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षष्ठ अध्याय
३०७. समदृष्टि आती है, चिच भी अनजान भावसे वासुदेवमें अर्पित हो जाता है; इसलिये तब, ( वृत्तिविस्मरण अवस्थामें गुरु दुःखसे भी विचलित न होनेके सदृश ) विषय-संस्पर्शमें आनेसे भी, चित्तमें उसकी लकीर न पड़नेसे, आत्मतत्त्वसे विचलित होना नहीं होता। इस कारण योगी-तपस्वी, ज्ञानी और कर्मी इन तीनोंसे ही श्रेष्ठ हैं। बाहर जैसे, जो चान्द्रायणादि व्रत तपस्या करते हैं-वह तपस्वी हैं, जो शास्त्र विज्ञानविद् वह ज्ञानी है, और जो अग्निहोत्रादि कर्म करते हैं, वह कमी है; वैसे योगमार्गमें साधक जब प्राणमें मन देकरके षट्चक्रमें प्राणचालन द्वारा प्राणायाम करते हैं, तब वह कम्मी है, जब तपोलोक आज्ञामें ( 'भ्र वोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् ) प्राण स्थिर करते हैं, तब वह तपस्वी हैं; और जब वह पुरुष मनमें मन देकरके आत्मतत्त्व जानते रहते हैं तब ज्ञानी हैं। इन सब अवस्थाओंमें ही मन एकदेशवर्ती अर्थात् निर्दिष्ट एकमात्र तत्त्वका अवलम्बन करके रहता है; किन्तु अब अनासक्त होनेसे “यत्र यत्र मनोयातिं तत्रैव ब्रह्म लक्ष्यते' यह अवस्था आती है, तब मन कोई एक निर्दिष्ट तत्त्वको अवलम्बन नहीं करता, ब्रह्माकारावृत्ति लेकरके विश्वव्यापी होता है,योगी हुवा जाता है। अतएव इस प्रकारको अवस्था. सबसे श्रेष्ठ है। यही जीवन्मुक्त --साधनासे अतीत-विधि निषेध वर्जित अवस्था है। इसीलिये श्री भगवान्ने "तस्मात् योगी भवार्जुन" कह करके योगी होनेका अर्थात् अनासक्त हो करके कार्य कर्म करनेका उपदेश दिया है। पहले भी कहा है, "असक्तोह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥४६॥
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥ अन्वयः। यह श्रद्धावान् ( सन् ) मद्गतेन ( मयि सात्मनि वासुदेवे समा