यत्नशील होनेसेही जो ज्ञानलाभ अर्थात् परमात्मतत्त्व वा विष्णुपद प्राप्त होता है, सो भी नहीं होता, क्योंकि चित्तलय न होने पय॑न्त मायादेवी मोहजाल विस्तार करके साधकको मोहित करनेके लिये चेष्टा करती रहती है। उस मोहिनीशनिको अतिकम करनेकी उपयुक्त तीव्र वैराग्य-वेग न रहनेसे ही पतन होता है। अतएव बहुत कम मनुष्य ही आत्माको “तत्त्वतः" जान सकते,