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________________ अवतरणिका नहीं है। इस प्रकार उक्तिका उत्तर देना साधारणतः कुछ कठिन मालूम होता है, परन्तु जो लोग हिन्दु शास्त्रको मानते हैं उनके लिये कुछ कठिन नहीं है। शास्त्रमें है और श्रीमत् शंकराचार्यदेव भी अपनी गीताभाष्य की उपक्रमणिकामें कहा है कि, भगवान भूभार हरण और धर्म राज्यका संस्थापन करनेके लिये ही ( जैसे युग युगमें अवतीर्ण होते हैं, वैसे ) उस समय में भी "अंश" के साथ अवतीर्ण हुये थे। उनका अंश क्या है ? वह विश्वरूपी है; इस जगत्में जितने प्रकार चरित्र होना सम्भव है, वह समस्त ही उनका अंश है। विशेषतः जगत्में प्रकृतिको क्रीड़ामें काल वशसे ("महता कालेन" ) पराम्परा प्राप्त ज्ञान धर्म नष्ट हो जानेसे, उस ज्ञान धर्मको उज्ज्वल और स्थायी रूपसे बाह्य जगन्में पुनः प्रकाश करनेके लिये जिस जिस प्रकृति और चरित्रका प्रयोजन होता है, उन्होंने ( भगवानने ) आत्म विभूतिविस्तार करके उस उस प्रकृति और चरित्रको ही स्थूल रूपसे सृजन करके खुद अपने भी लौलाका उपयोगी शरीर धारण किया था। यह कहना अधिक है कि, उस समय जिन सब प्रकृति और चरित्रकी उन्होंने स्थूलरूपसे बाह्य जगत्में प्रकाश किया था, सो सब अन्तर्जगत् में मानव हृदयमें चिरन्तन वृत्तिरूपसे वर्तमान है। अन्तर्जगत् की अनुरूप क्रिया बाह्यगजत्में प्रकाश करके धर्मसंस्थापन करनेके अमिप्रायसे ही वह आविर्भूत हुये थे। इसलिये गीताको कवि-कल्पित रूपक कहा नहीं जा सकता। गीता स्वयं पद्मनाभिके मुखपद्मसे निकला है। जिस ज्ञानसे त्रिलोक पालित होता है, गीता उसी ज्ञान का समष्टि है ( "गीता ज्ञानं समाश्रित्य त्रिलोकी पालयाम्यह" )। इसलिये यहां भी कोई असंगति भाव लक्ष्य नहीं होता, और भी, गीता-उपदेशका देश-काल-पात्र (४र्थ अ. ३ श्लोक ) विचार करनेसे -स्पष्ट प्रतीयमान होता है कि, भगवानने अपने भक्त और सखा अर्जुन को कुरुक्षेत्र समर-प्रांगणमें उभयपक्षके मध्यस्थानमें गीताका उपदेश
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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