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सप्तम अध्याय
३१३ सबब अव्यक्तको पृथक् तत्त्व गिना नहीं जाता; कोई कोई धरभी लेते हैं। ऐसा होनेसे अव्यक्त पच्चीस क्या पुरुष छव्योसे, नहीं तो पुरुषही पच्चीस । प्रकृतिको इन चौबीस तत्त्वमें विभाग करनेसेभी, यथार्थतः यह पाठ भागमेंही विभक्ता। विकार-क्रियाके द्वारा उसी आठसे और षोड़श तत्स्वके उत्पत्ति होनेसेही चौबीस तत्त्व होता है। इस श्लोकमें प्रकृतिकी अविकृतआठ अंशके बात ही कहा हुआ है। वह आठ भाग यह है(१) भूमि-पृथ्वीतत्त्व, इसका स्थान मूलाधार; (२) आप-रसतत्त्व, इसका स्थान स्वाधिष्ठान; (३) अनल-तेजस्तत्त्व, इसका स्थान मणिपुर, (४) वायु-वायुतत्व, इसका स्थान अनाहत; (५) खं-आकाशतत्त्व, इसका स्थान विशुद्ध; (६) मन-यह एकादश इन्द्रिय, दश इन्द्रियों के नेता; इसलिये मन शब्दसे मनका कारण अहङ्कार एवं दश इन्द्रियोंकोभी समझाता है; मनके देवता चन्द्रमा और इसका स्थान प्राज्ञामें कूटस्थ के भीतर दिशामें जहां चन्द्रमण्डलका विकाश * ; (७) बुद्धिः -- बुद्धि शब्दसे बुद्धिकी कारण महत्तत्वको भी समझाता है; इसका देवता ब्रह्मा और स्थान आज्ञामें कूटस्थके बाहर दिशामें, जिस दिशामें विवस्वान्का विकाश * ; (८) अहकार;-अहंकार शब्दद्वारा अविद्यासंयुक्त अव्यक्तको भी समझाता है; कारण कि, अहंकार ही सृष्टि वृद्धिका कारण; है इसलिये मूलकारण अव्यक्तको भी इस अहंकारके अन्तर्गत किया हुआ है। इसका स्थान प्राज्ञाके ऊपर “दशाङ्गुल" और सहस्रार ।
साधक अब उपासनामें प्रवृत्त, कूटस्थ-चैतन्यके समीपमें स्थित हैं; सबही उनका प्रत्यक्ष होता है, किञ्चित् मात्र भी और दूरमें नहीं, सबही निकटमें है। इस कारण भगवान् लक्ष्य करायके देखाते हैं "इयं मे प्रकृतिरष्टधा भिन्ना"-"यह हमारा प्रकृति आठ भागमें विभक्त" है ॥ ४॥ .
_* चतुर्थ चित्र देखो।