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________________ तृतीय अध्याय शारीरिक यन्त्र का प्राकृतिक मुणके सहारेसे ही होता है, आत्मा नहीं करता। परन्तु आत्माके अस्तित्व हेतु ही ये ब कार्यकरी होती है। और भी शरीरमें जब जिस गुणकी अधिकता होती है, इन्द्रिय सब भी उसी गुणके वश हो कर के क्रिया करती हैं; उस समय किसी प्रकारसे दूसरे गुणकी क्रिया की नहीं जाती। साधक असाधक सब कोई जानते हैं, कि मनमें यदि कोई शोक दुःख उपस्थित हो, तो उस समय कोई काम काज तथा कर्त्तव्याकर्त्तव्याका निष्पत्ति नहीं होता; शरीर मन अवश अभिभूत हो जाता है। जिस समय उत्साहके साथ शौर्य वीर्य्य अवलम्बित होता है, तब शोक दुःखके बात वा कारण तथा कत्तव्याकर्त्तव्य-विचार मनमें जगह नहीं पाता,-युद्ध कालमें योद्धाकी अवस्था ठीक इसी प्रकारकी है। फिर जब सत्चिन्तामें मन निविष्ट होता है, तब पार्थिव शोक, दुःख, माया, ममता, उन्नतिकी आशा तथा चेष्टा प्रभृति अति हेय करके ज्ञान होता है। असल बात यह है कि, जब तक कोई एक भाव करके मन अभिभूत रहता है, तब तक स्वतः चेष्टा करके भी उसको दूसरी ओर फिराया नहीं जाता। फिर देखा जाता है कि, मनके इच्छाके आपूरण करना, कितने समय शरीर के सामर्थ्य चेष्टामें भी अटता नहीं, और किये हुये कामसे मन माफिक फल भी नहीं मिलता। ये सब देखके अच्छी तरह समझमें आता है कि, क्रिया-थिषयमें प्रकृतिका ही प्राधान्य है, 'मैं' का प्राधान्य नहीं है। तिसपर भी अहंकारकी इतनी शक्ति है कि, "मैं कर्ता" इस प्रकार भाव मनमें पापही आप उठ आता है ॥२७॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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